Monday, July 8, 2019

आशीषें ही जो देते हैं



'मातृ देवो भव', 'पितृ देवो भव', 'गुरू देवो भव' और 'अतिथि देवो भव' का अतुलित संदेश वेदों में दिया गया है. गुरू में दिव्यता का अनुभव हम कर सकते हैं, क्योंकि वह ईश्वर का प्रतिनिधित्व करता है, अतिथि में भी हम दिव्यता की धारणा कर सकते हैं, किंतु जिसने माँ और पिता में दिव्यता के दर्शन कर लिए उसके जीवन में सहजता अपने आप आ जाती है. शिशु जब छोटा होता है वह पूरी तरह से माँ-पिता पर व परिवार पर निर्भर होता है, जैसा वातावरण और शिक्षा उसे मिलती है, उसके मन पर वैसी ही छाप पड़ने लगती है, पूर्व के संस्कार भी समुचित वातावरण पाकर ही विकसित होते हैं. इसमें माता-पिता की बड़ी भूमिका है. जो पीढ़ी अपने बुजुर्गों का सम्मान करना भूल जाती है, वह अपने भविष्य के लिए अंधकार का निर्माण ही कर रही है. आयु में अथवा पद में चाहे कोई कितना भी बड़ा हो जाये, जब तक सिर पर कोई स्नेह भरा हाथ हो, तब तक एक रसधार भीतर बहती है. निस्वार्थ प्रेम का जो वरदान माँ-पिता से मिलता है, उसका कोई विकल्प नहीं है.   


2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (10-07-2019) को "नदी-गधेरे-गाड़" (चर्चा अंक- 3392) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बहुत बहुत आभार !

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