Monday, February 18, 2013

यह जग सुंदर हो जाये


अप्रैल २००४ 
अस्तित्त्व ने हमें जीवन का अमूल्य उपहार दिया है, यह सुंदर प्रकृति उसी की अध्यक्षता में काम करती है, बदले में हम प्रभु को क्या दे सकते हैं? इतना ही की उसके इस सुंदर विश्व को कुरूप न बनाएँ, बल्कि और सुंदर बनाएँ, अपने आसपास सौंदर्य बिखराएँ, मन का सौंदर्य भी और भौतिक सौंदर्य भी, सभी अन्ततः भीतर से ही उपजता है, इस जगत में सभी कुछ उस परम के प्रकाश से ही उपजा है. वह हर पल हमारी खबर रखता है, हमें उसकी खबर नहीं रहती जब मन संसार में उलझा होता है. चित्त जब खाली होता है, तभी उसको जानने की प्यास भीतर जगती है. चित्त की शुद्धि के लिए साधना की तत्परता भी चाहिए और समर्पण भी. सृजन की क्षमता का विकास होता है जब मन एकाग्र हो, बिखरा हुआ मन स्वयं भी अतृप्त रहता है और दूसरों को भी अतृप्त बनाता है. मन जब उस विराट के चरणों में झुका होता है तो उसके कुछ गुण तो इसके भीतर आएंगे ही और वह प्रभु तो मानो इसी की प्रतीक्षा कर रहा है, वह हमारी और प्रेम भरी नजरों से निहार रहा है, उसको जानने का छोटा सा प्रयास भी विफल नहीं जाता.

11 comments:

  1. आज आपने बहुत सुंदर बात लिखी है अनीता जी ...मन खुश हो गया ....!!
    बहुत ही सुंदर |आभार ॰

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    1. इमरान, स्वागत है..

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  3. यह जग सुन्दर हो जाए ....बांचे तो जरा डायरी के पन्ने ....

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    1. वीरू भाई, अच्छा लगा आपका कमेन्ट..

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  4. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि कि चर्चा कल मंगल वार 19/2/13 को राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी आपका हार्दिक स्वागत है

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    1. राजेश जी, डायरी के पन्नों को चर्चा मंच तक पहुँचाने के लिए आभार !

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  5. चित्त की शुद्धि के लिए साधना की तत्परता भी चाहिए और समर्पण भी
    एक सत्य

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    1. रमाकांत जी, स्वागत व आभार !

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