Thursday, January 30, 2014

कौन पुकारे पल-पल हमको

जुलाई २००५ 
काल से प्रेरित होकर हम अपने जीवन को किसी न किसी दिशा में ले जाते हैं, ईश्वर चाहते हैं, हम शीघ्र अति शीघ्र उसके पास पहुंचें, वह तरह-तरह से हमें प्रेरित करते हैं, जगाने का प्रयत्न करते हैं. जब हम अपनी इच्छा से उसकी ओर चलना आरम्भ करते हैं तो सुख-दुःख के चक्र से बाहर निकल जाते हैं, द्रष्टा मात्र रहकर हम जीवन को गति देते हैं. तब न कुछ होने का भाव सताता है न कुछ पाने का, जीवन में अभय का गुण आता है. मन की समता बनी रहकर, मन शांत रहता है. शांति से ही कर्त्तव्य कर्म करने की योग्यता पनपती है, उद्ग्विन मन व्यर्थ ही अपनी ऊर्जा को गंवाता है. ऊर्जा यदि भीतर रहे तो मन प्रसन्न रहता है. वास्तव में ईश्वर की निकटता, सत्य की निकटता, सद्गुरु का सान्निध्य, आत्मा की निकटता सभी हमारे लिए परम लक्ष्य हैं, जीवन का एक क्षण भी यदि इनके बिना बीतता है तो इनकी लालसा में ही बीतता है. हमारे जाने या अनजाने उसी की तलाश चलती रहती है. 

Wednesday, January 29, 2014

प्रेम ही पूजा प्रेम ही अर्चन

जुलाई २००५ 
ध्यान प्रार्थना की पराकाष्ठा है, जिस प्रभु को हम अपने से दूर मानकर उसकी पूजा करते हैं, ध्यान में वही हमारे भीतर उतर आता है. ऐसे तो वह सदा से वहीं है पर हमें इसका ज्ञान नहीं है. ध्यान में उससे थोड़ी सी भी दूरी नहीं रह जाती. उसके और हमारे बीच की दूरी केवल मन द्वारा मानी हुई है. मन में संकल्प-विकल्प न रहें तो जो बचता है वह वही है. वह सागर है तो हम उसकी लहरें. वह है तो हम हैं, वही हम हुए हैं इसकी अनुभूति जब भीतर जगती है तो प्रेम जगता है. शुद्ध प्रेम जब उतरता है तो उसका कोई लक्ष्य नहीं होता वह सभी के लिए होता है बिना किसी भेदभाव के. चेतन-अचेतन सभी प्राणियों, वस्तुओं के लिए. इस सृष्टि में सब कुछ प्रेम से ही उपजा है, जो भी विकृति यहाँ दिखाई देती है , वह प्रेम में आई विकृति है. हमें पुनः शुद्ध प्रेम को जगाना है, जो स्वयं में इतना परिपूर्ण है कि उसकी सारी शर्तें खो जाती हैं. पूर्ण में यदि कुछ जुड़े तो भी पूर्ण ही रहेगा और कुछ घटे तब भी, परमात्मा ऐसा ही पूर्ण प्रेम है. 

Tuesday, January 28, 2014

सृष्टि चक्र है जाने कब से

जुलाई २००५ 
प्रत्यक्ष ज्ञान ही प्रज्ञा है और ऐसी समाधि जो प्रज्ञा की ओर ले जाये वही सम्यक समाधि है. कभी-कभी ध्यान में हमें ऐसे अनुभव होते हैं, जिनका वर्तमान जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं  होता, सम्भवतः वे हमारे पूर्व जीवन से सम्बन्धित होते हैं, तब ज्ञान होता है कि इस शरीर से कैसा मोह, न जाने कितने शरीर हम धारण कर चुके हैं, हर बार वही कहानी दोहराई जाती रही है, बस अब और नहीं, अब और इस झूले में नहीं बैठना जिसका एक सिरा ऊपर जन्म फिर नीचे मृत्यु की ओर ले जाता है. अब स्वयं को जानकर उसमें स्थित होना है, संतजन कहते हैं, पलक झपकने में देर लग सकती है पर अपने स्वरूप में स्थित होने में उतनी भी देर नहीं लगती. साधना के द्वारा हम अपने स्वरूप की झलक तो पा ही लेते हैं, पर यह स्थिति सदा बनी नहीं रहती, क्योंकि जब तक अहंकार शेष है पर्दा बना ही रहेगा. 

Thursday, January 23, 2014

दिल से जब उठती है प्रार्थना

जून २००५ 
न्त जन कहते हैं, शरीर कुछ कहे, मन कुछ कहे तो मन की मानें,  मन कुछ कहे, बुद्धि कुछ कहे तो बुद्धि की मानें. लोग कुछ कहें और हृदय कुछ कहे तो हृदय की मानें. यदि जीवन में कोई समस्या आ जाये तो ईश्वर से पुकार करें प्रार्थना करें, एक बार नहीं बार-बार प्रार्थना करें. पुकार करते-करते एक बार फिर शांत हो जाएँ और अपने आप ही वह प्रार्थना उस तक पहुंच जाती है. वह हमारी बात को कब तक अनसुना कर सकता है. एहिक अथवा पारमार्थिक सामर्थ्य या सफलता पाने के लिए ईश्वर का स्मरण, चिन्तन तथा स्वयं को उसके आश्रित जानकर छोड़ देना ही प्रार्थना है. हमारा सूक्ष्म शरीर मृत्यु के बाद भी रहता है, प्रार्थना पूर्ण हृदय को मृत्यु के क्षण में अनोखी शांति का अनुभव होता है. प्रार्थना करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, वही हमारा मार्ग दर्शक है, उसकी शरण में जाना ही भक्त का प्रिय कार्य है. 

Wednesday, January 22, 2014

मुदिता की हम करें साधना

जून २००५ 
हमारे चित्त की जैसी चेतना है, कर्म का फल उसी के अनुसार मिलता है. शरीर के कर्म का फल नहीं मिलता. कर्म के पीछे की भावना ही प्रमुख है, पहले मन में ही कर्म उत्पन्न होता है. निर्मल चित्त से किया गया कर्म सुख का कारण बनेगा. सत्कर्म करते हुए मन मुदित होता है, यदि मुदिता का स्वभाव बनता जाये तो फल भी मोद के रूप में प्राप्त होगा. चित्त शुद्ध करने का कर्म भी एक बीज है जो वक्त आने पर सुख का ही फल देगा. हमारी गति हमारे ही हाथ में है, अवनति में दुर्गति तथा उन्नति में सद्गति है. 

Tuesday, January 21, 2014

खुदी को कर बुलंद इतना

जून २००५ 
जो जिस भी वस्तु का हकदार होता है, उस वह मिल ही जाती है, किन्तु जो आत्मनिर्भर है वह जीवन में सफलता अवश्य पाता है. दुनिया जिसे सफलता कहती है वैसी सफलता न भी पाए पर जो खुद की तलाश में लगा है वही सही अर्थों में सफलता की राह पर है. इन्सान का जीवन खुदा ने इसीलिए बनाया है कि वह खुद को ढूँढे, खुदी के पीछे ही खुदा है, जो खुद से मिल गया वह खुदा को भी पा ही लेता है. जगत में साधारणतया माँ-पिता बच्चों से जो प्रेम करते हैं वह मोह ही कहा जायेगा, वे उन्हें किसी तकलीफ में नहीं देखना चाहते, इसलिए बचपन से ही आत्मनिर्भर होने का पाठ नहीं पढ़ाते, लेकिन तकलीफ पाए बिना कोई नेमत भी नहीं मिलती है. 

Monday, January 20, 2014

स्वर्ग का राज्य हमारे भीतर है

स्वर्ग क्या है ? जहां जरा, मृत्यु, भूख-प्यास, शोक तथा मोह यह छह उर्मियाँ नहीं हैं. हमारा ‘मैं’ जब देह के साथ जुड़ा होता है तो बुढ़ापे और मौत का भय उसे सताता है, मन के साथ शोक तथा मोह और प्राण के साथ भूख-प्यास का अनुभव करता है. नींद में हमारा सम्पर्क देह, मन तथा प्राण से टूट जाता है, ‘मैं’ उसी आत्मा में समा जाता है जहाँ से वह आया था. नींद में ही विश्रांति पाकर हम पुनः जाग्रत अवस्था में देह आदि के साथ जुडकर सुख-दुःख का अनुभव करते हैं. हमारी साधना का लक्ष्य है इन तीनों से परे शुद्ध अवस्था में रहकर जीना सीखें, तब जीते जी स्वर्ग का अनुभव होगा. विज्ञानमय कोष में जाकर हमें बुद्धि को प्रज्ञा में बदलना होगा, तब हमारी पहचान आत्मा के द्वारा होगी मन के द्वारा नहीं. तब हमें केवल नींद में ही परम विश्रांति का अनुभव नहीं होगा बल्कि जाग्रत अवस्था में भी हम देह भाव से मुक्त रहेंगे. भूख-प्यास आदि पर हमारा नियन्त्रण होगा और सुख-दुःख से परे आनन्द के क्षणों के हम साक्षी रहेंगे. 

Wednesday, January 15, 2014

शरण में आये हैं हम तुम्हारी

जून २००५ 
निजी सुख की कामना का त्याग ही हमें ईश्वर के राज्य में ले जाता है. अपने स्वार्थ की सिद्धि चाहना ही दुःख का कारण है. दुःख हमें ईश्वर से दूर ले जाता है. दुखी होकर हम अपने को ही हानि ही पहुंचाते हैं, दुखी होना अज्ञानता का लक्षण है. ज्ञान का आश्रय लेते ही हम सुखी होने का गुर सीख लेते हैं. सभी दुखों से छूट जाना ही मुक्ति है, मोक्ष है, यही भगवद प्राप्ति है. इसे पाने के लिए हमारी योग्यता का कुछ भी महत्व नहीं है, अर्थात हम अपनी योग्यता के बल पर भगवद प्राप्ति नहीं कर सकते. हमें अहंकार का त्याग करके शरण में जाना होगा, अपने कुशल-क्षेम की जिम्मेदारी अस्तित्त्व पर छोड़ देनी होगी. कृष्ण ने स्वयं ही अपनी प्राप्ति का मार्ग बताया है-

सर्व धर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज  
अहम् त्वां सर्व पापेभ्य मोक्ष्यामि माशुचः


शरण में जाने का मार्ग सद्गुरु बताते हैं, जहाँ से वृत्ति उठती है, उसमें विश्रांति पाने का नाम ही शरणागति है. ध्यान, प्रार्थना अथवा जप में हम उस स्थान पर पहुंच जाते हैं जहाँ से सारे विचार उठते हैं, जो मन, बुद्धि का उद्गम है, जो समस्त कारणों का कारण है, वहीं जाकर आनन्द का अनुभव होता है.

Tuesday, January 14, 2014

वही पुकारे है सबको

हमारी देह एक किराये के मकान की तरह है, हम जितने दिन, महीने अथवा वर्ष इस मकान में रहते हैं, हमें इसका किराया देना पड़ता है, वह है इसका रख-रखाव, पोषण तथा रक्षा आदि. हम जब इस जगत में रहते हैं तो सुने हुए को अपने स्वार्थ के अनुसार ढाल लेते हैं, हम किसी बात को वह जिस रूप में कही गयी है उसी रूप में समझ लें तो हमारी देह जल्दी हमारा साथ नहीं छोड़ेगी, बीमार नहीं होगी. आराम, विश्राम तथा काम तीनो का संतुलन भी हमें बनाना होगा तभी यह देह रूपी मकान हमारे लिए सुरक्षित है, तब तक, जब तक हम इसमें रहकर अपने उद्देश्य को प्राप्त नहीं होते. हमारे जीवन का उद्देश्य स्वयं को जानना है, हमारे सारे पुरुषार्थ उसी की ओर ले जाने वाले हैं. सारे सन्त, शास्त्र उसी की ओर जाने का इशारा कर रहे हैं. निजी इन्द्रिय सुख का जीवन बहुत जी लिया उससे सिवाय दुःख तथा रोग के कुछ भी प्राप्त नहीं होता है, अब तो जीवन को एक उत्सव बनाना है, एक खेल ! जिसके हृदय में देह तथा आत्मा की भिन्नता स्पष्ट है वह सुरक्षित है, तृप्त है, पूर्ण है, आनन्द से भरा है तथा परमात्मा के साथ है. परमात्मा को तर्क से नहीं जाना जा सकता वह श्रद्धा की वस्तु है, अंतर श्रद्धावान हो तो देह बाधक नहीं बनती, देह भी तब शिवालय बन जाती है.

Saturday, January 11, 2014

पाना है उस एक को

जून २००५ 
हमारे अंतर्मन की गहराइयों में कितना कुछ छिपा है, एक संस्कार जगते ही उसके पीछे विचारों की एक श्रृंखला जग जाती है. ऊपर-ऊपर से हम कहते हैं कि हम देह नहीं है आत्मा हैं, पर भीतर जाकर पता चलता है, हमारा चिपकाव देह, मन, बुद्धि से कितना गहरा है. प्रतिक्रिया का अर्थ है हम मुक्त नहीं हुए, भीतर उस वक्त भी बोध रहे कि हम कैसी प्रतिक्रिया जगा रहे हैं, क्रोध करते समय यह भान रहे कि यह क्रोध है तो धीरे-धीरे हम उससे मुक्त हो जाते हैं. हमें सूक्ष्मता से अपना निरीक्षण करना होगा, तभी आत्मा का सूर्य हमारे भीतर जगमगा उठेगा, कितनी परतें है हमारे जीवन की, देह, प्राण, मन, बुद्धि, स्मृति, अहंकार. प्रकृति के इन रूपों में कब तक उलझते रहेंगे, वह नित्य नवीन है पर परिवर्तनशील है, आत्मा अबदल है, सदा एक सा है, वह ज्ञान, प्रेम तथा आनन्द का अनंत भंडार है, उसको ही हमें जानना है जिसे जानकर कबीर, मीरा, सुर, तुलसी, नानक, बुद्ध मुक्त हो गये, सद्गुरु भी हमें वहीं से पुकार रहे हैं.

Wednesday, January 8, 2014

वंशीधर घट घट का वासी

जून २००५ 
धैर्य खोकर हम हमारे छोटे से दुःख को भी बड़ा बना लेते हैं और धैर्य रखकर बड़े दुःख को तिलमात्र का ! हम लोगों के बारे में एकतरफा राय बना लेते हैं और उसी के अनुसार उनसे व्यवहार करते हैं, यही माया है, चीजें जैसी हैं वैसी ही दिखने लगें तभी समझना चाहिए कि माया से मुक्त हुए. हम स्वयं को कुछ ज्यादा ही महत्व देते हैं, यह दुनिया हमारे बिना भी बेहतर ढंग से चल रही थी और हमारे न होने पर भी चलती रहेगी. जब तक हमें अपना पता नहीं है तब तक जो कुछ भी हमारे साथ होता है वह हमारे लिए उस परमपिता परमेश्वर ने ही ही रच है, इस भावना से यदि हम भावित रहें तो कोई द्वंद्व नहीं होगा. मृत्यु से पहले हमें खुद को जानना है यह लक्ष्य याद रहे तो समय का सदुपयोग होगा. हमारा जीवन प्रभु की अनमोल देन  है उसी की धरोहर है यह भाव दृढ होते ही वह हमारे, प्राणों में अपनी बांसुरी के स्वर भर देता है. नयनों में अपना प्रकाश. उससे मिले कई युग बीत गये हों पर वह कभी दूर गया ही नहीं. 

Tuesday, January 7, 2014

तू ही सागर है तू ही किनारा


भगवद कथा हमें अपने स्वरूप में स्थित करने के लिए उपचार है. हमने जो अपने आप को बंधन में पड़ा हुआ मान लिया है, उससे छुड़ाने के लिए औषधि है. हरि ने अपने को अति सुलभ बना कर छिपा लिया है, उस हरि का परिचय कराने कथा आती है. हम जब पाठ करते हैं तो कई अर्थ छिपे रह जाते हैं, किसी सन्त द्वारा कही गयी कथा का श्रवण करने से भीतर जागृति होती है, अहं पिघल कर बह जाता है, सभी कुछ भीग जाता है, हृदय द्रवित हो जाता है. वह हरि प्रेमस्वरूप है, उसके प्रेम की आंच हमारे अंतर को गला देती है, किन्तु भीतर एक शीतलता का अहसास होता है. यदि ऐसा न हो तो हमारा सुनना व्यर्थ ही है. उसे हमारी हालत का पता है, वह हमारे मन की दशा से परिचित है, वह स्वयं तो मन, बुद्धि से परे है पर उससे कुछ छिपा नहीं है. वह अकर्ता भी है और कर्ता भी, वह सब कुछ है और कुछ भी नहीं. वह बुद्धि की समझ में आने वाला नहीं है, वह अद्भुत है लेकिन प्रेम की भाषा वह पढ़ लेता है. हम जिस क्षण उसके साथ होते हैं प्रेम का अनुभव करते हैं अथवा जिस क्षण प्रेम में होते हैं हम उसी के साथ होते हैं. वह ही एक मात्र जानने योग्य है, उसी को अनुभव करना है. सारी साधना का हेतु वही है, वह आनंद है, रस है, ज्ञान है, शांति है, प्रेम है और शक्ति भी वही है. इस सारे विश्व को उसने एक शक्ति से जोड़ा है, वही वह है. 

Monday, January 6, 2014

एक वही पाने योग्य है

जून २००५ 
शास्त्रों में लिखा है सूर्य नाड़ी चलती हो तब भोजन करें तो शीघ्र पचता है और पेय पदार्थ तब लें जब चन्द्र नाड़ी चलती हो. जगत का सार शरीर है, शरीर का सार इन्द्रियां हैं, इन्द्रियों का सार मन है, मन का सार प्राण है, प्राण का सार आत्मा है. सन्त जन सचेत करते हैं और व्यर्थ के कार्य-कलापों में अपनी ऊर्जा व्यर्थ करने से रोकते हैं, जो उस आत्मा की प्राप्ति में सहायक हो उसे ही करना है, अन्यथा जो सहज कर्त्तव्य रूप में सामने आता जाये. जब तक संसार से सुख पाने की वांछा बनी रहेगी, तब तक पूर्ण सत्य का पता नहीं चलेगा. कृष्ण ने कहा है जिस भाव से कोई मुझे भजता है मै उसी भाव से उससे मिलता हूँ. यदि समपर्ण पूर्ण नहीं है तो अनुभव भी पूर्ण नहीं होगा. 

Sunday, January 5, 2014

तेरा तुझको अर्पण

जून २००५ 
ईश्वर प्राप्ति के लिए हमारे मन में जब दृढ़ता नहीं रहती, तभी नियम में हम स्थिर नहीं हो पाते. मन में तड़प हो, छटपटाहट हो तभी उसका स्मरण सदा रहेगा. मोह-ममता मिटाने के लिए ईश्वर हमारे जीवन में कई परिस्थितयों का निर्माण करते हैं. हमें अपने मन की समता बनाये रखनी है, हर सुख-दुःख को समर्पित करना है. तीनों तापों से बचने का यही उपाय है. जो अपने भीतर संतुष्ट रहता है, उसकी समस्त कामनाओं का स्वतः ही परिमार्जन हो जाता है अर्थात अनावश्यक जीवन से झर जाता है. वह इस जीवन में फिर सहज हुआ प्रारब्ध के अनुसार अपना समय बिताता है. उसकी दौड़ समाप्त हो जाती है, कुछ करने व पाने की आशा उसे अब नचाती नहीं. वह जीते जी मुक्त हो जाता है. उसका न कोई शत्रु है न कोई मित्र, सारे द्वन्द्वों से पार हुआ वह अपने आप में अर्थात आत्मा में ही तुष्ट रहता है. जगत उसके लिए स्वप्न वत् अथवा क्रीडांगन हो जाता है. वह जीवभाव से मुक्त होकर आत्मभाव में निमग्न रहता है. 

Thursday, January 2, 2014

जुड़ जाएँ हम अपने से ही

जून २००५ 
सन्त कहते हैं, जाने-अनजाने सभी प्राणी ईश्वर की ओर जा रहे हैं, वही हमारा ध्येय है, वही हमारा प्राप्य है, मित्र है, आत्मीय है, अपना है, सदा साथ है. संसार साथ रहते हुए भी कभी साथ नहीं रहता, अन्यथा किसी को अकेलेपन का अनुभव नहीं हो सकता था. संसार में सभी कुछ बदल रहा है, पर भीतर एक केंद्र है जहां कुछ भी नहीं बदलता अन्यथा हम इस परिवर्तन का आभास ही नहीं हो सकता था. जो उस केंद्र से परिचित है जुड़ा है, वह स्थितप्रज्ञ है जो वियुक्त है वह हवा में उड़ने वाले पत्ते की तरह इधर-उधर भटकता है. हमारे केंद्र में जिसे आत्मा भी कह सकते हैं, असीम प्रेम है, सभी के भीतर उस की सत्ता है, जो परमात्मा का अंश है. उसका भान न होने पर व्यक्ति स्वयं को विशिष्ट मानता है जो दुःख का कारण है. ध्यान के द्वारा हम अपने केंद्र से जुड़ सकते हैं, तब व्यक्ति, वस्तु, परिस्थिति हमें अपना गुलाम नहीं बना सकती, पूर्ण स्वाधीनता का अनुभव तभी होता है. स्वराज्य घटित होता है. तभी अध्यात्म में प्रवेश मिलता है. जीवन तब सहज हो उठता है, कोई कार्य तब सप्रयास नहीं होता, छोटा हो या बड़ा सभी कार्य अपने-आप होते प्रतीत होते हैं, हम साक्षी भाव में आ जाते हैं. 

Wednesday, January 1, 2014

शुभता का ही वरण करें हम

जून २००५ 
हमारे भीतर का ज्ञान, व्यवहार तथा वाणी से ही प्रकट होता है, हम यदि झुंझला जाते हैं, खिन्न हो जाते हैं अथना टेढ़ा बोलते हैं तो हम हिंसा कर रहे होते हैं, जिसका पहला शिकार हम स्वयं होते हैं. वाणी के साथ-साथ हमारे हाव-भाव तथा व्यवहार की सूक्ष्म तरंगें भी सामने वाले व्यक्ति को छूती है. हमारे भीतर क्रोध, भय आदि के संस्कार हैं, परिस्थिति आने पर यदि हम भय अथवा क्रोध के शिकार नहीं होते उससे बच निकलते हैं तो वह संस्कार नष्ट होने लगता है अन्यथा उर्वरक भूमि पाते ही जमने लगता है और वृक्ष रूप में बढ़ने लगता है, भविष्य में उसमें अनेकों फल लगने ही वाले हैं तथा अनेकों बीज बनने वाले हैं, जिससे दुःख ही दुःख मिलने वाले हैं. इसी तरह भीतर प्रेम व शांति के संस्कार भी छुपे हैं हैं. प्रेम की तरंगे शब्दों से पहले ही सम्मुख उपस्थित व्यक्ति के हृदय को छू लेती हैं, वे निशब्द होकर भी बहुत कुछ व्यक्त कर देती हैं. प्रेम का एक बीज भविष्य में वट वृक्ष बनने वाला है.