Wednesday, November 30, 2016

मन ही माया


हर सुबह एक नए अंदाज में प्रकटती है, सूर्य भी नए रूप में दिखाई देता है. आकाश वही है पर बादलों के बदलते रूप उसे नित नया कलेवर पहना देते हैं. इसी तरह आत्मा सदा एक सी रहने पर भी मन पल-पल बदलता है, तीन गुणों के मेल से कभी हँसता कभी उदास होता है. शास्त्रों के अनुसार आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल तथा जल से पृथ्वी का निर्माण हुआ है. उसी तरह आत्मा से प्राण, प्राण से ऊर्जा, ऊर्जा से मन तथा मन से देह का निर्माण होता है. साधना के द्वारा जितना-जितना सतोगुण बढ़ता जाता है, मन आत्मा के निकट पहुँच जाता है.

Monday, November 28, 2016

मिलकर भी जो मिले कभी न


 परमात्मा उनकी नजरों से छुपा रहता है जो उसे ढूंढते ही नहीं, जो उसकी याद में अश्रु बहाते  हैं उन्हें तो वह मिला ही हुआ है. रात-दिन वह उन्हें राह दिखाता  है जिनके भीतर  उसके प्रेम का दीपक जलता रहता है. जिन्होंने उस अनदेखे परमात्मा से रिश्ता बना लिया है, जिनके भीतर प्रीत की अग्नि निरंतर जलती रहती है. जो उसके दर  पर आकर झुक जाते हैं उन्हें वह तत्क्षण मिल जाता है और जो तनकर खड़े रहते हैं उनके लिए वह बेगाना ही बना रहता है. यूँ तो सभी उसकी कृपा के अधिकारी हैं पर वह किसी पर अपना अधिकार नहीं जताता, पूर्ण स्वतन्त्रता देता है. आश्चर्य तो तब होता है जब जिन्हें वह मिल जाता है उन्हें भी न मिलने का भरम बना ही रहता है और एक मधुर सी तलाश सदा ही चलती रहती है. 

Tuesday, November 15, 2016

जब आवे संतोष धन

१५ नवम्बर २०१६ 
भक्ति, युक्ति, शक्ति और मुक्ति, ये चारों जीवन में हों तो जीवन सफल होता है. वास्तव में देखा जाये तो भक्ति और मुक्ति आत्मा का मूल स्वभाव है, शक्ति उसका गुण और यदि ये तीनों हों तो युक्ति खोजने कहीं जाना नहीं पड़ता. चेतना में सहज ही ज्ञान है. ध्यान में न जानने की इच्छा हो न कुछ पाने की तो जो संतुष्टि सहज ही प्राप्त होती है, उसी से भक्ति का पोषण होता है.  

Wednesday, November 2, 2016

मुक्ति की जब जगे कामना

३ नवम्बर २०१६ 

परमात्मा ने मानव को परम स्वतन्त्रता भी दी है और साथ ही परम परतन्त्रता भी. हम आजाद हैं चाहे भला करें या बुरा करें. किन्तु अस्तित्त्व के नियम बड़े सूक्ष्म हैं, जो पल-पल पीछा किया करते हैं और हमारे हर कृत्य का फल हमें भोगना ही पड़ता है ! चाहे वह कर्म मानसिक हो वाचिक हो या शारीरिक हो. कर्म करने की हमें पूर्ण स्वतन्त्रता है पर फल पर हमारा कोई अधिकार नहीं, उसे हम तिल मात्र भी बदल नहीं सकते. कर्म के फल ही हमें बांधते हैं. कर्म का फल हमें दो रूप में मिलता है, एक तात्कालिक सुख या दुख के रूप में और दूसरा संस्कार के रूप में. संस्कार वश हम बार-बार वही कर्म किये चले जाते हैं जिनसे अतीत में दुःख भी पा चुके हैं. इस चक्रव्यूह से निकलने का नाम ही मोक्ष है.