Thursday, July 31, 2014

एक मार्ग पर बढ़ते जाएँ

जनवरी २००७ 
जिसे इच्छा होती है, सुख-दुःख का अनुभव होता है, जो द्वेष करता है और सदा कुछ न कुछ पाने, करने या जानने के लिए प्रयत्नशील है वही मन है. जिसे कुछ पाना नहीं, जानना नहीं जो द्वेष से मुक्त है और सुख-दुःख से असंग है वही आत्मा है. परमात्मा को अपना मानकर जब भक्त उनका स्मरण करता है तो वह सदा योग में बना रहता है वह भी असंग रहता है. ध्यान के द्वारा साधक भी कर्ता भाव से मुक्त हो जाता है. प्रेम या ध्यान दोनों में से एक मार्ग तो चुनना ही होगा. किसी भी मार्ग के द्वारा जब मन सजग हो जाता है तो स्वयं को मुक्त करने का मार्ग उसे मिल जाता है. 

Tuesday, July 29, 2014

पल पल उसकी याद रहे

जनवरी २००७ 
सन्त कहते हैं, सृष्टि और परमात्मा अलग-अलग नहीं हैं. परमात्मा हमारे भीतर उसी तरह समाया हुआ है जैसे फूल में खुशबू ! हमारे भीतर जब उसकी उपस्थिति महसूस होने लगती है तब ज्ञान केवल शब्दों तक सीमित नहीं रह जाता. साधक को प्रतीत होता है उसे अपने लिए अब कुछ पाना नहीं, कुछ करना नहीं, कुछ जानना नहीं. वह कृत-कृतव्य, ज्ञात-ज्ञातव्य, प्राप्त-प्राप्तव्य हो जाता है. हमारे जीवन का प्रत्येक क्षण जगत के लिए सुखकर हो, शुभ हो, वाणी सौम्य हो तथा कर्म बंधनकारी न हों, पूर्वजों को सुख देने वाले हों तथा प्रियजनों के लिए हितकारी हों, हमारी हर श्वास नाम से युक्त हो, पवित्र आत्मा में सदा हमारी स्थिति हो, ऐसी ही प्रार्थना जब फलित होती है तब परमात्मा की अनुभूति घटती है. 

Monday, July 28, 2014

बहे ध्यान की धारा अविरल

दिसम्बर २००६ 
जब मन ध्यानस्थ होता है तो सहज स्वाभाविक प्रसन्नता तथा उजास चेहरे पर स्वयमेव छाये रहते हैं, उनके लिए प्रयास नहीं करना पड़ता. मन से सभी के लिए सद्-भावनाएँ उपजती हैं. यह दुनिया तब पहेली नहीं लगती न ही कोई भय रहता है. ध्यान से उत्पन्न शांति सामर्थ्य जगाती है और सारे कार्य थोड़े से ही प्रयास से होने लगते हैं. कर्त्तव्य पालन यदि समुचित हो तो अंतर्मन में एक अनिवर्चनीय अनुभूति होती है, ऐसा सुख जो निर्झर की तरह अंतर्मन की धरती से अपने आप फूटता है, सभी कुछ भिगोता जाता है, जीवन एक सहज सी क्रिया बन जाता है कहीं कोई संशय नहीं रह जाता.


Saturday, July 26, 2014

जिन्दगी एक नाटक है

नवम्बर २००६ 
सजगता यह सिखाती है कि हम कितने नाटक करते हैं, यह जीवन एक नाटक ही तो है, हम सहज होते ही कब हैं. सहज होकर जीना जिसको आ गया वह तर गया. सहज समाधि उसकी लग गयी. पर हमें कई बार विवश होकर नाटक करना पड़ता है, पर जो यह जानता ही नहीं कि वह नाटक कर रहा है, वह किस अँधेरे में जी रहा है. जो जानता है वह मुक्त है. इस मुक्ति का आनंद अपरिमित है, कभी-कभी हम नाटक को असलियत समझ बैठते हैं तब फंस जाते हैं, पर द्रष्टा भाव में आते ही सब नष्ट हो जाता है. कभी जब कोई कुछ न कर रहा हो, बस चुपचाप बैठा हो, भीतर चल रही हलचल को देखता रहे तो धीरे-धीरे सब शांत हो जाता है, अडोल, ध्यानस्थ और तब मन में सजगता जगती है. 

Friday, July 25, 2014

बार बार पथ पर आना है

नवम्बर २००६ 
पुनःपुनः साधक पथ से विलग होता है तथा पुनःपुनः संतों व शास्त्रों के पावन वचन पथ पर ले आते हैं. तब वह नये विश्वास के साथ अज्ञात की ओर चल पड़ता है. एक दिन वह परमशक्ति अपना अनुभव भी कराती है. वह जीवनदायिनी शक्ति इस सृष्टि में कितने-कितने रूपों में, कितने नामों से प्रकट हो रही है. वह कहीं दिखती नहीं, जगत दिखता है, मन दिखता है, विचार तथा भावनाएं दिखती हैं पर वे जिस स्रोत से प्रकटे हैं वह नहीं दिखता. ध्यान में हम उसी में स्थित होते हैं और धीरे धीरे जब सजगता बढ़ती जाती है, ध्यान जीवन में उतरने लगता है, और वह ऊर्जा हर पल साथ ही महसूस होने लगतीं है. 

Wednesday, July 23, 2014

अति मीठी है कथा प्रभु की

नवम्बर २००६ 
भगवद कथा हमारे मन में जाकर हमें हमारे स्वभाव की ओर लौटा ले जाती है. यह तारक है, रोम-रोम को रसपूर्ण कर देती है. आनंद की ऐसी वर्षा करती है कि हृदय भीतर तक भीग जाता है. भीतर जो आनन्द का सृजन करे वह कथा ही तो है, शब्दों के रूप में उसी की प्रतिमा है. कथा से हमें कितना कुछ मिलता है, ज्ञान, भक्ति, प्रेम, रस, प्रेरणा और जीने को सही ढंग से जीने की कला भी भगवद कथा सिखाती है. 

Tuesday, July 22, 2014

एक सरस मुस्कान है भीतर

अक्तूबर २००६ 
संतजन कहते हैं, मानव जीवन पाकर भी जो भीतर की मुस्कान को जागृत नहीं कर सका वह पूर्ण जीया ही नहीं और वह धर्म भी धर्म नहीं जो सहज, मुक्त रूप से हमें हँसना नहीं सिखा देता. सहजता आती है जब कोई अपने कर्त्तव्यों का ठीक से निर्वाह कर सके. हमारा वास्तविक कर्त्तव्य क्या है, धर्म क्या है, यह गुरु ही हमें बताते हैं. शील, सत्य और स्नेह के गुणों के आधार पर भीतर की शक्ति को जागृत करने से ही कर्त्तव्य निबाहे जा सकते हैं. हमरा लक्ष्य स्पष्ट हो और ऐसा हो कि सत्य के निकट पहुंच सकें. सरल हृदय में ही धर्म निवास करता है. किसी तरह के कृत्रिम आवरण में हमें स्वयं को ढकना नहीं है, मृदुता को अपनाना है. विनम्रता को खोते ही हमारी चेतना विनाश की ओर चली जाती है. हम स्वयं को अभिव्यक्त कर सकें, अपने भीतर छिपी असंख्य शक्तियों को उजागर कर सकें. तभी हमारा इस जगत में आना सार्थक होगा और तभी भीतर की अमित मुस्कान पनपती है.


Monday, July 21, 2014

ढाई आखर प्रेम का

अक्तूबर २००६ 
नारद भक्ति सूत्रों के अनुसार प्रेम अनिर्वचनीय है. भावुकता प्रेम नहीं है, वह तो भाव से भी परे है. भीतर की दृढ़ता ही प्रेम है, सत्य प्रियता ही प्रेम है और असीम शांति भी प्रेम का ही रूप है. भीतर ही भीतर जो मधुर झरने सा झरता रहता है वह भी तो प्रेम है. प्रभु हर पल हम पर प्रेम लुटा रहे हैं. तारों का प्रकाश, चाँद, सूर्य की प्रभा, पवन का डोलना तथा पुष्पों की गंध सभी तो प्रेम का फैलाव हैं. प्रकृति हमसे प्रेम करती है. घास का कोमल स्पर्श, वर्षा की बूंदों की छुअन सब कुछ तो प्रेम ही है. वृद्ध की आँखों में प्रेम ही झलकता है, शिशु की मुस्कान में भी प्रेम ही बसता है. प्रेम हमारा स्वभाव है और प्रेम से ही हम बने हैं. 

Sunday, July 20, 2014

दर्पण सी हो शुद्ध चेतना

अक्तूबर २००६ 
जीवन का सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न चेतना का विकास ही है. पदार्थ भी हमारी चेतना को प्रभावित करते हैं. विकसित चेतना ही हमें आत्मा के पथ पर ले जाती है. आत्मा मन, बुद्धि तथा संस्कार के माध्यम से जगत को ग्रहण करती है. यदि हमें इस देह में रहते हुए आत्मा का अनुभव करना है तो बुद्धि को शुद्ध बनाना होगा. शुद्ध बुद्धि कामधेनु के समान है आत्मा का ज्ञान होने पर अशुभ संस्कार स्वयं ही नष्ट होने लगते हैं. वर्तमान में रहना, प्रतिक्रिया न करना, मैत्री भाव तथा मिताहार हमारी बुद्धि को शुद्ध करने के लिए आवश्यक हैं. साधना काल में मित भाषण भी आवश्यक है. शरीर व मन की अपेक्षा पूर्ण होती हो, इतना ही वाणी का प्रयोग हो तो ऊर्जा बचती है जो ध्यान में सहायक है.


Saturday, July 19, 2014

जाना है उस पार

अक्तूबर २००६ 
यह जगत तथा यह शरीर दोनों समानधर्मी हैं, परिवर्तनशील तथा सुख-दुःख के कारण, किन्तु आत्मा, परमात्मा का अंश है सो सदा अछूता है. मन इन दोनों के मध्य का पुल है, हम इस पुल पर खड़े हैं, चाहें तो भीतर के उतरें चाहे तो जगत की ओर मुड़ें जहाँ छलावा ही छलावा है, मन के इस पुल पर खड़े हमें कितने ही जन्म बीत गये हैं, हम कभी इधर का तो कभी उधर का रुख लेते हैं फिर दोनों से घबरा कर बीच में आ जाते हैं, न तो पूरी तरह से संसार के हो पाते हैं न ही पूर्ण रूप से आत्मा को जान पाते हैं. सारी साधना उस डुबकी के लिए है जो आत्मा के सागर में लगानी है.  


Friday, July 18, 2014

साक्षी भाव में जो टिक जाये

अक्तूबर २००६ 
देह बनी रहे इसके लिए भोजन चाहिए, क्षुधा आवश्यक है, पर कामना अनावश्यक है. क्षुधा मिट जाये तो संतोष होता है पर कामना मिटने से भी संतोष नहीं होता, क्योंकि मन अगले ही पल नई कामना गढ़ लेता है. मन जब तक अपने मूल को नहीं जान लेता वह ऐसा करता ही रहेगा. आत्मा को छोड़कर यहाँ सभी कुछ अस्थायी है. जो इस बात को जानकर मन में उठने वाली विचारों को सागर में उठने वाली लहरों की तरह साक्षी भाव से देखता है तो कामनाओं से मुक्त हो जाता है. वह इस जगत से अछूता ही निकल जाता है, मृत्यु भी इस मुक्तता को छीन नहीं सकती. 

Thursday, July 17, 2014

ज्ञानमयी वह प्रेम मयी है

अक्तूबर २००६ 
हमारे भीतर की दिव्यता को जगाने के लिए हमें बहुत ज्यादा प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है बल्कि सच्चाई से उसे एक बार पुकारने की आवश्यकता है. महत् एक तत्व है जो परमाणु से परे है, सूक्ष्म से परे है, हमारे भीतर भी महत् है, जहाँ प्रभु का वास है. हम उसे भुला देते हैं, भयभीत रहते हैं. इस भय के कारण ही जीवन में समझौते करते चले जाते हैं. इस जगत में प्रेम नामक वस्तु का भ्रम ही तो है, उसे हम महसूस कहाँ कर पाए हैं, उसकी छाया भर हमें मिलती है और उसे सच मानकर हम छले जाते हैं. प्रेम तो हमारा निजस्वरूप है और उससे हमारा मिलन अभी हुआ नहीं है. आत्मा ऊर्जावान है, प्रेममयी है, आनन्दमयी है, शक्तिशाली है, फिर हमें भयभीत होकर रहने की क्या आवश्यकता है. निर्भयता वह पहला गुण है जो धर्म के मार्ग पर चलने वाले साधक को मिलता है. किसी भी वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति से भयभीत न होना, दुखों से भी नहीं, दुःख तो हमें मांजते हैं, दुखों से दोस्ती करनी होगी और सुख की आशा का त्याग करना होगा. 

Wednesday, July 16, 2014

जाने कब उससे मिलना हो

सितम्बर २००६ 
संतों की वाणी हमें झकझोर देती है. हमारे भीतर की सुप्त चेतना जो कभी-कभी करवट ले लेती है, एक दिन तो पूरी तरह से जागेगी. हम कब तक यूँ पिसे-पिसे से जीते रहेंगे, कब तक अहंकार का रावण हमें भीतर के राम से विलग रखेगा. हमारे जीवन में विजयादशमी कब घटेगी. वे कहते हैं, हम जगें, प्रेम से भरें, आनन्द से महकें. हम जो राजा के पुत्र होते हुए कंगालों का सा जीवन बिता रहे हैं. सूरज बनना है तो जलना भी सीखना पड़ेगा. अब और देर नहीं, न जाने कब जीवन की शाम आ जाये, कब वह घड़ी आ जाये जब उससे मिलना हो, तब हम उसे क्या मुँह दिखायेंगे? ऐसा कहकर सन्त हमें बार-बार चेताते हैं.  

Tuesday, July 15, 2014

एक लहर उमड़ती भीतर

सितम्बर २००६ 
आनंद को जीओ’, ओशो ने कहा है. हम जीवन को इतना गम्भीर बना देते हैं कि मुस्कुराना भी छोड़ देते हैं. जब हम प्रेम से ईश्वर का नाम लेते हैं तो भीतर की सरंचना बदल जाती है और आनंद का स्रोत जो भीतर बंद पड़ा था, खुल जाता है. जो भीतर बैठा है वह जग जाता है, वह तो सदा जगा ही है, हम ही उसके प्रति सजग नहीं थे. आत्मा रूपी आनंद भीतर है पर मन अहंकार की चादर ओढ़े बैठा है. उस तक वह लहर पहुंच ही नहीं पाती. शरणागत होने पर वह चादर उतार कर रख देनी होती है और सन्त हमें इसी बात को याद दिलाने आते हैं. निर्भयता, कृतज्ञता पुरुषार्थ तब ही भीतर जगता है. संत के भीतर अनवरत सुमिरन होता है. वह सहज ही भीतर प्रवेश कर सकता है, आनन्द की वर्षा कर सकता है और उसमें भीग सकता है.

अहोभाव जब छा जाता है

सितम्बर २००६ 
साधक के जीवन में सद्भाव का प्रमाण है निर्भयता, वीरभाव का प्रमाण है धैर्य, समभाव का प्रमाण है निश्चिंतता, करुणा भाव का प्रमाण है अहिंसक होना, त्यागभाव का प्रमाण है वैराग्य, इससे अनावश्यक अपने आप छूट जाता है, लुट जाना, लुटाते रहना ही तब स्वभाव बन जाता है. प्रेम भाव में कामनाओं का नाश होता है. अहोभाव आने पर केवल आनन्द ही शेष रहता है. अहोभाव में आने के लिए आवश्यक है कि हम क्षण-प्रतिक्षण कृतज्ञता का अनुभव करें. हमें जीवन का इतना सुंदर उपहार मिला है, अस्तित्त्व ने इस पल हमें चुना है, वह हमारे माध्यम से प्रकट हो रहा है. हम हैं, क्योंकि वह है, उसकी कृपा की छाया में हम पलते आये हैं, इस बात का अनुभव होने पर ही अहोभाव घटता है.  

Sunday, July 13, 2014

हरि भजन कर ले मना

सितम्बर २००६ 
भजन वही है जो हमें शब्द से निःशब्द की ओर ले जाता है, क्रिया से क्रियाहीनता की तरफ ले जाता है, विचार से निर्विचार की तरफ ले जाता है. शब्द, विचार और क्रिया हमें संतप्त करते हैं, और संतृप्त करते हैं आनद व अश्रु जो इनके विपरीत से मिलते हैं. कर्मयोग का एक सिद्धांत है, कर्म तभी पूर्ण होता है जब हम उससे जो अपेक्षित हो वही चाहते हैं, वह अपेक्षित क्या है, वह है आनंद, उसके बिना हमारे कर्म अधूरे ही रहते हैं. हमारा हृदय आनन्द से भर गया है इसका प्रमाण है कि भीतर निर्भयता, निश्चिंतता और निर्मलता बढ़ गयी है. अनावश्यक चेष्टा न हो, वाणी से व्यर्थ काम न हो तथा मन सदा उसके स्मरण में रहे तो सच्चा भजन है.


Saturday, July 12, 2014

सत्य ही हो लक्ष्य हमारा

सितम्बर २००६ 
कृष्ण व्यापक है, परम सत्य व्यापक है किन्तु हम मद तथा मूढ़ता की कारण उसे देख नहीं पाते. सत्य में स्थित रहकर कोई स्वयं को भूल नहीं सकता. हर हाल में जो शांत है, भीतर की समता बनाये रखता है, वह भक्त कृष्ण का प्रिय है. कृष्ण तथा सद्गुरु हमारे मद को दूर करने के लिए कभी-कभी कठोर हो जाते हैं. जब हम सत्य की खोज में निकलते हैं तो मन भटकाता है, हम केंद्र से दूर हो जाते हैं. सत्य शास्त्र से नहीं मिलता, शास्त्र उसका अनुमोदन भर करते हैं. हम जहाँ हैं वहीं थमकर देखने से मिलता है. सत्य जब प्रकट होता है तो ही भीतर का प्रेम प्रकट होता है, उसी प्रेम के कारण भक्त कभी गाता है, अश्रु बहाता है, नृत्य करता है.


Friday, July 11, 2014

बिन पुरुषार्थ सफल नहीं कोई

सितम्बर २००६ 
जब शरीर में पानी का स्तर कम हो जाता है तो हमें प्यास लगती है. जब मन में आनंद का स्तर कम हो जाता है तब ज्ञान की जरूरत होती है. ज्ञान हमें बताता है कि हम शुद्ध आत्मा हैं. शुद्धता शांति और सुख की जननी है. जहाँ ये चारों हैं, वहाँ प्रेम आता है, जिसके पीछे-पीछे शक्ति आ जाती है और इन सबके होने पर हमें पता चलता है कि हम आनन्द स्वरूप हैं. जब इतने सारे सद्गुण हमारे भीतर विद्यमान हैं तो हमें कमी का अहसास क्यों होता है, क्योंकि हम अपने को पहचानते नहीं, इन्हें पाने के लिए हमें वैसे ही पुरुषार्थ करना पड़ेगा जैसे भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए करते हैं. 

Wednesday, July 9, 2014

तेरा तुझको अर्पण

सितम्बर २००६ 
संतजन कहते हैं परमात्मा को अपना प्रेम अर्पित करो तो कृपा रूप में वही वापस मिलेगा. प्रसाद भी वही होता है जो प्रभु के चरणों में अर्पित करके वापस मिलता है. जो हम देते हैं उससे कई गुणा लौटा कर वह हमें देते हैं. परमात्मा का बखान करना सूर्य को दीप दिखाने जैसा ही है फिर भी हृदय चाहता है कि वाणी उसका बखान करे, आँखें चाहती हैं कि आँसू उनका बखान करें और मन चाहता है कि भाव उसका अनुभव कर शब्दों के माध्यम से उसकी सुगंध दूर-दूर तक फैलाएं ! ‘रसो वैः सा’ वह परमात्मा रस पूर्ण है, पर उसका स्वाद तो उसकी अनुभूति होने पर ही मिल सकता है. एक न एक दिन तो सभी को उस पथ का राही बनना है.

Tuesday, July 8, 2014

वही साँवरा संवारे मन को

सितम्बर २००६ 
ध्यान से पूर्व यदि कोई संकल्प करें तो ध्यान उसे पूर्ण करने की सामर्थ्य देता है. असम्भव कार्य तो मन को शांत करना ही है, ध्यान इसे भी सम्भव बना देता है. जो सहज प्राप्य है, हमारे भीतर है, जो हमसे जुड़ा है, जो है तो हम हैं, हमें उसी का ज्ञान नहीं है, वह कौन है ? जब तक हम संसार से सुख पाने की कामना भीतर संजोये रहेंगे तब तक उसका मिलना नहीं होगा. ध्यान हमें भीतर का सुख देता है, भीतर के द्वार पर खटखटाना सिखाता है, भीतर एक अमृत का घट  भरा है जिस पर मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के चार पर्दे पड़े हैं, ध्यान उन्हें हटाता है और हम उस अमृत का पान करने में सफल होते हैं. न जाने कितने जन्मों की कितनी गांठें हमने अपने भीतर बाँध रखी हैं, कितने दुःख कितने भय और दर्द भीतर दबे पड़े हैं. ध्यान उन्हें निकाल के अंतःकरण स्वच्छ करता है. जैसे कोई पार्लर में जाये और नया व सुंदर होकर बाहर निकले वैसे ही हमारे मन को सुंदर बनाने का कार्य ध्यान करता है. सहज होकर परम को समर्पित होकर जब हम बैठते हैं तो वह अपना काम सुगमता से कर पायेगा. केश बनाने वाला सिर को चाहे जैसा घुमाये हम कहाँ दखल देते हैं, परमात्मा हमारे मन का ब्युटीशियन है, पूरा खाली होकर नम्र भाव से जब अपना मन उनके हवाले कर देते हैं चाहे वह उसे मोड़े, घुमाये, और फिर हम जब ध्यान से बाहर आयेंगे तो मन आत्मा के दर्पण में चमचम करता हुआ दिखेगा, हम शायद स्वयं ही उसे न पहचान सकें !  

Monday, July 7, 2014

चलती चाकी देख के

सितम्बर २००६ 
संतजन कहते हैं कि हम समस्या मूलक भी बन सकते हैं और समाधान मूलक भी. यदि हम अपने केंद्र से जुड़े नहीं हैं तो समाधान मूलक हो जाते हैं. केंद्र से जुड़े रहने के लिए एक आधार चाहिए, एक सूक्ष्म तन्तु, जो कि प्रेम ही हो सकता है. यदि हम परिधि पर ही रह गये तो दूसरों के साथ-साथ स्वयं के लिए भी समस्या खड़ी कर देंगे. परिधि पर रहने से हम डगमगाते रहते हैं, केंद्र से जुड़े रहना स्थिरता प्रदान करता है. आत्मा केंद्र है, मन परिधि है, मन स्वयं ही योजनायें बनता है फिर उन्हें तोड़ता है. वह कल्पनाओं का जाल अपने इर्द-गिर्द बुना लेता है. हमें सच्चाई की ठोस जमीन चाहिए न कि कल्पना का हवा महल. हम सत्य के पारखी बनें.  

Sunday, July 6, 2014

असली याद वही करता है

सितम्बर २००६ 
भक्त परमात्मा की कृपा को हर क्षण अनुभव करता है. गुरू के वचन उसके लिए अमृत के समान होते हैं जो भीतर की सारी पीड़ा को धो डालते हैं. वह सद् मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं. उनकी दी हुई शक्ति से भर कर वह भविष्य के प्रति आशावान रहता है और वर्तमान के प्रति सजग. भक्त कभी उसे याद न भी करे तो वह स्वयं अपनी याद दिलाता है. कभी-कभी जो भक्त के भीतर आनन्द के फूल बेवजह ही खिलने लगते हैं, गीत स्वतः झरने लगते हैं तो उसी ने किसी रूप में पुकारा होता है. उसकी महिमा के गीत यूँही ही तो नहीं गाए गये. वह क्या है यह तो शायद वह स्वयं भी नहीं जानता.  

एक डोर बांधे है सबको

सितम्बर २००६ 
लक्ष्य का चुनाव, एकाग्रता, तादात्म्य तथा अंत में गुणों का अपने भीतर संक्रमण यह साधना का क्रम है. साधक का लक्ष्य तो भाव शुद्धि, वाणी शुद्धि, तथा कर्म शुद्धि का ही हो सकता है. ये तीनो बातें सद्गुरु में अथवा इष्टदेव में हैं. उसके साथ तादात्म्य हो जाये तो उसके गुण अपने आप भीतर प्रवेश करने लगेंगे. जो चेतना हमारे भीतर है वही उनके भीतर है, उन्हें उसका ज्ञान है हम चाहे इससे अनभिज्ञ हों. वही चेतना हरेक के भीतर है, सभी एक-दूसरे पर आश्रित हैं, इसका बोध हमें भी करना है. स्वयं को सारी सृष्टि से पृथक मानना ही अहंकार है, जो सारे दुखों का कारण है.

Saturday, July 5, 2014

जब मन खाली हो जाता है

सितम्बर २००६ 
मन ग्रन्थि स्वरूप है, जो विकार हमारे भीतर पड़े हुए हैं, हम उन्हीं विकारों को बाहर से भी अपनी ओर आकर्षित करते हैं. जब मन की ग्रन्थि हमारे भीतर की उपजाऊ भूमि पाकर फूटती है तो उसमें से विचार रूपी कोंपले निकलती हैं. जो विचार हमें ज्यादा आते हैं, समझना चाहिए वही ग्रन्थि काटनी है. ध्यान में हमें यही तो करना है. आते हुए विचारों की साक्षी भाव से देखना, बिना राग-द्वेष जगाये देखना उस ग्रन्थि से मुक्त करता है. हम जितना-जितना भीतर से खाली होते जाते हैं वह चैतन्य उतना-उतना उसमें भरता जायेगा. इच्छा जब घटते-घटते शून्य हो जाएगी तब रास्ता सरल हो जायेगा. इस जगत में इच्छा करने योग्य एक वही तो है ! पर वह भी तब मिलता है जब उसकी भी इच्छा न रहे..

Friday, July 4, 2014

होना हमको हम जैसा ही

सितम्बर २००६ 
हम अपने शुद्ध स्वरूप में टिके रहें अर्थात सहज, सरल, प्रेम पूर्ण स्वभाव में, शांति और आनन्द में तो सहज ही हमसे भले कार्य होते हैं. यदि हम कुछ करने जाते हैं तो बात बिगड़ जाती है. हमें कुछ बनना नहीं है, होना है, जो हम हैं वही होना है. कुछ विशेष नहीं होना है. हमारे लिए कुछ करने जैसा है ही नहीं, न कुछ जानने जैसा है, न पाने जैसा है. जिसको जानकर, पाकर संतजन कृत कृत्य हो गये वह आत्मा तो हमें पहले से ही प्राप्त है. उसका अनुभव तो हमें हर पल होता है, हमें उसी में रहना है. यही अध्यात्म है. 

Thursday, July 3, 2014

एक त्रिवेणी हो जीवन में

सितम्बर २००६ 
ज्ञान से हम ज्ञात-ज्ञातव्य हो जाते हैं. योग से कृत-कृतव्य हो जाते हैं और भक्ति से प्राप्त-प्राप्तव्य हो जाते हैं. तीन ही तो शक्तियां हैं हमारे पास, जानने की शक्ति, करने की शक्ति तथा मानने की शक्ति. यदि जीवन में ज्ञान, भक्ति तथा योग नहीं है तो हम कोल्हू के बैल की तरह एक ही घेरे में चक्कर लगाते हैं जिसकी आँखों पर पट्टी बंधी है. कहीं भी नहीं पहुंचते, जीवन भर एक ही सीमा में बंधे रह जाते हैं. सद्गुरू के द्वार पर पहुंचने भर की देर है, वह ज्ञान से हमारे भीतर के चक्षु खोल देते हैं, भक्ति से हृदय को सरस बना देते हैं तथा सेवा की प्रेरणा देकर करने की क्षमता का उपयोग करना सिखाते हैं. 

Tuesday, July 1, 2014

पानी बिच मीन प्यासी

अगस्त २००६ 
ध्यान में जो नीरवता भीतर प्रकट होती है, वह अतीव मधुर है. वह शब्दों से परे है. यह जगत भी तभी सुंदर लगता है जब अंतर शांत हो. हमारी चेतना इतनी भव्यता छिपाए है कि उसे शब्दों में कहा ही नहीं जा सकता. यह प्रकृति कितने रूप धर कर हमें लुभाती है. सौन्दर्य जो बाहर है, वह उत्पन्न हुआ है, जो भीतर है वह तो सहज है, स्वनिर्मित है. जब तक कोई इस सौन्दर्य को जान नहीं लेता है तब तक प्रेम को पहचान नहीं पाता. प्रेम का अनुभव किये बिना ही उसे इस जगत से जाना पड़ता है, वह प्यासा ही रह जाता है, जगत से सुख पाने की इच्छा उसे दूसरों का गुलाम बना देती है.

धरती से आकाश तक

अगस्त २००६ 
किसी कवि ने ठीक कहा है –

अधिकांश आकाश छूट जाता है
थोड़ी सी भूमि गुनगुनाता हूँ


हम उस आत्मा को जो आकाश की भांति व्यापक है , कैद करना चाहते हैं पर वह पकड़ में नहीं आती. मन, बुद्धि से परे वह आत्मा सदा हमसे दूर ही रहती है, फिर हम हार कर मन, बुद्धि का आश्रय छोड़ देते हैं तो भीतर से कोई गीत गाने लगता है. संगीत फूटने लगता है. उस दुनिया में कुछ भी थोड़ा सा नहीं सब कुछ अनंत है. अनंत चिदाकाश, अनंत आनंद, अनंत शांति, अनंत प्रेम तथा अनंत ज्ञान भी ! जीवन का, कण-कण में बसी चेतना का ज्ञान ! तब छोटापन खत्म हो जाता है, सारी सीमाएं छूट जाती हैं. हम उसे विराट के अंश हैं और उसका सब हमारा है यह भाव दृढ हो जाता है. आत्मा का यह ज्ञान अद्भुत है, पर जब यह सहज रूप से हमारे कर्मों, वाणी तथा व्यवहार से प्रकट होने लगे तभी टिका हुआ जाना जायेगा.