Monday, November 28, 2022

कण -कण में जो देखे उसको

 जब तक हम सुख-दुःख के भोक्ता बनते हैं, मान-अपमान हमें प्रभावित करता है, तब तक हम मन के तल पर ही जी रहे हैं। आत्मा साक्षी है, वहाँ न सुख है न दुःख, एकरस आनंद है। न अपमान का भय है न मान की आकांक्षा, वह साक्षी सदा एक सी किंतु सहज अवस्था है। वह दिव्यता का एक अंश है जो हमारा वास्तविक स्वरूप है, पर जो अन्नमय, प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय कोष के आवरण में छिपा हुआ है, जिसे आनंदमय कोष भी कहते हैं। स्वयं के भीतर उसे अनुभव करना और विश्व आत्मा या परमात्मा के साथ एक हो जाना ही हर साधना का लक्ष्य है; अर्थात पहले हमें अपने भीतर उस दिव्य तत्व को अनुभव करना है फिर कण-कण में उस दिव्यता का अनुभव करना है। हर व्यक्ति, वस्तु, परिस्थिति के पीछे वही एक सत्ता है, इसका अनुभव सीधे-सीधे नहीं हो सकता। पहले गुरू में उसके दर्शन होते हैं फिर स्वयं में तथा फिर जगत में, इसके बाद साधक जीते जी मुक्ति का अनुभव करते हैं। सारे बंधन मन के स्तर पर ही  अनुभव में आते हैं।  

Thursday, November 24, 2022

श्वास श्वास जब खिल जाएगी

अतीत हमारे वर्तमान में सेंध न लगाए, इसका सदा ध्यान रखना है। परमात्मा जब भी जिसको मिला है, सदा वर्तमान में मिला है। जब हमारा मन अतीत या भविष्य की कल्पना में खोया होता है, वह उस वर्तमान की क़ीमत पर करता है, जो हमें लक्ष्य तक पहुँचा सकता था। साधक का एकमात्र लक्ष्य है अपने भीतर छिपे दिव्य तत्व का आत्मा के रूप में अनुभव करना तथा कण-कण में छिपे देवत्व को पहचान कर जगत के साथ एकत्व का अनुभव करना। हमारा मन इस एकत्व को अनुभव नहीं कर सकता क्योंकि वह सीमित है। मन हमारे विचारों, भावनाओं, आकांक्षाओं का एक पुंज है, बुद्धि अवश्य तर्क के आधार पर जगत की अनंतता को जान सकती है। किंतु बौद्धिक स्तर पर जानने से उस दिव्यता की कल्पना ही की  जा सकती है, उसे अस्तित्त्व गत जानना होता है। जिसका अर्थ है, हमारी हर श्वास में वह प्रकट हो, हमारे हर कृत्य, हर विचार में उसकी झलक हो, जो सदा आनन्दमय है, पूर्ण है, प्रेम, शांति, शक्ति और ज्ञान का स्रोत है। जीवन में जब भी इन तत्वों की कमी हो मानना होगा कि हम आत्मा से दूर हैं और अपने लक्ष्य से भी दूर हो रहे हैं। 


Sunday, November 20, 2022

धैर्यशील है कुदरत सारी

जीवन हमें नित नए उपहार दे रहा है। हर घड़ी, हर नया दिन एक अवसर बनकर आता है। हमारे लक्ष्य छोटे हों या बड़े, हर पल हम उनकी तरफ़ बढ़ सकते हैं; यदि अपने आस-पास सजग होकर देखें कि प्रकृति किस तरह हमारी सहायक हो रही है। वह हमें आगे ले जाने के लिए निरंतर प्रयासरत है। हम कोई  कर्म करते हैं और फिर प्रमाद वश या यह सोचकर कि इससे क्या होने वाला है, बीच में ही छोड़ देते हैं। किंतु प्रकृति धैर्य नहीं छोड़ती, वह माँ है जो सदा  अपने बच्चों को पूर्णता की ओर जाते देखना चाहती है। माया कहकर हम चाहे उसे दोष दें पर माया ही हमें जगाती है; फंसने से बचाती है, कभी पुरस्कार द्वारा, कभी फटकार द्वारा हमें सही मार्ग पर रखती है, ताकि एक दिन हम अपने गंतव्य तक पहुँच सकें, स्वयं को परमात्मा से जोड़ सकें। सदकर्मों को करते हुए, मन को शुद्ध रखें और कण-कण में छिपे देवत्व को अपने भीतर पहचान सकें। माँ की कृपा का अनुभव करना भी एक तरह की साधना है जो सजग होकर की जा सकती है। हम अपने वरदानों पर नज़र डालें तो वे बढ़ते जाते हैं, और वे प्रेरित करते हैं। पाँच इंद्रियों तथा मन के रूप में देवता हमारे सहायक बनें, वे हमें सन्मार्ग पर रखें, ऐसी ही प्रार्थना हमें करनी है। 


Thursday, November 17, 2022

मन के जो भी पार हुआ है

हमारे विचार शुभ हों, उनमें दिव्यता की झलक हो तो ईश्वरीय आनंद हमारे चारों तरफ़ अनुभव होने लगता है। यह जीवन एक अवसर के रूप में हमें मिला है, इसे सँवारना हमारे अपने हाथों में है। ईश्वर की  हज़ार-हज़ार शक्तियाँ हमारी सहायता के लिए तत्पर हैं, उनकी कृपा अनवरत बरस रही है। हमें उसकी तरफ़ स्वयं को उन्मुख करना है। अभी हम मनमुख हैं, अपने मन के ग़ुलाम, मन की छोटी-छोटी इच्छाओं, कामनाओं और संवेगों के इशारे पर चलते हैं। मन आदतों का एक पुंज है इसलिए हम बार-बार उन्हीं कृत्यों को करते हैं। जीवन एक दोहराव बन जाता है। हम कहीं पहुँचते हुए नहीं पाए जाते; जब तक मन के इस दुश्चक्र से बाहर निकल कर यह निर्णय नहीं लेते हैं कि जीवन की वास्तविकता आख़िर है क्या ? क्या सुख-दुःख के झूले में झुलाने के लिये ही धरती पर इतना आयोजन हुआ है। जगत में जो इतना अत्याचार, अनाचार चल रहा है, वह स्वार्थी मनों का ही तो परिणाम है। हर कोई अपने स्वार्थ की पूर्ति में लगा है। पर इससे दुनिया सुंदर तो नहीं बन रही। हम इस दायरे से बाहर नकलते हैं तो स्वयं को एक विस्तृत आकाश में पाते हैं, जो शांति का घर है। 


Wednesday, November 16, 2022

जो बाहर वह भीतर भी है

जैसे एक दुनिया बाहर है, हमारे भीतर भी एक संसार है. स्वप्नों में हमारा मन जिन लोकों में विचरता है, वह अवचेतन का जगत है. ध्यान में योगी इस जगत को अपने भीतर देख लेते हैं. आत्मा को इन्द्रियों की जरूरत नहीं है, वह आँखों के बिना भी देख सकती है, कानों के बिना सुन सकती है, इसी तरह सूँघने, चखने व स्पर्श का अनुभव भी कर सकती है. हमारा जीवन कई आयामों पर एक साथ चल रहा है. देह के भीतर न जाने कितने प्रकार के जीवाणु हैं, जिनके जीवन और मृत्यु पर हमारा जीवन टिका है. सूक्ष्म कोशिकाएं हैं, जिनमें से हर एक स्वयं में पूर्ण है तथा अन्य कोशिकाओं से संयुक्त भी है. एक तरह की कोशिकाएं मिलकर ऊतक बनाती हैं, जिनसे अंग बनते हैं, वे अंग फिर एक तरह का संस्थान बनाते हैं. जिसे चलाने के लिए कुशलता व बुद्धि की आवश्यकता है, जो उनमें ही विद्यमान है. वह बुद्धिमत्ता उनमें ईश्वर द्वारा प्रदत्त ही मानी जा सकती है. हमारे प्राण शरीर को भी हम कितना कम जानते हैं. शरीर में होने वाली सब गतियां इन्हीं के कारण होती हैं. भोजन का पाचन, रक्त का परवाह, छींक आना, पलकों का झपकना आदि सभी क्रियाएं प्राणों के कारण हो रही हैं. मन के तल पर तो मनुष्य के पास अनंत स्मृतियों का ख़ज़ाना है, न जाने वह कितने जन्मों की यात्रा करके आया है, जिनकी स्मृति भीतर क़ैद है। ज्ञान का एक अनंत भंडार भी हमारे विज्ञान मय कोश में है, जिसके पार आनन्दमय कोश है।इसलिए कहा गया है यथा पिंडे, तथा ब्रह्मांडे ! 


Tuesday, November 15, 2022

कुदरत के संग एक हुआ जो

 ज्ञान अनंत है, अज्ञान है उसमें से थोड़ा बहुत जानना और सब जानने का भ्रम पाल लेना. हमारी इन्द्रियां सीमित हैं, मन के सोचने की क्षमता भी सीमित है. बुद्धि के तर्क की भी सीमा है, पर ज्ञान की कोई सीमा नहीं. आत्मा की क्षमता असीम है लेकिन असीम को जानकर भी असीम शेष रह जाता है. पुस्तकालयों में किताबें बढ़ती ही जा रही हैं, एक व्यक्ति पूरे जीवन में उनका एक अंश भी नहीं पढ़ सकता. योग के द्वारा मन, इन्द्रियों व प्राण की शक्ति को किसी हद तक बढ़ाया जा सकता है. बुद्धि के पार जाकर उस एकत्व का अनुभव किया जा सकता है, जहाँ प्रकृति अपने रहस्य खोलने लगती है. योगी विचारों की शक्ति से ऐसे-ऐसे कार्य कर लेते हैं कि सामान्य जन उन्हें चमत्कार कहते हैं. 

Thursday, November 10, 2022

सच की राह पकड़ ले राही

दिखावा करना और दूसरों की नक़ल करने की आदत हमें जीवन में आगे बढ़ने से रोकती है। हम दिखावा करते हैं तो अहंकर को बढ़ावा देते हैं। दूसरों की नक़ल करते हैं तो असत्य को प्रश्रय देते हैं। संतुष्ट जीवन सत्य की राह से ही पाया जा सकता है, प्रामाणिकता वह पहली ईंट है जिस पर एक सुखद जीवन की इमारत खड़ी होती है। अहंकार चाहे कितना भी निर्दोष हो हमें अपने सच्चे स्वरूप से दूर ही रखता है। कोई भी व्यक्ति अपने आप में पूर्ण है क्योंकि दिव्य चेतना हर एक के भीतर विद्यमान है। अपनी निजता को पहचान कर हमें उस एकता को पाना है जिसके बाद न ही दिखावा करने की ज़रूरत रह जाती है और न ही किसी की तरह बनने की आकांक्षा।जैसे बगीचे में खिला हर पुष्प अनोखा है वैसे  हर  मानव अपनी निजी पहचान लेकर दुनिया में आता है, जन्म-जन्मांतर की यात्रा करके वह स्वयं की दिव्यता को पहचान कर अस्तित्त्व के साथ मिलकर कर्त्तव्य पथ पर आगे बढ़ता है। 


Wednesday, November 9, 2022

बन जाए जीवन जब उत्सव

जीवन एक प्रसाद की तरह हमें मिला है।हमारा तन, पाँच इंद्रियाँ, मन तथा बुद्धि इस प्रसाद को ग्रहण करने में सहायक बन सकते हैं, यदि हम उनके प्रति सम्मान का भाव रखें। अपने शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक स्वास्थ्य का ध्यान रखते हुए जब हम सृष्टि कर्ता  के प्रति कृतज्ञता का अनुभव करते हैं तब हमारे सम्मुख एक नया आयाम खुलने लगता है। मन उसे जान नहीं सकता पर वह स्वयं मन को अपना आभास कराता है। जब जगत और अपने शरीर के प्रति हमारे भीतर सम्मान की भावना होती है तो अहंकार अपने शुद्ध रूप में प्रकट होता है। ऐसी स्थिति में हम स्वयं को जगत से पृथक मानकर स्वार्थ पूर्ति में लिप्त नहीं रहते बल्कि जगत का अंश मानकर स्वयं को उन कार्यों में लीन पाते हैं जो अपने साथ-साथ सबके लिए सुख का कारण बनें। छोटी-छोटी बातें अब व्यथित नहीं करतीं, एक गहन शांति का घेरा सदा ही चारों ओर बना रहता है और हम उस आनंद का अनुभव करते हैं जिसका कोई बाहरी कारण दिखायी नहीं देता। जीवन हमारे लिए एक अनवरत चलने वाला उत्सव बन जाता है। 


Wednesday, November 2, 2022

योग व शिक्षा - महर्षि अरविंद


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महर्षि अरविंद के अनुसार वैसे तो सारा जीवन ही योग है; किंतु एक साधना पद्धति के रूप में योग आत्म-पूर्णता की दिशा में एक व्यवस्थित प्रयास है, जो अस्तित्व की सुप्त, छिपी संभावनाओं को व्यक्त करता है। इस प्रयास में मिली सफलता व्यक्ति को सार्वभौमिक और पारलौकिक अस्तित्व के साथ जोड़ती है।

 

श्री अरविंद का विश्वास था कि मानव दैवीय शक्ति से समन्वित है और शिक्षा का लक्ष्य इस चेतना शक्ति का विकास करना है। इसीलिए वे मस्तिष्क को 'छठी ज्ञानेन्द्रिय' मानते थे।वह कहते थे शिक्षा का प्रयोजन इन छ: ज्ञानेन्द्रियों का सदुपयोग करना सिखाना होना चाहिए।उनके लिए वास्तविक शिक्षा वह है जो बच्चे को स्वतंत्र एवं सृजनशील वातावरण प्रदान करती है तथा उसकी रूचियों, सृजनशीलता, मानसिक, नैतिक तथा सौन्दर्य बोध का विकास करते हुए अंतत: उसकी आध्यात्मिक शक्ति के विकास को अग्रसरित करती है।