Tuesday, February 28, 2017

अभय जगे जिस पल भीतर

२८ फरवरी २०१७ 
हमारे भीतर ही दैवी संपदा है और आसुरी संपदा भी. कृष्ण भगवद गीता में इन दोनों संपदाओं के लक्षणों का वर्णन करते हैं. अभय दैवी संपदा का सबसे पहला लक्षण है, पाखंड आसुरी संपदा का. यदि हमारे भीतर स्वयं के कल्याण की आकांक्षा जगती है, यह इस बात का प्रमाण है कि भीतर दैवी संपदा है, हो सकता है अभी वह ढकी है. यदि कोई अपने जीवन का ध्येय केवल सुख-सम्पत्ति जुटाने को ही बना लेता है तो सम्भव है उसके भीतर आसुरी संपदा हो. दैवी संपदा मुक्त करती है, अंततः हमें आत्मिक सुख से भरती है,  जबकि आसुरी संपदा बांधती है, यह मन को संतुष्टि का अनुभव नहीं होने देती. स्वतंत्र होना हर कोई चाहता है पर इसके साथ जो अनिश्चितता जुड़ी है उसे कोई नहीं चाहता, परतंत्र होना कोई नहीं चाहता पर उसके साथ जुड़ी सुरक्षा हर किसी को पसंद है. यही कारण है कि हम स्वयं अपने लिए बंधन पैदा करते हैं, अपने आस-पास सुख और समृद्धि का ऐसा वातावरण पैदा करना चाहते हैं जो भले ही कितने दुखों का सामना करके मिलता हो. हर दुःख हमें एक काल्पनिक सुख की आशा दिलाता है, जबकि वास्तविक सुख लेकर हम पैदा ही हुए हैं.

Sunday, February 26, 2017

एक यात्रा है मन की

२७ फरवरी २०१७ 
मानव का मन एक सीढ़ी है, जिससे ऊपर भी जाया जा सकता और नीचे भी. यह एक पुल है जिससे संसार तक भी जाया जा सकता है और परमात्मा तक भी. ऊर्जा एक ही है. जब मन नीचे के केन्द्रों में रहता है तब जिस दुःख और पीड़ा का अनुभव वह करता है, वह उसी ऊर्जा से निकली है जिससे ऊपर के केन्द्रों में रहकर सुख और आनन्द का भी अनुभव किया जा सकता है. हम शाश्वत सत्य की तरफ मुख करके भी चल सकते हैं और पल-पल बदलने वाले मिथ्या जगत की ओर भी. यह सदा याद रखना होगा कि मन को भरा नहीं जा सकता क्योंकि मन नाम ही उसी का है जो कभी संतुष्ट नहीं होता, अन्यथा जगत में इतना विकास न दिखाई देता. मन एक ऊर्जा है और उसका न विनाश किया जा सकता है न  उत्पन्न किया जा सकता है, हाँ उसको दिशा दी जा सकती है. दोनों दिशाएं हमारे भीतर ही हैं और पलक झपकते ही हम अपनी दिशा को बदल सकते हैं. कृष्ण कहते हैं दुराचारी से दुराचारी व्यक्ति भी किसी क्षण यदि सत्य की और बढ़ता है तो उसे भी सत्य प्राप्त होता है. आत्मा पूर्ण स्वतंत्र है कि वह कौन सा मार्ग चुने, परमात्मा अनंत धैर्यशाली है, वह सदा ही हमारी प्रतीक्षा करता है, वह सदा उपलब्ध ही है, हमें ही उसकी ओर दृष्टि करने की देर है. 

Friday, February 24, 2017

विस्मयकारी है जीवन यह

२५ फरवरी २०१७ 
प्रकृति से हम जितना जुड़े होते हैं, विस्मय हमें निरंतर आह्लादित किये रहता है. प्रकृति से कटकर कंक्रीट की दुनिया में रहने वाले नन्हे बीज से अंकुरित  होते गेहूँ के पौधे को बालियों से भरते भी नहीं देख पाते और उनके लिए अन्न के लिए  सम्मान की भावना भी नहीं उपजती. सृष्टि एक रहस्य से भरी है, पर विज्ञान पढने वाले के लिए जैसे हर रहस्य का उत्तर मानो पुस्तकों में बंद है. नीले आकाश को यदि एक बार भर नजर कोई देखे तो मन खो जाता है, बुद्धि शांत हो जाती है. अनंत है जिसका विस्तार उसके बारे में कोई कहे भी तो क्या..संतों के पास जाकर भी मन ठहर जाता है, वे भी एक रहस्य ही जान पड़ते हैं. ध्यान उसी विस्मय में डूबने का ही तो नाम है. 

Thursday, February 23, 2017

शिवरात्रि पर सधे जागरण

२४ फरवरी २०१७ 
सुबह जब आकाश पर तारे भी दिखते  हों और उषा की भनक भी मिलती हो, आकाश का गहरा नीला रंग और त्रयोदशी का  पीला चाँद शिव के विशाल मनोहारी रूप का दर्शन कराता हुआ सा लगता है. गगन के समान सब जगह व्याप्त है शिव की सत्ता, उसकी उपस्थिति मात्र से  सब ओर गहन शांति छा जाती है. शिव ही ऊर्जा है जो इस सृष्टि का मूल है, सृष्टि ही वह शक्ति है जो निरंतर शिव के साथ है पर फिर भी उससे पृथक. आत्मा और देह की भांति शिव और शक्ति एकदूसरे के पूरक हैं, शिव शक्ति के परे भी है जैसे आत्मा देह के बाद भी रहती है. शिवरात्रि वह रात्रि है जब शिव कृपा को अबाध पाया जा सकता है, अनुभव किया जा सकता है.

सागर में इक लहर उठी

२३ फरवरी २०१७ 
वैज्ञानिक कहते हैं पदार्थ कुछ और नहीं ऊर्जा का ही दूसरा  रूप है, संत कहते हैं अहंकार कुछ और नहीं आत्मा ही है. हमारे चारों ओर सृष्टि का जो अति विशाल विस्तार दिखाई पड़ रहा है, यह पहले इस रूप में नहीं था और अभी भी निरंतर बदल रहा है, किन्तु जिस ऊर्जा के महासागर में यह स्थित है और जिससे बना है वह सदा से ऐसी ही है. हर व्यक्ति के भीतर जो 'मैं' की अनुभूति होती है वह भी जन्म के बाद ही समाज द्वारा दी गयी होती है, नवजात शिशु  के पास कोई 'मैं' नहीं होता, केवल चेतना होती है, वह भी शुद्ध चेतना के महासागर में उठी एक लहर ही तो है. जो सदा से है और सदा रहेगी वही शुद्ध चेतना ही ईश्वर है. 

Wednesday, February 22, 2017

स्वयं के निकट देह से दूर

२२ फरवरी २०१७ 
उपवास का वास्तविक अर्थ है स्वयं के निकट निवास करना, अर्थात देह से पृथक भीतर की चेतना के निकट वास करना. जब साधक अपने पास रहने की कला सीखना चाहता है तो ध्यान के द्वारा प्रसाद रूप में पाया उपवास इसमें सहायक है. भीतर यह भान होने लगता है  कि भूख देह को लगती है आत्मा इसे देखने वाला साक्षी मात्र है, भोजन आवश्यक है पर इसके प्रति आसक्ति आवश्यक नहीं है. साधक जब उपवास को सही अर्थों में समझने के बाद ही इसे करने का व्रत लेता है तो स्वयं को आत्मा के निकट सहज ही  पाता है. स्वयं का होना ही उसे पर्याप्त लगता है. जब देह का स्मरण ही नहीं आता तब ही सच्चा उपवास घटता है. मन में तरह-तरह के व्यंजनों को खाने की इच्छा हो और उपवास के नाम पर उनका सेवन हो तो आत्मा से दूरी बढ़ जाएगी और मन देह में ही वास करेगा. 

Saturday, February 11, 2017

लय और ताल सधे जीवन में

११ फरवरी २०१७ 
प्रकृति के हर काम में एक लय झलकती है. दिन-रात के होने और ऋतु परिवर्तन के अनुसार मन के भी मौसम होते हैं। उन्हें समझकर जो उनके अनुरूप स्वयं को ढाल लेता है, वह स्वस्थ रह सकता है। प्रातःकाल मन शांत होता है, उस समय का उपयोग स्वाध्याय व साधना में लगे तो दिन भर ताजगी रहेगी. जीवन में संगीत तभी प्रकटेगा जब एक लय हमारे मन, वचन तथा कर्मों में होगी। नियत समय पर नियत कार्य होते रहें तो  मन देह से ऊपर जा सकता है, अन्यथा सामान्य जीवन से परे भी एक अलौकिक जीवन है, इसकी ओर दृष्टि ही नहीं जाती।

Wednesday, February 8, 2017

मृत्यु जीवन का सच है

८ फरवरी २०१७ 
संत कहते हैं मन में सदा मृत्यु का स्मरण रखना चाहिए, मृत्यु किसी भी पल हमें अपना ग्रास बना सकती है. वह हमारे दो कदम पीछे ही चल रही है साथ-साथ. वास्तव में हर पल हम अपनी मृत्यु के लिए मार्ग बना रहे हैं., हर नया दिन मृत्यु को और करीब ले आता है. हम इस सबसे अनभिज्ञ ऐसे जिए चले जाते हैं जैसे सदा ही बने रहेंगे. जीवन की भव्यता से भी परिचित नहीं पाते, यदि किसी को यह पता चल जाये कि कल उसे मरना है तो वह आज को किस शिद्दत से न जियेगा. संत ऐसे ही जीते हैं हर पल को गहराई से महसूस करते हुए, कुदरत के नजरों को देख निहाल होते हुए और मन को सदा हल्का और खाली रखते हुए. इसका अर्थ हुआ मृत्यु ही जीवन को सुंदर बनाती है.

Monday, February 6, 2017

जीवन बने सात्विक सबका

७ फरवरी २०१७ 
सत्व, रज और तम इन तीनों गुणों से सारी प्रकृति आच्छादित है. सत्व गुण प्रकाश, सुख  और ज्ञान को बढ़ाता है. रज हमें क्रियाशील बनाता है और तम निद्रा और जड़ता का कारण है. हमारा जीवन तभी सुंदर होगा जब रज और तम ये दोनों गुण संतुलित मात्रा में हों. आज समाज में जो दुःख और विषाद छाया है, उसका कारण तमस की अधिकता है. बच्चे और युवा रजस की अधिकता से पीड़ित हैं, वे शांत बैठना नहीं चाहते, नींद का समय खिसकते-खिसकते आधी रात तक चला गया है. आधुनिक गैजेट्स उनके मस्तिष्क को उत्तेजित किये रहते हैं. सत्व की अधिकता होने पर व्यक्ति मुक्ति की ओर सहज ही कदम बढ़ाता है और सत्व की कमी होने पर रोगों का शिकार हो जाता है. अब प्रश्न यह उठता है कि सत्व को कैसे बढ़ाएं, सात्विक भोजन, सात्विक दिनचर्या अर्थात योग साधना से दिन का आरम्भ, नियमित स्वाध्याय, जीवन में अनुशासन, ध्यान का अभ्यास आदि सत्व गुण को पोषित करते हैं. देह स्वस्थ हो, मन शांत हो और बुद्धि तीक्ष्ण हो यह कौन नहीं चाहता, इसके लिए आवश्यक है कि रज और तम को धीरे-धीरे कम करते जाएँ.

सरल अति हो जीवन अपना

६ फरवरी २०१७ 
मानव के शरीर में हर क्षण कुछ न कुछ घट रहा है. श्वास का आना-जाना कितना सहज है पर इसके पीछे का विज्ञान कितना जटिल है. इसी तरह इस विशाल प्रकृति में पल-पल कितना कुछ घट रहा है, इसे जानना सबके वश में नहीं है पर इन सबके साथ एक मैत्री भाव का अनुभव करना, इन्हें अपना जानना हर किसी के हाथ में है. जीवन तब सरल हो जाता है, जब सारा संसार अपना घर लगता है, पर ऐसी स्थिति तक पहुंचने के लिए अपने  छोटे से  घर से ममता का त्याग करना होगा, अंतर को इतना विशाल बनाने के लिए लघु से मोह को तो छोड़ना ही होगा. अहंकार के लिए तब कोई काम नहीं बचेगा, क्योंकि अपना कहने जैसा तब कुछ भी नहीं होगा, सृष्टि जितनी अपनी है उतनी ही हर किसी की, सहजता और सरलता तब जीवन के सूत्र बन जायेंगे. 

Thursday, February 2, 2017

एक विशाल गगन भीतर है

३ फरवरी २०१७ 
प्रकृति में निरंतर एक संगीत गूंज रहा है, हम अपने मन में चल रहे शोर के कारण उसे सुन न पायें वह बात अलग है. सत्य एक शून्य की भांति, आकाश की भांति चारों ओर फैला हुआ है, हम उसे स्पर्श नहीं कर पाते न ही देख पाते हैं, दोनों का आयाम ही अलग है. दोनों के गुण धर्म ही अलग हैं, जब तक कोई देह और मन के पार की झलक नहीं पा लेता तब तक उसके जीवन में प्रकाश नहीं उतरता.  

सुख-दुःख दोनों रचना मन की

२ फरवरी २०१७ 
स्वयं को जाने बिना हम यह उम्मीद करते हैं कि दूसरे हमें जानें, स्वयं को समझे बिना हम दूसरों को समझने की कोशिश करते हैं. दोनों ही बार निराशा ही मिलने वाली है. इस दुनिया में हमें जो कुछ दिखाई दे रहा है वह स्वयं के दर्पण पर प्रतिबिम्बित होकर ही दिखाई दे सकता है. स्वयं में यदि कहीं कोई उलझाव है तो प्रतिबिम्ब भी स्पष्ट नहीं बन सकता. साधना का एकमात्र उद्देश्य यही है कि हम स्वयं को भीतर बाहर अच्छी तरह परख लें. किस बात से हम दुःख बनाते हैं और किस बात से सुख, सुख-दुःख का निर्माता हमारा स्वयं का मन ही है, यह बात जब अनुभव के तौर पर नजर आने लगती है तो तत्क्षण हम दुःख के पार हो जाते हैं.