२८ फरवरी २०१७
हमारे भीतर ही दैवी संपदा है और आसुरी संपदा भी. कृष्ण भगवद गीता में इन दोनों संपदाओं के लक्षणों का वर्णन करते हैं. अभय दैवी संपदा का सबसे पहला लक्षण है, पाखंड आसुरी संपदा का. यदि हमारे भीतर स्वयं के कल्याण की आकांक्षा जगती है, यह इस बात का प्रमाण है कि भीतर दैवी संपदा है, हो सकता है अभी वह ढकी है. यदि कोई अपने जीवन का ध्येय केवल सुख-सम्पत्ति जुटाने को ही बना लेता है तो सम्भव है उसके भीतर आसुरी संपदा हो. दैवी संपदा मुक्त करती है, अंततः हमें आत्मिक सुख से भरती है, जबकि आसुरी संपदा बांधती है, यह मन को संतुष्टि का अनुभव नहीं होने देती. स्वतंत्र होना हर कोई चाहता है पर इसके साथ जो अनिश्चितता जुड़ी है उसे कोई नहीं चाहता, परतंत्र होना कोई नहीं चाहता पर उसके साथ जुड़ी सुरक्षा हर किसी को पसंद है. यही कारण है कि हम स्वयं अपने लिए बंधन पैदा करते हैं, अपने आस-पास सुख और समृद्धि का ऐसा वातावरण पैदा करना चाहते हैं जो भले ही कितने दुखों का सामना करके मिलता हो. हर दुःख हमें एक काल्पनिक सुख की आशा दिलाता है, जबकि वास्तविक सुख लेकर हम पैदा ही हुए हैं.
हर दुःख हमें एक काल्पनिक सुख की आशा दिलाता है, जबकि वास्तविक सुख लेकर हम पैदा ही हुए हैं.
ReplyDeleteदुःख की दुनिया में सत्य आइना है. जब हम सब आइना देखते हैं तो सब कुछ साफ़-साफ़ दीखता है... नजरिये में फर्क हो सकता है.
स्वागत व आभार राहुल जी, आपने सही कहा है, सत्य ही वह दर्पण है जिसमें सब कुछ स्पष्ट दिखाई देता है.
ReplyDelete