Tuesday, March 20, 2012

नमस्कार


प्रिय ब्लॉगर साथियों, मैं कुछ दिनों के लिये यात्रा पर जा रही हूँ, अतः आपके ब्लॉग पर मैं नियमित उपस्थित नहीं हो सकूंगी, मेरी भी नियमित पोस्ट संभव नहीं हो सकेगी, मेरा अनुरोध है कि आप मेरी पुरानी पोस्ट जो आपकी नजर में नहीं आयी हों, उन्हें पढ़ें, अनंत आपके जीवन में जगमगाए इसी शुभकामना के साथ...
 आपकी अपनी ब्लॉगर मित्र अनिता 

खजाने रहमत के


जनवरी २००३ 
“जिसको देना चाहता है, उसी को आजमाता है, खजाने रहमत के वह इसी तरह लुटाता है”...ज्ञान शक्ति को बढ़ाने के लिये इच्छा शक्ति को घटाना होगा. ज्ञान शक्ति से ही क्रिया शक्ति जागृत होगी. आत्म चेतना में यह तीनों शक्तियाँ हैं जिनसे हमें सुख प्राप्त होता है. जो साधक ऊँचाईयों तक जाना चाहता है, अपने भीतर के खजाने को पाना चाहता है, उसे अपना समय और ऊर्जा सम्भल कर खर्च करनी होगी. तेज, बल व ओज बढ़े इसके लिये ऊर्जा व्यर्थ न हो. अनुशासन हमें मुक्त करता है और जिसे मुक्ति नहीं चाहिए उसे भक्ति प्रदान करता है. सुबह-सुबह कुछ देर की साधना व सत्संग हमें सात्विकता की ओर ले जातें है जैसे-जैसे दिन बीतता जाता है रजो गुण व तमो गुण अपनी लपेट में ले लेते हैं. सर्व काल में स्मरण बना रहे, कृपा का अनुभव होता रहे, कृतज्ञता का भाव मन में रहे तब ही मानना होगा कि हम साधना के पथ पर हैं. ईश्वर हर क्षण अपनी ओर पुकारते हैं और हमें ठोकर तभी लगती है जिस क्षण हम उससे अलग होते हैं.

Sunday, March 18, 2012

मृत्यु से भय कैसा


जनवरी २००३ 
मृत्यु के बाद व्यक्ति कहाँ जाता है कोई नहीं जानता.. आत्मा शाश्वत है, वह किसी नई देह को धारण कर लेती होगी और संभवतः इस जन्म की बातें शीघ्र ही भूल भी जाती होगी. हम जन्म के पूर्व अव्यक्त रहते हैं, मृत्यु के बाद भी अव्यक्त हो जाते हैं, मध्य में कुछ ही समय हम व्यक्त होते हैं, इस क्षणिक जीवन में जितने-जितने हम शुद्ध होते जाते हैं, उतना ही मृत्यु का भय कम होता जाता है. अपने उस स्वरूप का अनुभव हमें इसी रूप में होने लगता है, जो रूप हम मृत्यु के बाद अनुभव करने वाले हैं. तन व मन से परे, बुद्धि, चित्त, अहंकार से भी परे हमारा शाश्वत प्रेममय, ज्ञानमय, और आनन्दमय रूप है जो सत्य है और सनातन है. यह रूप तो हमें अपनी पूर्वजन्म की इच्छाओं और वासनाओं के कारण मिला है. हमारे कर्म यदि इस जन्म में निष्काम हों और वासनाएं न रहें तो आपने शुद्धतम रूप में हम प्रकट हो सकते हैं. वैसे भी इस जगत में ऐसा है भी क्या जो हमें तुष्ट कर सके.

Friday, March 16, 2012

हर जगह बस वही तो है


जनवरी २००३ 
भक्त परमात्मा की उपस्थिति को अपने भीतर-बाहर हर जगह महसूस करता है. जब हम भीतर बाहर एक से होते हैं तभी उसे अनुभव कर पाते हैं. जब हम तृष्णा से बंधे नहीं होते, सब कुछ हो रहा है, ऐसा जानते हैं, तभी उसको जान सकते हैं. उसको जानने के लिये उसके जैसा तो होना ही पड़ेगा. परमात्मा ही गुरु बनकर हमें ज्ञान देता है उसके प्रति कृतज्ञता का भाव बने, सबमें उसे देखना आ जाये तो अहंकार व आसक्ति से हम बच जाते हैं. मन के संशय भी मिट जाते हैं. जन्म-मरण की पटरियां ही तो हमने पार करनी हैं फिर मन में इतना ताना-बाना बुनने की क्या आवश्यकता है, एक उसी का आश्रय पर्याप्त है. नाव पानी में रहे तब तो ठीक है पानी नाव में आ जाये तो वह डूब जाती है. 

Thursday, March 15, 2012

सत्य और स्वप्न


जनवरी २००३ 
यह दुनिया स्वप्न की नाईं है यहाँ कुछ भी सत्य नहीं है, सत्य मात्र एक वही द्रष्टा है, हमें उसी का चिंतन करना है, जन्म और मृत्यु शाश्वत सत्य हैं, इस संसार के रास्ते पर जो भी हमें दिख रहा है वह सब बदलने वाला है, सब कुछ प्रतिपल बदल रहा है. जिसका भी जानना होता है वह विनाश को प्राप्त होगा ही. जिसका भी जन्म होगा वह मरेगा ही. सभी कुछ काल के अधीन है. जाने-अनजाने सब उसी एक सत्य की खोज में हैं, कोई पहली सीढ़ी पर कोई पाँचवी तो कोई सौवीं पर पहुँच गया है. आसक्तियों की रस्सियाँ हमें इधर-उधर खींचती रहती हैं, हम पुनः इस मरणशील जग के पीछे ही चल पड़ते हैं. दम्भ को अपना लेते हैं, वाणी का संयम भूल जाते हैं, संदेह के बादल छा जाते हैं. लेकिन जब हृदय में भक्ति का प्रकाश होता है, तन-मन फूल की तरह हल्के हो जाते हैं. सब कुछ स्पष्ट हो जाता है. अंतर सौम्यता से भर जाता है. हमारी चेतना पवित्र है क्योंकि वह परमात्मा से जुड़ी है.

Wednesday, March 14, 2012

आत्मा का पथ सुंदर है


जनवरी २००३ 
हमें यह सुंदर जीवन भोग के कारण दुःख उठाने के लिये नहीं मिला है, बल्कि योग के द्वारा अनंत शांति, प्रेम व आनंद को पाने के लिये मिला है. देवों और असुरों की तरह हमारा मन व आत्मा दोनों ही परमात्मा के हैं, असुर भी कोई कम शक्तिशाली तो थे नहीं, देवताओं को हरा देते थे, वैसे ही मन के प्रभाव में आकर हम विकारों के गुलाम बनते हैं, तृष्णाओं की आग में स्वयं को जलाते हैं. अब कंस और रावण के मार्ग पर चल कर कोई आनंद कैसे पा सकता है. फिर यह सोच कर खुद पर क्रोध भी आता है कि जीवन का अनमोल समय व्यर्थ बीता जा रहा है, सुख आज भी दूर है. मन के मार्ग पर चलेंगे तो अंत में सिवाय दुःख व बेचैनी के कुछ हाथ आने वाला नहीं है. तो मार्ग क्या है, यही कि मन को पहचान लें और जितनी जल्दी हो सके आत्मा के पथ के राही बन जाएँ, आरम्भ में सब अनजाना भले ही लगे पर अंत में परमात्मा ही मिलेंगे अर्थात आनंद, प्रेम, शांति, शक्ति, सुख, ज्ञान व पवित्रता...!

Tuesday, March 13, 2012

नन्हा सा ? यह मन बेचारा


जनवरी २००३   
सत्य के साधक को आपने मन पर नजर रखनी होती है, हमारे मन में एक पल में न जाने कितने विचार आकर चले जाते हैं, जिनके बारे में हम कभी ध्यान ही नहीं देते. ध्यान करते-करते मन जब दर्पण जैसा बन जाये तो भीतर का सारा खेल उसमें झलकने लगता है, तब सूक्ष्म से सूक्ष्म बात भी छिप नहीं सकती. मन ही हमारा शत्रु है और मन ही हमारा मित्र है, सारी साधना इसी मन को केन्द्र में रखकर होती है. हर पल का हमारा साथी है मन, पर इसकी गहराइयों में क्या छिपा है हम नहीं जानते. विचित्र हैं इसकी गतिविधियां. आत्मा की शक्ति ही है मन, हमें आत्मा का संचय करना है अर्थात मन का संचय करना है. व्यर्थ के चिंतन में न लगाकर अपने लक्ष्य पर केंद्रित करना है. ध्यान से ऊर्जा का संचय होता है जो हममें कर्म करने का सामर्थ्य बढ़ाती है. मन की सीमा नहीं और इसीलिए इसको असीम प्रेम, ज्ञान व शांति से ही संतुष्ट किया जा सकता है ससीम वस्तुओं से नहीं.

Monday, March 12, 2012

बरसे कृपा का बादल ऐसे


जनवरी २००३ 
हम जब भी किसी की आलोचना करते हैं उसके अवगुण हम ग्रहण कर लेते हैं और हमारे सदगुण हमें छोड़ जाते हैं उतना स्थान भी तो चाहिए. साधक को मान-अपमान की चिंता यदि बनी है तो अहंकार अभी गया नहीं. तृष्णा यदि बनी हुई है तो अंतर्शुद्धि अभी हुई नहीं है. ईश्वर के नाम का स्मरण, उससे सम्बन्ध जोड़ने से आत्मिक खजाना बढ़ता है और विकार हमें छोड़ते हैं. हमारी भावना यदि पवित्र होगी तो छोटे से छोटा कार्य भी पावन बन जायेगा. उसकी कृपा प्राप्त करने में एक क्षण भी नहीं लगता यदि भीतर उसके लिये स्थान हो...वह तो हर पल हमें आपने शुद्द रूप से मिलाने का प्रयत्न करता है पर हम ही छोटे-छोटे सुखों के पीछे भागते रहते हैं. जब मन में कोई दौड़ बाकी न रहे, विचारों का अनवरत चलता हुआ प्रवाह रुक जाये अथवा तो साक्षी भाव टिके. मकड़ी की तरह हम अपने बनाये जाल में फंसे नहीं, कमल की भांति ऊपर रहें, निर्लिप्त, निस्सीम, शांत और ज्ञान में स्थित, तभी उसकी कृपा मिलती है.

Friday, March 9, 2012

आओ मन के पार चलें


साधना एक तरह का मानसिक स्नान ही तो है, जैसे दिन भर में तन व वस्त्रों पर धूल या मैल लग जाती है, वैसे ही मन के वस्त्र पर भी मैल जम जाती है जिसे हर सुबह ध्यान, प्रार्थना आदि से हम स्वच्छ करते हैं, स्वाध्याय के माध्यम से उसे सुंदर बनाते हैं. हमारे मन की गहराई में आनन्दमय कोष है, जो वास्तव में हमारा स्वरूप है. जो कभी-कभी झलक भी दिखाता है जब पल भर के लिये मन ठहर जाता है. वह हर पल हमारे सम्मुख प्रगट होने को आतुर है पर हम ऐसे अभागे हैं कि मन को थोड़ी देर के लिये भी इतर विषयों से मुक्त नहीं कर पाते, मन में संसार प्रवेश किया रहे तो उसे कहाँ बिठाएं, मन की ही चलती है ज्यादातर, हम जो वास्तव में हैं वह तो कहीं पीछे ही छिपे रह जाते हैं. जैसे कोई अपने ही घर में एक कोने में दुबका रहे और घर पर पड़ोसी कब्जा कर ले, वही हालत हमारी है. दुनिया भर की फिक्रें हम करते हैं बिना किसी जरूरत के, पर जो वास्तव में हमें करना चाहिए उसके लिये समय नहीं निकल पाते. मनोराज्य बहुत हो गया अब आत्म राज्य की बारी है, आत्मा में रहकर ही विशुद्ध प्रेम का अनुभव होता है.


Sunday, March 4, 2012

कृष्ण कथा अमृत


जनवरी २००३ 

भागवद् महापुराण में कृष्ण की कथा है, बल्कि कहना चाहिए कि कृष्ण कथा का अमृत है भागवद्,  जिसे पढ़कर कृष्ण के प्रति अथाह प्रेम उमड़ता है. वह इतनी प्यारी बातें कहते हैं अपने ग्वालबाल मित्रों से, गोपियों से, सखा उद्धव से और मित्र अर्जुन से कि बरबस उनपर प्यार आता है. वह सभी को निस्वार्थ भाव से प्रेम करते हैं बिना किसी प्रतिदान की आशा के, एकांतिक प्रेम ! और जो उन्हें प्रेम करता है उसे वह अभयदान देते है, वह उनके निकट आकर निर्भय हो जाता है. वह सम्पूर्ण प्रेम, ज्ञान और प्रेम के आगार हैं.... वास्तव में वह जो हैं उसकी कल्पना भी कर पाना हमारे लिये कठिन है. हम एक बार प्रेम से उनका नाम भी उच्चारित करते हैं तो हृदय में कैसी हिलोरें उमड़ती हैं. उनका नाम और वह अभिन्न हैं. वह भक्त की हर बात सुनते हैं, सारी छोटी-बड़ी कामनाएं उन पर उजागर हैं, सारी कमियों के वह साक्षी हैं, उसका प्रमाद व लापरवाही भी उनसे छिपी नहीं है और भक्त का प्रेम भी....

Friday, March 2, 2012

श्रद्धा मुक्ति का द्वार है



श्रद्धावान लभते ज्ञानं ! ईश्वर में, सत्य में, शुभ में, श्रद्धा हो तो वह सदा वर्तमान है. हमारे निकट है. साधना में उससे अभिन्नता का अनुभव हमारे मन को फूल सा खिला देता है. हमारे आसपास भी धीरे-धीरे परिवर्तन शुरू हो जाता है. वास्तविक जीवन तभी शुरू होता है जब हम अपने भीतर के आनंद को पा लेते हैं., स्वयं की प्रसन्नता के लिये जगत के मोहताज नहीं रहते, पूर्ण मुक्त हो जाते हैं. एकांत में रहने से जो भय भीत नहीं है, मनसा. वाचा, कर्मणा जो सदमार्ग पर स्थित है. अपने सुख-दुःख के लिये जो स्वयं उत्तरदायी है वही साधना के पथ पर आगे बढ़ सकता है.