Thursday, December 28, 2017

हीरा जनम अमोल है

२९ दिसम्बर २०१७ 
जीवन का हर पल अनंत सम्भावनाएं छिपाए है. अगले पल क्या घटने वाला है, कोई नहीं जानता. हर घड़ी एक नया अवसर लेकर हमारे सम्मुख आती है. हम क्या चुनते हैं, यह हम पर निर्भर है. समय की धारा तो बही जा रही है. उसमें कुछ सूखे हुए पुष्प हैं तो कुछ नव कुसुमित कमल भी, कुछ बासी मालाएं हैं तो कुछ सूर्य की नव रश्मियाँ भी, हमारी दृष्टि किस पर है, सब कुछ इस पर निर्भर करता है. कोई यूँही सोये-सोये भोर गंवा देता है तो कोई निकल पड़ता है, सुबह की लालिमा और हवा की स्नेह भरी छुअन को समेटने, परमात्मा को धन्यवाद देने अथवा तो ध्यान, सुमिरन में डूबने, जिससे ऊर्जा के उस महत स्रोत से वह जुड़ जाये और अपने भीतर ही तृप्ति का महासागर उसे मिल जाये. जीवन अनमोल है इसका मर्म जाने बिना इसका कीमत का अंदाजा नहीं होता. आने वाले वर्ष में अन्य लक्ष्यों के साथ इस एक खोज को भी जोड़ लें तो नया वर्ष कभी बीतेगा ही नहीं.

Wednesday, December 27, 2017

अदृश्य पर दृष्टि जिसकी

२७ दिसम्बर २०१७ 
शंकर कहते हैं, ‘ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या’. जैसे कोई कहे वस्त्र सत्य है उस पर पड़ी सिलवटें मिथ्या हैं, धागा सत्य है उस पर पड़ी गाँठ मिथ्या है अथवा तो सागर सत्य है, उसमें उठने वाली लहरें, झाग व बूंदें मिथ्या. सिलवटें, गाठें, लहरें और बूंदें पहले नहीं थीं, बाद में भी नहीं रहेंगी, वस्त्र, धागा और सागर पहले भी थे और बाद में भी हैं. इसी तरह हमकह सकते हैं, मन सत्य है उसमें उठने वाले विचार, कल्पनाएँ, स्मृतियाँ मिथ्या हैं, जो पल भर पहले नहीं थीं और पल भर में ही खो जाने वाली हैं. विचार की उम्र कितनी अल्प होती है यह कोई कवि ही जानता है, एक क्षण पहले जो मन में जीवंत था, न लिखो तो ओस की बूंद की तरह ही खो जाता है. आनंदपूर्ण जीवन के लिए हमें सत्य को देखना है, इस बदलते रहने वाले संसार के पीछे छिपे सत्य परमात्मा को अपना अराध्य बनाना है. 

Monday, December 25, 2017

मन के हारे हार है मन के जीते जीत

२६ दिसम्बर २०१७ 
एक तरफ पदार्थ है और दूसरी तरफ चेतना दोनों को जोड़ता है मन. मन कभी पदार्थ की तरह जड़ बन जाता है तो कभी चेतना से एक होकर चेतन. मन को यह सुविधा है कि इससे नाता जोड़े या उससे. जड़ होने में श्रम नहीं लगता पर उसका खामियाजा मन को ही भुगतना पड़ता है, वह सीमाओं में कैद हो जाता है. जड़ का ही आकार ग्रहण कर लेता है. चेतना का कोई रूप नहीं, वह एक शक्ति है, सो चेतना के साथ जुड़ने पर मन भी अनंत हो जाता है. सुख-दुःख के पार, तीनों गुणों के पार हुआ मन सहज ही आनंद का अनुभव करता है. चेतना का सहज स्वभाव है शांति, प्रेम और विश्वास, ऐसे में मन भी स्वयं को निर्मल और सरल अनुभव करता है.

Thursday, December 21, 2017

जीना यहाँ मरना यहाँ

२२ दिसम्बर २०१७ 
जीवन और मृत्यु देखने में विपरीत लगते हैं पर वास्तव में एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. जीवन आरम्भ हुआ उससे पूर्व आत्मा एक देह त्याग कर आई थी. शिशु बड़ा हुआ, किशोर और युवा होने तक देह विकसित होती रही, फिर प्रौढ़ावस्था और बुढ़ापा आने पर देह सिकुड़ने लगी और एक दिन आत्मा ने पुनः शरीर को त्याग दिया. जीवन के साथ-साथ ही मृत्यु की धारा भी निरंतर बहती रहती है. हमें एक देह में रहते-रहते उसी तरह उससे लगाव हो जाता है जैसे किसी को अपने ईंट-पत्थरों के घर से हो जाता है, घर बदलते समय भीतर कैसी हूक उठती है, उसी तरह आत्मा को नई देह मिलेगी पर इस जर्जर देह को त्यागने में उसे अत्यंत कष्ट होता है. धरती का आकर्षण उसे अपनी ओर खींचता है और अनजान का भय भी सताता है.

Wednesday, December 20, 2017

पल में सारा राज छिपा है

२१ दिसम्बर २०१७ 
जीवन और काल, ये दोनों शब्द पर्यायवाची होने चाहिए. जीवन की धारा प्रतिपल बह रही है और काल का अश्व भी निरंतर गतिमान है. दोनों अपने स्थिर होने का भ्रम देते हैं, अन्यथा क्यों कोई पत्थरों पर लाखों व्यय करता है और फूलों की तरफ आंख उठाकर भी नहीं देखता. जीवन की भव्यता को समझे बिना ही हम समय बिताये जाते हैं. यहाँ हर क्षण में अनंत छिपा है, संत कहते हैं जो मिला ही हुआ है उस पर तो हम पर्दे डाले जाते हैं और जो मिल ही नहीं सकता उस सुख के लोभ में दिन का चैन और रातों की नींद गंवाते हैं. योग ही वह सूत्र है जो जीवन और काल को एक कर देता है.  

Tuesday, December 19, 2017

माया के जब पार हो सकें

२० दिसम्बर २०१७ 
मन ही माया है. सृष्टि जैसी है वैसी ही यह देखने नहीं देता. जैसे सावन के अंधे को हर जगह हरा ही हरा दिखाई पड़ता है वैसे मन के द्वारा छली गयी आत्मा को जगत में दोष ही दोष दिखाई पड़ते हैं. मन अपनी मान्यताओं और कल्पनाओं के जाल में उलझ कर जगत को वैसा ही दिखाता है जैसा वह देखना चाहता है. ध्यान है मन के पार जाने की कला, स्वयं को अपने मूल रूप में जानने और कुछ पलों के लिए उसमें स्थित होकर शक्ति पाने की कला. भगवद् गीता में कृष्ण कहते हैं, मेरी माया के पार जाना हो तो मेरी शरण में आना होगा. कृष्ण की शरण में ध्यान में ही जाया जा सकता है. स्तुति, जप अथवा श्वासों पर मन को टिकाना, किसी भी विधि का उपयोग करके मन को स्थिर किया जा सकता है और शांत और एकाग्र हुआ मन ही स्वयं में विश्राम कर पाता है. विश्राम के क्षणों में प्राप्त हुई शांति उसे सुकृत्य के लिए प्रेरित करती है. 

Monday, December 18, 2017

जो घर भूला आपना

१९ दिसम्बर २०१७ 
संतजन कहते हैं, मानव खुद को भूल गया है. जैसे कोई बच्चा मेले में खो जाये और उसे न अपने घर का पता-ठिकाना ज्ञात हो न पिता का नाम तो उसकी जो अवस्था होती है वैसी ही अवस्था हमारी इस जगत रूपी मेले में आकर हो गयी है. ऐसे में कोई पहचान का व्यक्ति आ जाये और बच्चे को उसके घर पहुंचा दे तो वह कितना प्रसन्न न हो जायेगा. संत हमें वास्तविक रूप से पहचानते हैं, उनके संग होकर ही हम अपने घर पहुंच सकते हैं. बच्चा सहज विश्वासी है, पर हमारी बुद्धि संशय करती है, और हम घर जाने का मार्ग जानकर भी कुछ और समय संसार में ही भटकते रहना चाहते हैं. यह संसार कहीं बाहर नहीं है और न ही यह घर कहीं बाहर है, मन ही संसार है और आत्मा ही घर है. दूरी न स्थान की है न समय की, पर कैसा आश्चर्य कि युगों से हम घर से बाहर ही भटक रहे हैं. 

मुक्त हुआ मन जब आशा से

१८ दिसम्बर २०१७ 
व्यक्ति, वस्तु अथवा परिस्थिति से किसी न किसी प्रकार की अपेक्षा रखना ही व्यक्ति के दुःख का कारण है, यह बात न जाने कितनी बार हमने सुनी है. मन यदि असंतुष्ट है तो इसका एकमात्र कारण है अपेक्षाओं का पूरा न होना. एक प्रकार से मन अपेक्षाओं का ही दूसरा नाम है. जब तक यह बात अनुभव से स्वयं को सही न जान पड़े तब तक अपेक्षा से मुक्त होना सम्भव नहीं है. इसीलिए जिस क्षण प्रमाद और अनावश्यक क्रिया से मुक्त होकर साधक निज स्वभाव में लौटना चाहता है कोई न कोई स्मृति संस्कार रूप में आकर उसे विचलित कर देती है. अशांति का हल्का सा धुआं भी मन को ध्यानस्थ नहीं होने देता. सजग होकर यदि उस संस्कार के पीछे के कारण को जानने का प्रयास करें तो कोई न कोई अपेक्षा ही उसके मूल में दिखाई देती है. 

Friday, December 15, 2017

मुक्त रहे मन भूत-भावी से

१६ दिसम्बर २०१७ 
असजग व्यक्ति ही स्वयं के लिए और अंततः समष्टि के लिए दुःख का कारण बनता है. सृष्टि का हर कण स्वयं में आनंदित है. दुःख की अपने आप में कोई सत्ता नहीं है, यह सुख पर पड़ा आवरण मात्र है. कल्पना और स्मृति ही इसके दो आश्रय हैं. मानव मन के द्वारा दुःख का सृजन होता है. जीवन अपने आप में इतना अनमोल है पर जैसे नेत्र में पड़ा धूल का नन्हा सा कण दृष्टि को बाधित कर देता है और विशाल गगन भी दिखाई नहीं देता, वैसे ही मन में उठा कोई संस्कार जीवन की दिव्यता और भव्यता को भुला देता है. जैसे एक बीज अनंत बीजों का कारण है उसी प्रकार एक संस्कार अपने जैसे अनेक संस्कारों को जन्म देता है. जीवन तब एक पहेली बन जाता है.  

वर्तमान तय करता भावी

१५ दिसम्बर २०१७ 
हमारे द्वारा किया गया हर कृत्य चाहे वह भावना के स्तर पर हो, विचार के स्तर पर हो या क्रिया के स्तर पर हो अपना फल दिए बिना नहीं रहता. शास्त्रों में इसीलिए भावशुद्धि पर बहुत जोर दिया गया है, अशुद्ध भाव का फल भविष्य में दुःख के रूप में  मिलने ही वाला है यदि कोई इस बात को याद रखे तो तो किसी के प्रति अपने भाव को नहीं बिगाड़ेगा. व्यक्ति, परिवार, समाज अथवा किसी राष्ट्र के प्रति हो रहे अन्याय व भेदभाव को देखकर हम कितना नकारात्मक सोचने लगते हैं, हर घटना के प्रति प्रतिक्रिया देते हैं पर यह भूल जाते हैं कि हर विचार प्रतिफल के रूप में भविष्य में और नकारात्मकता लाने का सामर्थ्य रखता है. साधक को सजग रहना है और व्यर्थ के चिंतन से बचना है. प्रारब्धवश जो भी सुख-दुःख उसे मिलने वाला है उसके लिए किसी को दोषी नहीं जानना है. यदि वह स्वयं को कर्ता न मानकर मात्र साक्षी जानता है, तब किसी भी कर्म का फल उसे छू ही नहीं सकता.

Thursday, November 16, 2017

वर्तमान में सजग रहे जो

१६ नवम्बर २०१७ 
वर्तमान के कर्मों द्वारा हम प्रारब्ध के कर्मों को बदल सकते हैं. जन्म, आयु, और भोग हमें प्रारब्ध के अनुसार मिलते हैं, किन्तु हम कितना सुख-दुःख भोगते हैं, वह वर्तमान के पुरुषार्थ पर निर्भर करता है. किसी व्यक्ति को छोटा सा कष्ट भी अत्यधिक दुःख दे सकता है, और कोई बड़ा रोग होने पर भी शांति से उसे दूर करने की चेष्टा करता है. हमारे हर कर्म का फल किसी न किसी रूप में सम्मुख आने ही वाला है, यह जानते हुआ साधक वर्तमान के कर्मों के प्रति सजग रहता है. प्राप्त हुए दुःख को अपने ही किसी पूर्व कर्म के कारण आया जानकर वह अपने दुःख के लिए किसी को दोषी नहीं ठहराता. 

Tuesday, November 14, 2017

मन टिक जाये जब खुद में ही

१५ नवम्बर २०१७ 
बुद्ध ने कहा है, तृष्णा दुष्पूर्ण है. एक तृष्णा को पूर्ण करो तो दूसरी सिर उठा लेती है. मन तृष्णा का ही दूसरा नाम है. मन के पार गये बिना इनसे मुक्ति नहीं मिल सकती. जैसे ही मन में कोई कामना जगे, साधक को तत्क्षण उसकी पूर्ति में न लगकर उसे अच्छी तरह देखना चाहिए. साक्षी भाव में टिकना पहला कदम है. इसके बाद उसके फलस्वरूप क्या होगा, इसका चिन्तन भी करना चाहिए. पूर्व में कितनी बार इसी तरह कामनाओं को पूर्ण किया है पर मन अभी भी संतुष्ट नहीं हुआ है, इसका भी विवेक भीतर जगाना होगा. इतनी देर में मन अथवा देह में कुछ बेचैनी का अनुभव भी हो सकता है, पर कुछ ही क्षणों में वह भी लुप्त हो जाती है. मन थिर हो जाता है और स्वयं का अनुभव होता है. जहाँ पूर्ण शांति है. इस तरह के ध्यान के अभ्यास से कुछ ही दिनों में अनावश्यक पृथक हो जायेगा और आवश्यक की पूर्ति सहज ही होती रहेगी.


मिला सदा है सुख अंतर का

१४ नवम्बर २०१७ 
शास्त्रों में कहा गया है, वैराग्य में कौन सा सुख नहीं है. हमें वस्तुओं के ग्रहण में जितना सुख मिलता है, उतना ही दुःख एक न एक दिन उनका त्याग करने अथवा होने पर मिलेगा. यदि त्याग भाव से उन्हें ग्रहण किया जाये अर्थात उनकी कामना न करके सहज भाव से जो जीवन के लिए आवश्यक है उतना ही ग्रहण किया जाये तो भविष्य में मिलने वाले दुःख से बचा जा सकता है. आत्मा सहज ही सुखस्वरूप है, मन में कामना का जन्म हुआ उसके पूर्व तक मन शांत था. कामना की पूर्ति के लिए श्रम किया, भविष्य में इसके द्वारा जो फल मिलेगा उसकी स्मृति नहीं रही, और अल्पकाल का सुख पाने के बाद मन फिर शांत हो गया, अर्थात पूर्ववत स्थिति प्राप्त हो गयी. किन्तु जो संस्कार मन पर पड़ गया वह भविष्य में फिर कामना उत्पन्न करेगा और एक चक्र में ही जीवन घूमता रहेगा.

Monday, November 13, 2017

निज भाग्य के निर्माता हम

१३ नवम्बर २०१७ 
हमारा हर छोटा-बड़ा कृत्य मन अथवा इन्द्रियों में स्थित किसी न किसी कामना का ही फल होता है, तथा हर कृत्य एक बीज की भांति भविष्य में स्वयं भी अनेक फल प्रदान करने वाला है. मन, इन्द्रियों द्वारा प्रेरित होता है और आत्मा को मन द्वारा इसका ज्ञान होता है. मन व सूक्ष्म इन्द्रियां स्थूल देह के द्वारा सुख-दुःख का अनुभव करती हैं. इनमें से जो प्रबल है उसी की जीत होती है. यदि जिव्हा को मीठा खाने का राग है और मन उसकी इच्छा की पूर्ति करता है, तो इसका संस्कार मन पर पड़ जाता है. मिठाई खाने में जिस सुख का अनुभव किया उस सुख की स्मृति भी बार-बार खाने से गहरी होती जाती है. इसके द्वारा जो भी हानि शरीर को होगी उसका अनुभव मन को होगा, इन्द्रियों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा. अगली बार मन यदि सचेत रहा और इन्द्रियों द्वारा लालायित किये जाने पर भी स्वाद के वशीभूत नहीं हुआ तो भविष्य के दुःख से बच जायेगा अन्यथा पूर्व संस्कार के कारण पुनः उस सुख का अनुभव करने के लिए मिष्ठान ग्रहण करने के लिए तत्पर हो जायेगा. 

Friday, November 10, 2017

एक लक्ष्य जिसने भी साधा

१० नवम्बर २०१७ 
लक्ष्य यदि स्पष्ट हो और सार्थक हो तो जीवन यात्रा सुगम हो जाती है, योग के साधक के लिए मन की समता प्राप्त करना सबसे बड़ा लक्ष्य हो सकता है और भक्त के लिए परमात्मा के साथ अभिन्नता अनुभव करना. कर्मयोगी अपने कर्मों से समाज को उन्नत व सुखी देना चाहता है. मन की समता बनी रहे तो भीर का आनंद सहज ही प्रकट होता है. परमात्मा तो सुख का सागर है ही, और निष्काम कर्मों के द्वारा कर्मयोगी कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाता है, जिससे सुख का अनुभव होता है, अर्थात तीनों का अंतिम लक्ष्य तो एक ही है, वह है आनंद और शांति की प्राप्ति. सांसारिक व्यक्ति भी हर प्रयत्न सुख के लिए ही करते हैं, किन्तु दुःख से मुक्त नहीं हो पाते क्योंकि उन्होंने अपने सम्मुख कोई बड़ा लक्ष्य नहीं रखा. 

Wednesday, November 8, 2017

ज्ञान बिना कैसा सुख साधो

९ नवम्बर २०१७ 
जीवन यात्रा में चलते हुए हर कोई आनंद चाहता है. जन्मते ही बच्चा श्वास के रूप में सुख की मांग करता है, फिर भूख के दुःख को मिटाने के लिए आहार की. नन्हे से नन्हा जीव भी दुःख से बचना चाहता है. इसका कारण है कि जिस परमात्मा से इस जगत की सृष्टि हुई है, वह आनंद स्वरूप है. अपने आनन्द को लुटाने के लिए ही उसने यह विशाल आयोजन किया है. हिंसक पशुओं को पालने वाले भी इसका उदाहरण देते हैं कि वे भी आहार की पूर्ति हो जाने के बाद प्रेम और आनंद ही बांटते व चाहते हैं. प्रकृति का हर अंग चाहे वह लहराती हुई नदी हो या ऊंचे हिमखंड, देखने वाले को सहज ही आनंद से भर देते हैं. इतना सब होने के बावजूद भी मानव के जीवन में दुःख की अधिकता दिखाई देती है, अध्यात्म के अनुसार इसका कारण केवल और केवल अज्ञान है. 

Monday, November 6, 2017

विश्राम में छुपा है राम

६ नवम्बर २०१७ 
सुख-दुःख, इच्छा-प्रयत्न और राग-द्वेष से युक्त मन सदा ही चलायमान रहता है. जगत से राग के कारण सुख की इच्छा इसे प्रयत्न में लगाती है. द्वेष के कारण यह दुःख का अनुभव करता है. ध्यान करते समय अल्प काल के लिए ही सही जब मन सब इच्छाओं से मुक्त होकर स्वयं में स्थित हो जाता है, तब सुख-दुःख के पार चला जाता है. उस स्थिति में न राग है न द्वेष, एक निर्विकार दशा का अनुभव अपने भीतर कर यह शांति का अनुभव करता है. देह को सबल बनाने के लिए जैसे व्यायाम आवश्यक है, मन को सबल बनाने के लिए विश्राम आवश्यक है. ऐसा विश्राम ध्यान से ही प्राप्त होता है, जो उसे सकारात्मक ऊर्जा से भर देता है.   


Saturday, November 4, 2017

स्व धर्मे निधनं श्रेयः

५ नवम्बर २०१७ 
भगवद्गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं, स्वधर्म में मरना भी पड़े तो ठीक है परधर्म नहीं अपनाना चाहिए. स्वधर्म का अर्थ यदि हम बाहरी संप्रदाय को लेते हैं, तो उचित नहीं जान पड़ता. स्वधर्म का अर्थ है निज धर्म यानि आत्मा का सहज धर्म. देह, मन, बुद्धि आदि का धर्म ही परधर्म है. आत्मा शांति, प्रेम और आनंद स्वरूप है. आत्मा अविनाशी, अविकारी है. यदि कोई स्वयं को देह मानकर मरने वाला समझता है तो यही परधर्म को अपनाना है. मन मानकर सुख-दुखी होता है या बुद्धि मानकर हानि-लाभ की भाषा में सोचता है तो वह अपने स्वधर्म से विचलित हो गया. कोई यदि स्वयं को अनंत, स्थिर और विमल मानता है तो ही वह आत्मा के धर्म वाला अर्थात स्वधर्म में स्थित कहा जायेगा.   

Friday, November 3, 2017

नानक दुखिया सब संसार

४ नवम्बर २०१७ 
गुरूपर्व अर्थात सिखों के प्रथम गुरू नानक का जन्मोत्सव. प्रकाश का यह पर्व हमें अंतर ज्योति जगाने की प्रेरणा देने आया है. भारत वासी युगों से संतों के प्राकट्य को प्रकाश के साथ जोड़ते आये हैं, इसी कारण भगवान बुद्ध और महावीर स्वामी का जन्मदिन भी पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है. सभी संतों ने मानव को भीतर के आत्मा रूपी प्रकाश को जगाने की युक्ति दी है. मानव देह को यदि एक घर के समान समझें तो आत्मा इसकी मालिक है, मन, बुद्धि आदि सेवक हैं. जैसे मालिक के न होने पर सेवक मनमानी करते हैं, और घर की हालत बिगड़ जाती है, वैसे ही आत्मा का प्रकाश यदि नहीं जगा है तो मन सीमित ज्ञान व पुराने संस्कारों के अनुसार ही घर को चलाता है, जिसका परिणाम सुख-दुःख के रूप में मानव को भोगना पड़ता है. आत्मा यदि सजग होगी तो सहज ही शांति और आनंद का अनुभव करेगी.

Wednesday, November 1, 2017

पार लगें इस भव सागर से

१ नवम्बर २०१७ 
संत कहते हैं, नाम-रूप का यह जगत मिथ्या है, सत्य है इसके पीछे का आधार, जिससे इसकी उत्पत्ति होती है. जैसे मिट्टी से बने बर्तन मिटटी ही हैं, व्यवहार करने के लिए उनमें नाम रूप की कल्पना की जाती है. सागर में जल रूप होने पर भी तरंग, फेन, बूंद आदि नाम व रूप के कारण पृथक कहे जाते हैं. मन में उठने वाले विचार, संकल्प-विकल्प, स्मृति, भावनाएं, कामनाएं, विकार सब मन ही हैं. मन से ही उत्पन्न हुए वे मन में ही समा जाते हैं और हम उन्हें सत्य मानकर सुखी-दुखी होते रहते हैं. मन में ही जन्मों के संस्कार पड़े हैं, जिनके कारण सुखद या दुखद संवेदना उठती है, उन्हें समता भाव से देखकर चले देने जाने के बजाय हम सत्य मानकर उनके अनुसार अच्छे या बुरे कर्म करने लगते हैं, जिनका फल फिर भविष्य में भोगना पड़ता है और जिनके संस्कार फिर गहरे होते जाते हैं. इसी का नाम संसार है जिससे साधक को मुक्त होना है. उपाय है कि ध्यान के द्वारा हम मन को साक्षी भाव से देखना सीख लें और बादलों की तरह आते-जाते विचारों के द्रष्टा भर बन जाएँ.   

Monday, October 30, 2017

जीवन जैसे बूंद ओस की

३१ अक्तूबर २०१७ 
दुनिया में हम ऐसे रहते हैं जैसे सदा के लिए रहना हो. जीवन क्षण भंगुर है इस बात को बार-बार अनुभव करने के बाद भी मन संसार को पकड़ कर रखना चाहता है. मन कटु बातों को पकड़ लेता है, स्मृतियों के जाल में फंस जाता है या फिर भविष्य के बारे में सोचकर व्यर्थ ही आशंकाओं के बादल में घिर जाता है. इस संसार को स्वप्न की भांति देखने की समझ आने लगे, दूसरों के दृष्टिकोण को देखने की क्षमता विकसित हो अथवा हरेक में उसी अन्तर्यामी के प्रकाश को देखने की दृष्टि मिलने लग और सबसे जरूरी बात अपनी त्रुटियों को स्वीकारने की हिम्मत भीतर सदा रहे. इन सब उपायों से मानसिक ऊर्जा का ह्रास नहीं होता तथा मन कमल पत्तों पर पड़ी ओस की बूंदों की नांई शांत रहता है. हर सुबह यदि कोई इस बात को स्मरण रखे कि आज का दिन भी हजारों दिनों की तरह खो जाने वाला है तो व्यर्थ उसी क्षण गिर जायेगा. जीवन जब जिस पल में जैसा मिलेगा, उसे वैसा ही स्वीकार करना आ जायेगा. खाली मन में ही शांति की झलक मिलती है और शांति में ही सुख है, नव सृजन है.   

Friday, October 27, 2017

तेरा तुझको अर्पण


सारा अस्तित्त्व एक अनाम आकर्षण में बंधा हुआ है, आकाशीय नक्षत्र आपस में जिस बल के कारण गति कर रहे हैं वह अवश्य ही प्रेम जैसा कोई तत्व होगा. प्राणियों का परस्पर मेल-मिलाप भी उसी का परिणाम है. हर आत्मा में प्रेम का तत्व उसी तरह गर्भित है जैसे फूल में सुरभि. फूल के खिलने पर ही सुगंध का ज्ञान होता है. इसी तरह प्रेम जब अपनी परम अवस्था को प्राप्त होता है, तब भक्ति कहलाता है. प्रेम उन मूल तत्वों में से एक है जिनसे इस सृष्टि का निर्माण हुआ है. अंतर को जो सुवास से भर देता है. प्राणों में जो गति का संचरण करता है. मन में कोमल भावनाओं का सृजन कर जीवन का मर्म बता देता है, ऐसे अस्तित्त्व के प्रति आत्मा झुके नहीं तो क्या करे.  

Thursday, October 26, 2017

ॐ सूर्यायः नमः

२६ अक्तूबर २०१७ 
परमात्मा की कृपा का अनुभव करना जिसने सीख लिया, उसका सारा जीवन एक उपहार बन जाता है. हवा, धूप, जल पृथ्वी और आकाश के प्रति उसके हृदय में आदर और सम्मान का भाव उमगता है, वह इन्हें दूषित करने की बात तो सोच ही नहीं सकता. हमारे वैदिक ग्रन्थों में प्रकृति के लिए जो प्रार्थनाएं और स्तुतियाँ हैं, वह ऐसे ही ऋषियों ने गायीं हैं. विज्ञान ने मानव जीवन को सुख-सुविधाओं से तो सम्पन्न किया है पर उसके मन के कोमल भावों को जैसे चुरा लिया है. अब चाँद को देखकर शहरी नागरिक का मन उल्लसित नहीं होता, सूर्य को जल चढ़ाने की बात पर वह हँसता है. मन को पल्लवित और प्रफ्फुलित होने के लिए प्रकृति का आश्रय लेना ही होगा, यह उसी से बना है. छठ पूजा सूर्य के प्रति मानव मन की श्रद्धा का जीवंत उदाहरण है. 

Tuesday, October 24, 2017

मुक्त हुआ जो सभी दुखों से

२५ अक्तूबर २०१७ 
जगत में रहते हुए हम इसके प्रभावों से अलिप्त कैसे रहें, अध्यात्म विद्या इसी कला को सिखाती है. हर जीव को अपने पूर्व कर्मों के अनुसार जन्म और जीवन की अच्छी-बुरी परीस्थितियां मिली हैं. साथ ही उसे नये कर्म करने की स्वतन्त्रता भी मिली है. यदि कोई इस बात से अनभिज्ञ है अथवा संस्कारों के अनुसार ही जीवन प्रवाह में बहता जा रहा है, तो वह अपने भावी जीवन को भी उन्हीं के अनुसार ढाल रहा है. इसी को जन्म-मरण का चक्र कहते हैं, जिसमें गति तो है पर दोहराव है. अध्यात्म ऊपर उठने की कला सिखाता है, जिससे हम भविष्य में उन दुखों से बच सकते हैं जो पूर्व में मिले थे. परमात्मा के प्रति प्रेम और स्वयं के चिन्मय स्वरूप का बोध हमें इसी विद्या से होता है. जिसके कारण सद्कर्मों को करते हुए हम अपनी ऊर्जा का सदुपयोग करना सीखते हैं.


Friday, October 13, 2017

मन को अपना मीत बनाएं

१३ अक्तूबर २०१७ 
संतजन कहते हैं, हमारे सारे दुःख स्वयं के ही बनाये हुए हैं. हमारा मन विरोधी इच्छाओं का जन्मदाता है. मन स्वयं ही स्वयं के विपरीत मार्ग पर चलता है और स्वयं ही स्वयं को दोषी ठहराता है. कितना अच्छा हो कि बुद्धि में विवेक जागृत हो और मानव सदा अपने हित में ही निर्णय ले. वह श्रेय के मार्ग का पथिक हो. प्रेय के मार्ग पर चलकर स्वयं अपनी ही हानि करते हुए हम न जाने कितनी बार वही-वही भूलें करते हैं, जो हमें स्वधर्म से दूर ले जाती हैं. अपने समय, शक्ति और सामर्थ्य का सदुपयोग करते हुए हम मन को शुद्ध बना सकते हैं. निर्मल मन में ही आत्मा की झलक मिलती है. आत्मज्ञान होने के बाद ही व्यक्ति का वास्तविक जीवन आरम्भ होता है. 

Thursday, October 12, 2017

जब आवे संतोष धन

१२ अक्तूबर २०१७ 
साधक की नजर किस तरफ है सारा दारोमदार इसी पर है. क्या हम मात्र सुख के अभिलाषी हैं अथवा सुख के साथ-साथ संतुष्टि के भी. सुख क्षणिक है और उसकी कीमत चुकानी होगी. संतुष्टि समझ से आती है और दीर्घकालिक होती है. संतों और सदगुरुओं के वचनों से प्राप्त समझ जब जीवन में चरितार्थ होने लगती है तब जीवन नदी की शान्त धारा की तरह एक दिशा में प्रवाहित होने लगता है. जिसके तटों पर विश्राम भी किया जा सकता है और जिसके शीतल जल में सहजता से तैरा भी जा सकता है. जब सुख की तलाश में स्वयं को खपाकर और हाथ में दुःख के खोटे सिक्के पकड़ कर संसार सागर में लहरों के साथ ऊपर-नीचे डोलते रहने को ही जीवन समझ लिया जाता है, जीवन  संघर्ष बन जाता है. 

Tuesday, October 10, 2017

जग में रहे साक्षी बन जो

१० अक्तूबर २०१७ 
अपेक्षा में जीने वाला मन दुःख को निमन्त्रण देता ही रहता है. लाओत्से ने कहा है कि कोई मुझे हरा ही नहीं सका, कोई मेरा शत्रु भी न बना, कोई मुझे दुःख भी न दे सका क्योंकि मैंने न जीत की, न मित्रता की न सुख की अपेक्षा ही संसार से की. जो भी चाहा वह भीतर से ही और भीतर अनंत प्रेम छिपा है. परमात्मा ने किसी को इस जगत में खाली हाथ नहीं भेजा है. हम यदि उसके हैं और वह भरा हुआ है तो हमें किस बात की कमी हो सकती है. हम जिस शांति और ख़ुशी की तलाश बाहर कर रहे हैं, यदि उसी की तलाश भीतर करें तो वह मौजूद ही है. वास्तव में हमें वस्तुओं, व्यक्तियों और घटनाओं का साक्षी होना सीखना है, उनसे जुड़ना अथवा उनके द्वारा कुछ पाने की इच्छा करना ही दुःख को निमन्त्रण देना है.

Monday, October 9, 2017

अपने घर बैठा पर भूला

६ अक्तूबर २०१७  
कबीर कहते हैं, हरि का घर खाला का घर नहीं है, उनका अर्थ यह नहीं है कि उसके घर जाना कठिन है बल्कि यह कि वह तो अपना ही घर है, खाला के घर भी जाना हो तो कुछ देर लगेगी. पर यहाँ तो अपने ही घर में बैठे हैं, बस नेत्र बंद हैं. सपना देख रहे हैं कि संसार में हैं. जीवन एक संघर्ष है ऐसा मान लिया है तो संघर्ष की तैयारी में लगे हैं. संत कहते हैं सत्य के प्रति जागना ही उससे मिलन का एक मात्र उपाय है                                                                                                                                                                                                                              

Tuesday, October 3, 2017

बहता जाये मन नदिया सा

३ अक्तूबर २०१७  
जीवन प्रतिपल नया हो रहा है, जो नदी सागर से वाष्पीभूत होकर ऊपर उठती है वही पर्वत शिखर पर हिम के रूप में घनीभूत होकर नये कलेवर में प्रकटती है, वही फिर द्रवित होकर बहती है. जल के रूप में वह जगत का कितना कल्याण करती है. जीवात्मा अदृश्य है, वाष्प की भांति, वही देह धारण करती है और फिर फिर मन के रूप में जगत में प्रवाहित होती है. संवेदनशील मन के द्वारा ही जगत में कितने उपकार होते हैं, नये-नये आविष्कार, नित नये साहित्य का सृजन मन के द्वारा ही सम्भव है. ऐसा मन जो निरंतर प्रेम और विश्वास की सुगंध से भरा होता है आस-पास के वातावरण को भी सुवासित कर देता है.                                                                                                                                                                                                                              

Thursday, September 28, 2017

एक चेतना सबको जोड़े

२८ सितम्बर २०१७ 
जब हम कहते हैं ‘घट घट में राम’, तब हम सभी के मध्य अनुस्यूत एक समान धारा को देखने का  प्रयास कर रहे होते हैं. मानवों के स्वभाव पृथक-पृथक हैं, ज्ञान का स्तर भी एक नहीं है, रूप-रंग में एक देश के लोग दूसरे देश के लोगों के समान नहीं होते, किंतु उन्हें एक करती है भीतर की चेतना, वही उन्हें निकट लाती है और वही उन्हें सशक्त करती है. व्यक्ति चेतना से जितना दूर निकल जाते हैं, समाज में विघटन उतना ज्यादा होता है. जहाँ वर्गभेद भारी हो, लोगों को आपस में जुड़ने के लिए कोई तो समानता चाहिए. समान रूचि वाले व्यक्ति जुड़ जाते हैं, क्योंकि उनकी चेतना किसी एक दिशा में प्रवाहित होती है. जितना-जितना व्यक्ति चेतना को मुखर होने का अवसर देगा, उसे भेद गिरते नजर आयेंगे. समाज में एकता बढ़ेगी और एकता में ही शक्ति है. शक्ति की पूजा के पर्व पर इसे याद रखना होगा. 

Tuesday, September 26, 2017

शक्ति जगे जब भीतर पावन

२७ सितम्बर २०१७ 
जीवन कितना अनमोल है इसका ज्ञान उसी को होता है जो या तो अपनी अंतिम श्वासें गिन रहा हो अथवा जिसने मीरा की तरह अपने भीतर उस अनमोल रतन को पा लिया हो. नवरात्रि के ये नौ दिन इसी का स्मरण कराने आते हैं. शक्ति की पूजा का अर्थ है स्वयं के भीतर सुप्त शक्तियों को जगाना, हर मानव के भीतर देव और दानव दोनों का वास है. हममें से अधिकतर तो दोनों से ही अपरिचित रह जाते हैं. कुछ क्रोधी और अहंकारी स्वभाव वाले दानवों की भाषा बोलने लगते हैं, उनके भीतर देवी का जागरण नहीं होता. साधना के द्वारा जब शक्ति जगती है तो ही इन दानवों का विनाश होता है और एक नई चेतना से हमारा परिचय होता है. जीवन का सही अर्थ तभी दृष्टिगत होता है और तब लगता है इतना अनमोल जीवन व्यर्थ ही जा रहा था. उत्सवों का निहितार्थ कितना उद्देश्यपूर्ण है. उन्हें मात्र दिखावे या मौज-मस्ती के लिए ही न मानकर, भक्ति और ज्ञान की गहराई में जाना होगा. यही  पूजा के मर्म को सही अर्थों में ग्रहण करना होगा.  

Monday, September 25, 2017

घट रहा है सहज सब कुछ

२५ सितम्बर २०१७ 
कर्ताभाव से मुक्त होना ही साधना का लक्ष्य है. जैसे सृष्टि में परमात्मा सब कुछ करता हुआ भी कुछ नहीं करता, उसकी उपस्थिति मात्र से प्रकृति में सब कार्य हो रहे हैं. प्रातःकाल सूर्योदय के होने से ही वातावरण में हलचल होने लगती है, पंछी जाग जाते हैं, वृक्षों पर फूल खिलने लगते हैं. उसी तरह देह में आत्मा की उपस्थिति मात्र से अनेक क्रियाएं हो रही हैं. जिस समय जो भी कर्म साधक के सम्मुख आता है, उसको सहजता से कर देने से न तो उसे कर्म का बंधन होता है न ही विशेष श्रम का आभास होता है. यदि उसी कर्म को करते समय कोई अपने में विशेष भाव मानकर अहंकार जगाये अथवा ठीक से न कर पाने पर दुःख का अनुभव करे, तो कर्म उसे बाँध लेता है. भविष्य में फिर उसी कर्म को करते समय उसे इन्हीं भावों का अनुभव होगा. 

Friday, September 22, 2017

मन, वाणी के पार हुआ जो

२३ सितम्बर २०१७ 
जीवन कितना अबूझ है और कितना सरल भी. हरियाली का आंचल ओढ़े माँ के समान पोषण करती यह धरती, जिसका अन्न और जल पाकर हमारा तन बनता है. पिता के समान प्राण भरता आकाश जिससे यह काया गतिशील होती है. अन्न और प्राण के संतुलन का नाम ही तो जीवन का आरम्भ है. इसके बाद वह पुष्पित और पल्लवित होता है शब्दों और विचारों में, वाणी का अद्भुत वरदान मानव जीवन को विशिष्ट बनाता है. वाणी के भी पार है वह परम तत्व जिसे जानकर जीव पूर्णता का अनुभव करता है. साधक पहले तन को साधता है, फिर मन को, पश्चात वाणी को, जिसके बाद चेतना स्वयं में ठहर जाती है. स्वयं के पार जाकर ही परम चैतन्य का अनुभव होता है.  


Thursday, September 21, 2017

शक्ति का संधान करें जब

२२ सितम्बर २०१७ 
देह प्रकृति का भाग है, चेतना पुरुष का. मानव इन दोनों का सम्मिलित रूप है. प्रकृति और पुरुष दोनों अनादि हैं, एक दूसरे के पूरक हैं. देह के बिना आत्मा कुछ नहीं कर सकती और आत्मा के बिना देह शव है. इन दोनों के भिन्न-भिन्न स्वरूप को जानना ही प्रत्येक साधना का लक्ष्य है. इसीलिए भारतीय संस्कृति में दोनों की उपासना की जाती है. प्रकृति का उपयोग करके आत्मा का अपने चैतन्य स्वरूप का अनुभव कर लेना ही मानव जीवन की सर्वोत्तम उपलब्ध मानी गयी है. प्रकृति को माँ कहकर उसकी विभिन्न शक्तियों के अनुसार अनेक रूपों की कल्पना की गयी है. दुर्गा की स्तुति करके जब साधक अपने भीतर सात्विक शक्तियों को जगाता है, उसे स्वयं के पार उस चैतन्य का अनुभव होता है. जिसका अनुभव करने के बाद उसे परम संतोष का अनुभव होता है.  

आत्मशक्ति की करें साधना

२१ सितम्बर २०१७ 
शरद ऋतु के आगमन के साथ ही सारा भारत जैसे भक्ति के रस में डूब जाता है. पहले नवरात्रि के नौ दिन जिनमें देवी के नौ रूपों की आराधना की जाती है, पश्चात दशहरा और उसके बीस दिनों बाद दीपों का पर्व दीवाली. वैदिक काल से ये उत्सव हमारे मन-प्राणों को झंकृत करते आ रहे हैं तथा  भारत को एक सूत्र में बाँध रहे हैं. पुराणों के अनुसार देवासुर-संग्राम में जब देवताओं द्वारा असुरों का नाश सम्भव नहीं हुआ तब उन्होंने शक्ति की देवी की आराधना की, सब देवताओं ने उसे अस्त्र-शस्त्र प्रदान किये. सद्गुणों व दुर्गुणों के रूप में देव तथा असुर हमारे भीतर ही वास करते हैं. इसका अर्थ है हमारे भीतर की दैवीय शक्तियाँ जब संयुक्त हो जाती हैं तब ही वे विकार रूपी असुरों का नाश कर सकती हैं. सात्विक दिनचर्या अपनाकर इस आत्मशक्ति को बढ़ाने का उत्सव है नवरात्रि. नौ दिनों की शक्ति की उपासना के बाद जब साधक का मन शुद्ध हो जाता है. वह आत्मबल से युक्त हो जीवन के प्रति नवीन उत्साह से भर जाता है. 

Tuesday, September 19, 2017

मन के जो भी पार हुआ है

२० सितम्बर २०१७ 
भगवद गीता में कहा गया है, मन ही मनुष्य का सबसे बड़ा मित्र है और मन ही सबसे बड़ा शत्रु ! मन यदि धन, यश और पद की कामनाओं से युक्त है तो दुःख से उसे कोई नहीं बचा सकता. मन यदि अहंकार की तृप्ति करना चाहता है तो उसे कदम-कदम पर भय और दुःख का सामना करना पड़ेगा. जो मन स्वयं में ही तृप्त है, उसे न कोई भय है न ही पीड़ा. सात्विक भाव से युक्त मन सहज प्राप्त कर्मों को इसी भांति करता जाता है जैसे समय आने पर वृक्षों में फूल व फल लगते हैं. उसे न फल की इच्छा होती है न ही नाम की, वे तो उसी प्रकार प्राप्त होते हैं जैसे सुबह होने पर वातावरण में ताजगी और आह्लाद. जीवन के मर्म को जानना हो तो मन के पार जाना ही पड़ेगा, मन को हर दिन कुछ पलों के लिए विश्राम देने से वह मित्र बन जाता है. 

Saturday, September 16, 2017

आदिशिल्पी को करें नमन

१७ सितम्बर २०१७ 
आज विश्वकर्मा पूजा है. पुराणों में विश्वकर्मा देव का उल्लेख कई स्थानों पर अत्यंत श्रद्धा के साथ किया गया है. इन्हें आदिशिल्पी कहा जाता है. रावण की स्वर्णलंका और कृष्ण की द्वारिका का निर्माण इन्होंने ही किया था. इनके वशंजों ने ही विश्व की विभिन्न हस्तकलाओं जैसे सुनार, लोहार, बढ़ई, मूर्तिकार आदि की कलाओं को जन्म दिया. वास्तु शास्त्र के ज्ञाता इन देव की युगों-युगों से अर्चना की जाती रही है. भारत के पूर्वी प्रदेशों में, बंगाल तथा उत्तर-पूर्व भारत में विशेष तौर से हर वर्ष १७ सितम्बर को सभी अभियांत्रिकी संस्थानों में विश्वकर्मा देव की पूजा होती है. सभी औजारों तथा मशीनों की भी साफ-सफाई करके पूजा की जाती है. यहाँ तक कि साइकिलों, कारों, ट्रकों के मालिक अपने वाहनों को अच्छी तरह से स्वच्छ करके उनकी पूजा करते हैं. बदलते हुए समय के साथ उत्सवों का रूप बदल जाता है, वे अपने शुद्ध रूप में नहीं रह जाते, फिर भी उत्सव रोजमर्रा के जीवन में एक नया उत्साह भर देते हैं.

Thursday, September 14, 2017

सादा जीवन उच्च विचार यही सुखी जीवन का सार

१५ सितम्बर २०१७ 
यह काल संक्रमण का काल है. मूल्य बदल रहे हैं, संस्कृतियाँ और सभ्यताएं बदल रही हैं. देशों की सीमाएं बदल रही हैं. विश्व की उन्नति का आधार आर्थिक विकास माना जाने लगा है. व्यापारिक संबंध बढ़ रहे हैं, देश निकट आ रहे हैं. किन्तु इस सबके साथ मानव को विकास की बड़ी कीमत भी चुकानी पड़ रही है. एक पीढ़ी पहले तक भी एक व्यक्ति को परिवार का सहयोग और प्रेम सहज ही मिल जाता था, जिसके कारण उसके भीतर मानवीय मूल्यों की स्थापना घर से ही आरम्भ हो जाती थी और विद्यालय उसमें विस्तार करता था. आज एकल परिवार होने के कारण बच्चे उस स्नेह और विश्वास से वंचित हैं, स्कूल भी इस कमी को पूरा नहीं कर पा रहा है. आये दिन स्कूलों में होने वाले हादसे अभिभावकों और बच्चों में एक भय की भावना भर रहे हैं. यदि मानव अपनी आवश्यकताओं को सीमित कर ले, लोभ और दिखावे पर नियन्त्रण रखे. ध्यान और योग को अपना कर सुख के अविनाशी स्रोत को अपने भीतर ही खोज ले तो स्वतः ही उसकी यह अंधी दौड़ समाप्त हो जाएगी.  

जन-जन की भाषा है हिंदी

१४ सितम्बर २०१७ 
आज हिंदी दिवस है. ‘हिंदी’ एक ऐसी भाषा जिसने पूरे भारत को एक सूत्र में पिरोया हुआ है. जो अनेकता में एकता का जीता-जागता उदाहरण है. बारहवीं शतब्दी से हिंदी की धारा भारत में जन-जन के हृदयों को आप्लावित कर रही है. मध्य काल में सूर, तुलसी हों या कबीर और रहीम, हिंदी की ध्वजा सदा ही लहराती रही है. आधुनिक काल में भी हिंदी के विद्वानों की एक लम्बी श्रंखला चलती आ रही है, जिसने जन मानस के हृदयों को हिंदी-सुधा से पोषित किया है. आज सामान्य जन की बोलचाल भाषा हो या साहित्य की भाषा दोनों ही क्षेत्रों में हिंदी फल-फूल रही है, कमी है तो बस इसकी कि आजादी के सत्तर वर्षों के बाद भी इसे राजकाज की भाषा नहीं बनाया जा सका. अनुवादित व क्लिष्ट भाषा के सहारे इस कार्य को नहीं किया जा सकता. मौलिक रूप से हिंदी में ही सरल भाषा में किया गया कार्य ही सरकारी कार्यालयों में अपनाना होगा वरना वहाँ यह केवल हिंदी दिवस तक ही सिमट कर रह जाएगी.


Wednesday, September 13, 2017

विस्मय से जब मन भर जाये

१३ सितम्बर २०१७ 
जीवन में कदम-कदम पर हमें कितनी ही आश्चर्यजनक स्थितियों का अनुभव होता है पर ज्यादातर हम उनका कोई न कोई उत्तर खोज कर मन को शांत कर देते हैं. विज्ञान के द्वारा जगत के कार्यकलापों का कारण खोजने लगते हैं. एक ऐसा आश्चर्य जिसका कोई निराकरण न हो सके विस्मय कहलाता है, और गहराई से देखें तो इस जगत का एक नन्हा सा रेत का कण भी मन को विस्मय से भर देने के लिए पर्याप्त है. हमारी देह की एक कोशिका भी अपने भीतर कितने रहस्य छिपाए है. विज्ञान के जवाब हमें भ्रमित करते हैं, ऐसा लगता है हम इसके बारे में सब जान सकते हैं. नींद भी एक रहस्य है और स्वप्न भी. चारों तरफ जैसे एक तिलिस्म छाया है. विस्मय से भरा मन ही फिर उस अज्ञात के सामने झुक जाता है. वह भी जैसे उस रहस्य का ही एक भाग बन जाता है.

Tuesday, September 12, 2017

स्वयं से जब परिचय हो जाये

१२ अगस्त २०१७ 
मन व इन्द्रियों की सहायता से हम बाहरी जगत को जानते हैं पर ‘स्वयं’ से अनजान बने रहते हैं. इस जगत को कोई कितना ही जान ले, सब कुछ कभी नहीं जान सकता. किन्तु ‘स्वयं’ को जिसने भी जाना है उसे यह अनुभव अवश्य हुआ है कि अब कुछ और जानना शेष नहीं है. आँख से हम देखते हैं, आँख दृश्य से पृथक है, देखने वाले हम भी दृश्य तथा आँख से पृथक हैं, अर्थात दृष्टा, दृश्य  तथा दर्शन सदा ही पृथक हैं. ‘स्वयं’ को जानना हो तो, जाननेवाले भी हम हैं, जानने का साधन भी हम हैं. ज्ञाता, ज्ञान तथा ज्ञेय जहाँ एक हो जाते हैं, वहीं ‘स्वयं’ का अनुभव होता है.  

Monday, September 11, 2017

लौट सकेगा जब मन भीतर

१३ सितम्बर २०१७ 
भगवद् गीता में कृष्ण कहते हैं, जैसे कछुआ संकट आने पर अपने अंगों को भीतर सिकोड़ लेता है और उसके कठोर तन पर किसी चोट का असर नहीं होता, वह अपने को बचा लेता है. इसी तरह मन भी यदि किसी संकट के आने पर स्वयं को सिकोड़ना सीख ले, अपने भीतर एक ऐसा स्थान बना ले जहाँ जाकर बाहरी घटनाओं के असर से बचा जा सकता है तो मन भी स्वयं की रक्षा आसानी से कर लेता है. मन पर संकट आने का अर्थ है, उसका विकार ग्रस्त हो जाना, उसका चिंताग्रस्त हो जाना अथवा दुर्बल हो जाना. मन की रक्षा का अर्थ है समता में रहने की उसकी कला का विकास. यदि छोटी-छोटी बातों से मन कुम्हला जाता है तो देह भी स्वस्थ नहीं रह सकती. मन के आकुल-व्याकुल होते ही अंतस्रावी ग्रन्थियों से ऐसे स्राव निकलते हैं जो देह को रोगग्रस्त कर सकते हैं. मन की गहराई में स्थित एक स्थान जहाँ जाकर पूर्ण विश्राम मिलता है, वही उसका आश्रय स्थल है. नियमित ध्यान करने से इस स्थल पर जाने का मार्ग सहज हो जाता है.  

Saturday, September 9, 2017

मिटना जिसने सीख लिया है

९ सितम्बर २०१७ 
मन का स्वभाव है अभाव में जीना, आत्मा तृप्ति और संतोष चाहती है. मन की दृष्टि सदा कमियों की तरफ ही जाती है, आत्मा अपने आप में इतनी आनंदित होती है कि कमियां उसे नजर ही नहीं आतीं. मन को सदा नयेपन की तलाश है, आत्मा चिरंतन है. मन सदा भय में जीता है, आत्मा में होना ही अभय का दूसरा नाम है. मन मिटने से डरता है, आत्मा कुछ न होने में ही अपना होना जानती है. मन दुःख बनाता है, न हो तो आशंकित होता है, आत्मा किसी भी परिस्थिति में अडोल बनी रह सकती है. मन सदा अतीत अथवा भविष्य में जीता है, कभी अतीत की भूलों पर पछताता है और कभी भविष्य में होने वाले दुखों से घबराता है. आत्मा के लिए हर क्षण अपार सम्भावना लिए आता है. वर्तमान में रहना ही आत्मा में होना है. 

Thursday, September 7, 2017

जीवन का जो मर्म जान ले

८ सितम्बर २०१७ 
जीवन कितना पुराना है कोई नहीं बता सकता, वैज्ञानिकों को मानव के लाखों वर्ष पुराने जीवाष्म भी  मिले हैं. हम न जाने कितनी बार इस धरती पर आये हैं और भिन्न देहें धारण करके सुख-दुःख का भोग कर चुके हैं. शास्त्र कहते हैं यह देह हमें दो कारणों के लिए मिली है भोग और मोक्ष, पहला अनुभव तो हो चुका, जब तक दूसरा नहीं होगा, बार-बार देह लेकर आना होगा और मृत्यु को प्राप्त होना होगा. यदि त्याग पूर्वक भोग किया जाये तो मुक्ति का अनुभव इसी जन्म में हो सकता है. मानव जीवन के चार पुरुषार्थ भी यही कहते हैं. धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का कर्म कहता है कि धर्म पूर्वक प्राप्त किया गया अर्थ ही कामनाओं के त्याग का हेतु बनता है और मोक्ष की प्राप्ति होती है. यदि धन अनीति से प्राप्त किया गया है वह कामनाओं को बढ़ाने वाला ही होगा. उस स्थिति में दुखों से मुक्ति सम्भव ही नहीं है. 

प्रेम गली अति सांकरी


साधना का पथ अत्यंत दुष्कर है और उतना ही सरल भी. जिनका हृदय सरल है, जहाँ प्रेम है, ऐसे हृदय के लिए साधना का पथ फूलों से भरा है, पर राग-द्वेष जहाँ हों, अभाव खटकता हो, उसके लिए साधना का पथ कठोर हो जाता है. कृपा का अनुभव भी उसे नहीं हो पाता, क्योंकि कृपा का बीज तो श्रद्धा की भूमि में ही पनपता है, अनुर्वरक भूमि में नहीं. जहाँ हृदय में ईश्वर प्राप्ति की प्यास ही नहीं जगी वहाँ उसके प्रेम रूपी जल की बरसात हो या नहीं कोई फर्क नहीं पड़ता, जब मन में एक मात्र चाह उसी की हो तभी भीतर प्रकाश जगता है. उस चाह की पूर्ति के लिए बाहरी साधनों की आवश्यकता गौण है, वहाँ मन ही प्रमुख है, मन को ही प्रेम जल में नहला कर, भावनाओं के पुष्प अर्पित कर, श्रद्धा का दीपक जला, आस्था का तिलक लगा कर शांति का मौन जप करना होता है. यह आंतरिक पूजा हमें उसकी निकटता का अनुभव कराती है, साधक तब धीरे-धीरे आगे बढता हुआ एक दिन पूर्ण समर्पण कर पाता है.

Sunday, September 3, 2017

मृत्यु को जो मीत बना ले

३ सितम्बर २०१७ 
प्रकृति पल-पल बदल रही है, चाहे पेड़-पौधों की हो, पशुओं की हो या मानवों की. समय के साथ-साथ उनमें परिवर्तन आ रहा है. मानव को छोड़कर सब उसे सहज ही स्वीकारते हैं, वृक्ष बूढ़े होते हैं और देह त्याग देते हैं. मानव अजर-अमर रहना चाहता है, जरा को जितना हो सके दूर रखना चाहता है और मृत्यु से सदा ही भयभीत रहता है. यहाँ तक कि वृद्ध हो जाने पर भी उसे ऐसा नहीं लगता कि कोई भी क्षण जीवन का अंतिम क्षण हो सकता है. यदि बचपन से ही जीवन और मृत्यु दोनों की बात घर-परिवार, विद्यालय में की जाये तो कितने तरह के दुखों से बचा जा सकता है. तब न तो अधिक संग्रह करने की प्रवृत्ति का जन्म होगा और न ही मन में भय होगा. जीवन को सम्मान मिलेगा यदि यह सदा स्मरण रहे कि यह कभी भी हाथ से जा सकता है. मन में किसी के प्रति द्वेष नहीं रहेगा जब यह स्मरण रहेगा कि एक दिन सब कुछ छूटने ही वाला है. 

Friday, September 1, 2017

भाव युक्त हो अंतर अपना

१ सितम्बर २०१७ 
जीवन में होने वाले अनुभवों में अधिकतर भीतर का भाव ही लौट-लौट कर आता है. जब किसी हृदय में परम के प्रति प्रेम का जागरण होता है तो वह प्रेम अपनी सुवास स्वयं ही बहा देता है,  इसके लिए शब्द जुटाने नहीं पड़ते. पका फल जैसे अपनी मिठास से भर कर खुदबखुद टपक जाता है,  भाव भरा अंतर भी इसी तरह व्यक्त हो जाता है. जिसने उसे अनुभव किया है उसने ही गीत गाए हैं. वह खुद भी नहीं जानता कितना बड़ा रहस्य अपने भीतर छुपाये है. जीवन स्वयं में एक रहस्य है, इसका रचियता भी और उसके प्रति समर्पित अंतर भी. जीवन धारा अविरल गति से बही जा रही है, किन्तु इसका आधार भी तो है. समयचक्र घूम रहा है, इसका केंद्र भी तो है. जगत गतिशील है, किन्तु गति का अनुभव कराने वाला अचल तत्व भी तो है. जिसने उसे अपने मन का मीत बना लिया वही दिव्य प्रेम को अनुभव सकता है.  

Thursday, August 31, 2017

जब स्वयं ही आधार बनेगा

३१ अगस्त २०१७ 
जीवन आज कितना कठिन होता जा रहा है. कहीं अत्यधिक वर्षा, कहीं तूफान, कहीं सूखा..प्रकृति के बदलते हुए रूप भी आज भयभीत कर रहे हैं. समाज में मूल्यों का इतना अधिक ह्रास हो गया है कि मंदिरों और आश्रमों में भी श्रद्धा और आस्था के नाम पर शोषण किया जा रहा है. ऐसे ही समय में जब बाहर कुछ भी भरोसे करने लायक न बचा हो, भीतर जाकर ही उस आधार को तलाशना होगा जो कभी नहीं बदलता. जो भीतर जाकर देख लेता है कि जिसका अपने मन पर ही कोई वश नहीं है, जिसे यही नहीं पता कि अगले पल मन में क्या विचार आने वाला है तो वह बाहर पर नियन्त्रण कैसे कर सकता है. वह नियन्त्रण करने की अपनी प्रवृत्ति का ही त्याग कर देता है. वह कुछ प्राप्त कर लेने की दौड़ से ही बाहर हो जाता है. वह समझ लेता है कि सुख को पाया नहीं जा सकता पर उसके प्रति समर्पित हुआ जा सकता है. अंतर में कृतज्ञता उपजती है. जीवन तब एक उपहार लगता है संघर्ष नहीं लगता. 


Monday, August 28, 2017

कली खिलेगी जिस पल मन की

२९ अगस्त २०१७ 
बसंत और बहार की ऋतु में प्रकृति अपने पूरे शबाब पर होती है, इसका कारण है कि पेड़-पौधे व वृक्ष अपनी मंजिल पर पहुँच जाते हैं, अर्थात खिल जाते हैं. हमारा मन भी जिस दिन अपनी मंजिल को छू भर लेगा, उसका मौसम भी बदल जायेगा. अभी मन को तलाश है, वह कुछ पाना चाहता है, तभी दिन-रात किसी न किसी उधेड़-बुन में लगा रहता है. मन की कली अभी बंद है, भीतर ही भीतर सुगबुगा रही है, कोई स्पर्श उसे जगा सकता है. कोई पुकार उसे खिला सकती है. कोई कृपा उसे मुक्त कर सकती है. यह सब हो सकता है यदि मन यह मान ले कि वह अभी खिला नहीं है, कि अभी उसे बहार मिली नहीं है, और मन जिस राह पर अब तक चलता आया है उस मार्ग पर तो वह खिल नहीं सकता. मन को खिलने के लिए कोई श्रम नहीं करना है, बस अपने आप में ठहरना है, आखिर कली क्या करती है फूल बनने के लिए, बस स्वयं को धूप और हवा के आश्रय में छोड़ देती है.    

Sunday, August 27, 2017

घट-घट पावन प्रेम छुपा है

२८ अगस्त २०१७ 
हर आत्मा प्रेम से उपजी है, प्रेम ने उसे सींचा है और प्रेम ही उसकी तलाश है. माता-पिता शिशु की देह को जन्म देते हैं, आत्मा उसे अपना घर बनाती है. शिशु और परिवार के मध्य प्रेम का आदान-प्रदान उस क्षण से पहले से ही होने लगता है जब बालक बोलना आरम्भ करता है. अभी उसमें अहंकार का जन्म नहीं हुआ है, राग-द्वेष से वह मुक्त है, सहज ही प्रेम उसके अस्तित्त्व से प्रवाहित होता है. बड़े होने के बाद जब प्रेम का स्रोत विचारों, मान्यताओं, धारणाओं के पीछे दब जाता है, तब प्रेम जताने के लिये शब्दों की आवश्यकता पडती है. जब स्वयं को ही स्वयं का प्रेम नहीं मिलता तो दूसरों से प्रेम की मांग की जाती है. दुनिया तो लेन-देन पर चलती है इसलिए पहले प्रेम को दूसरे तक पहुँचाने का आयोजन किया जाता है. यह सब सोचा-समझा हुआ नहीं होता, अनजाने में ही होता चला जाता है. प्रेम पत्रों में कवियों और लेखकों के शब्दों का सहारा लिया जाता है. दूसरे के पास भी तो प्रेम का स्रोत भीतर छिपा है, उसे भी तलाश है. जीवन तब एक पहेली बन जाता है. 

Saturday, August 26, 2017

बीत रहा है पल-पल जीवन

२७ अगस्त २०१७ 
जीवन हर पल हमारे लिए चुनौतियाँ खड़ी करता है. यदि मन पल भर के लिए भी विचलित हो गया तो हम अपने मार्ग से च्युत हो जाते हैं. तभी तो कबीर कहते हैं, सत्य की राह तलवार की धार पर चलने के समान है. जिन आदर्शों को हम भीतर धारण करते हैं, यथार्थ की आंच पाते ही वे पिघलने लगते हैं, और हम फिर सामान्य बातों में उलझ जाते हैं और वह समय जो एक महत्वपूर्ण दिशा की और ले जाने का अवसर प्रदान कर सकने में सक्षम था, यूँही बीत जाता है. कितनी ही बार चलते-फिरते या किसी कार्य को करते समय मन में सहज स्फुरणायें उठती हैं, कुछ प्रेरणादायक वचन, कुछ योजनायें भीतर पनपती हैं. अल्प सा विचार करके जिन्हें कार्यान्वित किया जा सकता था परन्तु परिस्थितियों की हल्की सी भी असुविधा हमें पुनः अपने जीवन को यथावत चलते रहते देने के लिए पीछे ले जाने में सफल हो जाती है. प्रतिपल लक्ष्य की स्मृति बनी रहे तभी आत्मा का विकास सम्भव है.

Friday, August 25, 2017

अँधा अंधे ठेलिए दोनों कूप पडंत

२६ अगस्त २०१७ 
अंधश्रद्धा मानव को किस कदर विवेकहीन बना देती है इसका उदाहरण हरियाणा और पंजाब में हो रहे घटनाक्रम को देख कर मिल रहा है. राष्ट्र की सम्पत्ति को हानि पहुँचाने वाले इतना सा सच भी नहीं देख पा रहे हैं कि अंततः वे अपनी ही सम्पत्ति को नष्ट कर रहे हैं. जो साधना उनमें इतना सा भी विवेक जागृत नहीं कर सकी, उसका न होना ही अच्छा है. गुरू का काम है शिष्यों के जीवन से अज्ञान का अन्धकार दूर करके ज्ञान का प्रकाश फैलाये, किंतु आज तथाकथित गुरू लोगों की श्रद्धा का लाभ उठाकर अपने स्वार्थ के लिए उनका उपयोग करते हैं. आश्चर्य होता है जब पढ़े-लिखे लोग भी उनकी चाल में फंस जाते हैं. आज भारत के लिए कितना दुखद दिन है जब हिंसा और आगजनी की घटनाएँ एक अपराधी को बचाने के लिए हो रही हैं. सभी जागरूक लोगों को ऐसे अंधभक्तों से भारत को बचाना होगा. 

Thursday, August 24, 2017

गणपति बप्पा मोरया

२५ अगस्त २०१७ 
आज गणेश चतुर्थी है. भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि ! प्रथम पूजनीय गणपति को सम्मानित करने की तिथि ! गणेश सभी देवताओं में अग्र हैं, वे मूलाधार चक्र के अधिष्ठाता हैं, विघ्न विनाशक हैं. उनके जन्म और कर्म के साथ कितनी कथाएं जुड़ी हैं, जिनका गहरा आध्यात्मिक अर्थ संतजन बताते हैं. गणेश भक्तों को अपने लगते हैं, अपने परिवार के सदस्य की तरह उनकी घर-घर में तथा सार्वजनिक स्थानों पर स्थापना की जाती है. वैसे तो वर्ष भर ही किसी न किसी रूप में गणेश की पूजा होती है पर आज के दिन विशेष आयोजन होते हैं. वे ज्ञान और कुशलता के प्रदाता हैं. रिद्धि और सिद्धि को देने वाले हैं. गणेश तत्व का अर्थ है शुभता और सात्विक शक्ति से ओतप्रोत ज्ञान. जब शुभ और मंगल के दाता गणेश की पूजा करने वाला स्वयं भी उन गुणों को स्वयं में धारण करता है तभी सही अर्थों में  गणेश चतुर्थी का उत्सव सफल होता है.

Wednesday, August 23, 2017

श्रेष्ठता का चयन करे जो

२४ अगस्त २०१७ 
जीवन निरंतर गतिशील है. यदि गति ऊपर की ओर हो अर्थात उन्नतिशील हो तो सद्गति कहलाएगी और यदि नीचे की ओर हो पतनशील हो तो दुर्गति कहलाएगी. कोई भी एक स्थान पर बने नहीं रह सकता. शिशु बालक बन रहा है, यदि उसका लालन-पालन उचित नहीं हुआ तो वह निरंकुश बालक बन जायेगा. बालक को यदि उचित वातावरण नहीं मिला तो वह दिशाहीन किशोर बन सकता है. किशोरावस्था में मार्गदर्शन न मिलने के कारण कितने ही युवा बुरी आदतों का शिकार हो जाते हैं. इसके विपरीत यदि शिशु को पर्याप्त स्नेह और संस्कार से सिंचित किया जाता है तो वह आदर्श बालक व कुशाग्र किशोर बनकर समाज के लिए उदाहरण बन सकता है. भगवद गीता में कृष्ण कहते हैं, कोई व्यक्ति किसी भी स्थिति में हो यदि उस क्षण वह तय कर ले कि उच्च जीवन को अपनाना है, उसकी दिशा और दशा तत्क्षण बदलने लगती है. हर क्षण हमारे जीवन की दिशा का चुनाव हमारे ही हाथ में होता है. 

Tuesday, August 22, 2017

थम कर चलना जो सीखेगा

२३ अगस्त २०१७ 
इस जगत की कितनी सारी महत्वपूर्ण घटनाएँ अपने आप हो रही हैं, वायु बह रही है, श्वासें चल रही हैं, देह में रक्त का संचरण हो रहा है. जीवन का अनमोल उपहार हमें अकारण ही प्राप्त हुआ है. इसको सार्थक करना ही हमारा एकमात्र कर्त्तव्य है. जीवन अर्थपूर्ण तभी बनता है जब भीतर के शांति स्रोत का पता चल जाता है. जब तक कोई दुविधा है, जीवन एक संघर्ष ही नजर आता है. शांति का अनुभव करने के लिए ध्यान का अभ्यास अति आवश्यक है. जैसे कोई यात्री घंटों से चल रहा हो और एक वृक्ष की निर्मल छाया में पल भर को विश्राम करने के लिए रुक जाये. इस विश्राम के बाद चलने का उसका आनंद पहले से बढ़ जायेगा. इसी तरह सब कुछ छोड़कर कुछ पलों के लिए खाली होकर बैठ जाना और मन को देखते रहना चित्त को अनोखी विश्रांति से भर जाता है.


जब जीवन से परिचय होगा

२२ अगस्त २०१७ 
जीवन की कितनी ही परिभाषाएं कितने ही व्यक्तियों ने गढ़ी हैं लेकिन जीवन इनसे कहीं अधिक विराट है, वह कभी भी पूरा-पूरा इनमें नहीं समाता. हमारे ऋषियों ने जिस जीवन को जानने व पाने की प्रार्थना की है, वह अनंत है, असीम है और आनंद से भरा हुआ है. उस विशालता को महसूस करने के लिए उतना ही बड़ा दिल भी चाहिए, एक नया दृष्टिकोण भी चाहिए और साथ ही एक गहन आत्मीयता की भावना भी. यदि कोई एक प्रेमी की दृष्टि से इस सृष्टि को निहारता है तो वह धीरे से अपना घूँघट सरका देती है, रहस्य की एक परत खुलती है. यह सही है कि हजार परतें अब भी शेष हैं किन्तु जीवन के साथ एक नया संबंध बनने लगता है, जिसमें कोई भय नहीं है, कोई कामना भी नहीं है, यह केवल साथ होने का संबंध है. इसमें हर क्षण एक नयेपन की अनुभूति होती है क्योंकि सृष्टि पल-पल बदल रही है.

Monday, August 21, 2017

जग जैसा जब देखें वैसा

२१ अगस्त २०१७ 
प्रत्येक आत्मा में ज्ञान पाने की सहज कामना होती है, एक बच्चा भी जन्मते ही अपने आस-पास के वातावरण से परिचित होना चाहता है. ज्ञान इन्द्रियों तथा मन के रूप में हमें जानने के सुंदर साधन प्राप्त हुए हैं, जिनके माध्यम से हम जगत को जानते हैं. जानने के इस क्रम में हम जगत के बारे में कई धारणाएं अथवा मान्यताएं बना लेते हैं, जिनका कोई प्रमाण हमारे पास नहीं होता, जिसके कारण हमें कष्ट उठाना पड़ता है. यदि हमारे पास अपनी धारणा के पक्ष अथवा विपक्ष में कोई प्रमाण नहीं है, तो हम उस बात को न तो स्वीकार करें न ही अस्वीकार. उस स्थिति में हम तटस्थ रहकर ही स्वयं की रक्षा कर सकते हैं. इस जाननेवाले को जानने के लिए हमें इन साधनों को शुद्ध करने की  आवश्यकता है, मन जितना शुद्ध होगा उतना ही एकाग्र होगा. एकाग्र मन में जानने वाला यानि आत्मा अपने प्रतिबिम्ब को उसी तरह देख लेता है, जैसे शान्त झील में हम उसकी तलहटी को देख लेते हैं.  


Friday, August 18, 2017

विष भी जब अमृत बन जाये

१८ अगस्त २०१७ 
आकाश से जलधारा निरंतर बह रही है, मूसलाधार वर्षा हो रही है. धरती, पेड़-पौधे सब भीग रहे हैं, पंछी पत्तों में छुप गये हैं. कहाँ छिपा था यह नीर जो बादल बनकर बरस रहा है, क्या यह धरा से ही ऊपर नहीं उठा था. सागरों के ऊपर जब सूरज की किरणें छायी होंगी और उसे तप्त करके ऊपर उठा ले गयी होंगी, प्रकृति उस नमकीन जल को मीठा बनाकर फिर-फिर धरती को लौटा देती है. हमारा मन भी जब जगत के खारेपन को भीतर समा लेता है और उसे मृदु बनाकर लौटा देता है तो परमात्मा से जुड़ जाता है, अथवा कहें परमात्मा से जुड़कर ही ऐसा कर पाता है. हजार बूंदों के रूप में बारिश गीत गाती आ रही है. मन भी उस परमात्मा से जुड़कर अनंत भाव लुटा सकता है. उसके दामन में सब कुछ अनंत है. 

Thursday, August 17, 2017

सतरंगी यह जीवन सुंदर

१७ अगस्त २०१७ 
जीवन बहुआयामी है. विविधताओं से भरा है. प्रकाश की श्वेत किरण जैसे सात रंगों से बनी है, जीवन भी प्रेम, सुख, शांति, शक्ति, पवित्रता, आनंद और ज्ञान सप्त गुणों से ओतप्रोत है. इन गुणों का विकास ही साधक के लिए नित्य साधना है. प्रेम ही परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व को एक सूत्र में बाँधता है. सुख की तलाश विज्ञान को नई खोजें करने की प्रेरणा देती है. शांति के वातावरण में ही संगीत आदि कलाओं का सृजन सम्भव है. शक्तिशाली तन और मन ही बदलते हुए समय में स्वयं को स्वस्थ रख सकता है. जीवन जब मर्यादाओं में रहकर आगे बढ़ता है तो दो तटों के मध्य बहती धारा की तरह एक पवित्रता का निर्माण करता चलता है. यही पावनता दिव्यता को जन्म देती है जो आनंद के रूप में मानव के भीतर प्रस्फुटित होती है. हृदय जब आनंदित हो तो सहज ही ऐसा अंतर्ज्ञान उपजता है जिसको पाने के बाद  हर समस्या का समाधान मिलने लगता है.

Wednesday, August 16, 2017

अध्यात्म की डगर सुहानी

१६ अगस्त २०१७ 
जीवन प्रतिपल बांट रहा है. हजारों युगों से एक क्षण भी रुके बिना पवन का संचार हो रहा है. तेज गति से पृथ्वी सूर्य का परिभ्रमण कर रही है. सूर्य की रश्मियाँ नित नये प्राणियों को जन्माने में सहायक हैं. मानव के भीतर कल्पना और बुद्धिमत्ता के अद्भुत संयोग से नित नये अविष्कार हो रहे हैं. कला और विज्ञान की ऊंचाईयों को इस युग ने स्पर्श किया है. इतना सब कुछ होने पर भी अपने आस-पास देखने पर एक निराशा और अभाव का दर्शन होता है, जिसके लिए बढती हुई जनसंख्या तथा मानव का बढ़ता हुआ लोभ, आपसी मतभेद और सम्प्रदायों के नाम पर होती हुई हिंसा जैसे कुछ कारण गिनाये जा सकते हैं. अध्यात्म के पास इन सभी समस्याओं का इलाज है. अध्यात्म मानव को  मानव, प्रकृति तथा सम्पूर्ण सृष्टि से एकत्व की भावना का अनुभव कराता है. अध्यात्म आज के समय की मांग है.   

Monday, August 14, 2017

तू ही जाने तेरा राज

१४ अगस्त २०१७ 
परमात्मा हमारे द्वारा इस जगत में प्रतिपल कितना कुछ कर रहा है. श्वास जो भीतर अनवरत चल रही है, उसी के कारण है. रक्त जो निरंतर गतिशील है, प्रेम जो शिशु की आँखों में झलकता है. मन की गहराई में आगे ही आगे जाने की ललक भी तो किसी अनाम ग्रह से आती है. जगत सदा मिलता हुआ प्रतीत होता है पर कभी मिलता नहीं, क्योंकि जो आज मिला है वह प्रतिपल बदल रहा है. परमात्मा जो सदा दूर ही प्रतीत होता है, निकट से भी निकट रहता चला आता है. जो जीवन उसके बिना हो ही नहीं सकता, उसे भी वह अपनी खबर नहीं होने देता, उससे बड़ा रहस्य और क्या हो सकता है. बस इसी तथ्य को जो जान ले वह निर्भार हो जाता है.

Friday, August 11, 2017

अभी-अभी वह यहीं कहीं हैं

११ अगस्त २०१७ 
समय की धारा प्रतिपल अविरत गति से आगे बढ़ती जा रही है. यह पल जो अभी-अभी उगा था खो गया है. पलक झपकते ही पल खो जाता है. संत कहते हैं जो इस पल में जाग गया, वह जिंदगी से उसी तरह मिल सकता है जैसे कोई प्रेम के क्षणों में अपने प्रिय से मिलता है. जब किसी के निकट होना ही पर्याप्त होता है, उससे कुछ पाने के लिए नहीं बल्कि उस क्षण को साथ-साथ जीने के लिए, उसी तरह समय के एक नन्हे पल के पीछे छिपे अनंत से मिलना होता है. परमात्मा की मौजूदगी का अनुभव सदा ही एक क्षण में होगा, वह क्षण कौन सा होगा यह कोई नहीं कह सकता पर जिसने कभी क्षण में ठहरना नहीं सीखा वह उस पल को भी खो देगा.