१३ अक्तूबर २०१७
संतजन कहते हैं, हमारे सारे
दुःख स्वयं के ही बनाये हुए हैं. हमारा मन विरोधी इच्छाओं का जन्मदाता है. मन स्वयं
ही स्वयं के विपरीत मार्ग पर चलता है और स्वयं ही स्वयं को दोषी ठहराता है. कितना
अच्छा हो कि बुद्धि में विवेक जागृत हो और मानव सदा अपने हित में ही निर्णय ले. वह
श्रेय के मार्ग का पथिक हो. प्रेय के मार्ग पर चलकर स्वयं अपनी ही हानि करते हुए हम
न जाने कितनी बार वही-वही भूलें करते हैं, जो हमें स्वधर्म से दूर ले जाती हैं.
अपने समय, शक्ति और सामर्थ्य का सदुपयोग करते हुए हम मन को शुद्ध बना सकते हैं.
निर्मल मन में ही आत्मा की झलक मिलती है. आत्मज्ञान होने के बाद ही व्यक्ति का
वास्तविक जीवन आरम्भ होता है.
भगवान की आराधनामनुष्य जीव को ईश्वर की भक्ति से जोडने का साधन है। ईश्वर की भक्ति मनुष्य की आस्था(आत्म स्थिति) पर टीकी है। बैगर ईश्वर प्राप्ति के आत्म ज्ञान नहीं होता।
ReplyDeleteसही कहा है आपने..स्वागत व आभार !
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