Tuesday, August 27, 2019

हे जन्मभूमि भारत



भारत में परिवर्तन की हवाएं चल रही हैं. ये हवाएं अपने साथ कितने ही संदेश लेकर आ रही हैं. दुनिया आज भारत की ओर आशा भरी नजर से देख रही है. आधुनिकता के नाम पर जब धरती के सारे स्रोतों को नष्ट किया जा रहा हो, तब वेदों में दिए गये संदेश जैसे उसके घावों पर मरहम रखते से लगते हैं, जिनमें कहा गया है धरती हमारी माँ है और हम उसके पुत्र हैं, माँ जो प्रेम की मूरत है, वह अपना सब कुछ संतानों पर लुटाने को तैयार ही है. नदियों की पूजा करने का वास्तविक अर्थ क्या है आज उसे समझने व समझाने का समय आ गया है. वृक्षों को आराध्य मानना और पंच तत्वों को परमात्मा का स्थूल शरीर मानना क्या हमें अपने पर्यावरण को सरंक्षित रखने का संदेश नहीं देता. अध्यात्म की सुगंध यहाँ की हवा में बसी हुई है, भौतिक उन्नति के शिखर पर पहुँचा हुआ व्यक्ति भी यहाँ संतों के चरणों में अपना सिर झुकाने में स्वयं को भाग्यशाली मानता है. जीवन के मर्म को समझने के लिए आदिकाल से हर देश के यात्री भारत आते रहे हैं, हम कितने भाग्यशाली हैं कि पृथ्वी के इस भूभाग में हमारा जन्म हुआ है, जिसका अर्थ ही है प्रकाश. जैसे प्रकाश के अभाव में जगत होते हुए भी दिखाई नहीं देता वैसे ही ज्ञान रूपी प्रकाश के न होने पर ही दुःख रूपी अंधकार ने हमें घेर लिया है, ऐसा भ्रम होने लगता है.

Monday, August 26, 2019

काहे री नलिनी तू कुम्हलानी



संत कबीर कहते हैं, 'काहे री नलिनी तू कुम्हलानी'. हमारा मन रूपी कमल भी अक्सर कुम्हला जाता है, हम अपने आपसे यह सवाल पूछें तो उत्तर मिल सकता है. दिक्कत यह है कि हमने स्वयं को मन ही समझ लिया है, इसलिए मन के उदास होते ही हम भी परेशान हो जाते हैं और सवाल पूछना तो दूर सामान्य व्यवहार भी भुला बैठते हैं. दुखी व्यक्ति न बोलने योग्य बोल देता है, न सोचने योग्य सोच लेता है और विषाद के कारण हुए तनाव से तन को भी रोगी बना लेता है. हम अन्यों को सलाह देने में कितने दक्ष हैं, किसी की भी, कैसी भी समस्या हो, हमारे पास उसका निदान सदा ही रहता है. कितना अच्छा हो यदि एक क्षण के लिए भी मन पर बादल छाये तो हम उससे पूछें और एक समझदार मित्र की तरह उसे इस दुःख से बाहर निकलने की सलाह दे सकें. ऐसा करने के लिए मन के साथ हुआ तादात्म्य तोड़ना होगा. नीले आकाश की तरह विस्तृत हमारा स्वरूप है और उस पर उड़ते हुए बादलों की तरह विचार हैं, दोनों में कोई तादात्म्य नहीं, दोनों पृथक हैं. विचारों के पार जाते ही मन के सुख-दुःख के हम साक्षी मात्र रहते हैं, वे हम पर अपना असर नहीं डाल सकते.  

Sunday, August 25, 2019

जो रहे कमलवत सदा जगत में



जगत में विविधता है, रूप, रंग, गंध, ध्वनि और स्वाद के न जाने कितने विषय हमारे चारों ओर बिखरे हैं. आँख को एक दृश्य दिखाएँ या हजार, उसे कोई भार नहीं लगता. नासिका ने हजारों गंध का ज्ञान ग्रहण किया है पर एक और गंध लेने के लिए उसे कोई प्रयास नहीं करना पड़ता. इसी प्रकार मन जो इन्द्रियों के द्वारा दिखाए गये ज्ञान को ग्रहण करता है, न जाने कितने जन्मों से यह कार्य कर रहा है, उसे कभी असुविधा नहीं होती, हर दिन नये-नये विषयों का ज्ञान प्राप्त करने की उसकी आकांक्षा को कोई बाधा नहीं पड़ती. यहाँ तक की बात जो समझ लेता है वह मन के हजार चिन्तन करने पर भी स्वयं को सहज अवस्था में रख पाने में समर्थ हो जाता है. मन में एक विचार आये या हजार विचार आयें, यदि हम स्वयं को मन से परे एक सत्ता के रूप में अनुभव कर सकते हैं, उसी तरह जैसे रूप से परे आँख है और आँख से परे मन है, तो हम सदा अपने निर्विकार रूप में बने ही रहते हैं. जीवन में रहकर भी कमल की तरह अलिप्त.  

Thursday, August 22, 2019

कृष्ण, कन्हैया, माधव, केशव



कृष्ण का नाम याद आते ही मन में स्मृतियों का एक अनंत भंडार खुल जाता है. याद हो आती हैं गोपियाँ और ग्वाल-बाल, नंद-यशोदा, गोकुल और वृन्दावन. मथुरा की जेल में कैद देवकी और टोकरी में नन्हे कान्हा को उठाये यमुना पार करते वसुदेव भी याद आते हैं. कदम्ब का पेड़ और बांसुरी की तान भी देश के लोकमानस में इस तरह रची-बसी है कि कहीं भी, कोई भी बांसुरी बजाये, कृष्ण की स्मृति मन को तरंगित कर जाती है. ब्रजभूमि का तो हर रजकण कृष्ण के स्पर्श को भीतर धारण किये हुए है. पूतना और बकासुर के नाम भी कृष्ण से वैसे ही जुड़े हैं जैसे सुदामा और उद्धव के. कृष्ण अर्जुन के सखा हैं और भीष्म पितामह के आराध्य भी, द्रौपदी के तारणहार हैं तो रुक्मणी के प्रिय द्वारकाधीश. राधा का नाम तो कृष्ण के साथ एक हो गया है, उसे अलग से गिनाने की भी जरूरत नहीं है. भारत उसी तरह कृष्णमय है जैसे उपवन में सुगंध हो या दीपक में ज्योति. चित्रकला, संगीत, वास्तुशिल्प, साहित्य या अन्य कोई भी विधा हो कृष्ण के बिना कोई भी पूर्ण नहीं होती. महाभारत को गीता रूपी रत्न से सुशोभित करने वाले कृष्ण का आज जन्मदिन है. यही प्रार्थना है कि जन्माष्टमी का यह पर्व भारत के सुन्दर भविष्य की नींव रखने वाला सिद्ध हो.

पहला सुख निरोगी काया



'पहला सुख निरोगी काया', हम यह शब्द बचपन से सुनते आये हैं. मानव देह परमात्मा की बनाई सुंदर कृति है, जो सौ वर्ष तक जीव का साथ दे सकती है. आयुर्वेद के अनुसार प्राकृतिक नियमों का पालन करते हुए जीवन जीने से मानव सहजता पूर्वक स्वास्थ्य व दीर्घायु प्राप्त कर सकता है. स्वस्थ रहने के उपाय भी हर कोई अपनी क्षमता के अनुसार करता है फिर भी कभी न कभी देह अस्वस्थ होती है. जिसका पहला कारण है हमारी जीवन प्रणाली. सुख-सुविधाओं के साधन बढ़ने के कारण ज्यादा शारीरिक श्रम नहीं होता, तथा जीवनस्तर बढ़ने के कारण वसायुक्त गरिष्ठ आहार हमारे भोजन का अंग बन गया है. चिकित्सक भी यह मानते हैं कि मधुमेह, रक्तचाप था हृदयरोग का मूल कारण आहार तथा दिनचर्या है. बाहर भोजन करने की आदत तथा टीवी के सामने घंटों बैठे रहने के कारण भी शरीर स्वयं को स्वस्थ नहीं रख पाता. कितना अच्छा हो यदि सुबह सूर्योदय से पहले उठकर आधा घंटा भ्रमण के लिए निकालें, फिर एक घंटा आसन तथा प्राणायाम आदि करके दिनचर्या का आरम्भ करें. हल्का पौष्टिक नाश्ता लेकर काम पर लगें तथा हर घंटे पर पांच दस मिनट के लिए शरीर की हिलाना-डुलाना न भूलें. दोपहर के भोजन के बाद दिन में आधे घंटे से अधिक विश्राम न करें. संध्या को भी नियमित रूप से कोई खेल खेलें, तैरें, साइकलिंग करें या टहलने जाएँ. नियमित ध्यान का अभ्यास भी शरीर व मन को स्थिरता प्रदान करता है. रात्रि भोजन के बाद भी कुछ देर चहलकदमी करनी आवश्यक है.

Tuesday, August 20, 2019

साधो, सहज समाधि भली



जीवन में हमें जो कुछ भी मिलता है वह हमारे विकास के लिए आवश्यक है, ऐसा जो जान लेता है अर्थात हृदय से मान लेता है और बुद्धि से स्वीकार कर लेता है, उसका जीवन सहज हो जाता है. हर सुख का क्षण यदि हमें अस्तित्त्व के प्रति कृतज्ञता से भर दे और हर दुःख का क्षण जीवन के प्रति जिज्ञासा से भर दे तभी हम सहजता की ओर बढ़ रहे हैं. सहजता का अर्थ है उस तरह होना जैसे कोई फूल उगा हो या कोई झरना बहता हो, जिसे अपने को श्रेष्ठ होने के लिए कुछ सिद्ध नहीं करना पड़ता. मानव सदा स्वयं को 'कुछ' होने की दौड़ में लगाये रखता है, वह अन्य की तुलना में विकसित होना चाहता है. एक जन्म के बाद दूसरा जन्म और जन्मों की एक लम्बी श्रृंखला चलती चली जाती है, हम विकास की उस ऊँचाई तक नहीं पहुँच पाते जिसके बाद इस चक्र में दुबारा नहीं आना पड़ता. आज वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो मानव की बुद्धि चरम सीमा तक पहुँच चुकी है, किंतु अस्तित्त्वगत दृष्टि से मानव की चेतना उपनिषदों के ऋषि की चेतना तक भी नहीं बढ़ पायी है. आज ध्यान को भी हमने संसार में उन्नति के लिए साधन बना लिया है, किंतु जिस क्षण तक ध्यान में होना एक सहज अनुभव न हो जाये, जीवन के मर्म का ज्ञान नहीं हो पाता.

Sunday, August 18, 2019

भाव जगेंं जब अनुपम भीतर



हमने स्वतन्त्रता दिवस मनाया और रक्षा बंधन भी, हर भारतीय के मन में दोनों के लिए आदर और गौरव का भाव है. देश की रक्षा करने वाले वीरों की कलाई में बहनें जब राखी बांधती हैं तो उनके मनों में आजाद हवा में साँस लेने का सुकून भर जाता है. सृष्टि में प्रतिपल कोई न कोई किसी की रक्षा कर रहा है. वृक्ष के तने पर जब हम लाल धागा बांधते हैं तो हम उसके द्वारा स्वयं को रक्षित हुआ मानते हैं. एक तरह से सुरक्षित होना ही स्वतंत्र होना है, इस बार दोनों उत्सव एक ही दिन मनाए गये, इसके पीछे सृष्टि का कोई न कोई अदृश्य हाथ अवश्य है. बहनें अथवा कुल का पुरोहित जब परिवार के बच्चों और युवाओं के हाथ में डोरी बांधता है तो उसके पीछे कितनी ही अनाम भावनाएं छुपी  होती हैं. जीवन भावनाओं से गुंथा हो तभी उसकी शोभा होती है, वरना अंतर से रस विलीन हो जाता है. हृदय यदि श्रद्धा और प्रेम के भावों से भीगा न हो तो उसमें मरुथल की तरह कैक्टस ही उग सकते हैं. भावना के फ़ूल ही मानव को मानव बनाते हैं. देश के लिए कुर्बान होने का भाव किसी वीर के हृदय में जब जगता है तब वह सारी कठिनाइयों को सहने के लिए तैयार हो जाता है. हमने अपने पूर्वजों का ऋणी होना चाहिए जिन्होंने सुंदर उत्सवों की एक श्रंखला हमें सौंपी है, जिसकी मूल भावना को अक्षुण रखते हुए हमें उन्हें मनाना है.

Sunday, August 11, 2019

स्वयं का ही जो शासन माने



अपने सुख-दुःख के लिए जब हम स्वयं को जिम्मेदार समझने लगते हैं, तब अध्यात्म में प्रवेश होता है. जब तक हमारा सुख-दुःख व्यक्ति, वस्तु और परिस्थिति पर निर्भर है, तब तक हम संसार में रचे-बसे हैं. संसारी होने का अर्थ है पराधीन होना, अपनी ख़ुशी के लिए दूसरों की पराधीनता को स्वीकार करना ही अधार्मिकता है. 'दूसरे' में व्यक्ति, वस्तु और परिस्थति तीनों ही आ जाते हैं. तुलसीदास ने कहा है, पराधीन सपनेहु सुख नाहीं...इसलिए स्वतंत्र प्रकृति का व्यक्ति जगत में अपनी राह खुद बनाता है, अपने भाग्य का निर्माता स्वयं बनता है. ऐसा व्यक्ति कर्मयोगी बन सकता है, ज्ञानी बन सकता है, भक्त बन सकता है, तीनों बन सकता है. निष्काम कर्मयोग के द्वारा परमात्मा को सब प्राणियों में देखा जा सकता है, ज्ञान के द्वारा परमात्मा को स्वयं में देखा जा सकता है और भक्ति के द्वारा कण-कण में देखा जा सकता है. सत्संग के द्वारा ही हम सभी अध्यात्म में प्रवेश के अधिकारी बनते हैं.

Friday, August 9, 2019

अलख निरंजन भव भय भंजन



प्रकृति और पुरुष दोनों उसी तरह भिन्न हैं जैसे वाहन और उसका चालक. गति वाहन में होती है, चालक में नहीं, इसी तरह सारी क्रिया प्रकृति में है, पुरुष में नहीं. वाहन यदि टूट जाये तो दूसरा लिया जा सकता है, इसी तरह पंचभूतों से बनी देह जो प्रकृति का ही अंश है, यदि नष्ट हो जाये तो पुरुष को कोई अंतर नहीं पड़ता, उसे दूसरी देह मिल जाती है. यदि किसी का वाहन क्षतिग्रस्त हो जाता है, तो वह व्यक्ति दुखी होकर उसका शोक मनाये ही ऐसा जरूरी नहीं, सुखी या दुखी होना उसकी स्वाधीनता है, इसी तरह यदि देह रोगी हो जाये या वृद्ध हो जाये, अथवा नष्ट हो जाये तो सुख या दुखी होना पुरुष यानि आत्मा की स्वतन्त्रता है. कर्मों का फल सुख या दुःख के रूप में मिलता है पर सुखी या दुखी होना केवल हमारे बोध के ऊपर निर्भर करता है. हर मानव के मन की गहराई में एक स्थान ऐसा है जो निरंतर एकरस है, जो मुक्त है, यदि कोई उसे जुड़ जाये तो कभी अपनी इच्छा के विपरीत सुख-दुःख का अनुभव उसे नहीं होगा, वह सदा साक्षी ही बना रहेगा.  

Thursday, August 8, 2019

अति का भला न बरसना


"अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप, अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप" अति किसी भी वस्तु की हो हानिकारक होती है. आज देश में वर्षा की अति हुई लगती है, दक्षिण के सभी राज्य बाढ़ की विभीषिका से जूझ रहे हैं. उससे पूर्व बिहार और असम भी इस विपदा का शिकार हुए. गुजरात व महाराष्ट्र के कितने ही जिले पानी में डूब गये, जब शहरों में इतनी बुरी हालत है तो गांवों की तो कल्पना ही की जा सकती है. जब घरों में पानी भर जाता है, लोगों की बरसों की जमापूंजी, सामान, घर-बिस्तर सब कुछ नष्ट हो जाते हैं. इस प्राकृतिक विपदा का सामना यूँ तो हर वर्ष ही करना पड़ता है, किंतु इस साल यह महामारी की तरह सब जगह फ़ैल गयी है. बरसात न हो तो सूखे की सी स्थिति हो जाती है, अब भूमि में जल का स्तर निश्चित रूप से बढ़ जायेगा. बाढ़ के साथ आई ताजी मिटटी खेतों को उपजाऊ कर देगी. उम्मीद है सरकार और देशवासियों के सहयोग से इस विपत्ति का सामना मानव की जुझारू प्रवृत्ति किसी न किसी तरह कर ही लेगी और बरसात का मौसम थमते ही थमते गाड़ी पटरी पर आ जाएगी. किंतु उस समय का उपयोग यदि जिला प्रशासन व्यवस्था पक्के नाले बनाने में करे, प्लास्टिक का उपयोग कम से कम हो, जिससे पानी का निकास न रुके. जल को संचित करने के लिए बड़े जलाशयों का निर्माण हो तब अगले वर्ष बाढ़ आने की नौबत शायद नहीं आये, यदि अधिक बरसात हुई भी तो उसका ज्यादा असर नहीं होगा.  

सर्वे भवन्तु सुखिनः



कश्मीर की वादियों में आज सन्नाटा है, लेकिन यह सन्नाटा तूफान से पहले का सन्नाटा नहीं है. यह शांति तो उस उत्सव की राह देख रही है जो आतंकवाद, गरीबी, अलगाव और अशिक्षा को दूर करके अमन और खुशहाली के माहौल में वहाँ मनाया जाने वाला है. पिछले चार दशकों से जो खून बहा है, उसकी कीमत तो कोई नहीं चुका सकता, किंतु जिस नफरत की आग को कुछ स्वार्थी तत्वों ने भड़काया है, उसके बुझने का प्रबंध धारा तीन सौ सत्तर को निष्प्रभावी बनाने के साथ किया जा चुका है. भारत की वीर सेना और देश को सर्वोपरि मानने वाली निर्भीक राजनीतिक इच्छा शक्ति ने जो कदम उठाया है, वह इतिहास के पन्नों में स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जायेगा. हर देशवासी के मन में यही आकांक्षा है कि एक बार पुनः काश्मीर में शिकारों पर गीत फिल्माए जाएँ, केसर की क्यारियां महकें. धरती का जन्नत कश्मीर संतों और सूफियों का एक सा स्वागत करे. हर घर में तिरंगा फहरे और हर कश्मीरी फख्र से कह सके, वह भी एक सच्चा भारतीय है.  


Friday, August 2, 2019

प्रेम और शांति



'युद्ध और शांति' इन शब्दों से हम सभी परिचित हैं, कोई राष्ट्र अथवा उसकी सेना के लिए काल को दो खंडों में परिभाषित किया जाता है, एक युद्ध काल तथा दूसरा शांति काल, दोनों एक साथ नहीं होते. एक के बाद एक आते हैं. किंतु हम यहाँ बात कर रहे हैं प्रेम और शांति की जो साथ-साथ होते हैं. प्रेम होता है तो वातावरण शांत हो जाता है अथवा जब शांति होती है तो प्रेम भीतर से फूटने लगता है. रात्रि की नीरवता में ओस की बूंदों के रूप में प्रेम ही बरसता है, तथा जब बादल बरस कर जल के रूप में प्रेम बरसा रहे हों तो बाद में वातावरण कितना शांत व शुभ्र प्रतीत होता है. धरा की गहराई में पूर्ण नीरवता में बीज प्रेम में ही मिटता है और नये अंकुर का जन्म होता है. परिवार के सदस्यों के मध्य यदि प्रेम सहज रूप से विद्यमान रहे तो घर में शांति रहती है. यदि प्रेम की उस धारा में कोई रुकावट आ जाये तो घर की शांति भंग हो जाती है. प्रेम और शांति हमारा मूल स्वभाव है, हमारा निर्माण इनसे ही हुआ है. हम मानवों ने तन तो ऊपर से ओढा हुआ है. मन व बुद्धि जहाँ से उपजे हैं, वह स्रोत प्रेम ही है और वहाँ गहन शांति है.