अपने सुख-दुःख के लिए जब हम
स्वयं को जिम्मेदार समझने लगते हैं, तब अध्यात्म में प्रवेश होता है. जब तक हमारा
सुख-दुःख व्यक्ति, वस्तु और परिस्थिति पर निर्भर है, तब तक हम संसार में रचे-बसे
हैं. संसारी होने का अर्थ है पराधीन होना, अपनी ख़ुशी के लिए दूसरों की पराधीनता को
स्वीकार करना ही अधार्मिकता है. 'दूसरे' में व्यक्ति, वस्तु और परिस्थति तीनों ही
आ जाते हैं. तुलसीदास ने कहा है, पराधीन सपनेहु सुख नाहीं...इसलिए स्वतंत्र
प्रकृति का व्यक्ति जगत में अपनी राह खुद बनाता है, अपने भाग्य का निर्माता स्वयं
बनता है. ऐसा व्यक्ति कर्मयोगी बन सकता है, ज्ञानी बन सकता है, भक्त बन सकता है, तीनों
बन सकता है. निष्काम कर्मयोग के द्वारा परमात्मा को सब प्राणियों में देखा जा सकता
है, ज्ञान के द्वारा परमात्मा को स्वयं में देखा जा सकता है और भक्ति के द्वारा कण-कण
में देखा जा सकता है. सत्संग के द्वारा ही हम सभी अध्यात्म में प्रवेश के अधिकारी
बनते हैं.
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (13-08-2019) को "खोया हुआ बसन्त" (चर्चा अंक- 3426) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
कर्मयोगी बनने के लिए आपकी ये प्रस्तुति गजब है। अनीता जी धन्यवाद
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