Monday, August 26, 2019

काहे री नलिनी तू कुम्हलानी



संत कबीर कहते हैं, 'काहे री नलिनी तू कुम्हलानी'. हमारा मन रूपी कमल भी अक्सर कुम्हला जाता है, हम अपने आपसे यह सवाल पूछें तो उत्तर मिल सकता है. दिक्कत यह है कि हमने स्वयं को मन ही समझ लिया है, इसलिए मन के उदास होते ही हम भी परेशान हो जाते हैं और सवाल पूछना तो दूर सामान्य व्यवहार भी भुला बैठते हैं. दुखी व्यक्ति न बोलने योग्य बोल देता है, न सोचने योग्य सोच लेता है और विषाद के कारण हुए तनाव से तन को भी रोगी बना लेता है. हम अन्यों को सलाह देने में कितने दक्ष हैं, किसी की भी, कैसी भी समस्या हो, हमारे पास उसका निदान सदा ही रहता है. कितना अच्छा हो यदि एक क्षण के लिए भी मन पर बादल छाये तो हम उससे पूछें और एक समझदार मित्र की तरह उसे इस दुःख से बाहर निकलने की सलाह दे सकें. ऐसा करने के लिए मन के साथ हुआ तादात्म्य तोड़ना होगा. नीले आकाश की तरह विस्तृत हमारा स्वरूप है और उस पर उड़ते हुए बादलों की तरह विचार हैं, दोनों में कोई तादात्म्य नहीं, दोनों पृथक हैं. विचारों के पार जाते ही मन के सुख-दुःख के हम साक्षी मात्र रहते हैं, वे हम पर अपना असर नहीं डाल सकते.  

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