Thursday, December 17, 2015

निज हाथों में भाग्य हमारा


हम देह को स्वस्थ रखने के लिए पौष्टिक भोजन ग्रहण करते हैं, व्यायाम और योग साधना करते हैं. मन के विश्राम के लिए हम निद्रा की शरण लेते हैं, उसे प्रसन्न रखने के लिए मनोरंजन के साधन का उपयोग करते हैं. भावनात्मक आवश्यकताओं के लिए परिवार, समाज और रिश्तों का आश्रय लेते हैं. हर क्षेत्र में सफलता पाने के लिए हर कोई अपने तौर पर किसी न किसी प्रयास में लगा है. यह सब करते हुए हम एक आवश्यक बात भुला देते हैं कि हमारे हर विचार का असर हमारे भाग्य पर पड़ता है. विचारों से हमारा दृष्टिकोण तथा मान्यतायें बनती हैं, जिससे हमारी आदते विकसित होती हैं, तथा व्यक्तित्त्व बनता है. प्रतिदिन कुछ समय निकाल कर अपने भविष्य की कल्पना करने तथा उसके अनुरूप चिन्तन करने से हम अपना भाग्य स्वयं ही बदल सकते हैं. 

Thursday, October 29, 2015

सुख का सागर लहराता है

ऐसे तो हर कोई सुख की खोज में लगा है पर जो सचेतन होकर सुख की तलाश में निकलता है वह एक दिन स्वयं को सुख के सागर में पाता है. सुख की तलाश जब सजग होकर की जाती है तो उसका पता पूछना होगा, जो भी ऐसे कारण हैं जो सुख को दूर करते हैं उन्हें मिटाना होगा. सजगता ही वह सूत्र है जो किसी को भी मंजिल तक पहुंचा सकती है. इसका सबसे बड़ा कारण है कि सुख को बनाना नहीं है वह तो मौजूद है, अनंत मात्रा में मौजूद है, जरूरत है उसका पता पूछकर उस दिशा में कदम बढ़ाने की.  

Monday, October 26, 2015

एक शिवालय है यह तन


मानव देह परमात्मा का मन्दिर है, देह में ही परमात्मा का अनुभव सम्भव है. मन मनुष्य निर्मित है, देह नैसर्गिक है. मन बंटा है, अशान्ति मन के कारण है. मन समाज का दिया है, तन प्रकृति का है, हर पल परमात्मा से जुड़ा है, प्राण जो इस देह को चला रहे है, पंच तत्व जिनमें परमात्मा ओतप्रोत है, जिनके स्पर्श से भीतर पुलक भर जाती है, इस देह द्वारा ही अनुभव में आते हैं. इसीलिए संतजन कहते हैं स्वयं को जानो, स्वयं के पार ही वह छुपा है जिसे जानकर फिर कुछ जानने को शेष नहीं रहता.   

Monday, October 5, 2015

ज्ञान भक्ति दोनों ही तारें

मानव जीवन दुर्लभ है, इसी में कोई सारे दुखों से छुटकारा पा सकता है. ऐसा सुख पा सकता है जो कभी जाता नहीं है. सुबह से शाम तक किस-किस को दुःख दिया अथवा दुःख देने की भावना की, रात को सोने से पूर्व इसका लेखा-जोखा कर लें तो धीरे-धीरे कर्म बंधन कट जाते हैं. व्यवहारिक सत्य-असत्य का ज्ञान होने पर भीतर आग्रह नही रहता. जब एक-दूसरे के दृष्टिकोण को नहीं समझते तब ही कर्म बंधते हैं. ज्ञान मुक्त कर देता है. किसी को दुःख पहुंचाना पाप है और किसी को सुख पहुंचाना पुण्य है. दुःख पहुँचाने से यदि हृदय में पश्चाताप हो तो पाप कट जाता है. भक्ति का खजाना जिसके हृदय में भरा हो, उसे जग से क्या चाहिए. यह खजाना ऐसा है जो कभी खत्म नहीं होता. 

Tuesday, September 29, 2015

मुक्त हुआ मन उड़े गगन में


ज्ञान मन को मुक्त कर देता है. आत्मा का ज्ञान पाकर ही बुद्धि वास्तव में बुद्धि कहलाने की अधिकारिणी है. उसके पहले मन तो पाश में बंधा होता है, बुद्धि भी एक अधीनता का जीवन जीती है. मन की आधीन, इन्द्रियों की आधीन, धन, प्रसिद्धि, प्रशंसा की आधीन, मोह, क्रोध, अहंकार की  आधीन तथा और भी न जाने मन की कई सुप्त प्रवृत्तियों की अधीनता उसे स्वीकारनी पड़ती है. किन्तु आत्मा का ज्ञान होने के बाद जैसे कोई परदा उठ जाता है. मन, बुद्धि स्वयं को कितना हल्का महसूस करते हैं. 

Monday, September 21, 2015

सांचा तेरा नाम..


कृष्ण व्यापक है, परम सत्य व्यापक है किन्तु मद तथा मूढ़ता के कारण हम उसे देख नहीं पाते. जब हम सत्य की खोज में निकलते हैं तो मन भटकाता है, हम केंद्र से दूर हो जाते हैं. सत्य खोजने से नहीं मिलता बल्कि हम जहाँ हैं वहीं उसे प्रकट कर सकते हैं. सत्य शास्त्र से भी नहीं मिलता, शास्त्र उसका अनुमोदन भर करते हैं. जब-जब हम धर्म के मार्ग पर चले हैं, उसी में स्थित हैं. ईश्वर हमसे दूर नहीं है, वह तो निकटस्थ है, चाहे हम उसे याद करें अथवा न करें, वह हमारी आत्मा की भी आत्मा है.   

Tuesday, September 1, 2015

रुक जाये पल भर को मन


जगत आश्चर्यों से भरा है..यह सृष्टि अनोखी है. हजारों तरह के फूल, रंग-बिरंगी तितलियाँ, सुंदर मछलियाँ, उगता हुआ सूर्य, रात्रि के नीरव आकाश में लाखों सितारे..और उन सबसे बढ़कर मानव का  मन-मस्तिष्क. जिसमें न जाने कितने जन्मों की स्मृतियाँ और संस्कार अंकित हैं. जिन्हें हम स्वप्न के रूप में देखते हैं. इन सबको देखने वाला द्रष्टा जब विस्मय से भर जाता है तो स्तब्ध रह जाता है, विस्मय से भरा मन कुछ पल के लिए ही सही थम जाता है और तब उसे उसका पता चलता है जो इन सबको देख रहा है, वही हम हैं. यह सृष्टि मानो हमें आश्चर्य चकित करने के लिए ही बनाई गयी है ताकि हम खुद को पा सकें उन क्षणों में जब बाहर की विविधता हमें स्तब्ध कर दे.   

Monday, August 31, 2015

भीतर सुख का घर है


आत्मा ज्ञाता और द्रष्टा है, मन मननशील है, बुद्धि विचारती है, अहंकार इन सबका सेहरा अपने सर ले लेता है और स्वयं को ही कर्ता-धर्ता मानता है. आत्मा तक अभी मन, बुद्धि की पहुंच नहीं है सो वे अहंकार को ही अपना स्वामी मानते हैं. अहंकार का स्वभाव ही है नकारात्मक, सो जीवन से अशांति कभी जाती नहीं. उपाय क्या है ? आत्मा तक पहुंचकर उसे अपना स्वामी मानना ही एकमात्र उपाय है, आत्मा स्वभाव से ही सकारात्मक है, सुख और शांति का स्रोत है, मन व बुद्धि उससे मिलकर स्वतः ही आशा और विश्वास से भर जाते हैं.

Friday, August 28, 2015

प्रार्थना जब जगेगी भीतर


प्रार्थना में अपार शक्ति है, प्रार्थना हमें विनीत बनाती है, हमारी भीतरी अभीप्सा से रूबरू कराती है. हम अपने भीतर उतर कर जब टटोलते हैं कि आखिर हम चाहते क्या हैं, तब ही प्रार्थना का जन्म होता है. प्रार्थना जब अपने आप जगती है, तब पूरी भी अपने आप होती है. अंतर जब पवित्रता का अनुभव करता हो तब जो प्रार्थना जन्मेगी वह हमें लक्ष्य तक ले ही जाएगी. जब अंतर प्रतिस्पर्धा से मुक्त हो तब सहज ही जो पुकार उठती है भीतर वही मुक्त करती है. 

Thursday, August 27, 2015

वही जीवन का सार है


जो एक रस है, अपार है, सदा साथ है. जो जागृत है, प्रेममय है, सदा सुख है. जो सहज है, सदा पुकार दे रहा है, सच्चा मित्र है, वही जीवन में बहार है. जो सदा खुला हुआ द्वार है, सबको समो लेता है, जिसके बिना जीवन असार है. वही जीवन का आधार है.

Wednesday, August 26, 2015

खुद में ही खुद को पाना है


जो नहीं है उससे हम भयभीत रहते हैं, जो सदा है उससे अनभिज्ञ ही बने रहते हैं. सारा जीवन निकल जाता है पर चेतना का स्पर्श नहीं हो पाता, और मन जो होकर भी नहीं है हमें भगाता रहता है. इसीलिए मन रूपी संसार को शंकर माया कहते हैं. मन अँधेरे की तरह है, जिसका आरम्भ कब से है पता नहीं, पर प्रकाश जलते ही उसका अंत हो सकता है, आत्मा सदा से है उसका अंत नहीं होता. आखिर हम आत्मा से अपरिचित क्यों रहते हैं, क्योंकि हम पल भर भी खुद में टिककर नहीं बैठते. 

Monday, August 24, 2015

सोम वही है वरुण है जो


वेदों में कितनी सुंदर स्तुतियाँ और प्रार्थनाएं की गयी हैं. एक मन्त्र में ऋषि कहते हैं परमात्मा हर ओर से मानव की सुरक्षा करता है. प्राची दिशा में वही अग्नि बनकर उसका मार्ग प्रशस्त करता है, उसे आगे ही आगे बढने को प्रेरित करता है. पश्चिम में वही वरुण रूप में उसे पाप से बचाता है, अर्थात रक्षा करता है. दक्षिण दिशा में परमात्मा इंद्र बनकर बल प्रदान करता है. उत्तर में सोम बनकर शांतिप्रदाता है. ऊपर की दिशा में वह बृहस्पति बनकर ऊपर उठाता है. नीचे की दिशा में वह विष्णु बनकर हमें आधार प्रदान करता है. परमात्मा हर तरफ से आत्मा को घेरे हुए है. 

Friday, August 21, 2015

जगा रहे मन घड़ी-घड़ी


जीवन को गहराई से महसूस करना हो तो वर्तमान के क्षण में ही किया जा सकता है, पर हम न  जाने कितना समय अतीत की स्मृतियों और भविष्य की कल्पनाओं में खो देते हैं. रात्रि को स्वप्न देखना स्वाभाविक है पर जागते हुए भी भीतर जो विचार की धारा चलती रहती है वह स्वप्न ही है, संत जन तभी कहते हैं हम जागते हुए भी सोये हैं. जिस क्षण हम भोजन कर रहे हैं, मन कहीं और है, स्वप्न चल रहा है, ऊर्जा व्यर्थ ही बही जा रही है, जिस समय किसी से वार्तालाप कर रहे हैं, भीतर एक अन्य बातचीत चल रही है, अर्थात हम जहाँ होते हैं अक्सर वहाँ नहीं होते, इसी कारण मन थक जाता है. संतजन प्रफ्फुलित रह पाते हैं क्योंकि उन्होंने इस राज को जान लिया है, वह निरंतर ऊर्जा के प्रवाह को बनाये रखते हैं. 

Thursday, August 20, 2015

उसकी ओर जरा मुड़ देखें


वह परम चैतन्य जो इस सम्पूर्ण सृष्टि का नियंता है, जो ऋत है, नियम है, आनन्दमय है, नित है, ज्ञानमय है. सब प्राणियों को जानने वाला है. वह अगोचर है पर उसी के द्वारा देखा जाता है, उसी के द्वारा सुना जाता है, वह ईश्वर हर आत्मा को अपनी ओर उन्मुख करना चाहता है, कभी सुख कभी दुःख के द्वारा वह हमें सजग करता है. उसके प्रति जागरूक होना ही साधना का फल है. 

Wednesday, August 19, 2015

बढ़ती रहे ऊर्जा प्रतिपल


हमारे हर कृत्य का चाहे वह मनसा हो, वाचा या कर्मणा हो, हमारी आत्मा पर, ऊर्जा पर असर पड़ता है. यह असर दो तरह का हो सकता है पहला उसे भरपूर करने वाला दूसरा उसे रिक्त करने वाला. किसी भी तरह का नकारात्मक भाव ऊर्जा का हनन करता है, सात्विकता उसे समृद्ध करती है. इसका अर्थ हुआ कि व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति यदि हमारे विपरीत भी प्रतीत होती हो यदि हम उसे स्वीकार लेते हैं और मन को नकार से नहीं भरते, ऊर्जा बढती है और यदि सब कुछ हमारे अनुकूल भी हो पर हमरा रवैया यदि हर जगह दोष देखने वाला हुआ तो ऊर्जा घटती है. ऊर्जा की कमी ही किसी भी तरह के रोग का कारण होती है.

Monday, August 17, 2015

एक हास्य भीतर से प्रकटे


हमें अपना वास्तविक परिचय मिल जाये तो एक पल में सारी उलझन मिट सकती है. उलझन है क्या ? यही न कि हम स्वयं को अन्यों से बड़ा सिद्ध करना चाहते हैं, हम कुछ करके दिखाना चाहते हैं, हम हर पल सुखी रहना चाहते हैं, पर यह हो नहीं पाता. हजारों हमारे आगे हैं हजारों हमारे पीछे हैं, कितना भी कर लें मन की गगरी खाली रहती है, सुख की तलाश में दुःख ही हम अपनी झोली में भरे जाते हैं. तो उपाय यही है कि हम खुद को जानें, ध्यान की विधि सीखें, अपने मन को भीतर ले जाएँ और जानें कि एक अनंत प्रेम, शांति और सुख का खजाना भीतर छिपा है. जिस घड़ी यह सत्य प्रकट होता है एक निर्दोष हास्य फूट पड़ता है और एक ऐसी मुस्कान का उपहार हमें मिल जाता है जो बाहर की किसी भी परिस्थिति से प्रभावित नहीं होती. 

खाली ही भरा जाता है


इच्छा पूरी न हो तो दुःख होता है पर पूरी होने पर राग जगता है, जो नई कामना को जन्म देता है. इस तरह सारा जीवन बीत जाता है, सर्वोत्तम यही है कि इच्छा उठते ही हम उसे समर्पित कर दें, इससे मन खाली रहेगा, खाली मन में ही आत्मा की झलक मिलती है. जैसे घड़े से जल निकाल दें तो उसका मूल आकाश स्वयंमेव भर जाता है वैसे ही मन का मूल आत्मा है और आत्मा का मूल परमात्मा है, जो प्रेम स्वरूप है, उसका प्रेम भीतर भर जाये तो जीवन उत्सव बन जाता है. यह तो वह हीरा है जिसे असली जौहरी ही पहचान सकता है. जो भीतर से भर जाता है उसे भरने के लिए संसार की निधियां नहीं चाहिए. वह सहज ही संसार में जीना सीख जाता है.

Tuesday, August 4, 2015

सुख सपना दुःख बुलबुला


प्रारब्ध वश सुख-दुःख तो हमें मिलने ही वाले हैं, सुख आने पर यदि अभिमान आ गया तो नया कर्म बना लिया जिसका फल भविष्य में दुःख रूप में आएगा, दुःख आने पर यदि दुखी हो गये तो भी नया बीज डाल दिया जिसका परिणाम दुख आने ही वाला है. साधक को चाहिए कि दोनों ही स्थितियों में सम रहे, वे जैसे आये हैं वैसे ही चले जायेंगे, नया कर्म बंधेगा नहीं, वर्तमान भी सुधर गया और भविष्य भी. समता का अभ्यास नियमित ‘ध्यान’ करके किया जा सकता है. 

Monday, August 3, 2015

हीरा जनम अमोल है


जीवन परमात्मा का दिया सुंदर उपहार है, इसको हम कितनी ही बार सुनते हैं और पढ़ते हैं, पर हम इस बात की ओर ध्यान ही नहीं देते कि हमने उपहार को खोला ही नहीं है, हम गिफ्ट रैप में ही उलझे हैं, देह तो बाहरी आवरण है, रंगीन रिबनों से सजा हुआ, और मन वह डिब्बा है जिसके भीतर उपहार है. हम उन्हीं में उलझ जाते हैं और असली हीरा जो भीतर है, उसकी तरफ ध्यान ही नहीं जाता.   

Sunday, August 2, 2015

स्वतन्त्रता परम है

साधक को अपने आस-पास ऐसे वातावरण का निर्माण करना होगा, जिसमें हर कोई पूर्ण स्वतन्त्रता का अनुभव करते हुए अपने दिल की बात बिना किसी झिझक के कह सके, कुछ करना चाहे तो कर सके. जहाँ किसी भी तरह की तुलना या महत्वाकांक्षा से जीवन का सहज आनंद बाधित न हो. जीवन चाहे कितना भी संघर्ष पूर्ण हो, हरेक को अपने भीतर के आनंद को अनुभव करने का अवसर मिले, सुविधा मिले. जीवन इतना अनमोल है कि उसे साधारण बातों में खोया नहीं जा सकता.   

Wednesday, July 8, 2015

जागो....जागो रे

मई २०१० 
परमात्मा हर वक्त हमारे साथ है, सद्गुरु हर क्षण हमारे साथ है, आत्मा हर पल हमारे साथ है. वे कितने-कितने उपायों से हमें संदेश भेजते हैं, कितने उपाय करते हैं कि हमें ख़ुशी मिले, ऐसी ख़ुशी जो वास्तविक है, जो हमारे भीतर से आई है. वे इसके लिए कभी-कभी हमें दंड भी देते हैं. बाहर जब सुबह का सूर्य उगा हो, शीतल सुगन्धित पवन बह रही हो, पंछियों का मधुर गुंजार हो रहा हो, ऐसे में कोई बच्चा स्वप्न में रो रहा हो तो कौन माँ उसे झिंझोड़ कर जगा न देगी, वह उसे प्रसन्नता देना चाहती है. ऐसे ही परमात्मा हमें जगाते हैं, कष्ट भेजकर वह कहते हैं जो तुम्हारा मार्ग था वह सही नहीं था, देखो ऐसे जीओ.  

Tuesday, July 7, 2015

नित नूतन यह जग है सुंदर

मई २०१०
जीवन में विस्मय न होने का कारण है ज्ञान, इन्द्रियों का सीमित ज्ञान... स्मृति से निश्चय होता है और उससे हम जीवन को पुराने चश्मे से देखते हैं. नित नवीन परमात्मा का यह संसार भी नित नवीन है लेकिन हम अपने पुराने अनुभवों, सूचनाओं तथा मान्यताओं के कारण कुछ भी नवीनता नहीं देख पाते, न तो अपने भीतर न समाज में. ऐसे में जीवन से आनंद व सुख चले जाते हैं. विस्मय बना रहे इसके लिए जरूरी है कि हम स्वयं को जानकार न मानें, बालवत् हो जाएँ, भोले बन जाएँ, तभी हर समय जगत अपने पर से पर्दा उठाकर हमें नवीनता का दर्शन कराएगा ! जीवन रहस्यों से भरा हुआ है पर दुःख से पीड़ित मन की उस तक नजर ही नहीं जाती, भक्त उसे देख लेता है, ज्ञानी भी उसे देख लेता है और प्रतिपल आनंद की वृद्धि का अनुभव करता है. ऐसा सुख से भरा यह हमारा जीवन है कि जितना लुटाओ खत्म ही नहीं होता, पर मिथ्या अहंकार इसे जानने में बाधा बना बैठा है, अहंकार का भोजन ही दुःख है और आत्मा का भोजन ही सुख है. 

Friday, June 26, 2015

नमस्कार

नमस्कार
आज हम दस दिनों की लेह यात्रा पर जा रहे हैं वापस आकर पुनः मिलेंगे. आप सभी को शुभकामनायें !

Thursday, June 25, 2015

योग लगाना है उससे

मई २०१० 
आत्मज्ञान हुए बिना मुक्ति सम्भव नहीं है. आत्मा के सात गुण हैं शांति, आनंद, सुख, प्रेम, ज्ञान, पवित्रता और शक्ति ! जिनकी कमी से जीवन अधूरा ही नहीं रहता बल्कि उसमें पीड़ा भर जाती है. शांति यदि न हो तो नर्वस सिस्टम रोगी हो जाता है, आनंद न हो तो अंतर्स्रावी ग्रन्थियां अपना काम ठीक से नहीं करतीं. सुख न हो तो भोजन नहीं पचता, प्रेम न हो तो ह्रदय रोग होने का खतरा है, पवित्रता न हो तो कर्मेन्द्रियाँ रोगी हो जाती हैं तथा शक्ति न हो तो संकल्प दृढ नहीं हो पाते. हमारी शारीरिक व मानसिक बीमारियों का इलाज योग के पास है. योग होते ही आत्मा के द्वार खुल जाते हैं और जीवन में विस्मय हो तो योग घटित होता है.  

Wednesday, June 24, 2015

मन हो अपना सहज सुराजी

अप्रैल २०१० 
जहाँ राजा विवेकवान है, सचिव सत्यवान है, रानी श्रद्धा से भरी नारी है, सेनापति वैराग्ययुक्त है , वहीं सुराज होता है. हमारे मन का राज्य भी तभी सुराज होगा जब इस पर विवेक का शासन होगा, श्रद्धा हमारी प्रिया होगी, सत्य सलाहकार होगा और वैराग्य रक्षक होगा.   

Tuesday, June 23, 2015

प्रेम समाया हर जर्रे में

मार्च २०१० 
यह ब्रह्मांड कितना विशाल है, हमारी आकाशगंगा में डेढ़ सौ अरब तारे हैं और न जाने कितने ग्रह, उपग्रह उन तारों के होंगे, ऐसी अनंत आकाशगंगाएं होंगी. बुद्धि चकरा जाती है पर जब ध्यान में खाली होकर बैठो तो वह अनंत जैसे अपना लगने लगता है, उसमें कहीं भी विचरो ! कैसा अद्भुत है यह ज्ञान. आत्मा जब अपने घर में होती है तो पूर्ण आनंद में होती है और परमात्मा जब अपने घर में होता है तो पूर्ण प्रेम में होता है. प्रेम से ही तो ये सारा साम्राज्य बना है, असंख्य निहारिकायें, असंख्य नक्षत्र, असंख्य पृथ्वियां और असंख्य जीव...कितना अनोखा है प्रेम का यह प्रपंच ! आत्मा बलशाली हो जाये तो मन नन्हे शिशु की तरह निरीह तकता है, बुद्द्धि अपनी मनमानी नहीं कर पाती. जीवन वरदान बन जाता है और सांसे जैसे अमृत हों जिन्हें घूँट-घूँट करर पीया जा सकता है.  

भीतर जगे आस्था जब

फरवरी २०१० 
हमारे और परमात्मा के मध्य मल, विक्षेप और आवरण तीन बाधाएं हैं. संचित पाप तथा शरीर के विकार ही मल हैं. मन की चंचलता व दुर्गुण ही विक्षेप हैं  तथा मोह व अज्ञान आवरण हैं. ये सभी दूर हो जाएँ तो परमात्मा हमारे सम्मुख ही है. हमारी प्राण शक्ति जितनी अधिक होगी भीतर उत्साह रहेगा, समाधान रहेगा. प्राण शक्ति घटते ही रोग भी घेर लेता है तथा मन भी संदेहों से भर जाता है. प्राणायाम तथा ध्यान मल व विक्षेप को दूर करते हैं और समाधि आवरण को भी हटा देती है. समाधि का अनुभव होते ही आस्था दृढ़ हो जाती है और तब परमात्मा पराया नहीं रहता. भीतर कोई हलचल नहीं, कोई उद्वेग नहीं एक सुखदायी मौन छा जाता है जिसकी छाया में विश्राम पाकर मन तृप्त हो जाता है. 

Sunday, June 21, 2015

हरी हरी वसुंधरा

फरवरी २०१० 
वसुधा, वसुंधरा, धरा, धरित्री, पृथ्वी, मही, भू, भूमि, मेदिनी, श्री, विष्णु पत्नी इतने सारे नाम हैं धरती माँ के, हर एक का अलग अर्थ है. भू का अर्थ है होना. पृथ्वी जड़ नहीं, स्थिर नहीं किसी आकर्षण में बंधी घूम रही है. भूमि का अर्थ होने की प्रक्रिया को आधार देने वाली अर्थात जिन्हें वह आधार देती है उन्हें भी एक दूसरे के लिए क्रियाशील देखना चाहती है. धरा, धरित्री का अर्थ धारण करने वाली अर्थात सहनशीलता, क्षमा, शक्ति, क्षमता. धरित्री माँ को भी कहते हैं. वह माँ की तरह उदार है. वसुधा कहते हैं क्योंकि कितनी सम्पदा इसके पास है. वसु धन भी है और वसु रहने का साधन भी है, वह देवता भी है, वसुधा का अर्थ इसलिए घर मात्र नहीं है, घर की आत्मीयता भी है. पृथ्वी का अर्थ विस्तारवाली है. विष्णु ने मधु-कैटभ का वध किया उसके मेद से बना स्थूल पिंड, तभी वह मेदिनी कहलायी. श्री भूदेवी है, आश्रय देने वाली. इन सब अर्थों को लेकर पृथ्वी की आराधना करें तो ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का अर्थ समझ में आता है, शेष इस पर रहने वाले लोगों की आत्मीयता से बनता है.

Friday, June 19, 2015

यह जगत इक आईना है

फरवरी २०१०
यह जगत एक दर्पण है, इसमें वही झलकता है जो हमारे भीतर होता है, भीतर प्रेम हो, आनंद हो, विश्वास हो तथा शांति हो तो चारों और वही बिखरी मालूम होती है, अन्यथा जगत सूना-सूना लगता है. यहाँ किस पर भरोसा किया जाये ऐसे भाव भीतर उठते हैं, भीतर की नदी सूखी हो तो बाहर भी शुष्कता ही दिखती है, लेकिन भीतर का यह मौसम कब और कैसे बदल जाता है पता ही नहीं चलता. कर्मों का जोर होता है अथवा तो हम सजग नहीं रह पाते. कोई न कोई विकार हमें घेरे रहता है तो हम भीतर के रब से दूर हो जाते हैं, हो नहीं सकते पर ऐसा लगता है, यह लगना भी ठीक है क्योंकि भीतर छिपे संस्कार ऐसे ही वक्त अपना सिर उठाते हैं, पता चलता है कि अहंकार अभी गया नहीं था, कामना अभी भीतर सोयी थी, ईर्ष्या, द्वेष के बिच्छू डंक मारने को तैयार ही बैठे थे. अपना-आप साफ दिखने लगता है.  

Thursday, June 18, 2015

मोह मिटे से हो जागरण

फरवरी २०१० 
मृत्यु के साथ यदि हमारी मित्रता हो तभी हम धर्म के पथ से विमुख रहकर भी प्रसन्न रहने की आशा रख सकते हैं. ऐसा हो नहीं सकता तो हमें मोह तथा आसक्ति को छोड़कर अनासक्ति का मार्ग चुनना ही पड़ेगा. मोह ही दुःख का सबसे बड़ा कारण है. मोह का अर्थ है विपरीत ज्ञान, विवेकहीनता तथा असजगता. विपरीत ज्ञान अर्थात स्वयं को केवल देह और मन तक ही सीमित मानना. मन उदास होता है तो शरीर अस्वस्थ होने ही वाला है. हमारी नकारात्मक भावनाएं शरीर पर प्रभाव डाले बिना नहीं रह सकतीं. बुद्धि यदि निर्मल न रही तो सही-गलत का भी बोध नहीं रहता. मन के पार जाकर ही उस आनंद का अनुभव होता है जो दिव्य है.   

Wednesday, June 17, 2015

मस्त हुआ जो वही पा गया

जनवरी २०१० 
अभ्यास और वैराग्य ये दो पंख हैं, जिनके सहारे साधक अध्यात्म के आकाश में उड़ता है. अभ्यास समय सापेक्ष है पर वैराग्य समय सापेक्ष नहीं है. परम को प्रेम करें तो संसार से वैराग्य हो जाता है. मन ही तो संसार है, जब मन स्थिर हो जाता है तो वह ज्योति स्तम्भ बन जाता है, तब शरीर हल्का हो जाता है. मस्ती में परम वैराग्य है. वैराग्य से समाधि का अनुभव होता है, समाधि से प्रज्ञा पुष्ट होती है. पूर्णता का अनुभव होता है.    

Tuesday, June 16, 2015

जो तित भावे सो भली

जनवरी २०१० 
जब कोई अपने भीतर ईश्वरीय प्रेम का अनुभव कर लेता है तब जगत से भी प्रेम करने लगता है. उसके पूर्व जगत से किया प्रेम बंधन प्रतीत होता है. एक बार जब भीतर प्रेम का अनुभव हो जाता है, बाहर सहज ही मुक्त भाव से बिखरने लगता है. जैसे कोई फूल अपनी खुशबू बिखेर रहा हो या तो कोई भंवरा अपना संगीत अथवा तो कोई झरना अपनी शीतलता भरी फुहार ! जो स्वयं मुक्त है वह किसी को बांधना क्यों चाहेगा, तब जगत प्रतिद्वन्द्वी नहीं रह जाता बल्कि अपना अंश हो जाता है. कितने उच्च हैं ये भाव पर कितने सूक्ष्म भी, हाथ से फिसल-फिसल जाते हैं, इतने वायवीय हैं ये कभी-कभी चूर-चूर हो जाते हैं. मन की इच्छा का, आत्मा के ज्ञान का और शरीर के कर्मों का जब मेल नहीं बैठता तो ये भाव भीतर एक पीड़ा उत्पन्न कर देते हैं. भावना के स्तर पर जो सत्य प्रतीत होता था वह क्रिया के स्तर पर दूर जा छिटकता है. कबीर की सहज समाधि तब याद हो आती है, जो कहती है ‘जब जैसा तब वैसा रे’ अर्थात जिस क्षण मन जिस भाव अवस्था में हो उसे प्रभु प्रसाद मानना चाहिए, तब यह कामना भी नहीं रहती कि जो हमने सोचा है वैसा ही घटे, जो तित भावे सो भली ! बस अपना दिल पाक रहे इसकी फिकर करनी है.  

Monday, June 15, 2015

हृदय कोष में ही वह रहता

जनवरी २०१० 
बुद्धि की सीमा जहाँ समाप्त होती है, हृदय का आरम्भ होता है ! लेकिन हम अपनी बुद्धि पर हद से ज्यादा भरोसा करते हैं, हर कोई दूसरे को कम तथा स्वयं को अधिक बुद्धिमान समझता है. छोटी से छोटी बात में भी हम चाहते हैं कि लोग जानें. अहंकार कि जड़ इसी बुद्धि में ही है जो हमें पश्चाताप के सिवा कुछ देकर नहीं जाती. जो यह मान लेता है कि कुछ पा लिया है, जान लिया है उसका ज्ञान चक्षु बंद हो जाता है ! हृदय में प्रवेश होते ही बुद्धि का चश्मा उतर जाता है, तब कोई छोटा-बड़ा नहीं रहता.  

भीतर भी है इक आकाश

जनवरी २०१० 
संत जन कहते हैं भीतर ही परमात्मा है. यदि ऐसा है तो क्यों नहीं हर कोई अपने भीतर जाकर सुख राशि को खोज लेता ? हर कोई भीतर जाना नहीं सीखता, बाहर ही उसे इस तरह बांधे रहता है कि कोई भीतर है भी इसका भी उसे भरोसा नहीं होता. दिन-रात जो बाहर ही रहता है उसे पता ही नहीं चलता कि उसके भीतर भी एक आकाश है जहाँ सूरज उगता है वह अपने भीतर के हिरण्यमय कोष से अनजान ही रह जाता है. भीतर की दुनिया उसे दूर की, रहस्यमयी सी प्रतीत होती है जबकि बाहर से उसका दिनरात का नाता होता है.

Friday, June 12, 2015

उठ जाग मुसाफिर भोर भई

दिसम्बर २००९ 
इस जगत में सभी तो दुखी दिखाई पड़ते हैं, कोई एक दूसरे को नहीं समझता, लेकिन यही तो होना ही चाहिए. जब सभी की बुद्धि पर मोह का पर्दा पड़ा हो तो कोई खुश रह भी कैसे सकता है. मन ही दुःख का जनक है और मन नाम है अहंकार का. अहंकार पुष्ट होता है अपनी छवि को पुष्ट करने से, छवि पुष्ट होती है अपने बारे में सत्य-असत्य धारणाएं पालने से. इच्छाओं की पूर्ति होती रहे तो भी अहंकार पुष्ट होता है. अपने में कोई सद्गुण हो या न हो पर होने का वहम हो तो भी अहंकार पुष्ट होता है और यह अहंकार दुःख का भोजन करता है. जब हम अपने ही बनाये भ्रम को टूटते देखते हैं तो भीतर छटपटाहट होती है, यह सब सूक्ष्म स्तर पर होता है इसलिए कोई इसे समझ नहीं पाता, वही समझता है जो अपने भीतर गया हो जिसने मन का असली चेहरा भली-भांति देखा हो. जो मन को ही स्वयं मानता हो, वह कैसे इसे पहचानेगा. इसीलिए जगत में कोई दोषी नहीं है अथवा तो सभी दोषी हैं. संतजन यही तो कहते आये हैं, जो जगा नहीं है वह दुःख पाने ही वाला है.  

Thursday, June 11, 2015

जरा जाग कर जो देखेगा

नवम्बर २००९ 
हमारी मूर्छा इतनी सघन है कि हमें पता ही नहीं चलता हमारे भीतर आनंद का एक ऐसा स्रोत है जो अनंत है. हमारी अंतरात्मा पर कर्म का पर्दा पड़ा है, हमारे दुखों का कारण कर्म ही हैं, मनसा, वाचा और कर्मणा जो भी हमने किया है वही सामने आता है. दिन भर में न जाने कितने विचार हमरे मनों में आते हैं, भीतर कर्म का एक व्यक्तित्व है, हमारे स्वभाव को बनाने वाली सत्ता भीतर ही तो है, जब तक उसकी निर्जरा नहीं होगी तब तक स्वभाव नहीं बदलेगा और हम वही-वही दोहराते चले जायेंगे. 

एक वही तो दे सकता है

सितम्बर २००९ 
ऐसा संत जिसे न कुछ पाने को शेष रह गया हो न कुछ करना ही, वही अहैतुकी कृपा या सेवा कर सकता है. हम जो कुछ करते हैं वह आनंद के लिए, जिसे वह मिल गया हो अब उसके लिए कुछ पाना बाकी नहीं रहता ! प्रतिपल हमारा मन आनंद की खोज में लगा रहता है, ऐसा आनंद जो अनंत राशि का हो तथा जो कभी छिने न, जिन्हें वह मिल गया, उन्हें कुछ करने को शेष रहता नहीं, लेकिन फिर भी वे करते हैं, क्योंकि वे अन्यों को आनंद देना चाहते हैं. वे केवल कृपा करते हैं, अकारण हितैषी होते हैं, सुहृद होते हैं ! 

Tuesday, June 9, 2015

कर्म, अकर्म का भेद जो जाने

सितम्बर २००९ 
कर्म जब सहज होता है तो बांधता नहीं है, प्रतिकर्म ही बांधता है. अकर्म मुक्त करता है. अकर्मण्य होना अकर्म नहीं है, वह तो जड़ता है. चैतन्य जिसके भीतर जग गया है, वह जड़ नहीं रह सकता लेकिन उसके कर्म सहज हैं. जो हो जाये या जो आवश्यक हो उतना वह करता है. उससे सहज ही बड़े कार्य भी हो सकते हैं. क्योंकि कर्ताभाव से वह मुक्त है, उन कर्मों का कोई बोझ उसके ऊपर नहीं होता. यही अकर्म है.

Monday, June 8, 2015

मुक्त सदा ही रहता है वह

सितम्बर २००९ 
परमात्मा सृजन तो करता है, सृष्टा तो है पर कर्ता नहीं. शास्त्र कहते हैं परमात्मा नर्त्तक है, वह है और नृत्य भी हो रहा है, नृत्य उसके बिना नहीं हो सकता पर वह नृत्य के बिना भी हो सकता है. परमात्मा प्रकृति के साथ एक भी है और भिन्न भी. सारी प्रकृति वर्तती है उसकी उपस्थिति में ही, पर परमात्मा स्वयं नहीं वर्तता ! उसकी मौजूदगी ही काफी है. जो इस मौलिक तत्व को समझ लेता है वह कर्तापन के भाव से मुक्त होकर जीता है. प्रकृति बड़ी शांति से अपना काम करती है यह जानकर हमारी पकड़ छूट जाती है.

है अपेक्षा कारण दुःख का

सितम्बर २००९
अपेक्षा में जीने वाला मन दुःख को निमन्त्रण देता ही रहता है. लाओत्से ने कहा है कि कोई मुझे हरा ही नहीं सका, कोई मेरा शत्रु भी न बना, कोई मुझे दुःख भी न दे सका क्योंकि मैंने न जीत की, न मित्रता की न सुख की अपेक्षा ही संसार से की. जो भी चाहा वह भीतर से ही और भीतर अनंत प्रेम छिपा है.

Saturday, June 6, 2015

बनें साक्षी हम पल पल के

अगस्त २००९ 
हमारे जीवन में हजारों, लाखों, करोड़ों, अरबों या कहें कि अनंत पल खुशियों के आते हैं, बल्कि कहें कि हमारा जीवन सुख व आनंद की एक अनवरत श्रंखला है, अनगिनत जन्मों को जोड़कर देखें तो न जाने किस अतीत के काल से हम बने हुए हैं. परमात्मा की भांति हम भी अनादि हैं, उसकी भांति हम साक्षी हैं, कुछ न करते हुए भी सबका आनंद लेने वाले, हर श्वास एक आनंद की लहर का खबर देती है. जो स्वयं ही आनंद है उसे भी अपने आनंद का स्वाद लेने के लिए देह में आना पड़ता है. परमात्मा को मायाविशिष्ट चेतना में आकर लीला का आनंद लेना पड़ता है तो जीव को स्वप्न विशिष्ट चेतना में ! हम स्वप्न ही तो देख रहे हैं, एक लम्बा स्वप्न, जिसमें हमने एक नया पात्र धरा है, शरीर मन व बुद्धि का एक नया संयोग खड़ा किया है, स्वप्न से जागकर ही पता चलता है कि इसमें प्रतीत होने वाले सुख-दुःख मिथ्या थे, वैसे ही मृत्यु के वक्त पता चलता है, सब कुछ छूट रहा है, यह एक स्वप्न का अंत हो रहा है. हमारा ध्यान यदि मृत्यु से पूर्व इस ओर चला आये तो जीवन एक उत्सव ही प्रतीत होता है. 

Friday, June 5, 2015

जिस क्षण एक हुआ यह मन

जुलाई २००९ 
धर्म की साधना है मन रूपी दाल को फिर बीज बनाना, बीज में ही अंकुर फूटता है. एक क्षण में तब अंकुर वृक्ष बनने लगता है. बीज के लिए धरती है शब्द, सत्संग, गुरू के वचन, मनन. जिस वक्त संध्या काल हो अर्थात मन एक अवस्था से दूसरी में जा रहा हो तब यह बीज बोना चाहिये, जैसे निद्रा और जागरण के मध्य या जागरण और निद्रा के मध्य ! जुड़ा हुआ मन ही गहराई में जा सकता है. 

Wednesday, June 3, 2015

शक्ति की आराधना हो

जून २००९ 
उद्यमो भैरवः’ पुरुषार्थ करना ही मानव का कर्त्तव्य है. सत्य की खोज के लिए भी पुरुषार्थ करना पड़ता है और जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए भी. मानव रोज-रोज अपनी शारीरिक व मानसिक शक्ति को खो रहा है पर आत्मिक शक्ति सदा एक सी है और जो अपने निकट है, भीतर गया है, वही इस शक्ति का अनुभव कर सकता है. जीवन में कोई सचेतन लक्ष्य न हो तो जीवन एक सूखे पत्ते की तरह इधर-उधर डोलता रहता है. साधक वही है जो चिंतन के द्वारा स्वयं को सजग करता है. 

Tuesday, June 2, 2015

गुरू के द्वारे जो पहुँचा है

मई २००९ 
मंजिल पर पहुंच सकें इसलिए वाहन मिला है, जीवन की लालसा हमें इस वाहन में बैठे रहने पर विवश करती है. जिसे मंजिल का पता चल गया है उसे मृत्यु से भय नहीं लगता, असली जीवन इसके बाद ही आरम्भ होता है. मानव इस सत्य से अनभिज्ञ रहकर ही सारा जीवन गुजार देता है. मृत्यु उसे डराती है और वह अपना मानसिक संतुलन खो बैठता है. अविद्या, अज्ञान और अशिक्षा सबसे बड़े रोग हैं, स्कूली शिक्षा नहीं बल्कि जीवन की शिक्षा जो अध्यात्म देता है. लेकिन हम गुरू द्वार तक पहुंच ही नहीं पाते परमात्मा जिस शांति का घर है गुरू उसका द्वार है, लेकिन उस शांति का अनुभव विरले ही कर पाते हैं. 

Monday, June 1, 2015

उसका सुमिरन जब होगा

अप्रैल २००९ 
दुनिया का कोई ऐसा सुख नहीं है जो अपने पीछे दुःख को न छिपाए हो. परमात्मा का सुख ही ऐसा है जो विपरीत से जुड़ा नहीं है. ज्ञान है तो परमात्मा है. ज्ञान के कारण कोई परमात्मा के मार्ग पर नहीं चलता, दुःख के कारण चलता है. दुखों में सबसे बड़ा दुःख तो मरण का है. मरण को याद रखके ही कोई परमात्मा को याद करता है. बेअंत की याद उसी को आएगी जो अपने अंत को याद करता है. अकाल को वही पा सकता है जो काल को याद करता है. तन का घट मिट्टी का है, प्रकृति एक दिन उसे अपने तत्वों से जोड़ देती है. मन का घट परमात्मा का है. मन ज्योति स्वरूप है. तन को प्रकृति अपने घर पहुंचा देती है, मन को अपने घर खुद जाना है. संसार हर समय याद आता है पर हजार प्रयत्न करने पर भी परमात्मा याद नहीं आता. जिसे याद आता है, वह महा आनंद को पाता है, उसे भूल जाना ही दुःख है. 

Wednesday, May 27, 2015

निंदक नियरे राखिये

अप्रैल २००९ 
जिसने एक को अपना बना लिया है, जिसके लिए यह सारा जगत अपना हो गया है, वह भक्त है. प्रेम और भरोसे के मिश्रण से भावना बनती है और जहाँ यह भावना टिक जाती है, वही भक्त है. परमात्मा पर भरोसा और परमात्मा से प्रेम हो और निंदा में जिसकी रूचि न हो, वह भक्त है. बात को घटाकर बोलना निंदा है, बढ़ाकर बोलना खुशामद है. हम ज्यादातर अधूरा सत्य बोलते हैं, या तो घटाकर या बढ़ाकर. हम दूसरों की निंदा सुनकर और अपनी प्रशंसा सुनकर खुश होते हैं, जो अपनी निंदा सुनकर और दूसरों की प्रशंसा सुनकर खुश हो वही भक्त है. निंदा सदा अपने से ज्यादा आगे रहने वाले की होती है. निंदा सुनके यदि कोई दुखी हो तो स्पष्ट है की उसमें यह बुराइयाँ थीं, वरना दुखी होने का कोई भी तो कारण नहीं है. बुरे को बुरा कहना निंदा नहीं है, अच्छे को बुरा कहना निंदा है. निंदक को पाकर भक्त कहता है यह हमारे मैले कपड़े धोता है, मन की चादर को रसना से धोता है.  

Tuesday, May 26, 2015

शरण में उसकी जाना होगा


जो हम बोते हैं, वही हम काटते हैं. हमारे द्वारा हर पल कर्मों के बीज बोये जा रहे हैं. अहंकार से ग्रसित होकर जो कर्म हम करते हैं, उसमें तो खर-पतवार ही उगता है, उसमें कोई फल-फूल नहीं लगते. हमें अपने मन की भूमि पर ध्यान और साधना के बीज बोने हैं तब जो फसल मिलेगी वह शांति, प्रेम व आनंद के फूल खिलाएगी. ऐसी खेती के लिए संकल्प व श्रद्धा का होना आवश्यक है. कोई भी विकार मन में दुःख के कांटे उगाने के लिए सक्षम है, एक बार यदि संकल्प कर लिया कि इसके बस में नहीं होना है तो उससे मुक्त हुआ जा सकता है. जैसे सख्त जमीन को हल के द्वारा नर्म किया जाता है, शरणागति रूपी हल से मन की धरती को तैयार करना होगा. सद्गुरु के चरणों में झुका हुआ शिष्य ही अपने भीतर निरहंकार हो सकता है.

भक्तिभाव जब उपजेगा

अप्रैल २००९ 
परमात्मा से बड़ा परमात्मा का सच्चा भक्त है, परमात्मा तो महान है ही, मानव होकर जो परमात्मा की ऊंचाई तक पहुंचा हो वह भी तो पुण्यात्मा हो जाता है. भक्ति साधन नहीं है, भक्ति साध्य है ! मार्ग चाहे कोई भी हो सभी का फल भक्ति है, आनंद की चाह ही भक्ति है, सुखी होने की कामना ही भक्ति है, ऐसा सुख जो कभी खत्म न हो, जो परमात्मा के समान अनंत हो ! वह परमात्मा जो मन, बुद्धि से पकड़ में नहीं आता, भक्ति ही उस रस को पा सकती है. मन के पार जहाँ न मन की चाह है, न अपमान का भय, न दुःख का त्याग है न सुख की पकड़, वही रस बरसता है, भक्ति महकती है !

Monday, May 25, 2015

एक ही है सबका आधार

अप्रैल २००९ 
शेखसादी ने कहा है कि वह ज्योतिषी नहीं हैं पर इतना बता सकते हैं कि वह बदबख्त है जो दूसरों की हानि चाहता है क्योंकि वह उसकी ही झोली में पड़ने वाली है. किसी के प्रति द्वेष भाव भीतर ही बालन पैदा करता है. व्यक्ति का व्यक्ति के प्रति, जाति का जाति के प्रति, देश का देश के प्रति द्वेष भाव हो सकता है, पर इसका परिणाम उनके खुद के लिए ही हानिप्रद होता है क्योंकि हम सभी एक ही स्रोत से आए हैं. हमारे जीवन में जो भी घट रहा है, वह हमारे ही कर्मों का प्रतिफल है, हमने जो दिया वही मिल रहा है, जब यह ज्ञान भीतर स्थिर हो जाता है तब किसी के प्रति द्वेष रह ही नहीं सकता.  

Saturday, May 23, 2015

निर्मल खेती हो मन में

अप्रैल २००९ 
जैसे खरपतवार खेत में बिना किसी प्रयास के अपने आप ही उग जाती है, तथा वह फसल को भी खराब करती है, वैसे ही मन में व्यर्थ के विचार हमारे सद्विचारों को भी प्रभावित करते हैं. हमें तो ऐसी खेती भीतर करनी है, जिसमें खर-पतवार जरा भी न हो. अभय, संतोष, पवित्रता जैसे सद्गुण हों तो ऐसी खेती हो सकती है.

Friday, May 22, 2015

अचल हुआ जो अपने भीतर

मार्च २००९ 
संसार की गति का कारण वह परमात्मा है जो गति नहीं करता. जब तक हमारी कोई मांग है तब तक हम अपने भीतर की स्थिरता को अनुभव नहीं कर सकते. संसार हमारे भीतर का प्रतिबिंब है. हमारे भीतर जो आकांक्षाओं का संसार है वही हमें अकम्प का भान नहीं होने देता. यह कामना यदि समझ में आ जाये तो पता चले कि वहाँ कुछ है ही नहीं ! भीतर टटोलें तो पता चलता है, जो भी है परमात्मा का है. जो आदि पूर्ण, मध्य पूर्ण तथा अंत पूर्ण है वह परमात्मा है. उसे जुड़कर ही हम पूर्ण हो जाते हैं. 

Thursday, May 21, 2015

मुक्त करेगा ज्ञान ही भय से

मार्च २००९ 
तात्कालिक भय और असुरक्षा की भावना जब हमें घेर लेती है तो बुद्धि अपना काम करना बंद कर देती है. हमें लगता है कि हमें खतरा है, जबकि आत्मा को भय हो ही नहीं सकता. पुराने संस्कारों के कारण अथवा प्रारब्ध के कारण मन भय जगाता है, जो बीज पहले बोये थे उनके फल आने लगें तो मन विचलित होता है. लेकिन ज्ञान की तलवार से इस वृक्ष को ही काट देना है. भय के पीछे मोह ही तो है, मोह के पीछे अज्ञान है, अज्ञान ही हमें बाहर की घटनाओं से प्रभावित करता है, जबकि बाहर की घटनाओं का हमारे मन के विचारों व भावनाओं से कोई संबंध नहीं है, हम संबंध जोड़ लेते हैं.

तपना होगा ब्रह्म अग्नि में

मार्च २००९ 
ध्यान बाहर की तरफ जाये तो केंद्र अहंकार है, ध्यान भीतर जाये तो केंद्र निरंकार है. बाहर जाना सरल है, भीतर जाना कठिन है. देह की मृत्यु अहंकार की मृत्यु नहीं है. अहंकार कानून की पकड़ में नहीं आता, केवल चेतना की पकड़ में आता है. हम जो भी करते हैं, सोचते हैं, आत्मा सब जानती है. वह हमारे सब कर्मों की साक्षी है. साधना का ताप ही अहंकार को जलाता है. शरीर चिता पर रखकर जलाया जाये उसके पूर्व ही योग की अग्नि में अपने संस्कारों को जलाया जा सकता है. जन्म जन्मान्तरों के पाप ब्रह्म अग्नि में जल जाते हैं. 

Tuesday, May 19, 2015

एक रहस्य ही है जीवन

फरवरी २००९ 
ध्यान का फल ज्ञान है, संसार में हमें जिसका ज्ञान मिल जाता है, ध्यान हट जाता है, क्योंकि ध्यान ज्ञान बन जाता है. वैज्ञानिक में भी योगी जैसे एकाग्रता होती है. योगी का ध्यान हटता नहीं क्योंकि परमात्मा हमेशा रहस्य बना रहता है, वह हर कदम पर आश्चर्य उत्पन्न होने की स्थिति पैदा कर देता है ! जितना ज्ञान मिलता है उतना ही अज्ञानी होने का भाव दृढ़ होने लगता है. पदार्थ में जोड़ा ज्ञान व्याकुलता को जन्म देता है, क्योंकि अब जानने को कुछ नहीं बचा और जो सब कुछ है उसका ज्ञान मिला नहीं है. अपनी इस व्याकुलता को भूलने के लिए मानव क्या-क्या नहीं करता, वह इधर-उधर के कामों में स्वयं को लगाये रखकर उस प्रश्न से बचना चाहता है. वह जगत को दोनों हाथों से बटोर कर अपनी मुट्ठी में कैद करना चाहता है, पर वह कर भी नहीं पाता क्योंकि जगत में सभी कुछ नश्वर है. तब भी हम जागते नहीं बल्कि नींद के उपाय किये जाते हैं. योग ही इस नींद से जगाता है. 

Monday, May 18, 2015

कमल खिले मन सरवर में जब

फरवरी २००९ 
भीतर जाकर ही ज्ञान होता है कि बाहर कुछ भी अपना कहने जैसा नहीं है, पकड़ने को यहाँ कुछ भी नहीं है. यदि इस ज्ञान के बीज को अपने हृदय में धारण किया, सींचा और पालना की तो भीतर एक कमल खिलता है. दूसरे से सुख न कभी मिला है, न मिलेगा, वही जानना ही प्रेम है. जाग्रति का तेल हो और प्रेम की बाती हो तो आनंद का प्रकाश फैलता है और तब वहाँ होती है परम शांति ! यह संसार जो पहले कारागृह लगता था अब वह सुंदर आश्रय स्थल बन जाता है. जागना हमारे हाथ में है, प्रेम हमारे भीतर है. अगर अपने दुखों से अभी तक घबरा नहीं गये तो बात और है लेकिन जब भीतर की पीड़ा खलने लगे तो खिलने देना है भीतर का कमल.  

तृष्णा मिटेगी परम प्रेम से

फरवरी २००९ 
हर संवेदनशील व्यक्ति को एक न एक दिन खुद को पहचानने की यात्रा शुरू करनी होगी, तन मिट्टी से बना है, मन ज्योति से बना है. मन को भरना इस संसार से सम्भव नहीं हो सकता, वह विराट चाहता है, अनंत ही उसकी प्यास को बुझा सकता है. हमारा मन जब अपने मूलरूप को पहचान लेता है, घर लौट आता है तो उसका आचरण, उसका बाहरी दुनिया से संपर्क का तौर-तरीका ही बदल जाता है. प्रेम, शांति और अपनापन वह परमात्मा से पाता है सो बाहर लुटाता है, जितना वह लुटाता है उतना-उतना परमात्मा उसे भरता ही जाता है. स्वयं की पहचान उसे सभी मानवों से जोड़ती है सभी जैसे उसी के भाग हैं, कोई पृथक नहीं, सभी का भला ही उसकी एकमात्र चाह रह जाती है, उसके जीवन में मानो फूल ही फूल खिल जाते हैं !    

Saturday, May 16, 2015

मन सुमन हुआ जब महकेगा


हमारे भीतर परमात्मा पल रहा है, जिसके अंतर में एक बार भी परमात्मा के लिए प्रेम जगा है मानो उसने उसे धारण कर लिया, अब जब तक परमात्मा बाहर प्रकट नहीं हो सकेगा, हम चैन से नहीं बैठ सकेंगे. हमारा दुःख इसलिए नहीं है कि हम उससे दूर हैं वरन इसलिए कि वह भीतर ही है और हम उसे खिलने नहीं दे पा रहे. कली जो फूल बनना चाहती है पर बन नहीं पाती, कितनी पीड़ा झेलती होगी. हम भी जो अहंकार, मान, मोह, लोभ और कामनाओं द्वारा दंश खाते हैं इसलिए कि आनंद, प्रेम, शांति और सुख जो भीतर ही हैं, पर ढक गये हैं, लेकिन एक गर्भिणी स्त्री जिस तरह अपने बच्चे की रक्षा करती है वैसे ही हमें अपने भीतर उस ज्योति की रक्षा करनी है, एक न एक दिन उसे जन्म देना ही है. हमारी चाल-ढाल, रहन-सहन खान-पान ऐसा होना चाहिए मानो एक कोमल निष्पाप शिशु हमारे साथ-साथ जगता-सोता है, हमारी भाषा हमारे विचार ऐसे हों कि उसे चोट न पहुंचे क्योंकि उसका निवास तो मन में है. भीतर जो कभी-कभी असीम शांति का अनुभव होता है वह उसी की कृपा है और वह परमात्मा हमें चुपचाप देखा करता है हमारे एक-एक पल की खबर रखता है. वह स्वयं बाहर आना चाहता है पर हमारी तैयारी ही नहीं है, उसका तेज सह पाने की तैयारी तो होनी ही चाहिए. वह भीतर से आवाज लगाता है, कभी हम सुनते हैं कभी दुनिया के शोरगुल में वह आवाज छुप जाती है.   

Friday, May 15, 2015

साक्षी का जब फूल खिलेगा

फरवरी २००९ 
हमारी नजर दूसरों के दोषों पर रहती है, जिससे अपने दोष नहीं दीखते. सद्गुरु कहते हैं, हम अपना अवलोकन करें जैसे कोई रास्ते के किनारे खड़ा होकर तटस्थ भाव से भीड़ को देखता है. हम न्यायाधीश न बनें, साक्षी बने रहें और हमारी तटस्थता से देखने से पता चलता है कि हम अपने कृत्यों से अलग हैं, हम कर्ता नहीं हैं, यही मुक्ति का द्वार है. जो अपने शुभ कर्मों से बंधा है, वह अशुभ से भी बंधा रहेगा. जिसने पुण्य का फल चाहा वह पाप के फल से बंधा ही रहेगा. राग-द्वेष से मुक्त मन ही साक्षी बन सकता है. साक्षी की सुवास टिकी रहे तो दिन भर मुदिता बनी रहती है. परमात्मा भीतर ही है, हृदय परमात्मा का है पर बुद्धि समाज द्वारा दी गयी है. प्रार्थना हृदय से उतरती है तो सीधे परमात्मा तक पहुंचती है. वह अनवरत प्रतीक्षारत है, हम ही नजरें बचा लेते हैं.


Thursday, May 14, 2015

दिल में ही तो वह बैठा है

फरवरी २००९ 
“तुम जमाने की रह से आये, वरना सीधा था दिल का रास्ता” नजरें झुकाई और नमन हो गया, पलक झपकने से भी कम समय में दिल में बैठे परमात्मा से मुलाकात हो सकती है, पर हमारी आदत है लम्बे रास्तों से चल कर आने की. हम किताबें पढ़ते हैं, ध्यान की नई-नई विधियाँ सीखते हैं, पूजा-अर्चना करते हैं और न जाने क्या-क्या करते रहते हैं ! परमात्मा उस सारे वक्त हमें देखता रहता है, हम उसके सामने से गुजर जाते हैं, बार-बार उसे अनदेखा कर उसी को खोजने का दम भरते हैं. हम प्रेम को छोडकर ईर्ष्या को चुनते हैं ! प्रशंसा को छोड़ निंदा को चुनते हैं, सहानुभूति को छोड़ क्रोध को चुनते हैं. शांति को छोड़ शोर को चुनते हैं. एकांत को छोड़ भीड़ को चुनते हैं. सहजता को छोड़ दिखावे को चुनते हैं. हम वह सब करते हैं जो परमात्मा से दूर ले जाता है और उम्मीद करते हैं कि  हमारा पाठ, जप-तप उसके निकट ले जायेगा. ये तो ऊपरी वस्तुएं हैं, परमात्मा को जिस मन से पाना है उस मन में सब नकारात्मक है, निषेध है, ‘नहीं’ है, नकार है, तो वहाँ वह कैसे आएगा जो सबसे बड़ी ‘हाँ’ है, जो ‘है’, वास्तविक है, सत्य है, प्रेम है, शांति है, आनंद है, हमारा चुनाव ही भटकाता है, जीवन हर कदम पर हमें निमन्त्रण देता है, झूमने का, गाने का और प्रसन्नता बिखराने का, सहज होकर रहने का, पर हम उसे गंवाने की कसम खाकर बैठे हैं. 


Tuesday, May 12, 2015

होश भरा हो जीवन का पथ

फरवरी २००९ 
जिसकी प्रज्ञा पूर्ण हो चुकी है, जिसका आना-जाना मिट गया है. वह जो मुक्त है, वह जो शून्य है, वह ही ब्राह्मण है. सभी लोग शूद्र की तरह पैदा होते हैं, शरीर के तादात्म्य होने के कारण ही पैदा होते हैं, ब्राह्मणत्व उपलब्ध करना पड़ता है. हमारी वासना जैसी होती है, वैसा ही जन्म हमें मिलता है. स्मरणपूर्वक कोई जीये, होशपूर्वक कोई जीये तो वह संसार में पुनः नहीं लौटता. इंच भर जीना हजार मीलों तक सोचने से बेहतर है. जागो और जीओ, यही बुद्ध पुरुष कहते हैं.  

Monday, May 11, 2015

अहंकार मिटते ही सुख है

फरवरी २००९ 
मनुष्य सुखी होने के बजाय, खाली होने की बजाय भरा होना ज्यादा पसंद करता है. चाहे वह दुःख से क्यों न भरा हो. दुःख न हो तो मनुष्य काल्पनिक दुःख पैदा करता है. अहंकार दुःख पर ही जीवित रहता है, दुःख ही उसका भोजन है, ‘मैं’ टिका ही दुःख पर है, छोटे-मोटे दुःख से उसका काम नहीं चलता, वह बढ़ा-चढ़ा कर दुःख को व्यक्त करता है. वह खुद ही दुःख बनाता है. सुखी के सब दुश्मन हो जाते हैं, दुखी के साथ सब सहानुभूति व्यक्त करते हैं.


Friday, May 8, 2015

समत्वं योग उच्यते

जनवरी २००९ 
दुनिया में इतनी विविधता है पर मृत्यु में कोई भेद नहीं, अमीर-गरीब, बच्चा-बूढ़ा, पापी-पुण्यात्मा सब वहाँ समान होते हैं. मरघट में ज्ञानी भी धूल में मिल जाते हैं और अज्ञानी भी. मौत सभी को एक स्तर पर ला देती है. जब किसी की मृत्यु हो तो यह मानना चाहिए कि मेरी ही मृत्यु हो रही है. जब कोई अपमानित हो यही मानना चाहिए कि हमारा ही मन अपमानित हुआ है. सादृश्य अहंकार की मृत्यु है और सादृश्य करुणा को जन्म देता है. सादृश्य का बोध हमें परमात्मा की ओर ले जाता है. यदि हमारे जीवन में समानता का भाव जग जाये तो सारे दुःख एक क्षण में समाप्त हो जायेंगे. 

Wednesday, May 6, 2015

जीवन वन बने जब उपवन

जनवरी २००९ 
हम सबके जीवन का यह सत्य है कि यदि हम स्वयं समर्पण करने जायेंगे तो हमारा ‘मैं’ साथ चलेगा. यदि समर्पण टालते हैं तो मूढ़ता पुनः-पुनः घेर लेती है. जिससे दुःख मिलता है और हम स्वयं ही परमात्मा को पुकारने निकल पड़ते हैं, संग में अहम् चला आता है, सद्गुरु के द्वारा जब यह घटना घटेगी तो हम निरहंकारी रह सकते हैं. सद्गुरु विवेक प्रदान करता है. यह जीवन एक वन की नाई है, विवेक सम्राट है, वैराग्य सचिव है, शांति रानी है, जो सुंदर है, सद्बुद्धि युक्त तथा प्रिय है. सत्य, ज्ञान, आनंद, सुख, शक्ति, पवित्रता तथा प्रेम ये साथ हमारी मौलिक मांगें हैं. शक्ति शैलजा है वह भीतर की स्थिरता से प्राप्त होती है. व्याधि, जरा और मृत्यु से हम बच नहीं सकते किन्तु ज्ञान के बाद ये दुःख का कारण नहीं रहते, मुक्ति का साधन बन जाते हैं.  


Tuesday, May 5, 2015

मन जब उपवन बन जाता

जनवरी 2009
जिसके भीतर अस्तित्त्व उतरता है, उसके भीतर फूल खिलते हैं, महोत्सव उतर आता है. ऐसे अपूर्व महोत्सव से कोई बुद्ध बरसने निकल पड़ता है, महावीर बांटने को निकल पड़ता है. उसकी नजर दूसरे पर नहीं, वह भीतर अपने केंद्र पर टिका है. वह जान लेता है, दूसरों को न तो सुख दे सकते हैं न दुःख दे सकते हैं. दूसरों पर साधक की नजर रहती ही नहीं, वह तो अपने होने को साधता है, वह करने न करने से ऊपर उठ जाता है.


होना ही जब शुभ हो जाये

जनवरी २००९ 
भगवान बुद्ध कहते हैं वह कार्य करने के लायक नहीं जिसे करके पीछे पछताना पड़े. हमारा कृत्य हमारे होने के विपरीत भी हो सकता है. हमारे होने का ढंग शुभ हो न कि हमारे कर्म शुभ हों. हम जो भीतर हैं उससे डरते हैं इसलिए बाहर विपरीत करते हैं. भीतर पतझड़ हो तो हम बाहर उधार वसंत की अफवाह फैला देते हैं. अपने कृत्यों से हम हमारे होने पर पर्दा डालते हैं. अगर दुर्जन शुभ कर्म भी करे तो उसका परिणाम अच्छा नहीं हो सकता ! सज्जन अगर शुभ करता है तो उसके भीतर आनंद का अनुभव होता है. उससे यदि अशुभ भी हो जाये तो वह उसके भीतर की समरसता को दिखाने के लिए ही है न कि कुछ छिपाने के लिए.

Sunday, May 3, 2015

जो मैं हूँ सो तू है

जनवरी २००९ 
हम स्वयं को दूसरे के समान नहीं समझ पाते. हम अपने शिखर को अपना सार समझते हैं तथा दूसरे की खाई को उसका. उसका भी शिखर है और हमारी भी खाई है. जो स्वयं के समान सबको समझेगा, वह कभी दूसरों का निर्णायक नहीं होगा, वह जान लेता है कि सबके भीतर जो बैठा है वह सम है. सभी के भीतर वह हीरा छिपा है. यह समता तभी प्राप्त होती है जब हम निंदा में रस लेना त्याग देते हैं. अहंकार कभी यह मानने को तैयार नहीं होता कि कोई अन्य उससे बढ़कर भी हो सकता है. अहंकार सदा इस आशा में रहता है कि कब कोई उसे कहे कि तुम सबसे महान हो ! हमारे दुःख का कारण यही है कि हम दूसरों का अपमान करने को राजी हो जाते हैं. हम निकटतम के साथ भी दूरी रखते हैं. उससे स्वयं को ऊपर रखते हैं. जब भी हम दूसरों के बारे में कुछ सोचें अपने को सामने रखकर ही सोचें. क्योंकि जैसा हम महसूस करेंगे वैसा ही दूसरे भी महसूस करते हैं 

Saturday, May 2, 2015

खुद से जो पहचान बना ले

जनवरी २००९ 
सारे पापों का जोड़ अहंकार है और सारे पुण्यों का जोड़ आनंद है ! दुःख के कारण ही हम हैं और सुख के कारण ही परमात्मा है. दुःख की घड़ी में दो हैं, दुःख व दुःख भोगने वाला, लेकिन आनंद में केवल आनंद होता है, नहीं बचता है कोई आनंद भोगने वाला. हमारे गहरे से गहरे होने का नाम ही परमात्मा है ! अपने होने को जब हमने साध लिया तो मानो परमात्मा ही हमसे झलकने लगता है ! आनंद की कुंजी उसके हाथ लगती है जो अपने को सुखी करने की ठान लेता है. 

Thursday, April 30, 2015

भक्ति का जब फूल खिले

जनवरी २००९ 
संत बालवत होते हैं, वे जैसे कभी बड़े हुए ही नहीं, और हम हैं कि छोटा होना ही नहीं जानते ! अध्यात्म मार्ग पर अहंकार को मिटाना ही परम लक्ष्य है. परम के प्रति प्रेम हो तो यह सहज ही हो जाता है. शरणागति में गये बिना यह कठिन है. कर्म तथा ज्ञान इसे पुष्ट करते हैं, भक्ति इसे पिघला देती है. भक्ति स्वयं में साधन है और साध्य भी वही है. इस अमृत स्वरूपा भक्ति को अपने भीतर पाना ही है, परम सत्य के प्रति प्रेम ही भक्ति है, तत्व के प्रति श्रद्धा ही भक्ति है. वह अस्तित्त्व अकारण करुणामय है, वह सुहृद है, वह हमें हर क्षण प्रेम से निहारता है. वह प्रेम का ऐसा स्रोत है जो कभी नहीं चुकता !