फरवरी २०१०
यह जगत एक
दर्पण है, इसमें वही झलकता है जो हमारे भीतर होता है, भीतर प्रेम हो, आनंद हो,
विश्वास हो तथा शांति हो तो चारों और वही बिखरी
मालूम होती है, अन्यथा जगत सूना-सूना लगता है. यहाँ किस पर भरोसा किया जाये ऐसे
भाव भीतर उठते हैं, भीतर की नदी सूखी हो तो बाहर भी शुष्कता ही दिखती है, लेकिन
भीतर का यह मौसम कब और कैसे बदल जाता है पता ही नहीं चलता. कर्मों का जोर होता है
अथवा तो हम सजग नहीं रह पाते. कोई न कोई विकार हमें घेरे रहता है तो हम भीतर के रब
से दूर हो जाते हैं, हो नहीं सकते पर ऐसा लगता है, यह लगना भी ठीक है क्योंकि भीतर
छिपे संस्कार ऐसे ही वक्त अपना सिर उठाते हैं, पता चलता है कि अहंकार अभी गया नहीं
था, कामना अभी भीतर सोयी थी, ईर्ष्या, द्वेष के बिच्छू डंक मारने को तैयार ही बैठे
थे. अपना-आप साफ दिखने लगता है.
ये सत्य है कि बाहर वही जो भीतर है लेकिन भीतर का मौसम अमूमन वैसा नहीं रहता जैसा हम चाहते हैं। कुछ भीतर के मौसम को बदलने की कला के बारे में कहें॥
ReplyDeleteस्वागत व आभार सतपाल जी, भीतर के मौसम को बदलने के लिए ही तो साधना के पथ पर चलता है साधक, योग करता है, सत्संग करता है, समता में रहने की कला सीखता है. जब भीतर उसका प्रकाश दीखता है तो आस्था दृढ़ हो जाती है.
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