Saturday, August 30, 2014

पाना तो उसका ही है

फरवरी २००७ 
श्वास रुक जाएगी चलते चलते, शमा बुझ जाएगी जलते-जलते” भक्त जानता है, आज सेवा का अवसर मिला है कल जाने मिले या न मिले और मिले भी तो हम रहें या न रहें यह भी नहीं जानते. जब हम अपनी भावनाओं को कोमल और मृदु बना लेते हैं तो हम सहज रह सकते हैं. जिसके भीतर धैर्य रूपी रत्न और शौर्य रूपी आभूषण है वह इस जगत को और सुंदर बना सकता है. यह सारी सृष्टि उसी एक का रूप है, सभी प्राणी उसी के अंश हैं. हानि-लाभ की बात तब रहती ही नहीं, सर्वोच्च लाभ तो भक्त पहले ही पा चुका होता है  


पल भर भी न स्वयं को भूलें

फरवरी २००७ 
साक्षी होकर रहना ही ध्यान है, आत्मा द्रष्टा है, अज्ञान के कारण वह स्वयं को कभी देह, कभी मन, कभी बुद्धि तथा कभी अहंकार मानता है और व्यर्थ ही सुख-दुःख का भागी बनता है. यहाँ जो कुछ भी दिखाई देता है वह नष्ट होने वाला है. यहाँ दो ही कृत्य हो रहे हैं - जो भी उत्पन्न होता है वह नष्ट हो जाता है. अध्यात्म हमें वास्तविकता की ओर ले जाता है, वह हमें पाप-पुण्य दोनों से मुक्त करता है. तब हम कर्ता नहीं रहते. जब हम कर्ता नहीं हैं तो कोई दूसरा भी कर्ता कैसे हो सकता है. अतः किसी को दोषी देखना भूल ही है. व्यर्थ ही ऐसा करके हम अपने मन में विचारों का बवंडर खड़ा कर लेते हैं, जबकि साधक का लक्ष्य तो स्वयं को इन विचारों से मुक्त करना है. इस मार्ग पर चलना तलवार की धार पर चलने जैसा ही है, थोड़ी सी असावधानी से हम अपने स्वरूप से हट जाते हैं, थोड़ी देर के लिए अपने शुद्ध स्वरूप को भूल जाते हैं.


Thursday, August 28, 2014

कर्मों का जो राज जान ले

फरवरी २००७ 
कर्म से जन्म होता है, कर्म से मृत्यु होती है. कर्म ही हमें चलाता है. हमारा मन कल्पना से ही अपने दुःख के लिए दूसरों को दोषी मान लेता है, कभी हम भाग्य को दोष देते हैं पर कर्म का सिद्धांत कहता है कि हमें इस जन्म में जो भी परिस्थिति मिली है वह प्रारब्ध कर्मों का फल है. जो नए कर्म हम करते हैं वे भी संचित कर्मों में जमा हो जाते हैं. आत्मा अकर्ता है जब हम उसमें स्थित हो जाते हैं तो नये कर्म होते ही नहीं, पुराने भी ज्ञानाग्नि में जल जाते हैं. प्रारब्ध कर्मों का फल अवश्य मिलता है पर हम उसके भोक्ता नहीं होते. भीतर समरसता बनी रहती है बाहर चाहे जैसी परिस्थिति हो. कितना अद्भुत है ज्ञान का यह पथ. आत्मा में स्थित होने के बाद उस परम का भी ज्ञान होता है जिसका यह अंश है. सारा विषाद खो जाता है. तब असली भक्ति यानि परा भक्ति का उदय होता है. प्रेम प्रकट होता है, ऐसा प्रेम जो सारी सृष्टि की ओर बहने लगता है. सभी के भीतर तो एक ही सत्ता है, सारा जगत उसी का रचाया खेल है यह ज्ञात होने पर ही जगत निर्दोष दिखाई देने लगता है.

Wednesday, August 27, 2014

मृत्योहम शिवोहम

फरवरी २००७ 
रात्रि काल में हम जो स्वप्न देखते हैं, वे हमारी इच्छा से नहीं आते, एक तरह से वे हम पर थोपे जाते हैं. जब भीतर की चेतना जगती है, तब सपनों पर हमारा अधिकार हो जाता है. जो स्वयं को सोये हुए देख लेता है वह भय से छूट जाता है साधना के द्वारा योगी मृत्यु का भी ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं. अपने अगले जन्म की तैयारी हम इसी जन्म में कर सकते हैं. भगवान शिव ने पार्वती को जीवन और मृत्यु का यह अद्भुत ज्ञान दिया था.


Monday, August 25, 2014

फूल खिले जब ध्यान का

फरवरी २००७ 
सद्गुरु कहते हैं, ध्यान उत्तम प्रार्थना है. हमारे भीतर ही ऐसा कुछ है जहाँ पूर्ण विश्राम है. मन तो सागर की लहरों की तरह है अथवा आकाश के बादलों की तरह, जो आते हैं और चले जाते हैं, और सारे विकार वे भी तो मात्र विचार हैं जिनका कोई अस्तित्त्व ही नहीं. भय का विचार हमें कैसे जड़ कर देता है, जबकि वह है क्या, एक कल्पना ही तो ! हम खाली हैं, ठोस तो केवल अस्तित्त्व है जो सदा रहने वाला है, वास्तव में वही हम हैं, जिसमें से रिसता है प्रेम, करुणा, कृतज्ञता और शांति. जिसमें से झरता है आनंद. पहले विचार आंदोलित करते रहे हों पर ध्यान के बाद वे बेजान हो जाते हैं. उन्हें देखना भर है. उनमें स्वयं की शक्ति नहीं है, वे आते हैं और चले जाते हैं, जिसने तय कर लिया है कि अब से उसके जीवन में जो भी होगा श्रेष्ठतम ही होगा, उससे कम नहीं, सारा अस्तित्त्व उसके साथ है. ईश्वर श्रेष्ठतम है और वह हर क्षण हमारे साथ है.


एक लहर उमड़े मस्ती की

जनवरी २००७ 
कोई हमारे कार्यों की प्रशंसा करे, निंदा करे या उपेक्षा, हर हाल में हमें निर्लेप रहना है. हम अपने भीतर स्थित रहें और यह मान लें कि निज ज्ञान की स्थिति के आधार पर ही लोग जगत में व्यवहार करते हैं. हमें उनके भीतर भी परमात्मा को ही देखना है और अपने भीतर की सौम्यता को बनाये रखना है. यह जगत उसी की रचना है और वह निर्दोष है, उसे तो इस जगत से कुछ लेना-देना नहीं है, उसने मात्र संकल्प से इसे रचा है, जैसे हम स्वप्न में सृष्टि बनाते हैं तो क्या हमारा दोष देखा जाता है यदि स्वप्न में हमें कोई हानि हो. ऐसे ही यह जगत भी एक लीला है, नाटक है, स्वप्न है इसमें इतना गम्भीर होने की कोई बात नहीं है. यहाँ सभी कुछ घट रहा है. यहाँ हम बार-बार सीखते हैं बार-बार भूलते हैं. नित नया सा लगता है यह जगत. हम वर्षों साथ रहकर भी कितने अजनबी बन जाते हैं एक क्षण में और जिनसे पहली बार मिले हों एक पल में अपनापन महसूस करने लगते हैं. कितनी अनोखी है यह दुनिया, कितनी विचित्र ! और हम यहाँ क्या कर रहे हैं ? हमें यहाँ भेजा गया है ताकि हम इस सुंदर जगत का आनन्द ले सकें और उस आनन्द को जो हमारे भीतर है बाहर लुटाएं.  

Friday, August 22, 2014

मन के रूप अनेक

जनवरी २००७ 
हमारा मन तरल है, इसे जहाँ लगायें वह वैसा ही आकार ग्रहण लेता है. यह वही सोचता है वही कहता है, वही करता है जो हमने इसे सिखाया है. जैसे संस्कार हमने इसे दिए हैं वैसा ही यह बन जाता है. मन से बड़ा मित्र कोई नहीं और इससे बड़ा शत्रु भी कोई नहीं. जब तक इसमें आनन्द की कोंपलें नहीं खिलीं तब तक मन कृतज्ञता के गीत नहीं गाता, और जब तक कृतज्ञता के गीत नहीं गाता तब तक कृपा की वर्षा नहीं होती, कृपा से ही आनंद स्थायी होता है. जो मन स्वयं से दूर हो जाता है वह दुखी हो जाता है. 

Wednesday, August 20, 2014

मुसाफिर देख चाँद की ओर

जनवरी २००७ 
परमात्मा की कृपा अहैतुकी है, वे कृपा स्वरूप ही हैं बस ग्रहण करने वाला मन होना चाहिए. साधक के जीवन में जब तप होता है तब ऐसा मन तैयार होता है. अक्रोध भी एक तप है और अमानी होना भी. वह कृपा आकाश की तरह व सुगंध की तरह हमारे चारों ओर है, हमें चाहिए कि चकोर या भ्रमर बनें और उसे ग्रहण करें. गुरू तो ज्ञान का अमृत बरसा रहे हैं, हमें अपना बर्तन खाली करना है. वे तो बरस ही रहे हैं, हमारा दामन फटा न हो. जीवन को कैसे हम और सुंदर बनाएं, कैसे दूसरों के काम आयें, कैसे सदा हम शांत रहें, भीतर से खाली, हल्के और निर्भार ! यहाँ हम कुछ भी तो नहीं लाये थे जो खोने का डर हो, शरीर अमर तो है नहीं जो मरने का डर हो. जो आत्मा अमर है वह तो मरने वाला नहीं फिर कैसा डर ? परमात्मा है, और हम उसके अंश हैं, यह बात तो तय है, वह न जाने कितनी तरह से अपनी उपस्थिति जता चुका है. वह हर क्षण हमारे इर्द-गिर्द ही रहता है, उसे भी तो हमारी प्रतीक्षा है. वह हमारे द्वारा ही प्रेम पाना चाहता है. 

Tuesday, August 19, 2014

हो निशंक जियें इस जग में

जनवरी २००७ 
श्रेष्ठ जनों से जब हम आदर ग्रहण करने लगते हैं तो वह हमारे पतन का कारण है. मान पाने की इच्छा वह भी बड़े लोगों से अधम सुख है. जो अपने भविष्य को सुंदर बनाना चाहता है उसे तो हर पल सजग रहना होगा. ईश्वर से उसे वही चाहना चाहिए जो उसके लिए हितकारी हो. श्रद्धा से भरा मन, विश्वासी मन, समर्पित मन ही निर्भार, निश्चिंत, निर्द्वन्द्व तथा निशंक हो सकता है. जब हम ऐसा जीवन जी सकते हैं तो व्यर्थ की चिंता क्यों करें. हम कितने तो भाग्यशाली हैं, मानव जन्म मिला, भारत भूमि में मिला तथा ज्ञान पाने का अवसर मिला. न जाने किस जन्म में कौन सा पुण्य किया था जो इतना सब सहज ही प्राप्त हुआ है. इस जगत में पाने योग्य यदि कुछ है तो श्रद्धा ही है. इसके सामने बड़े से बड़े सुख भी फीके पड़ जाते हैं. यह सुख भीतर से मिलता है, हमें सहज बनाता है, सत्य से मिलाता है. इसे पाने के बाद ही कोई मीरा गीतों को लुटाती है, सन्तजन प्रेम बरसाते हैं. यह जगत शरीर को रखने में सहायक है, लेकिन सुख नहीं दे सकता, हाँ, सुख देने के का भ्रम अवश्य दे सकता है.   

Monday, August 18, 2014

ज्ञान की अग्नि जलाएं

जनवरी २००७ 
अनियंत्रित कामना के कारण ही क्रोध आता है. जो ज्ञानी हैं, उनका क्रोध पानी पर लकीर जैसा होता है, जो ज्ञान की साधना कर रहे हैं उनका क्रोध बालू पर लकीर जैसा, जो ज्ञान के इच्छुक हैं वे उतनी देर तक क्रोध में बने रहते हैं जितनी देर मिट्टी पर लकीर रहती है और जो अभी ज्ञान के पथ पर नहीं आये हैं, उनके हृदय में क्रोध उतनी देर तक बना रहता है जितनी देर लोहे पर लकीर. कामना विजातीय है, क्रोध भी विजातीय है, तभी हम उन्हें भीतर नहीं रख पाते, झट  प्रकट कर देते हैं. मनोजयी साधक प्रसन्नता को प्राप्त होता है, हर पल उसे आनन्द ही बना रहता है. साधक की कई बार परीक्षा भी होती है. उपलब्धि को यदि वह कृपा मानता है तो अभिमान से बचा रहता है. साधना का पहला सोपान है अंतःकरण की पवित्रता और अन्तिम सोपान है अंतःकरण की पवित्रता, यह साधना निरंतर चलती रहती है. मन जब निर्मल होता है तब ही उसमें समता आ पाती है, तब हर तरह की परिस्थिति में वह शांत रहता है. ज्ञान की अग्नि से कामना जल जाती है. 

Saturday, August 16, 2014

कर्ता है जो वही भोक्ता

जनवरी २००७ 
उपवास, जप, तप, ध्यान, भक्ति आदि शुभ क्रियाएं हैं किन्तु इन्हें करते समय मन का भाव कैसा है इसका भी ध्यान रखना होगा, यदि मन में अभिमान जगता है तो फल विपरीत हो जाता है. क्रियाएं स्थूल हैं और उनके करने से प्रशंसा के रूप में उसका स्थूल फल तो हमें मिल ही जाता है. प्रशंसा से हम अभिमानी हो जाते हैं और शुभ कर्म पुण्य नहीं देता. शुभ कर्म तो हमारे पूर्व के कर्मों के फल रूप में हमें प्राप्त होते हैं, किन्तु कर्ता होकर यदि हम ध्यान आदि करते हैं तो यह कर्म बंधन कारी है. कर्मों की निर्जरा अर्थात कर्मों की समाप्ति धार्मिक कृत्यों से नहीं होती है. आत्मा में स्थित रहकर जो स्वयं को कर्ता नहीं मानता है, कर्म तो उसके ही कटते हैं. क्रोध, मान, माया, लोभ, अहंकार का यदि लेशमात्र भी रहे तो हम नीचे ही जाते हैं. 

Friday, August 15, 2014

सीमित से सीमित ही मिलता

जनवरी २००७ 
पतंजलि के अनुसार चित्त में जो वृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं उनके पांच प्रकार हैं, प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, स्मृति और निद्रा. प्रमाण का अर्थ है निश्चित ज्ञान, जो हमने आज तक अनूभूत किया है उसी के आधार पर जीवन को देखने की दृष्टि, यानि सीमित जानकारी. जब हम निद्रा में होते हैं, स्वप्न के रूप में मन चलता रहता है, गहन निद्रा में मन खो जाता है पर तब हम स्वयं को नहीं जानते. विपर्यय का अर्थ है विपरीत ज्ञान. प्रमाद वश जब हम नित्य-अनित्य व पवित्र-अपवित्र में भेद नहीं कर पाते, कुछ को कुछ समझ बैठते हैं यही विपर्यय है. विकल्प का अर्थ है कल्पना, मन संकल्प करता है और झट ही विकल्प भी खड़ा कर देता है, तभी हमारे संकल्प पूर्ण नहीं होते. जितना हमें ज्ञात है हम उसी स्मृति के आधार पर व्यक्तियों, वस्तुओं और परिस्थितयों के बारे में राय बना लेते हैं, उसी को प्रमाण मानते हैं जो इन आँखों से दिखाई देता है, जो मन, बुद्धि सुझा देते हैं किन्तु सत्य असीम है उसे पकड़ना नामुमकिन है. वह हरेक के भीतर है. हरेक उसी एक परमात्मा की जीती-जगती मूरत है. हमें न स्वयं की सीमा बांधनी है न किसी अन्य की. हमारी छोटी सी बुद्धि में समा सके, ज्ञान केवल वही तो नहीं है. इस दुनिया की हर शै उसी परमात्मा से निकली है, वह हरेक को एक समान प्रेम करता है. सभी को उसने अपना ही रूप बनाया है. हमें उसी पर नजर रखनी है. 

Wednesday, August 13, 2014

चैतन्य को मीत बनाएं

जनवरी २००७ 
जब भीतर सत्संग की चाह जगे, निर्मोहता बढ़े, प्रेम जगे तो मानना चाहिए कि हरिकृपा बरस रही है. किसी ने कहा है,
इन्सान की बदबख्ती अंदाज से बाहर है
कमबख्त खुदा होकर इन्सान नजर आता है

कृष्ण कहते हैं कि जो चैतन्य के साथ स्वयं को जोड़ता है वह अपना मित्र है जो जड़ के साथ जोड़ता है वह अपना शत्रु है. नश्वर वस्तुओं को पाने में हम स्वयं को बड़ा मानते हैं तो यह छोटापन है, उनके खोने से दुखी हो जाते हैं यह भी दुर्बलता है. क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह सभी जड़ हैं, किन्तु कोई दोष हममें है यह मानने से दोष दृढ़ हो जाता है. हमें उसे अपने में न मानकर प्रकृति में मानना है जो परिवर्तन शील है, वह दोष भी बदलने वाला है, जो उत्पन्न हुआ है वह नष्ट होने ही वाला है. अपने दोषों को देखना भर है साक्षी भाव में आते ही दोष मिटने लगते हैं.  

Tuesday, August 12, 2014

कर्मों में कुशलता ही योग है

जनवरी २००७ 
जब भीतर विस्मय जगे या कर्मों में कुशलता की चाह हो, मन को समता में रखने की कला सीखनी हो तो हम योगमार्ग के अधिकारी हैं. जब हम सारे दुखों से छूटना चाहते हैं तो योग की शरण में जाने के योग्य हैं. परम की भक्ति अग्नि की तरह है जो सदा ऊपर की ओर ले जाती है. योग में बाधक है जड़ता और मन की वृत्तियाँ. विस्मय में जाने से हमें ज्ञान रोकता है, जहाँ निश्चय होता है वहाँ विस्मय नहीं होता. जो ज्ञान हमें अन्यों से अलग करे, जगत से भेद कराए वह अधूरा है. हमें अद्वैत तक पहुंचना है, जहाँ दो हैं ही नहीं. मन हमें एक होने से रोकता है, बुद्धि भेद करना सिखाती है और अहंकार हर क्षण दूसरों से श्रेष्ठ होने का आभास दिलाता है. ये सभी मन की वृत्तियाँ हैं जिनसे हमने मुक्त होना है, तब भीतर अद्वैत का अनुभव होगा और जगत के साथ भी हमारा कोई विरोध नहीं रह जायेगा. 

Monday, August 11, 2014

भीतर नर्तक एक छुपा है

जनवरी २००७ 
ध्यान के बाद भीतर अद्भुत शांति छा जाती है, एक निस्तब्धता, सन्नाटा और गहरा मौन, जैसे भीतर कोई ठंडक बसी हो. उस मौन में एक संगीत गूंजता है जो निरंतर सुनाई देता है. एक आह्लाद का अनुभव होता है. एक नृत्य का जन्म हुआ हो जैसे और फिर कृतज्ञता के भाव जगते हैं. सन्त ध्यान की बड़ी महिमा बताते हैं, वे कठिन विषय को भी सहज बना देते हैं. उनकी बातें भीतर तक छू जाती हैं. सारे शास्त्र पुकार-पुकार कर यही कहते हैं, ईश्वर हमारे भीतर है, वह अपार शांति, ज्ञान और आनन्द का स्रोत है. हम उससे पृथक नहीं हैं. आत्मा व परमात्मा दोनों एक ही शै से बने हैं. जब मन सारी कामनाओं से मुक्त हो जाता है तब आत्मा में ही स्थित होता है. वैसे भी जिसे आत्मा का अनुभव हो जाये, उसे जगत से पाने लायक कुछ रह ही नहीं जाता, वह तो स्वयं दाता बन जाता है.  

घटता-बढ़ता नहीं प्रेम जो


जिसके सिर ऊपर तू साईं सो कैसा दुःख पावे ! ज्ञानी के ऊपर परम की कृपा होती है, उसके भीतर सहज कृपा होती है. वह सम्पूर्ण निराग्रही होता है. आग्रह खुला अहंकार है. उसके पास सबसे बड़ा शस्त्र प्रेम होता है, वह वाकचातुर्य नहीं दिखाते प्रेम स्वयं उनके व्यक्तित्त्व से टपकता है. वह अपेक्षा नहीं रखते, जहाँ अपेक्षा है वह प्रेम शुद्ध नहीं है. प्रेम लेने की वस्तु है ही नहीं, प्रेम तो देने की वस्तु है. जिस पर सच्चा प्रेम हो उसका कभी दोष नहीं दीखता. हमारे भीतर तो अपेक्षा वाला प्रेम है, जो घटता-बढ़ता रहता है. साधक का लक्ष्य वही परम ज्ञान की अवस्था है उसे भी आग्रह छोड़ने हैं, मुक्त होकर जीना है.   

Friday, August 8, 2014

समझ समझ कर चलना होगा

जनवरी २००७ 
बुद्ध पुरुषों के वचनों को समझ लेने मात्र से हम बुद्ध नहीं हो पाते, जब तक हमारा स्वयं का अनुभव न हो. उनके वचन सत्य सिद्ध हैं, वे उनके अनुभव हैं पर वे हमारे जीवन को नहीं बदल सकते. वे केवल तथ्य की सूचना देते हैं, उनकी उदघोषणा में कोई भावावेश नहीं है. वे हमें हमरी समझ के अनुसार चलने का आग्रह करते हैं. हम मात्र बुरा-बुरा कहकर विकार को छोड़ने की कोशिश करते हैं पर सफल नहीं होते. यदि विकार को विकार की तरह देखते हैं तभी बदलते हैं. हमारे दृष्टि में भी जब विकार अग्नि जैसा लगे, तभी हम उससे बचते हैं. यदि संकट की घड़ी में ही केवल पुण्य का विचार करें और आराम के वक्त यदि सहजता से विकार के वश में रहें तो जिससे हम लड़ते हैं वह प्रबल होता है. हम जिसका दमन करते हैं वह एक न एक दिन बाहर आयेगा.  

Wednesday, August 6, 2014

शुभता ही प्रकटे जीवन से

जनवरी २००७ 
हमारा तन वेदिका है. प्राणों को हम भोजन की आहुति देते हैं. प्राणाग्नि बनी रहे, देह दर्शनीय रहे, पवित्र रहे इसलिए सात्विक और अल्प आहार ही लेना है. इंद्र हाथ का देव है, सो कर्म भी ऐसे हों जो भाव को शुद्ध करें. मुख के देव अग्नि हैं, अतः वाणी भी शुभ हो. अतियों का निवारण ही योग है. योग से मन प्रसन्न रहता है और भीतर ऐसा प्रेम प्रकटता है जो शरण में ले जाता है. सन्त हमें जगाते हैं और हम जग कर पुनः सो जाते हैं. हमें संकल्प करना है कि अशुभ से बचे, क्यों कि अशुभ विष है और हमें जीना है. व्यवहार क्षेत्र में पहले भाव फिर क्रिया होती है पर अध्यात्म क्षेत्र में पहले क्रिया पवित्र हो तो भाव अपने आप पवित्र होने लगते हैं. श्रवण या पठन क्रिया है पर श्रवण के बाद मनन फिर निदिध्यासन होता है. 

मन जब बन जाता है दर्पण

जनवरी २००७ 
अध्यात्म का सबसे बड़ा चमत्कार, सबसे बड़ी सिद्धि यही है कि हम अपने बिगड़े हुए मन को सुधार लें. मानव होने का यही तो लक्षण है कि साधना के द्वारा मन को इतना शुद्ध कर लें कि मन से परे जो शुद्ध, बुद्ध आत्मा है वह उसमें प्रतिबिम्बित हो उठे. ज्ञान के द्वारा उसे जानना है, सद्कर्म के द्वारा उसे पाना है, भक्ति के द्वारा उस का आनंद सबमें बाँटना है. सेवा भी होती रहे तो मन शुद्ध बना रहेगा. जब तक अपने लिए कुछ पाने की, कुछ बनने की वासना बनी हुई है तब तक मन निर्मल नहीं हो सकता. व्यवहार जगत में लेन-देन चलता रहे पर भीतर हर पल यह जागृति रहे कि हम आत्मा हैं जो अपने आप में पूर्ण है !

Monday, August 4, 2014

उठत बैठत वही उठाने, कहत कबीर हम उसी ठिकाने

जनवरी २००७ 
श्रद्धा, विश्वास, प्रेम और आस्था यदि जीवन में न हों तो जीवन अधूरा है बल्कि जीवन है ही नहीं, उसका भ्रम है. प्रेम तो इस जगत का कारण ही है, पेड़-पौधे, जीव-जन्तु भी प्रेम से भरे हैं. ईश्वर जो कण-कण में व्याप्त है वह भी प्रेम से प्रकट हो जाता है. ऐसा प्रेम जीवन में तब आता है जब मन में करुणा का भाव जगे, जीवन में मंत्र मिले, जो व्यथा का नाश करता है दिव्य आभा जगाता है. ऐसा मंत्र ज्ञान भी हो सकता है और भक्ति भी. ज्ञान का अर्थ है नित्य-अनित्य, सत्य-असत्य का बोध और श्रेय-प्रेय का भेद, इनमें से एक का त्याग करना है एक को प्रेम. भक्ति का अर्थ है यह सारी सृष्टि जिसने बनायी है वह यदि हमारे प्रेम का पात्र है तो जगत भी उसी का बनाया होने के कारण हमारे प्रेम का पात्र हुआ. साधक का अंतर गुरु के बताये पथ पर सारे ही फूल समेटने में लगा रहता है, जिसमें ज्ञान भी है, योग-प्राणायाम भी, कीर्तन और सेवा भी. जो भी सहज प्राप्त कार्य सम्मुख आता है उसे करने के अलावा शेष समय उसी की याद में गुजरता है जो छिपा रहता है फिर भी नजर आता है.

मुक्ति का जब बोध रहे

जनवरी २००७ 
हर कामना की पूर्ति के बाद हम मोक्ष का अनुभव करते ही हैं तथा बोध तो आकाश की तरह हर जगह है. हर श्वास के साथ जैसे निश्वास है वैसे ही हर कर्म के पीछे उससे मुक्ति तो है ही, न हो तो जो सुख हमें कर्म से मिल रहा है वह दुःख में बदल जायेगा. छोटे-छोटे कार्यों में जब हम मुक्ति का अनुभव करते हैं तो एक दिन उस परम मुक्ति का भी अनुभव हो जाता है जिसे पाकर कुछ पाना शेष नहीं रहता. 

Sunday, August 3, 2014

जहाँ दूसरा हो न कोई

जनवरी २००७ 
योग वशिष्ठ अद्वैत ज्ञान का अद्भुत ग्रन्थ है. जिसके अनुसार आत्मा का अनुभव ज्ञान के द्वारा ही हो सकता है, ज्ञान जब तक परिपक्व नहीं होगा तब तक अन्य साधनों द्वारा किया गया अनुभव टिकेगा नहीं. यह सारा जगत ब्रह्म ही है अथवा तो आत्मसत्ता ही जगत का आभास देती है. आदि में इस जगत के होने का कारण नहीं था केवल चिन्मय तत्व था उसमें संवेदन हुआ और धीरे-धीरे यह सब संकल्प रूप से प्रकट हुआ. हमारे संकल्प ही बाहर सत्य होकर दिखते हैं. यहाँ कुछ भी स्थिर नहीं है, सब आभास मात्र है. हम वास्तव में चेतन हैं जड़ का संयोग होने से हम स्वयं को जड़ जगत की तरह मानने लगे. मन जब पूरी तरह खाली हो जाता है तभी चैतन्य का अनुभव होता है. 

Friday, August 1, 2014

चलो घर चलें

जनवरी २००७ 
कृष्ण हमारा सखा है और वह हमसे कहता है जैसे मैं तुम्हें प्रेम करता हूँ वैसे ही तुम मुझसे करो और मेरे नाते जगत से करो. जैसे मैं आनंद हूँ, वैसे ही तुम्हें भी जीना चाहिए. हमें अपना परिक्षण नहीं करना है बल्कि वीक्षण करना है, जीवन जीना कोई गम्भीर कार्य नहीं है, ईश्वर को पाना भी कोई गम्भीर कार्य नहीं है. हमें उस क्षण की प्रतीक्षा नहीं करनी है जब हमें पूर्ण आनंद मिलेगा बल्कि इसी क्षण उसे पाना है. ईश्वर की समीक्षा करनी है, वह जो सदा हमारे साथ है. हम उसके उत्तराधिकारी हैं, उसका सब कुछ हमारा है, हम विशाल संपदा के अधिकारी हैं, यह सारा ब्रह्मांड हमारा घर है. न जाने कितने जन्मों से हम घर से बाहर थे, अपने विरसे को हमने खो दिया था पर घर लौट कर आने पर वह हमारा ऐसे स्वागत करता है जैसे हम उसके प्रियतम हों.

स्वयं में जो रमण करे

जनवरी २००७ 
अहंकार से मुक्त होकर जब मन कामना रहित होता है, उसी क्षण आत्मा में टिक जाता है. अहंकार छोड़े बिना हम दीन नहीं होते और दीन हुए बिना दीनानाथ की कृपा नहीं मिलती. आत्मा में जिसकी सदा ही स्थिति हो ऐसा मन शरणागत में जा सकता है. उसमें कोई उद्वेग नहीं है, वह राग-द्वेष से परे है. उसमें एक मौन का जन्म  होता है, इस मौन में सत्व का जन्म होता है, जिसकी तरंगे न केवल भीतर बल्कि बाहर का वातावरण भी पावन कर देती हैं. उसमें जिसने एक बार विश्रांति पायी है वह इस जगत से अलिप्त हो जाता है अर्थात इससे सुख पाने की इच्छा उसकी नष्ट हो जाती है. वह आत्मा में रमण करने वाला परम आनन्द को प्राप्त करता है.