Monday, August 4, 2014

उठत बैठत वही उठाने, कहत कबीर हम उसी ठिकाने

जनवरी २००७ 
श्रद्धा, विश्वास, प्रेम और आस्था यदि जीवन में न हों तो जीवन अधूरा है बल्कि जीवन है ही नहीं, उसका भ्रम है. प्रेम तो इस जगत का कारण ही है, पेड़-पौधे, जीव-जन्तु भी प्रेम से भरे हैं. ईश्वर जो कण-कण में व्याप्त है वह भी प्रेम से प्रकट हो जाता है. ऐसा प्रेम जीवन में तब आता है जब मन में करुणा का भाव जगे, जीवन में मंत्र मिले, जो व्यथा का नाश करता है दिव्य आभा जगाता है. ऐसा मंत्र ज्ञान भी हो सकता है और भक्ति भी. ज्ञान का अर्थ है नित्य-अनित्य, सत्य-असत्य का बोध और श्रेय-प्रेय का भेद, इनमें से एक का त्याग करना है एक को प्रेम. भक्ति का अर्थ है यह सारी सृष्टि जिसने बनायी है वह यदि हमारे प्रेम का पात्र है तो जगत भी उसी का बनाया होने के कारण हमारे प्रेम का पात्र हुआ. साधक का अंतर गुरु के बताये पथ पर सारे ही फूल समेटने में लगा रहता है, जिसमें ज्ञान भी है, योग-प्राणायाम भी, कीर्तन और सेवा भी. जो भी सहज प्राप्त कार्य सम्मुख आता है उसे करने के अलावा शेष समय उसी की याद में गुजरता है जो छिपा रहता है फिर भी नजर आता है.

3 comments:

  1. आज तो आपने मेरे मन की बात कही है , मैं कबीर की भक्त हूँ , वह मेरा आदर्श है । मन - भावन प्रस्तुति । आपकी लेखनी को मेरा प्रणाम ।

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  2. कबीर जैसा जनवादी कोई नहीं है--
    आपने बहुत सहजता से कबीर के चिंतन को व्यक्त किया है ---
    अदभुत
    सादर ----

    आग्रह है ------मेरे ब्लॉग में सम्मलित हों
    आवाजें सुनना पड़ेंगी -----

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  3. शकुंतला जी व ज्योति जी, स्वागत व आभार !

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