Friday, August 1, 2014

स्वयं में जो रमण करे

जनवरी २००७ 
अहंकार से मुक्त होकर जब मन कामना रहित होता है, उसी क्षण आत्मा में टिक जाता है. अहंकार छोड़े बिना हम दीन नहीं होते और दीन हुए बिना दीनानाथ की कृपा नहीं मिलती. आत्मा में जिसकी सदा ही स्थिति हो ऐसा मन शरणागत में जा सकता है. उसमें कोई उद्वेग नहीं है, वह राग-द्वेष से परे है. उसमें एक मौन का जन्म  होता है, इस मौन में सत्व का जन्म होता है, जिसकी तरंगे न केवल भीतर बल्कि बाहर का वातावरण भी पावन कर देती हैं. उसमें जिसने एक बार विश्रांति पायी है वह इस जगत से अलिप्त हो जाता है अर्थात इससे सुख पाने की इच्छा उसकी नष्ट हो जाती है. वह आत्मा में रमण करने वाला परम आनन्द को प्राप्त करता है.

4 comments:

  1. आत्‍मा में रमण करने वाला परम आनन्‍द को प्राप्‍त होता है .... सच्‍ची बात

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  2. बोधगम्य , प्रशंसनीय प्रस्तुति ।

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  3. अति सुन्दर विचार वैकुण्ठ जाने का यही मार्ग है।

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  4. सदा जी, शकुंतला जी व वीरू भाई आप सभी का स्वागत व आभार !

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