Thursday, November 16, 2017

वर्तमान में सजग रहे जो

१६ नवम्बर २०१७ 
वर्तमान के कर्मों द्वारा हम प्रारब्ध के कर्मों को बदल सकते हैं. जन्म, आयु, और भोग हमें प्रारब्ध के अनुसार मिलते हैं, किन्तु हम कितना सुख-दुःख भोगते हैं, वह वर्तमान के पुरुषार्थ पर निर्भर करता है. किसी व्यक्ति को छोटा सा कष्ट भी अत्यधिक दुःख दे सकता है, और कोई बड़ा रोग होने पर भी शांति से उसे दूर करने की चेष्टा करता है. हमारे हर कर्म का फल किसी न किसी रूप में सम्मुख आने ही वाला है, यह जानते हुआ साधक वर्तमान के कर्मों के प्रति सजग रहता है. प्राप्त हुए दुःख को अपने ही किसी पूर्व कर्म के कारण आया जानकर वह अपने दुःख के लिए किसी को दोषी नहीं ठहराता. 

Tuesday, November 14, 2017

मन टिक जाये जब खुद में ही

१५ नवम्बर २०१७ 
बुद्ध ने कहा है, तृष्णा दुष्पूर्ण है. एक तृष्णा को पूर्ण करो तो दूसरी सिर उठा लेती है. मन तृष्णा का ही दूसरा नाम है. मन के पार गये बिना इनसे मुक्ति नहीं मिल सकती. जैसे ही मन में कोई कामना जगे, साधक को तत्क्षण उसकी पूर्ति में न लगकर उसे अच्छी तरह देखना चाहिए. साक्षी भाव में टिकना पहला कदम है. इसके बाद उसके फलस्वरूप क्या होगा, इसका चिन्तन भी करना चाहिए. पूर्व में कितनी बार इसी तरह कामनाओं को पूर्ण किया है पर मन अभी भी संतुष्ट नहीं हुआ है, इसका भी विवेक भीतर जगाना होगा. इतनी देर में मन अथवा देह में कुछ बेचैनी का अनुभव भी हो सकता है, पर कुछ ही क्षणों में वह भी लुप्त हो जाती है. मन थिर हो जाता है और स्वयं का अनुभव होता है. जहाँ पूर्ण शांति है. इस तरह के ध्यान के अभ्यास से कुछ ही दिनों में अनावश्यक पृथक हो जायेगा और आवश्यक की पूर्ति सहज ही होती रहेगी.


मिला सदा है सुख अंतर का

१४ नवम्बर २०१७ 
शास्त्रों में कहा गया है, वैराग्य में कौन सा सुख नहीं है. हमें वस्तुओं के ग्रहण में जितना सुख मिलता है, उतना ही दुःख एक न एक दिन उनका त्याग करने अथवा होने पर मिलेगा. यदि त्याग भाव से उन्हें ग्रहण किया जाये अर्थात उनकी कामना न करके सहज भाव से जो जीवन के लिए आवश्यक है उतना ही ग्रहण किया जाये तो भविष्य में मिलने वाले दुःख से बचा जा सकता है. आत्मा सहज ही सुखस्वरूप है, मन में कामना का जन्म हुआ उसके पूर्व तक मन शांत था. कामना की पूर्ति के लिए श्रम किया, भविष्य में इसके द्वारा जो फल मिलेगा उसकी स्मृति नहीं रही, और अल्पकाल का सुख पाने के बाद मन फिर शांत हो गया, अर्थात पूर्ववत स्थिति प्राप्त हो गयी. किन्तु जो संस्कार मन पर पड़ गया वह भविष्य में फिर कामना उत्पन्न करेगा और एक चक्र में ही जीवन घूमता रहेगा.

Monday, November 13, 2017

निज भाग्य के निर्माता हम

१३ नवम्बर २०१७ 
हमारा हर छोटा-बड़ा कृत्य मन अथवा इन्द्रियों में स्थित किसी न किसी कामना का ही फल होता है, तथा हर कृत्य एक बीज की भांति भविष्य में स्वयं भी अनेक फल प्रदान करने वाला है. मन, इन्द्रियों द्वारा प्रेरित होता है और आत्मा को मन द्वारा इसका ज्ञान होता है. मन व सूक्ष्म इन्द्रियां स्थूल देह के द्वारा सुख-दुःख का अनुभव करती हैं. इनमें से जो प्रबल है उसी की जीत होती है. यदि जिव्हा को मीठा खाने का राग है और मन उसकी इच्छा की पूर्ति करता है, तो इसका संस्कार मन पर पड़ जाता है. मिठाई खाने में जिस सुख का अनुभव किया उस सुख की स्मृति भी बार-बार खाने से गहरी होती जाती है. इसके द्वारा जो भी हानि शरीर को होगी उसका अनुभव मन को होगा, इन्द्रियों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा. अगली बार मन यदि सचेत रहा और इन्द्रियों द्वारा लालायित किये जाने पर भी स्वाद के वशीभूत नहीं हुआ तो भविष्य के दुःख से बच जायेगा अन्यथा पूर्व संस्कार के कारण पुनः उस सुख का अनुभव करने के लिए मिष्ठान ग्रहण करने के लिए तत्पर हो जायेगा. 

Friday, November 10, 2017

एक लक्ष्य जिसने भी साधा

१० नवम्बर २०१७ 
लक्ष्य यदि स्पष्ट हो और सार्थक हो तो जीवन यात्रा सुगम हो जाती है, योग के साधक के लिए मन की समता प्राप्त करना सबसे बड़ा लक्ष्य हो सकता है और भक्त के लिए परमात्मा के साथ अभिन्नता अनुभव करना. कर्मयोगी अपने कर्मों से समाज को उन्नत व सुखी देना चाहता है. मन की समता बनी रहे तो भीर का आनंद सहज ही प्रकट होता है. परमात्मा तो सुख का सागर है ही, और निष्काम कर्मों के द्वारा कर्मयोगी कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाता है, जिससे सुख का अनुभव होता है, अर्थात तीनों का अंतिम लक्ष्य तो एक ही है, वह है आनंद और शांति की प्राप्ति. सांसारिक व्यक्ति भी हर प्रयत्न सुख के लिए ही करते हैं, किन्तु दुःख से मुक्त नहीं हो पाते क्योंकि उन्होंने अपने सम्मुख कोई बड़ा लक्ष्य नहीं रखा. 

Wednesday, November 8, 2017

ज्ञान बिना कैसा सुख साधो

९ नवम्बर २०१७ 
जीवन यात्रा में चलते हुए हर कोई आनंद चाहता है. जन्मते ही बच्चा श्वास के रूप में सुख की मांग करता है, फिर भूख के दुःख को मिटाने के लिए आहार की. नन्हे से नन्हा जीव भी दुःख से बचना चाहता है. इसका कारण है कि जिस परमात्मा से इस जगत की सृष्टि हुई है, वह आनंद स्वरूप है. अपने आनन्द को लुटाने के लिए ही उसने यह विशाल आयोजन किया है. हिंसक पशुओं को पालने वाले भी इसका उदाहरण देते हैं कि वे भी आहार की पूर्ति हो जाने के बाद प्रेम और आनंद ही बांटते व चाहते हैं. प्रकृति का हर अंग चाहे वह लहराती हुई नदी हो या ऊंचे हिमखंड, देखने वाले को सहज ही आनंद से भर देते हैं. इतना सब होने के बावजूद भी मानव के जीवन में दुःख की अधिकता दिखाई देती है, अध्यात्म के अनुसार इसका कारण केवल और केवल अज्ञान है. 

Monday, November 6, 2017

विश्राम में छुपा है राम

६ नवम्बर २०१७ 
सुख-दुःख, इच्छा-प्रयत्न और राग-द्वेष से युक्त मन सदा ही चलायमान रहता है. जगत से राग के कारण सुख की इच्छा इसे प्रयत्न में लगाती है. द्वेष के कारण यह दुःख का अनुभव करता है. ध्यान करते समय अल्प काल के लिए ही सही जब मन सब इच्छाओं से मुक्त होकर स्वयं में स्थित हो जाता है, तब सुख-दुःख के पार चला जाता है. उस स्थिति में न राग है न द्वेष, एक निर्विकार दशा का अनुभव अपने भीतर कर यह शांति का अनुभव करता है. देह को सबल बनाने के लिए जैसे व्यायाम आवश्यक है, मन को सबल बनाने के लिए विश्राम आवश्यक है. ऐसा विश्राम ध्यान से ही प्राप्त होता है, जो उसे सकारात्मक ऊर्जा से भर देता है.   


Saturday, November 4, 2017

स्व धर्मे निधनं श्रेयः

५ नवम्बर २०१७ 
भगवद्गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं, स्वधर्म में मरना भी पड़े तो ठीक है परधर्म नहीं अपनाना चाहिए. स्वधर्म का अर्थ यदि हम बाहरी संप्रदाय को लेते हैं, तो उचित नहीं जान पड़ता. स्वधर्म का अर्थ है निज धर्म यानि आत्मा का सहज धर्म. देह, मन, बुद्धि आदि का धर्म ही परधर्म है. आत्मा शांति, प्रेम और आनंद स्वरूप है. आत्मा अविनाशी, अविकारी है. यदि कोई स्वयं को देह मानकर मरने वाला समझता है तो यही परधर्म को अपनाना है. मन मानकर सुख-दुखी होता है या बुद्धि मानकर हानि-लाभ की भाषा में सोचता है तो वह अपने स्वधर्म से विचलित हो गया. कोई यदि स्वयं को अनंत, स्थिर और विमल मानता है तो ही वह आत्मा के धर्म वाला अर्थात स्वधर्म में स्थित कहा जायेगा.   

Friday, November 3, 2017

नानक दुखिया सब संसार

४ नवम्बर २०१७ 
गुरूपर्व अर्थात सिखों के प्रथम गुरू नानक का जन्मोत्सव. प्रकाश का यह पर्व हमें अंतर ज्योति जगाने की प्रेरणा देने आया है. भारत वासी युगों से संतों के प्राकट्य को प्रकाश के साथ जोड़ते आये हैं, इसी कारण भगवान बुद्ध और महावीर स्वामी का जन्मदिन भी पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है. सभी संतों ने मानव को भीतर के आत्मा रूपी प्रकाश को जगाने की युक्ति दी है. मानव देह को यदि एक घर के समान समझें तो आत्मा इसकी मालिक है, मन, बुद्धि आदि सेवक हैं. जैसे मालिक के न होने पर सेवक मनमानी करते हैं, और घर की हालत बिगड़ जाती है, वैसे ही आत्मा का प्रकाश यदि नहीं जगा है तो मन सीमित ज्ञान व पुराने संस्कारों के अनुसार ही घर को चलाता है, जिसका परिणाम सुख-दुःख के रूप में मानव को भोगना पड़ता है. आत्मा यदि सजग होगी तो सहज ही शांति और आनंद का अनुभव करेगी.

Wednesday, November 1, 2017

पार लगें इस भव सागर से

१ नवम्बर २०१७ 
संत कहते हैं, नाम-रूप का यह जगत मिथ्या है, सत्य है इसके पीछे का आधार, जिससे इसकी उत्पत्ति होती है. जैसे मिट्टी से बने बर्तन मिटटी ही हैं, व्यवहार करने के लिए उनमें नाम रूप की कल्पना की जाती है. सागर में जल रूप होने पर भी तरंग, फेन, बूंद आदि नाम व रूप के कारण पृथक कहे जाते हैं. मन में उठने वाले विचार, संकल्प-विकल्प, स्मृति, भावनाएं, कामनाएं, विकार सब मन ही हैं. मन से ही उत्पन्न हुए वे मन में ही समा जाते हैं और हम उन्हें सत्य मानकर सुखी-दुखी होते रहते हैं. मन में ही जन्मों के संस्कार पड़े हैं, जिनके कारण सुखद या दुखद संवेदना उठती है, उन्हें समता भाव से देखकर चले देने जाने के बजाय हम सत्य मानकर उनके अनुसार अच्छे या बुरे कर्म करने लगते हैं, जिनका फल फिर भविष्य में भोगना पड़ता है और जिनके संस्कार फिर गहरे होते जाते हैं. इसी का नाम संसार है जिससे साधक को मुक्त होना है. उपाय है कि ध्यान के द्वारा हम मन को साक्षी भाव से देखना सीख लें और बादलों की तरह आते-जाते विचारों के द्रष्टा भर बन जाएँ.