Tuesday, November 14, 2017

मन टिक जाये जब खुद में ही

१५ नवम्बर २०१७ 
बुद्ध ने कहा है, तृष्णा दुष्पूर्ण है. एक तृष्णा को पूर्ण करो तो दूसरी सिर उठा लेती है. मन तृष्णा का ही दूसरा नाम है. मन के पार गये बिना इनसे मुक्ति नहीं मिल सकती. जैसे ही मन में कोई कामना जगे, साधक को तत्क्षण उसकी पूर्ति में न लगकर उसे अच्छी तरह देखना चाहिए. साक्षी भाव में टिकना पहला कदम है. इसके बाद उसके फलस्वरूप क्या होगा, इसका चिन्तन भी करना चाहिए. पूर्व में कितनी बार इसी तरह कामनाओं को पूर्ण किया है पर मन अभी भी संतुष्ट नहीं हुआ है, इसका भी विवेक भीतर जगाना होगा. इतनी देर में मन अथवा देह में कुछ बेचैनी का अनुभव भी हो सकता है, पर कुछ ही क्षणों में वह भी लुप्त हो जाती है. मन थिर हो जाता है और स्वयं का अनुभव होता है. जहाँ पूर्ण शांति है. इस तरह के ध्यान के अभ्यास से कुछ ही दिनों में अनावश्यक पृथक हो जायेगा और आवश्यक की पूर्ति सहज ही होती रहेगी.


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