Monday, December 22, 2014

इतनी शक्ति हमें देना दाता


हमारे मस्तिष्क का आधा हिस्सा भी हम इस्तेमाल नहीं कर पाते, कोई कहता है कि हम दस प्रतिशत से भी कम उस क्षमता का प्रयोग करते हैं जो प्रकृति ने हमें दी है. उस दस प्रतिशत में से भी कितनी तो व्यर्थ ही नष्ट हो जाती है जैसे, व्यर्थ बोलना, नकारात्मक चिन्तन, नकारात्मक दृष्टिकोण आदि. शक्ति का पूर्ण उपयोग हो सके इसका पहला साधन है पवित्रता ! शुद्ध बुद्धि में शक्ति टिकती है. उस शक्ति का जब हम प्रयोग करते हैं तो और प्रकटती है. यह सृष्टि न जाने कितनी बार बनी और नष्ट हुई और कितनी बात मानव ऊंचाइयों पर पहुँचा है और कितनी बार गिरा है. हम आगे बढ़ें यही हमारी नियति है.  

Sunday, December 21, 2014

झूठा है हर बंधन

जुलाई २००७ 
जब जड़ व चेतन मिलते हैं तभी अहंकार उत्पन्न होता है, जब यह ज्ञान हो गया कि दोनों कभी मिले ही नहीं, मिलने का भ्रम मात्र होता है तो अहंकार कैसे उत्पन्न होगा. अहंकार के न रहने पर न कोई कर्ता है न भोक्ता है. जो कुछ हो रहा है वह होना था किन्हीं कारणों वश, जैसे प्रकृति में सारे काम हो रहे हैं, वैसे ही इन्द्रियां अपने-अपने विषयों में बरत रही हैं. मन अपना काम कर रहा है, बुद्धि अपना, फिर व्यर्थ ही स्वयं को बंधन में क्यों मानें.

Friday, December 19, 2014

जब जागो तभी सवेरा

जुलाई २००७
 “जब जागें तभी सवेरा” हम सोये हुए हैं, स्वप्न ही देखकर अपना जीवन बिता रहे हैं. शास्त्र व गुरू कहते हैं हर पल सजग रहना है. मन, वचन, काया से हमसे किसी को उद्वेग न हो. यदि कभी किसी का दिल दुःख ही जाये तो प्रायश्चित करना चाहिए, जैसे हर दिन तन को स्वच्छ करते हैं वैसे ही हर रात सोने से पूर्व दिन भर की भूलों का स्मरण करके मन को धो डालना चाहिए. हर परिस्थिति में सम भाव में रहने का तप करने से भी विकार नष्ट हो जाते हैं.


Thursday, December 18, 2014

जीवन चलने का नाम

जुलाई २००७ 
जीवन में चुनौतियाँ परिवर्तन के लिए आवश्यक हैं, क्योंकि परिवर्तन के बिना हम आगे ही नहीं बढ़ सकते. परिवर्तन आये बिना हम अपनी शक्तियों से परिचित नहीं हो पाते. हम सोचने की शक्ति भी खो बैठते हैं. इस परिवर्तन के पीछे कोई सत्ता है जो सदा एक सी है तभी परिवर्तन का भान भी होता है. जो जरा भी बदलाव को स्वीकार नहीं करता वह स्वयं से परिचित नहीं है. वह चीजों को जैसी वे हैं वैसी नहीं देख सकता. यह संसार नित नये अनुभव देकर हर पल कुछ न कुछ सिखा रहा है. हर चुनौती का सामना करते हुए हम आगे बढ़ते हैं तो पहले से कहीं अधिक ज्ञान व शक्ति के साथ. 

Wednesday, December 17, 2014

एक उसी की चाहत सबको

जुलाई २००७ 
परमात्मा का मिलना कठिन नहीं है, जो वस्तु हमारे पीछे है उसको देखने के लिए कहीं जाना नहीं है, बल्कि उसके सम्मुख होने की आवश्यकता है. हम अनुष्ठान, जप, तप आदि के द्वारा उसे पाना चाहते हैं, पर सद्गुरु हमें अहंकार तजने की कला सिखाते हैं, शरणागत होना सिखाते हैं और भीतर ही वह प्रकट हो जाता है जो सदा से ही वहाँ था. वह आत्मा के प्रदेश में हमारा प्रवेश करा देते हैं. आत्मा के रूप में परमात्मा सदा मन को सम्भाले रहता है, उसे रोकता है, टोकता है और परमात्मा के आनंद को पाने योग्य बनाता है, उसको पाने के बाद कुछ पाना शेष नहीं रहता. वह सुह्रद है, हितैषी है, वह नितांत गोपनीय है उसे गूंगे का गुड़ इसीलिए कहा गया है. वह आनंद जो साधक को मिलता है सभी को मिले ऐसे प्रेरणा भी तब भीतर वही जगाता है.

Tuesday, December 16, 2014

सोच वही जो उसको भाए

जुलाई २००७ 
साधना के द्वारा मन की शक्तियाँ जब बढती हैं तो दैवीय सत्ता भीतर जगने लगती है. पहली बार जब हम इस धरा पर आये थे, तो भीतर देवत्व था, वह ढक गया है पर भीतर वह पूर्ण जाग्रत है, रह-रह कर वह अपनी सत्ता से परिचित कराता है. हमें उसे बाहर निकालना है. हम देवताओं के वंशज हैं, अमृत पुत्र हैं. सद्विवेक हमारा स्वभाव है. व्यर्थ के विचारों को यदि सार्थक विचारों में बदल दें तो हमारी क्षमता पांच गुणी बढ़ जाएगी. जब मन शांत होता है तब परमात्मा के प्रति भीतर सहज प्रेम जगने लगता है. उससे एक संबंध बनने लगता है. उसके प्रेम से हम सशक्त हो जाते हैं और वह हमें राह दिखाता है. तब हम संसार के लिए उपयोगी बनने लगते हैं. परमात्मा हमारे द्वारा काम करने लगता है. 

Monday, December 15, 2014

जब जैसा तब वैसा रे

जुलाई २००७ 
जो नश्वर को जानता है, वह शाश्वत है. वही हम हैं. हम अपने तन में होती संवेदनाओं को देखते हैं जो देखते-देखते नष्ट हो जाती हैं, क्योंकि वे नश्वर थीं. हमारे मन में उठने वाली प्रत्येक भावना, कल्पना, विचार नश्वर है, हम जो उनके साक्षी हैं, शाश्वत हैं. हम व्यर्थ ही मन की इन कल्पनाओं को सत्य मानकर स्वयं को सुखी-दुखी करते रहते हैं. हमें तो इन्हें ये जब जैसी हैं, वैसी मानकर आगे बढ़ जाना चाहिए. ये तो जाने ही वाली हैं !

Sunday, December 14, 2014

भीतर बाहर एक वही तो

जुलाई २००७ 
भक्ति का आरम्भ वहाँ है जहाँ हमें ईश्वर में जगत दिखता है और चरम वह है जहाँ जगत में ईश्वर दिखता है. पहले पहल ईश्वर के दर्शन हमें अपने भीतर होते हैं, फिर सबके भीतर उसी के दर्शन होते हैं. ईश्वर कण-कण में है पर प्रेम से उसका प्राकट्य होता है. सद्गुरु हमें वह दृष्टि प्रदान करते हैं जिससे हम परम सत्ता में विश्वास करने लगते हैं. ईश्वर का हम पर कितना उपकार है यह तो कोई सद्गुरु ही जानता है और बखान करता है. शब्दों की फिर भी कमी पड़ जाये ऐसा वह परमात्मा आनंद का सागर है. 

Friday, December 12, 2014

एक नूर ते सब जग उपज्या

जुलाई २००७ 
हमारी साधना इस जन्म में जहाँ तक पहुंचती है, अगले जन्म में वहीं से आरम्भ हो जाती है. हमारी साधना का एक मुख्य भाग है किसी को भी दोषी नहीं देखना, यदि हम किसी को दोषी मान लें तो फौरन मन को निर्मल कर लेना चाहिए ! हर पल हमारी ऊर्जा रिस रही है क्योंकि हम अज्ञानावस्था में रहते हैं, स्वयं को देह मानते हैं. जब ज्ञान होता है और स्वयं को आत्मा मानते हैं तब हमारी ऊर्जा नहीं घटती. जिसकी भाव शुद्धि हो गयी है उसको मृत्यु का भय नहीं सताता. 

Thursday, December 11, 2014

भीतर जिसको मिला ठिकाना

जुलाई २००७ 
रहो भीतर, जीओ बाहर’ यह ध्यान का सूत्र है. आत्मज्ञान होने पर साधक भीतर रहना सीख जाता है. ‘भीतर’ हमें सारे दुखों से मुक्त करके आश्रय देता है. जब तक भीतर कोई केंद्र नहीं है, कोई वहाँ टिके भी तो कैसे. हम वास्तव में परमात्मा का अंश हैं इसे भुलाकर मन, बुद्धि तथा देह को ही सत्य मानकर उनके सुख-दुःख में लिप्त होते रहते हैं. वे हमें साधन रूप में मिले हैं, पर हम इन्हें ही साध्य मान लेते हैं, उनको संतुष्ट करना ही अपना लक्ष्य बना लेते हैं. जबकि आत्मा ही साध्य है. इस संसार में जो कुछ भी हमें मिला है, कर्मों के अनुसार ही मिला है, उनमें राग-द्वेष करने से हम नये कर्म बांधेंगे, यदि समता में रहेंगे तो शांति से उन कर्मों को करेंगे जो हमारे प्रारब्ध में हैं तथा नये कर्म करने पर कर्ता भाव से मुक्त रहेंगे. 

Wednesday, December 10, 2014

तुम्हीं हो बन्धु सखा तुम्हीं हो

जुलाई २००७ 
परमात्मा के नाम के सिवा सभी कुछ नश्वर है, इसका बोध होते ही सारा दृश्य बदल जाता है. अस्तित्त्व मुखर हो जाता है. ऐसा बोध आत्मा की गहराई से उपजता है. भीतर जो सत्य, आनंद का स्रोत है वहाँ से. जो चमत्कार कर सकता है, अभाव व प्रभाव से निकाल कर वह हमें स्वभाव में लाता है. सहज ही अकर्ता भाव सधने लगता है. परमात्मा हमारा सुहृदय है, सखा है, आत्मीय है, मीत है और ऐसा हितैषी जो कभी राह से भटकने नहीं देता. उससे विमुखता ही असजगता है. असजग होकर हम अपने स्रोत से दूर हो जाते हैं, आत्मा के पद से हट जाते हैं. ऐसा होते ही दुःख हमें घेर लेता है.

Tuesday, December 9, 2014

योग साधना है मन का

जून २००७ 
जो बोलना चाहिए, वह बोलें. जो धारण करना चाहिए उसे ही धारें. वही कर्म करें जो करणीय हो. हमारा मन तन से जुड़ा है, तन की यदि हमने सही देखभाल नहीं की तो अस्वस्थता मन पर भी छा जाएगी. लेकिन मन यदि आत्मा से जुड़ा हो, समाहित हो, तृप्त हो और भीतर शांति का साम्राज्य हो तो मन तन पर प्रभाव डालकर उसे भी स्वस्थ कर सकता है. मन अनंत का ही प्यासा है, जगत का कितना ही सुख उसे मिले वह तृप्त नहीं होगा. मन लेकिन तभी परमात्मा से जुड़ेगा, जब वह खाली हो अर्थात कामनाओं से मुक्त हो. अलौकिक सुख की चाह भी चाह ही है, ख़ाली होते ही स्वयं ही आनंद का अनुभव होता है. जीवन जब तक है इस तन में उस आत्मबोध को पा लेना है. यही साधना है.

Monday, December 8, 2014

घूँघट के पट खोल रे

जून २००७ 
चंचल मन रोके नहीं रुकता और हम हेय को भी ग्रहण कर लेते हैं, उपादेय को छोड़ देते हैं, किन्तु जब मन यह जान लेता है कि अब उसकी दाल नहीं गलने वाली तो वह सारी कामनाओं का त्याग कर देता है. मन उसी क्षण खो जाता है, जब हम जाग जाते हैं. आत्मा का जन्म मन का अमन होना है. यूँ आत्मा सदा से ही थी पर मन का पर्दा पड़ा था. पर्दा हटा तो तो वह प्रकट हो जाती है.  जब हमें एक बार अपना पता चल जाता है तो मन का पर्दा रहने पर भी जब चाहे हम उसे हटा कर आत्मा के देश में प्रवेश कर सकते हैं.


तुझ संग ही नाते हों सारे

जून २००७ 
अद्वैत का अनुभव ध्यान में होता है जब आत्मा और परमात्मा के मध्य कोई अंतर नहीं रहता, दोनों एक हो जाते हैं. जीवात्मा के रूप में हम मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार के साथ होते हैं, तब हम परमात्मा के अंश हैं. जब हम चिन्तन-मनन करते हैं अथवा मौन रहते हैं तब द्वैत होता है. मन लहर है तो आत्मा सागर है, मन बादल है तो आत्मा आकाश है. व्यवहार काल में हम उस परमात्मा के दास हैं. वह साकार भी है और निराकार भी. उसकी मूर्ति भी उसका साकार रूप है और उसकी बनाई ये चलती-फिरती मानव मूर्तियाँ भी. हमारा कर्त्तव्य है इन्हें किसी भी प्रकार का दुःख न देना. सेवक को अपना सुख-दुःख नहीं देखना है, उसका अहंकार भी मृत हो गया है, क्योंकि वह तो परमात्मा का अंश है. ऐसा हमें हर पल स्मरण रहे तो सदा हम परमात्मा के साथ हैं !

Friday, December 5, 2014

मन भीजे जब रस पावन में

जून २००७ 
हमें स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाना है, जहाँ कोई भेद नहीं है, वहाँ अद्वैत है. स्थूल में भेद है, वहाँ सारे विकार हैं. सूक्ष्म निर्विकार है, वह सारे दुखों से परे है. उस सूक्ष्म को पाना हो तो पहले तन रूपी घट को तपना होगा, मन रूपी दूध को जमाना होगा तब आत्मा रूपी नवनीत प्रकट होगा. तन से निष्काम कर्म, मन से समता को जो साध ले वही आत्मा को जान सकता है. अहंकार ही हमें आत्मा से दूर रखता है. अहंकार भीतर के रस को सुखा देता है. मात्र बौद्धिक ज्ञान कब तक हृदय को हर-भरा रखेगा, उसे तो भक्ति का पावन जल चाहिए. आत्मा का आनंद भक्ति के सहारे मिल सकता है. जिसकी प्रज्ञा जगे तो विनम्रता आ ही जाती है.  

किससे नजर मिलाऊँ तुझे देखने के बाद

जून २००७ 
किससे नजर मिलाऊँ तुझे देखने के बाद” जिसे एक बार अपने भीतर उस आनंद की झलक मिल जाये, वह खुद को ही भूल जाता है, संसार की तो बात ही और है. कवि कहता है, “अपना पता न पाऊं तुझे देखने के बाद” और ऐसा मन स्वालम्बी होता है, वह एक का शैदाई होता है, उसे जो चाहिए उसके लिए वह अपने ही दिल का द्वार खटखटाता है, वह जो चाहता है वह भीतर ही मिल जाता है. वह अनुभव अनोखा है, वह इस ब्रह्मांड की सबसे कीमती शै है !


Wednesday, December 3, 2014

मुक्त हुआ जो द्वन्द्वों से

जून २००७ 
साधक को कभी भी संतोषी नहीं होना चाहिए. कभी-कभी ऐसा होता है जिस अनुभव को वह उच्च मानता है वह तो भूमिका से भी पूर्व की स्थिति होती है. भीतर इतने द्वंद्व होते हुए भी कोई स्वयं को ज्ञानी मानने की भूल कर सकता है. आनंद और शांति की प्राप्ति ही साधक का लक्ष्य नहीं है, बल्कि मन को सारे द्वन्द्वों से मुक्त करना है. मन, वाणी तथा कर्म से कोई ऐसा कृत्य न हो जिससे स्वयं को या किसी अन्य को रंचमात्र भी दुःख पहुँचे. करुणा, मुदिता, स्नेह तथा उपेक्षा इन चारों में से परिस्थिति के अनुसार किसी एक का प्रयोग करके हम मुक्त रह सकते हैं. अपने से श्रेष्ठ को देखकर मुदिता, हीन को देखकर करुणा, दुष्ट के प्रति उपेक्षा तथा समान के प्रति स्नेह, यही व्यवहार का आधार होना चाहिये. हरेक को यह जीवन एक महान लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मिला है, जब तक वह न मिले, एक क्षण के लिए भी प्रमादी नहीं होना है. दुःख हमें सजग करते हैं, आँखें खोलते हैं, हम दुखों का कारण खोजने पर विवश होते हैं तो अपने भीतर के विकारों को स्वच्छ करने की प्रेरणा मिलती है. हम न तो अहंकारी बनें न ही अन्याय के सामने झुकें. एक विनम्र प्रतिरोध की आवश्यकता है. प्रेम भरी दृढ़ता तथा सत्य के लिए कुछ भी सहने की क्षमता !


Tuesday, December 2, 2014

हर बाधा को पार करे मन

जून २००७ 
साधना के पथ पर आगे बढने में कुछ बाधायें हैं – व्याधि, आधि, प्रमाद, आलस्य, उत्साह हीनता, विषयों में रूचि, अनुभव में न टिक पाना, कर्मों का असर ! सबसे पहले तो मानव जन्म मिले, साधना में रूचि मिले, गुरू मिलें, अनुभव भी हों, साधना करने की सुविधा मिले, इसका शुक्रिया अदा करना चाहिए. जीवन साधना के पथ पर चलने के लिए ही है ऐसा दृढ निश्चय हो जाये. गुरू पर अगाध श्रद्धा हो और जीवन की कद्र हो. सच्ची संतुष्टि हो, सत्य के प्रति भक्ति हो जो तभी मिलेगी जब भीतर कोई कामना न हो, स्पर्धा न जगे, देने का भाव हो, न दे सके तो भी असंतोष न हो. जीवन में प्रमाद न हो. शरण में गये बिना  इससे छुटकारा नहीं. जप भी इन दोषों से मुक्त करा सकता है. मन में जप चलता रहे तो मन प्रमादी नहीं होगा. 

सच्चा मोती एक वही है

जून २००७ 
राम ब्रह्म हैं, वह मानव रूप लेकर धरती पर आते हैं. हर मानव ब्रह्म की शक्तियों को लेकर ही आता है, पर वे उसके भीतर निष्क्रिय पड़ी रह जाती हैं. हम सूक्ष्म की ओर चलें तो ये शक्तियाँ जागृत होने लगती हैं. जीवन में वरदान घटते हैं, प्रेम पहला वरदान है जो तब घटता है जब हमारा स्वयं से परिचय होता है, जो परिचय सद्गुरु कराते हैं. जब तक हम मन के किनारे पर बैठे रहते हैं तब तक स्वयं से परिचय नहीं होता, एक बार जब गहरी डुबकी लग जाती है तो आत्मा का मोती हाथ लगता है, जिससे ज्ञान, प्रेम औए आनंद का प्रकाश फूटता है. संस्कारों से मुक्ति मिलती है, मन पावन बनता है.


Sunday, November 30, 2014

नील गगन के पार चलें अब

जून २००७ 
जैसे ईश्वर सभी के हृदयों में निवास करता है वैसे ही प्रत्येक के अंतर में विश्वास भी होता है और संदेह भी. विश्वास बढ़ता रहे तो व्यक्ति भक्त हो जाता है, संदेह बढ़ता रहे तो जिज्ञासु हो जाता है. लेकिन जहाँ विश्वास न बढ़े तो अंधविश्वासी और संदेह न बढ़े तो अज्ञानी रह जाता है. भक्त और जिज्ञासु एक दिन स्वरूप में ही पहुंच जाते हैं. जब अपनी खबर मिलने लगती है तो परिवर्तन शुरू होने लगता है. भक्ति और ज्ञान दो पंख हैं जिनसे हम अनंत आकाश में उड़ सकते हैं. भक्ति जीवन का पंख है और ज्ञान मृत्यु का. मानव रूपी पक्षी को यदि नील गगन में उड़ान भरनी है तो जीवन के साथ मृत्यु का भी वरण करना होगा. दिन उजाला है तो मृत्यु रात्रि है, दिन के साथ रात न हो तो जीना कठिन हो जाये.

लहरों सा मन गिरता उठता

जून २०१४ 
‘मैं कुछ हूँ’ से ‘मैं हूँ’ तथा ‘मैं हूँ’ से ‘है’ तक की यात्रा ही अध्यात्म की यात्रा है. जब ‘है’ की अनुभूति होती है तो कोई भेद नहीं रहता. समाधि की अवस्था तभी मिलती है. मन जब अपने मूल स्वरूप में टिक जाये तत्क्षण समाधि घटती है. आत्मा शुद्ध चिन्मात्र सत्ता है, वह आकाशवत है. मन उसमें उठने वाला एक आभास ही तो है. मन को जब हम अलग सत्ता दे देते हैं तभी बंधते हैं. जहाँ द्वैत है वहाँ दुःख है. विचार भी उसी आत्मा की लहरें हैं जो आनन्दमयी है. भीतर उठने वाले सारे संशय, डर तथा भ्रम उसी आत्मा से ही तो उपजे हैं, वे दूसरे नहीं हैं, उनसे कैसा डर. विचार तो शून्य से उपजा है और शून्य में ही विलीन हो जाने वाला है. सागर क्या अपनी लहरों से डरेगा चाहे लहर कितनी भी बलशाली  क्यों न हो, आकाश क्या बादलों की गर्जन से डरेगा ?  आत्मा सागर की तरह गहरी और आकाश की तरह अनंत है, वह निर्मल है, वह जहाँ है वहाँ न कोई गुण है न दुर्गुण, वहाँ कुछ भी नहीं है, निर्दोष, अनछुई वह शुद्ध प्रकाश है. प्रकाश का कोई आकार नहीं, वह उससे भी सूक्ष्म है. 

Friday, November 28, 2014

जब टूटेगा सपना मन का


हम जीवन भर एक स्वप्न से दूसरे स्वप्न में ही तो प्रवेश करते रहे हैं ! हमारा जीवन अभ्यास और वैराग्य के बल पर ही इस चक्र से निकल सकता है. द्रष्टा में रहने का अभ्यास तथा संसार से वैराग्य, संसार जो पल-पल बदल रहा है, नाशवान है. हम जब संसार में ज्यादा उलझ जाते हैं तो स्वयं को भूल जाते हैं और भीतर की शांति और चैन से हाथ धो बैठते हैं. हमारे पास जो बहुमूल्य है वह है प्रेम, वही ईश्वर है, वही सत्य है, उसकी कीमत कुछ भी नहीं, वह तो बिन मोल मिलता है, बस दिशा बदलनी है, उसे खोजना नहीं है वह पहले से ही है केवल उसकी ओर देखना भर है. हम उतना सा भी कष्ट नहीं उठाना चाहते, हम सोचते हैं, जो मिला ही है उसकी क्या चिंता, थोडा संसार भर लें, पर यह भूल जाते हैं यह संसार आज तक किसी को नहीं मिला ! 


Thursday, November 27, 2014

चलो चलें अब निज देश में

मई २०१४ 
बोलते समय हमारी वाणी के साथ हमारे भीतर की तरंगे भी प्रभावित करती हैं, वाणी यदि मधुर होगी तो तरंगे प्रेम लेकर वाणी से पहले ही पहुंच जायेंगी और भीतर यदि कटुता है, खीझ है, क्रोध है, अहंकार है तो वाणी से पहले वही सब तरंगें लेकर जाएँगी, बात का असर नहीं होगा बल्कि हमारी बात अभी कही भी नहीं गयी उसके प्रति नकारात्मक भाव पहले ही जग उठा होगा. भीतर का वातावरण शांत हो, मधुर हो तभी तो तरंगे ऐसी होंगी और ऐसा तभी सम्भव हो सकता है जब हम भीतर उस जगह रहना सीखें जहाँ कोई विक्षेप नहीं है, जहाँ एक सी सौम्यता है, जहाँ न अतीत का दुःख है न भविष्य का डर, जहाँ निरंतर वर्तमान की सुखद वायु बहती है. मन से परे आत्मा के उस आंगन में हम अपना निवास बनाएं जहाँ प्रेम, आनंद, शान्ति के कुछ है ही नहीं. हम जब जरूरत हो तभी चित्त, बुद्धि, मन तथा अहंकार के क्षेत्र में जाएँ अपना काम करके तत्क्षण अपने घर में लौट आयें तब मन में उठे विचार भी शुद्ध होंगे, बुद्धि भी पावन होगी तथा स्मृतियाँ भी सुखद बनेंगी और शुद्ध अहंकार होगा. वाणी तथा कर्मों की शुद्धता अपने आप आने लगेगी, ऐसे में हमारी वह शक्ति जो अभी व्यर्थ चिन्तन, वाचन में चली जाती है बचेगी, ध्यान में लगेगी तथा लोकसंग्रह भी स्वतः ही होने लगेगा.

ध्यान सधे से सध जाये सब

मई २००७ 
चिदाकाश ही शून्य है, वहाँ प्रकाश भी नहीं है, रंग भी नहीं, ध्वनि भी नहीं, बल्कि इसे देखने वाला शुद्ध चैतन्य है जो आकाश की तरह अनंत है और मुक्त है. जो कुछ भी हम देखते या अनुभव करते हैं सब क्षणिक है नष्ट होने वाला है पर वह चेतना सदा एक सी है, अविनाशी है. मृत्यु के बाद भी उसका अनुभव होता है बल्कि कहें वही अनुभव करता है. जब तक हम उसे मन से पृथक नहीं देख पाते, मन के द्वारा वही सुख-दुःख भोगता है. अधिक से अधिक उसी में हमें टिकना है. आनंद स्वरूप उस चेतना में जितना-जितना हम रहना सीख जायेंगे, मृत्यु के क्षण में उतना ही हम शांत रहेंगे. आगे की यात्रा ठीक होगी. ध्यान में हम उसी में टिकते हैं या टिकने का प्रयास करते हैं. वहाँ कुछ भी नहीं है, न विचार, न द्रष्टा न दृश्य, न कोई संवेदना, केवल शुद्ध बोध !   

Tuesday, November 25, 2014

मुक्ति बिना यहाँ चैन नहीं

मई २००७ 
संत कहते हैं, चंड-मुंड, मधु-कैटभ तथा शुंभ-निशुंभ, रक्त बीज सब हमारे भीतर हैं. हृदय और मस्तिष्क ही चंड-मुंड हैं, अति भावुकता भी नहीं और अति बौद्धिकता भी नहीं, दोनों का संतुलित मेल ही हमारे जीवन को सुंदर बनाता है. राग-द्वेष ही मधु-कैटभ हैं और उनसे मुक्ति तब तक नहीं मिल सकती जब तक हमारी चेतना प्रेम में विश्राम न पा ले. जन्मों-जन्मों के संस्कार जो रक्त-बीज रूप में हमारे भीतर पड़े हैं, उनसे भी तभी मुक्त हुआ जा सकता है जब चेतना मुक्त हो. अभी तो तन, मन व चेतना तीनों एक-दूसरे से चिपके हुए हैं, एक को हर्ष हो तो दूसरा उसे अपनी पीड़ा मान लेता है, एक को हर्ष हो तो दूसरा उसे अपना हर्ष मान लेता है और होता यह है कि एक न एक को तो सुख-दुःख का अनुभव होता ही है, तो हर वक्त बेचारी चेतना बस परेशान, दुखी या ख़ुशी में फूली हुई रहती है, उसे कभी मन के साथ अतीत में जाकर पछताना पड़ता है तो कभी भविष्य में जाकर आशंकित होना पड़ता है, वह कभी चैन से रह ही नहीं पाती, नींद में भी मन उसे स्वप्न की झूठी दुनिया में ले जाता है. 

Friday, November 21, 2014

प्रेम बिना सब सूना सूना

मई २००७ 
हमारे भीतर प्रेम का अनंत खजाना है, करुणा का अथाह सागर है और सत्य तो हमारी आत्मा का स्वरूप ही है. हम इन्ही तत्वों से तो बने हैं, ये हमें कहीं से लाने नहीं, हमें इन्हें लुटाना है क्योंकि ये कभी खत्म न होने वाला भंडार है. हम देखेंगे जितना-जितना हम इसे बांटते हैं उतना-उतना यह भीतर से और स्रावित होता है. यही सेवा है. हम यदि आध्यात्मिक जीवन जीना चाहते हैं तो इस मार्ग के अलावा और कोई मार्ग नहीं. ज्ञान मुक्त करता है पर बिना प्रेम के वह मुक्ति अहंकार में बदल सकती है. ईश्वर के प्रति प्रेम हमें आनंद से भर देता है पर उस आनंद को जब हम भोगने लगते हैं तो फिर अटक जाते हैं, सेवा ही सच्चा मार्ग है, जिस पर हमें चलना है. 

Thursday, November 20, 2014

दर उसका है मंजिल जिसकी

मई-२००७  
ईश्वर विभु है और आत्मा अणु, दोनों एक ही तत्व से बने हैं. जिसे जीने की इच्छा हुई वह आत्मा जीव कहलायी तथा जिसे जीने की इच्छा नहीं है वही तो परमात्मा है. ‘वह है’ बस इसी तक हमें पहुंचना है अर्थात ‘मैं हूँ’ से ‘यह है’ तक का सफर ही साधना है. आत्मा का अनुभव पहले अपने भीतर होता है फिर उसी को सभी के भीतर हम देखते हैं. कृष्ण कहते हैं जो सबमें मुझे और मुझमें सबको देखता है वही वास्तव में देखता है. अहंकार की छुट्टी हो जाती है और हम उसके चंगुल से बच जाते हैं. अभी तक तो हम अपने कर्मों के द्वारा भटकाए जाते रहे हैं पर ईश्वर के द्वार पर आकर यह भटकन समाप्त हो जाती है. 


Tuesday, November 18, 2014

स्वयं ही स्वयं को तार सकेगा

मई २००७ 
इस जगत में हम जो भी करेंगे वह अंततः अपने ही साथ करते हैं, यह जगत एक प्रतिध्वनि है. उदास होकर जगत को देखो तो जगत भी उदास होकर देखता है. हम सोचते हैं क्रोध हम दूसरों पर कर रहे हैं, तो प्रार्थना करके मन को शांत कर लेते हैं. बुद्ध कह रहे हैं, कृत्य हमारा है, देर-सबेर लौटेगा, वर्धन छोटा-बड़ा हो सकता है पर लौटेगा जरूर. स्वयं से उपजा कोई भी विकार स्वयं को वैसे ही नष्ट कर देता है जैसे लोहे पर लगा जंग लोहे को. किसी भी कारण से जब दुःख आये तो उसे एकांत में झेल लेना ही उचित है, तो ही हम उस दुःख से निखर कर वापस आयेंगे, अन्यों को दोषी मानकर प्रतिकार करने वाला एक चक्र में फंस जाता है. जो कांटे हमने जन्मों-जन्मों में बोये हैं उनसे बच नहीं सकते, जगत तो उसे लाने में निमित्त भर बनता है.


Monday, November 17, 2014

भावना हो शुद्ध अपनी

मई २००७ 
संत कहते हैं, मृत्यु से हमें भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है, हम तो हर पल उसकी ओर कदम दर कदम चल ही रहे हैं. हर श्वास जो बाहर जाती है, वह छोटी मृत्यु ही है. एक नियम के अनुसार हमारी मृत्यु होनी ही है, जो अवश्यम्भावी है उससे डरना व्यर्थ है. हमारे भीतर गुप्तचित्र है, जिसके आधार पर हमारा अगला जन्म होता है. इस प्रकृति में सभी कुछ स्वभाव से हो रहा है, पर अहंकार यह मानता है कि वह कर्ता है, यही कर्म बाँधता है. जो कर्म हम वर्तमान में बांधते हैं वह भविष्य में फल रूप में सामने आते हैं. मन, वचन, काया की जो भी क्रिया हम करते हैं वह सभी पूर्व के कर्मों के फलस्वरूप ही मिले हैं. सजग रहकर हम कर्म करने में बदलाव ला सकते हैं, हम इस जीवन में क्षण-प्रतिक्षण जैसा भाव बनाते हैं वही बंधता है, यदि भाव शुद्ध हो तो कर्म नहीं बँधते और हम मुक्ति की तरफ ही बढ़ते जाते हैं.


Sunday, November 16, 2014

कहत कबीर सुनो भई साधो

अप्रैल २००७ 
सद्गुरू हमें वाणी के द्वारा ज्ञान देते हैं, सही-सोच बनाने में सहायता करते हैं. एक साधक को चेतना के विकास के लिए श्रवण करना चाहिए. शास्त्रों को सुनने से जीवन में सुखद परिवर्तन आता है. अच्छा सुनना साधना की पहली सीढ़ी है. नितांत एकांत में भी हम सुनते हैं, प्रकृति से भी हम सुनते हैं. भद्र सुनने से हम भद्रता को संग्रहित करते हैं, अपने को सही रखना सीखते हैं. निर्विषयता, निर्विकारता तभी आती है, भ्रम और भय से मुक्ति मिलती है, जब हम सही सुनते हैं. जीवन में रस तभी आता है, उत्साह आता है, हमारा चिन्तन सकारात्मक होता है, मोह नष्ट होता है और अपने स्वरूप की झलक मिलती है, बोध जगता है. वाणी भगवान का बीज है, जो समय आने पर भक्ति का वृक्ष बनता है. जिसमें प्रेम के सुंदर फल लगते हैं, उन फलों में सेवा की मिठास होती है. चेतना को संकीर्णता से ऊपर उठाकर परमात्मा के निकट ले जाना सीखते हैं जो उस पर कृपा का जल बरसाते हैं, ज्ञान की खाद देते हैं और हृदय सुंदर भावनाओं का उपवन बन जाता है, वहाँ जाकर मन को विश्राम मिलता है, बुद्धि भी वहाँ शांत होकर सजगता को प्राप्त होती है.


मैं हूँ मंजिल...मैं ही मुसाफिर

अप्रैल २००७ 
सद्गुरु कहते हैं, मैं हूँ मंजिल, मैं ही सफर भी... मैं ही मुसाफिर हूँ..अर्थात हमारा मन व बुद्धि भी उसी आत्मा से निकले हैं, यानि वही हैं, तो जिसे आत्मा तक पहुंचना है वह मन रूपी यात्री भी आत्मा ही है और जिस साधन से वहाँ पहुंचता है वह भी तो उसी एक से ही निकला है. तो सफर भी वही है और लक्ष्य तो वह है ही, कितना सरल व सहज है अध्यात्म का रास्ता न जाने कितना पेचीदा बना दिया है इसे लोगों ने. सीधी सच्ची बात है कि हमारा मन जब अपना स्वार्थ साधना चाहता है, अपनी ख़ुशी चाहता है तो यह आत्मा से दूसरा हो जाता है और जब अपनी नहीं बल्कि समष्टि की ख़ुशी चाहता है, यह जान जाता है कि जगत एक दर्पण है, यहाँ जो हम करते हैं वही प्रतिबिम्बित होकर हमारे पास आता है तो यह खुशियाँ देना प्रारम्भ करता है, जिससे लौटकर वही इसके हिस्से में आती हैं. अहंकार को पोषने से सिवाय दुःख के कुछ हाथ नहीं आता क्योंकि अहंकार हमें अन्यों से पृथक करता है जबकि हम सभी एक ही विशाल सृष्टि के अंग हैं, एक-दूसरे पर आश्रित हैं, स्वतंत्र सत्ता का भ्रम पालने के कारण ही सुख-दुखी होते हैं, हम ससीम मन नहीं असीम आत्मा हैं !


Saturday, November 15, 2014

प्रेम गली अति सांकरी

अप्रैल २००७ 
संत कहते हैं हम लाख चाहें, शब्दों से अपनी बात समझा नहीं सकते, जो काम मौन कर देता है वह शब्द नहीं कर पाते. हम अपने व्यवहार से, भीतर छिपी करुणा से किसी हद तक अपने विरोधी को भी प्रभावित कर सकते हैं. भीतर जो प्रतीक्षा है उसी में सारा रहस्य छिपा है. आतुरता, प्यास यही साधना की पहली शर्त है. ज्ञान को जितना भी पढ़ें, सुनें, गुनें, तृप्ति नहीं मिलती. वह परमात्मा कितना ही मिल जाये ऐसा लगे कि मिल तो गया है फिर भी मिलन की आस जगी रहती है. प्रेम में संयोग और वियोग साथ-साथ चलते हैं. इसलिए भक्त कभी हँसता है कभी रोता है, वह ईश्वर को अभिन्न महसूस करता है पर तृप्त नहीं होता, फिर उसे सामने बिठाकर पूछता है, पर दो के बीच की दूरी भी उसे सहन नहीं होती. वह स्वयं मिट जाता है केवल ईश्वर ही रह जाता है. ज्ञानी भी एक है, और कर्मयोगी के लिए यह सारा जगत उसी एक का स्वरूप है. एक का अनुभव ही अध्यात्म की पराकाष्ठा है.

Thursday, November 13, 2014

तेरा मुझसे है पहले का नाता कोई

अप्रैल २००७ 
जिस तरह मिट्टी अग्नि में तपकर प्याला बन जाती है और उपयोग में आती है, वैसे ही हमारा यह माटी का तन जब ईश्वर की लगन रूपी लौ में तप जाता है तब यह उसके हाथों का उपकरण बन जाता है और काम में आता है. ईश्वर की लगन भी क्रमशः तीव्रतर होती जाती है, पहले राख में छिपी अंगारे की तरह जो ऊपर से दिखायी भी नहीं देती, हमारे भीतर छिपी रहती है, फिर तपते हुए लाल अंगारे की तरह जो प्रकाश भी देता है व ताप भी, फिर गैस की नीली लपट की तरह और फिर माइक्रोवेव ओवन की तरह जो नजर भी नहीं आती बस चुपचाप अपना काम करती रहती है. ज्ञान पा लिया है साधक को यह अहंकार भी छोड़ना होगा पर नहीं मिला है, सदा यह संदेह भी नहीं रखना है. मध्यम मार्ग पर चलना श्रेष्ठ है. आत्मा का परमात्मा से नित्य का संबंध है, हमें बनाना नहीं है, हम स्वयं आत्मा हैं यह बात जितनी भीतर दृढ़ हो जाएगी तो उतना ही हम परमात्मा से अभिन्नता अनुभव कर सकेंगे, और तब शेष ही क्या रहा ?


Wednesday, November 12, 2014

कोई नहीं वहाँ रहता अब

अप्रैल २००७ 
साधक का मन जब ख़ाली हो जाता है, कोई वस्तु नहीं मांगता, कुछ नहीं चाहता, जैसे यह है ही नहीं ! कुछ छूट भी  जाये तो भीतर एक कतरा भी न हिलता, कुछ हो तभी न हिलेगा, मन की गहराई में कुछ भी नहीं है वहाँ सब कुछ अचल है वहाँ कोई हलचल नहीं... वहां से केवल एक पुकार आती है कि कैसे इस जगत को कुछ दे दें, देने की बात ही अब प्रमुख है. प्रभु भी तो हर पल दे ही रहा है. अपना प्रेम, करुणा, और कृपा..सद्गुरु भी यही कर रहे हैं. साधक उनके जैसे बनने का प्रयत्न तो कर ही सकता है ! वह दे और बस ! एक क्षण भी वहाँ रुके नहीं, उस लेने वाले का आभार लेने के लिए बल्कि उसका आभारी हो कि वह वहाँ है ताकि उसके भीतर प्रेम जगे... न जाने कितने जन्मों से वह लेता आया है..अब और नहीं !


Sunday, November 9, 2014

शरण गये सो तृप्त भये

अप्रैल २००७ 
धर्म को यदि धारण नहीं किया तो व्यर्थ है, नहीं तो हमारी हालत भी दुर्योधन की तरह हो जाएगी, जो कहता है मैं धर्म जानता हूँ पर उसकी ओर प्रवृत्ति नहीं होती और अधर्म जानता हूँ पर उससे निवृत्ति नहीं होती. जितनी हम उठा सकें उतनी जिम्मेदारी हमें उठानी ही चाहिए. जैसे-जैसे हम किसी काम को करने का बीड़ा उठाते हैं वैसे-वैसे हममें और शक्ति भरती जाती है ! हम स्वयं ही अपनी शक्ति पर संदेह करते हैं और फिर आत्मग्लानि से भर जाते हैं. वास्तव में सारे गुण हमारे भीतर ही हैं, यह मानकर चलना है. अवगुण तो एक आवरण की तरह ऊपर-ऊपर ही हैं. यदि हम शरण में जाते हैं तो ईश्वर की पवित्रता हमारे सारे दोषों को दूर करने में सहायक होती है. वह पावन है और उसकी निकटता में हम भी पावन हो जाते हैं. जो शक्ति उससे मिलती है वह सृष्टि के हित में लगने लगती है, क्योंकि हम स्वयं तो तृप्त हो जाते हैं, जो एक बार सच्चे हृदय से शरण में गया वह तृप्त ही है !


Saturday, November 8, 2014

वर्तमान का पल ही अपना

अप्रैल २००७ 
कभी-कभी साधक को लगता है जैसे कुछ छूटा जा रहा है, लेकिन वह क्या है उस पर ऊँगली रखना कठिन है. भीतर एक बेचैनी सी होती है, मगर इतनी तीव्र भी नहीं, बस मीठी-मीठी आँच सी बेचैनी. उसे लगता है ईश्वर ने उसे इतना ज्ञान, इतना प्रेम और इतना समय दिया है उसका लाभ जग को नहीं मिल रहा है, वह तो हर पल सौ प्रतिशत लाभ में ही है. उसे ज्ञात हो गया है कि भुक्ति, मुक्ति और भक्ति ये तीन पदार्थ हैं, जिनमें से किसी को भी पाना है तो हमें वर्तमान में जीना शुरू कर देना चाहिए. जो भी घटित होता है वह वर्तमान में ही होता है. भूत हो चुका, भविष्य अभी हुआ नहीं. भूत में चिंता है, भविष्य में डर है, आनंद वर्तमान में ही है.

Tuesday, November 4, 2014

बन जाये मन अपना राधा

अप्रैल २००७ 
कृष्ण हमारी आत्मा है, मन की भीतर लौटती हुई धारा ही राधा है. जैसे-जैसे मन भीतर जाता है उसे आत्मा से प्रेम हो जाता है. उसे प्रेम रोग लग जाता है. “दिल हमको लुटा बैठा, हम दिल को लुटा बैठे, क्या रोग लगा बैठे...” जिसके रोम-रोम में प्रेम का रोग लगा है वह है भक्त. दोनों का मिलन ही विश्राम को प्रकट करता है. वास्तव में हमारा मन, बुद्धि समाधान चाहते हैं, जगत उसे समाधान दे नहीं सकता, परमात्मा ही दे सकता है, जो आत्मा रूप में हमारे भीतर है. संसार में उलझा हुआ मन अपने पद से नीचे गिर जाता है, शहजादे से भिखारी बन जाता है. वह जो आत्मा की तरंग है उसी की जाति का है उसी को भुलाकर विजातीय से प्रेम करने लगता है, पर खुद से मिलने की जब याद आती है तो भीतर मिलने की तड़प जगती है और मन भीतर लौटने लगता है.  

Monday, November 3, 2014

सहज मिले सो मीठा होए

अप्रैल २००७ 
अनात्मा से सुख लेने की चेष्टा यदि होती है, कुछ करने की इच्छा यदि अभी भी भीतर है, कुछ करके मान पाने इच्छा ! तो अभी पूर्ण शरणागति नहीं हुई है. आत्मा बलवती होती है जब हम उससे जुड़ते हैं. जब हम अकर्ता भाव में आ जाते हैं तो जो कुछ भी होता है वह सहज भाव से होता है. प्रत्यक्ष ज्ञान होने पर स्वयं को आत्मा रूप के अनुभव में सहजता ही सबसे बड़ा लक्ष्ण है. हम जितना सहज होकर जीते हैं सभी के साथ आत्मभाव में रहते हैं. जड़-चेतन दोनों के प्रति सहज प्रेम का अनुभव करते हैं. जो हम नहीं है वह कहना या मानना ही अहंकार है. यदि हम अभी भी स्वयं को शरीर, मन, बुद्धि मानते हैं, औरों के दोष हम तभी देख पाते हैं. दूसरों के दोष देखने से हम कर्म बांधते हैं. खुद के दोष प्रज्ञा दिखाती है, और इन्हें देखने से हम कर्मों से छूटते  जाते हैं ! 

Friday, October 31, 2014

नष्टो मोहा स्मृति लब्ध्वा...

अप्रैल २००७ 
यह जीवन क्या है ? सन्त कहते हैं इसका राज जानना है तो खाली होना है. तथाकथित ज्ञान से खाली होना है. बुद्धि के छोर पर जीने वाला हृदय से दूर ही रह जाता है. हृदय के द्वार पर जाने वाला कभी प्रेम से दूर नहीं रहता. प्रेम तभी आता है जब ज्ञान शून्य हो जाते हैं. प्रेम में दो और दो चार नहीं होते. ज्ञान की चरम स्थिति है ज्ञान से मुक्ति ! यह जीवन हमें इसलिए मिला है ताकि हम आत्मा के गुणों को जगत में प्रकाशित कर सकें. जीवन सतत साधना है. हम जीवित हैं क्योंकि आत्मा चैतन्य है, परमात्मा का अंश है. उसका स्वभाव ही जीवित रहना है. वह चेतन है, मरना उसका स्वभाव ही नहीं. अग्नि जैसे अग्नि है, गर्म है. आत्मा वैसे जीवित है. सुना हुआ ज्ञान मन में पूर्ण रूप से समा जाये यही उसकी सार्थकता है. सत्संग में ही इतना उच्च ज्ञान सुनने को मिलता है. बुद्धि के बल पर अर्जित किया गया ज्ञान संसार में सफलता दिला सकता है पर तृप्ति तो वही ज्ञान दे सकता है जो भीतर से उपजा है. वही आत्मा के द्वार पर ले जाने वाला है. यदि हम शाश्वत हैं, नित्य हैं, चेतन है तो हमें  दुःख क्यों होता है, जब हम अपने इस स्वभाव को भुला देते हैं तभी न ! 

भीतर झरना प्रेम का

अप्रैल २००७ 
प्रकृति और पुरुष ये दो तत्व हैं. आत्मा यानि पुरुष और देह, मन, बुद्धि, चित, अहंकार ये सब प्रकृति है. क्रोध, लोभ, मोह, मद, मान आदि सूक्ष्मतर प्रकृति है. माया हमें प्रकृति में ही घुमाती रहती है, आत्मा से मिलने की फुर्सत ही नहीं देती. जीवन में यदि विश्राम आ जाये तो माया को पार करने का उपाय आ जाता है. विश्राम आता है निष्काम होने में. सहज, स्वाभाविक आत्मनिवेदन के बाद ही निष्कामता आती है. अपने गुण तथा अवगुण दोनों को समर्पित करके स्वय खाली हो जाना ही आत्मनिवेदन है. जितना-जितना हम भीतर से खाली होते जाते हैं उतने-उतने अहंकार से मुक्त होते जाते हैं. माया तभी तक वार करती है जब तक अहम है, हम जब तक हम हैं. जब कुछ भी नहीं बचा तो केवल आत्मा ही रह जाती है जो स्वयं शून्य है. वह अनंत है, सत्य है, प्रेम है, शांति है. उसी आत्मा को जो सर्वगुण सम्पन्न है, कृष्ण का नाम दे दिया गया. जिसका रूप अनुपम है, मधुर है वह कृष्ण आत्मा रूप में हरेक के हृदय में विराजमान है. वही इस सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है, वही वेदान्तियों का ब्रह्म है तथा उसी की शक्ति यह प्रकृति है. 

Wednesday, October 29, 2014

बलिहारी गुरू आपने

अप्रैल २००७ 
सद्गुरु में ज्ञान की सुगंध होती है जो हमें अपनी ओर खींचती है. उसमें प्रेम की आध्यात्मिक सुरभि होती है जो हमें आकर्षित करती है. एक पवित्र गंध ईश्वर की याद का साधन होती है. जो रब की याद दिलाये उसका विश्वास कराए, जिसे देखकर सिर अपने आप झुक जाये. वही तो सद्गुरु होता है. सद्गुरु हमें अनंत की ओर ले जाता है, वह सारी सीमाएं तोड़कर असीम को जानने का, उसे पाने का निमन्त्रण देता है ! तन पवित्र हो, स्वच्छ हो, स्वस्थ हो, मन निर्द्वन्द्व  हो, निर्भार हो तभी आत्मा अपने पूर्ण रूप में भीतर प्रकट होती है. आत्मा का स्वभाव है आनंद, प्रसन्नता और प्रेम ! वह शांति की सुगंध समोए है जो रह रहकर रिसती है, पर जब न तो तन के स्वास्थ्य का ध्यान हो न मन सजदे में झुका हो तो आत्मा भीतर कैद ही रह जाती है और हम जीवन भर दुर्गन्ध का शिकार होते रहते हैं. ईर्ष्या से जलता हुआ, क्रोध और अहंकार से ग्रसित मन सिवाय दुर्गन्ध के क्या दे सकता है, भीतर यदि प्रेम होगा तो वह प्रकटे बिना रह ही सकता.. कितना सरल है और कितना सहज है उस प्रेम को पाना जो हमारा निज का स्वभाव है. 

Tuesday, October 28, 2014

बुरा जो देखन मैं चला

अप्रैल २००७
संत कहते हैं यह जग कितना सुंदर है ! हमें यदि यह सुंदर नहीं लगता तो हमारी नजर में ही दोष है. हम अन्यों में दोष देखना जब तक बंद नहीं करते, जगत हमें असुन्दर ही लगेगा. ज्ञानी सभी को शुद्ध आत्मा ही देखते हैं, तो कमियां अपने आप छिटक जाती हैं. हम जब कमियां देखते हैं तो हमारे मन में भी उस कमी का भाव दृढ हो जाता है. हम न चाहते हुए भी उनके साथ तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं. यह जगत जैसा है, वैसा है हमें चाहिए कि हो सके तो किसी की सहायता कर दें, न हो सके तो अपने हृदय को खाली रखें, उनमें संसार की कमियां तो न ही भरें. इस नाशवान स्वप्नवत् संसार के पीछे छिपे तत्व को पहचानें और उसी पर अपनी नजर रखें. 

Monday, October 27, 2014

बल, बुद्धि, विद्या देहूं


हम हनुमान जी से बल, बुद्धि व विद्या का वर मांगते हैं किन्तु यदि बुद्धि में धैर्य न हो, बल के साथ विवेक न हो और विद्या में नम्रता न हो तो यही वरदान शाप भी बन सकते हैं. मन तो शिशु के समान है और बुद्धि उसकी बड़ी बहन, पर दोनों का आधार तो आत्मा है. आत्मा यदि स्वस्थ हो, सबल हो, सजग हो तो अधैर्य, अविवेक और उद्दंडता के साथ तादात्म्य नहीं करेगी. वह अपनी गरिमा में रहेगी. 

Sunday, October 26, 2014

मन पर न छा जाये बदली


संत कहते हैं, साधक को आत्मालोचन करना है, शास्त्रों के सिद्धांत को उसे व्यवहार में लाना है. अहिंसा को मनसा, वाचा, कर्मणा में अपनाना है. उसे संग्रह की भी एक सीमा बाँधनी है. उसे अपनी शक्तियों को पहचानना ही नहीं उन्हें व्यर्थ जाने से भी रोकना है. जब मन पल भर के लिए भी प्रमादी होता है तो उस शक्ति से वंचित हो जाता है और जब हम इस शक्ति पर कोई ध्यान नहीं देते तो देखते हैं, भीतर एक रिक्तता भर गयी है. चेतना का सूर्य जगमगाता रहे इसके लिए प्रमाद के बादलों को बढ़ने से रोकना होगा. तंद्रा के धूँए से बचना होगा. हमारा जीवन थोड़ा सा ही शेष बचा है. हर व्यक्ति जन्मते ही मृत्यु का परवाना साथ लेकर आता है. कुछ वर्षों का उसका जीवन यदि किसी अच्छे कार्य में लगता है तो ईश्वर के प्रति उसकी धन्यता प्रकट होती है. संतजन कितनी सुंदर राह पर चलने को प्रेरित करते हैं. हम भटक न जाएँ इसलिए वे भीतर से कचोटते भी रहते हैं. कई बार हम मंजिल के करीब आ-आकर फिर भटक जाते हैं. 

Wednesday, October 22, 2014

जाग गया जब कोई भीतर

मार्च २००७ 
उपवास का अर्थ है निकट बैठना, उसके निकट जो भीतर है, प्रकाश, पावनता, सत्य और दिव्यता का जो स्रोत है. यानि हमारी आत्मा ! उसके पार ही तो परमात्मा है. मानव होने का जो सर्वोत्तम लाभ है वह यही कि वह स्वयं को जाने, जिसे जानने के बाद यह सारा जगत होते हुए भी नहीं रहता. साधक सभी कुछ करता है पर भीतर से बिलकुल अछूता रहते हुए. सब नाटक सा लगता है, कुछ भी असर नहीं करता. वह इन छोटी-छोटी बातों से ऊपर उठ जाता है. जीना तब सहज होता है, कोई अपेक्षा नहीं, कुछ पाना नहीं, कुछ जानना भी नहीं. कहीं जाना भी नहीं, कहीं से आना भी नहीं. खेल करना है बस. जगना, सोना, खाना, पीना सब कुछ खेल ही हो जाता है. परमात्मा जो कभी दूर-दूर लगता था अपने सबसे करीब हो जाता है. वही अब खुद की याद दिलाता है. जो जन्मों से सोया हुआ था वह जाग जाता है. शास्त्र घटित होते हुए लगते हैं, उनकी बातें अक्षरशः सही लगती हैं. ऐसी मस्ती और तृप्ति में कोई नाचता है तो कोई हँसता है, कोई मुस्कुराता भर है !

Tuesday, October 21, 2014

निज घर में ही वह रहता है

मार्च २००७ 
सत्य के मार्ग पर चलने से पहले हमें सत्य के प्रति प्रेम जगाना है, उसकी प्यास जगानी है ! उसकी चाह जिसके भीतर जग जाती है वह तो इस अनोखी यात्रा पर निकल ही पड़ता है, और एक बार जब हम उस अज्ञात पर पूर्ण विश्वास करके उसे सबकुछ सौंप कर आगे बढ़ते हैं तो वह हमारा हाथ ऐसे थाम लेता है जैसे वह हमारी ही प्रतीक्षा कर रहा था. वह हमें अपने भीतर की ऊर्जा को जगाने का बल देता है राह बताता है जब अपने पथ से दूर होने लगे तो पुनः लौटा लाता है. वह हजार आँखों वाला, हजार बाहुओं वाला और सब कुछ जानने वाला है. हम उसकी तरफ चलते-चलते अपने घर लौट आते हैं तब ही पूर्ण विश्रांति का अनुभव करते हैं. 

Monday, October 20, 2014

भक्ति अति निराली घटना

मार्च २००७ 
परम सत्य की प्राप्ति का कोई भी मार्ग हो तो उसका अंत भक्ति में ही होता है, अर्थात ज्ञान का फल भी भक्ति है और कर्मयोग का फल भी भक्ति ही है. भक्ति स्वयं ही साधन है और स्वयं ही साध्य भी. भक्ति का अर्थ है सत्य से प्रेम...परम से प्रेम ! विष्णु की भक्ति करें या राम की, शंकर की अथवा कृष्ण की, सभी एक को ही पहुँचती है. यदि कोई अनपढ़ हो, शास्त्र न पढ़ सकता हो या समझ सकता हो, स्तुति न गा सकता हो, वह एक बात तो कर ही सकता है. वह ईश्वर से प्रेम कर सकता है. उसके किसी भी नाम को भज सकता है. उसको स्मरण कर सकता है. उसका प्रेम ही उसको तार देगा.  

Friday, October 17, 2014

खिला खिला हो मन का उपवन


हमारे मन में न जाने कितने-कितने जन्मों की कामनाओं के संस्कार पड़े हुए हैं और उसी तरह न जाने कितने सद्गुण, खजाने स्नेह भाव भी पड़े हैं. यह बीज समुचित वातावरण पाते ही अंकुरित हो जाते हैं. हम जो भी पढ़ते-सुनते हैं या जिन व्यक्तियों के संपर्क में आते हैं, जिस प्रकार का भोजन ग्रहण करते हैं, उस स्थान, व्यक्ति या भोजन की प्रकृति हमें अवश्य प्रभावित करती है. संग का मानसिक उन्नति पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है. हमें जो चाहिए उसी के अनुकूल खाद व पानी दें तो मन का उपवन व्यर्थ के खर-पतवार तथा जंगली काँटों से मुक्त रहेगा. ईश्वर प्रकट हो सकेगा. अच्छाई और बुराई के बीच का महाभारत हर एक को अपने भीतर लड़ना है. यदि ईश्वर की निकटता का अनुभव करना, इस सृष्टि के रहस्य पर से पर्दा उठाना यदि जीवन का लक्ष्य नहीं तो मानव जीवन की सार्थकता ही नहीं रह जाती. इससे छोटे लक्ष्य तो हमें विपरीत दिशा में ले जाते हैं.   

Thursday, October 16, 2014

सुख दुःख दोनों मन की रचना

मार्च २०१४ 
कौन यहाँ आंसू पोंछेगा, हर दामन भीगा लगता है” इस जगत से हम उम्मीद रखें कि हमारे दुःख को मिटाएगा तो यह वैसे ही होगा जैसे बालू से तेल निकालना, क्योंकि दुःख जगत ने हमें दिया ही नहीं है यह हमारी ही अज्ञानता से उत्पन्न हुआ है. इसी तरह सुख भी जो बाहर से मिलता हुआ प्रतीत होता है वास्तव में हमने ही उसे उत्पन्न किया है. जब हम इस बात को  स्वीकारते हैं तब जगत से सुख पाने की दौड़ समाप्त हो जाती है, बल्कि तब तो दुःख भी नहीं रहता. दुःख तभी तक है जब तक हम अहंकार से ग्रसित हैं. अहंकार का भोजन है दुःख. तभी तक है जब तक जो अपना नहीं है हम उसे अपना मानते हैं, यही मोह है, अज्ञान ही मोह का कारण है.

Tuesday, October 14, 2014

समाधान मिलता है भीतर

मार्च २००७ 
जो हमारा आज का विचार है, वही भविष्य की क्रिया है. विश्व क्रांति से अधिक हमें वैचारिक क्रांति की आवश्यकता है. वैचारिक परिवर्तन हमें अंतर्मुख होना सिखाता है, जिससे हम भीतर से मार्गदर्शन पाने लगते हैं. ध्यान से भीतर जो शक्ति उत्पन्न होती है वह स्वतः ही शुभता में ले जाती है. लोकसंग्रह के लिए तब कोई प्रयास नहीं करना पड़ता. ऊपरी सुन्दरता के दायरे से निकल कर जो विचार की सुन्दरता में प्रवेश करता है वह मानो अपने भाग्य का निर्माता बन जाता है. वह स्वमान में रहने लगता है और दूसरों का सम्मान करना सीखता है. स्वमान का अर्थ है अपने भीतर छिपे आत्मा के अमूल्य गुणों पर भरोसा. पवित्रता, प्रेम, सरलता, करुणा तथा सत्यता हमारे भीतर ही हैं, इसका प्रत्यक्ष अनुभव होने पर ही यह भरोसा उत्पन्न होता है.

Monday, October 13, 2014

जिन डूबा तिन पाइयां

मार्च २०१४ 
हमारे चारों ओर धूप है, प्रकाश है, हवा है, आकाश है...हम डूब सकते हैं इन नेमतों के सागर में. सत्य की महक ने हमें निमन्त्रण दिया है. परमात्मा ने इस जगत को आनन्द के लिए ही बनाया है, हम आनन्द की तलाश में निकलते जरूर हैं पर रास्ते में ही भटक जाते हैं. एक शिशु अपनी मस्ती में नाचता है, गाता है, खेलता है वह आनन्द की ही चाह है. आनन्द बिखेरो तो और आनन्द मिलता है जैसे प्रकाश फैलाओ तो बढ़ता है. वही बच्चा जब धीरे धीरे बड़ा होने लगता है सहजता खोने लगता है, और तब अपने भीतर का द्वार भी भूलने लगता है. कभी शरम, डर या क्रोध और कभी शिष्टाचार की दीवार उसे भीतर जाने से रोकती है और वह ख़ुशी के लिए बाहरी वस्तुओं पर निर्भर होने लगता है. वस्तुओं का जो ढेर उसके आस-पास बढ़ता जाता है उसके भीतर भी एकत्र होने लगता है. साधक उस ढेर को समर्पित करके खाली हो जाता है और परमात्मा का रस बरस जाता है. 

Friday, September 26, 2014

शुभकामनायें

प्रिय ब्लॉगर मित्रों,
आने वाले सभी पर्वों के लिए शुभकामना के साथ अगले दस-बारह दिनों के लिए विदा. आज ही हम बंगलुरु तथा कुर्ग की यात्रा पर जा रहे हैं. आशा है आप सभी के जीवन में विजयादशमी का उत्सव नई विजय की सूचना लेकर आएगा. परमात्मा हर क्षण हम सभी के साथ है.

अनिता 

हाथ बढ़ाकर ले लें उसको

मार्च २००७ 
सन्त कहते हैं, हमें क्रियाशीलता में मौन ढूँढना है और मौन में क्रिया ! हमें निर्दोषता में बुद्धि की पराकाष्ठता तक पहुंचना है और बुद्धि को भोलेपन में बदलना है. हम सहज हों पर भीतर ज्ञान से भरे हों. ज्ञान कहीं अहंकार से न भर दे. ऐसा ज्ञान जो हमें सहज बनाता है, जो बताता है कि ऐसा बहुत कुछ है जो हम नहीं जानते, बल्कि हम कुछ भी नहीं जानते, ऐसा ज्ञान हमें मुक्त कर देता है. ऐसा ज्ञान जो हमारी बेहोशी को तोड़ दे, हमारी बेहोशी जाने कितनी गहरी है पर जैसे एक दिया हजारों साल के अंधकार को पल भर में दूर कर देता है ऐसे ही गुरु के ज्ञान का दीया अपने आलोक से हमें प्रकाशित करता है. वे कहते हैं परमात्मा का प्रेम हमें सहज ही प्राप्त है. हाथ बढ़ाकर बस उसे स्वीकारें, कोई पदार्थ या क्रिया उसे हमें नहीं दिला सकती. वह अनमोल प्रेम तो बस गुरु कृपा से ही मिलता है. उनकी चेतना शुद्ध हो चुकी है, वह परमात्मा से जुड़े हैं और बाँट रहे हैं.. दिनरात.. प्रेम का प्रसाद !

Thursday, September 25, 2014

खोकर उसको ही पाना है


परमात्मा को पाकर हमें आनंद मिलता है, यह नया आनन्द है पर इस पर रुकना नहीं है. हमें आगे जाना है जहाँ आनन्द का सागर है. परमात्मा हीरा है, उसे केवल आनन्द का स्रोत समझा तो हम वहीं रुक जायेंगे. इस आनन्द को अपना आधार बनाकर आगे बढना है. इसे असीम तक ले जाना है. वही तो हमारा स्वभाव है. जैसे ही हमारी दुःख की पकड़ छूटी, भीतर सुख का झरना बहने लगता है. ध्यान से दुःख की चट्टान हट जाती है और हम अपने स्वाभाविक रूप को पा लेते हैं, आनन्द हमारा स्वभाव है तो परमात्मा हमारा स्वभाव है ! उसकी झलक तो कई  बार अनायास ही मिलती है क्योंकि वह भी तो हमें ढूँढ़ रहा है. कभी-कभी वह हमें पकड़ लेता है, आविष्ट कर लेता है. पर हमारे मन में कोई कोना ऐसा नहीं है जहाँ वह टिक सके, हम उसे आया हुआ नहीं देख पाते. हम कई बात ठिठके हैं, पर उसकी व्याख्या करके बात को टाल देते हैं, जब हम जागेंगे तभी जानेंगे कि परमात्मा तो सदा हमें मिलता रहा है जब पूर्ण हो जायेंगे तो पुरानी स्मृतियाँ भी ताजी हो जाएँगी कि उसको पाने से पहले कई बार पाकर खो चुके हैं. 

Tuesday, September 23, 2014

पग घुंघरू बाँध मीरा नाची रे


आनंद पर श्रद्धा हो सके तो भीतर आनंद की लहर दौड़ जाती है. भीतर अनाहत नाद गूँजने लगता है, बिना घुंघरू के छमछम होती है ! जैसे मीरा के पैरों में घुंघरू बंधे थे वैसे ही उसके दिल के भीतर भी बजे थे, बल्कि वे घुंघरू तो दिन-रात बज ही रहे हैं. भीतर एक ऐसी दुनिया है जहाँ आनन्द ही आनंद है, हमें उस पर श्रद्धा ही नहीं होती, आश्चर्य की बात है कि इतने संतों और सद्गुरुओं को देखकर भी नहीं होती. कोई-कोई ही उसकी तलाश में भीतर जाता है, जबकि भीतर जाना कितना सरल है, अपने हाथ में है, अपने ही को तो देखना है, अपने को ही तो बेधना है परत दर परत जो हमने ओढ़ी है उसे उतार कर फेंक देना है. हम नितांत जैसे हैं वैसे ही रह सकें तो भीतर का आनंद तो छलक ही रहा है, वह मस्ती तो छा जाने को आतुर है. हम सोचते हैं कि बाहर कोई कारण होगा तभी भीतर ख़ुशी फूटी पड़ रही है पर सन्त कहते हैं भीतर ख़ुशी है तभी तो बाहर उसकी झलक मिल रही है हमें भीतर जाने का मार्ग मिल सकता है पर उसके लिए उस मार्ग को छोड़ना होगा जो बाहर जाता है एक साथ दो मार्गों पर हम चल नहीं सकते. बाहर का मार्ग है अहंकार का मार्ग, कुछ कर दिखाने का मार्ग भीतर का मार्ग है, समर्पण का मार्ग, स्वयं हो जाने का मार्ग !