Monday, October 30, 2017

जीवन जैसे बूंद ओस की

३१ अक्तूबर २०१७ 
दुनिया में हम ऐसे रहते हैं जैसे सदा के लिए रहना हो. जीवन क्षण भंगुर है इस बात को बार-बार अनुभव करने के बाद भी मन संसार को पकड़ कर रखना चाहता है. मन कटु बातों को पकड़ लेता है, स्मृतियों के जाल में फंस जाता है या फिर भविष्य के बारे में सोचकर व्यर्थ ही आशंकाओं के बादल में घिर जाता है. इस संसार को स्वप्न की भांति देखने की समझ आने लगे, दूसरों के दृष्टिकोण को देखने की क्षमता विकसित हो अथवा हरेक में उसी अन्तर्यामी के प्रकाश को देखने की दृष्टि मिलने लग और सबसे जरूरी बात अपनी त्रुटियों को स्वीकारने की हिम्मत भीतर सदा रहे. इन सब उपायों से मानसिक ऊर्जा का ह्रास नहीं होता तथा मन कमल पत्तों पर पड़ी ओस की बूंदों की नांई शांत रहता है. हर सुबह यदि कोई इस बात को स्मरण रखे कि आज का दिन भी हजारों दिनों की तरह खो जाने वाला है तो व्यर्थ उसी क्षण गिर जायेगा. जीवन जब जिस पल में जैसा मिलेगा, उसे वैसा ही स्वीकार करना आ जायेगा. खाली मन में ही शांति की झलक मिलती है और शांति में ही सुख है, नव सृजन है.   

Friday, October 27, 2017

तेरा तुझको अर्पण


सारा अस्तित्त्व एक अनाम आकर्षण में बंधा हुआ है, आकाशीय नक्षत्र आपस में जिस बल के कारण गति कर रहे हैं वह अवश्य ही प्रेम जैसा कोई तत्व होगा. प्राणियों का परस्पर मेल-मिलाप भी उसी का परिणाम है. हर आत्मा में प्रेम का तत्व उसी तरह गर्भित है जैसे फूल में सुरभि. फूल के खिलने पर ही सुगंध का ज्ञान होता है. इसी तरह प्रेम जब अपनी परम अवस्था को प्राप्त होता है, तब भक्ति कहलाता है. प्रेम उन मूल तत्वों में से एक है जिनसे इस सृष्टि का निर्माण हुआ है. अंतर को जो सुवास से भर देता है. प्राणों में जो गति का संचरण करता है. मन में कोमल भावनाओं का सृजन कर जीवन का मर्म बता देता है, ऐसे अस्तित्त्व के प्रति आत्मा झुके नहीं तो क्या करे.  

Thursday, October 26, 2017

ॐ सूर्यायः नमः

२६ अक्तूबर २०१७ 
परमात्मा की कृपा का अनुभव करना जिसने सीख लिया, उसका सारा जीवन एक उपहार बन जाता है. हवा, धूप, जल पृथ्वी और आकाश के प्रति उसके हृदय में आदर और सम्मान का भाव उमगता है, वह इन्हें दूषित करने की बात तो सोच ही नहीं सकता. हमारे वैदिक ग्रन्थों में प्रकृति के लिए जो प्रार्थनाएं और स्तुतियाँ हैं, वह ऐसे ही ऋषियों ने गायीं हैं. विज्ञान ने मानव जीवन को सुख-सुविधाओं से तो सम्पन्न किया है पर उसके मन के कोमल भावों को जैसे चुरा लिया है. अब चाँद को देखकर शहरी नागरिक का मन उल्लसित नहीं होता, सूर्य को जल चढ़ाने की बात पर वह हँसता है. मन को पल्लवित और प्रफ्फुलित होने के लिए प्रकृति का आश्रय लेना ही होगा, यह उसी से बना है. छठ पूजा सूर्य के प्रति मानव मन की श्रद्धा का जीवंत उदाहरण है. 

Tuesday, October 24, 2017

मुक्त हुआ जो सभी दुखों से

२५ अक्तूबर २०१७ 
जगत में रहते हुए हम इसके प्रभावों से अलिप्त कैसे रहें, अध्यात्म विद्या इसी कला को सिखाती है. हर जीव को अपने पूर्व कर्मों के अनुसार जन्म और जीवन की अच्छी-बुरी परीस्थितियां मिली हैं. साथ ही उसे नये कर्म करने की स्वतन्त्रता भी मिली है. यदि कोई इस बात से अनभिज्ञ है अथवा संस्कारों के अनुसार ही जीवन प्रवाह में बहता जा रहा है, तो वह अपने भावी जीवन को भी उन्हीं के अनुसार ढाल रहा है. इसी को जन्म-मरण का चक्र कहते हैं, जिसमें गति तो है पर दोहराव है. अध्यात्म ऊपर उठने की कला सिखाता है, जिससे हम भविष्य में उन दुखों से बच सकते हैं जो पूर्व में मिले थे. परमात्मा के प्रति प्रेम और स्वयं के चिन्मय स्वरूप का बोध हमें इसी विद्या से होता है. जिसके कारण सद्कर्मों को करते हुए हम अपनी ऊर्जा का सदुपयोग करना सीखते हैं.


Friday, October 13, 2017

मन को अपना मीत बनाएं

१३ अक्तूबर २०१७ 
संतजन कहते हैं, हमारे सारे दुःख स्वयं के ही बनाये हुए हैं. हमारा मन विरोधी इच्छाओं का जन्मदाता है. मन स्वयं ही स्वयं के विपरीत मार्ग पर चलता है और स्वयं ही स्वयं को दोषी ठहराता है. कितना अच्छा हो कि बुद्धि में विवेक जागृत हो और मानव सदा अपने हित में ही निर्णय ले. वह श्रेय के मार्ग का पथिक हो. प्रेय के मार्ग पर चलकर स्वयं अपनी ही हानि करते हुए हम न जाने कितनी बार वही-वही भूलें करते हैं, जो हमें स्वधर्म से दूर ले जाती हैं. अपने समय, शक्ति और सामर्थ्य का सदुपयोग करते हुए हम मन को शुद्ध बना सकते हैं. निर्मल मन में ही आत्मा की झलक मिलती है. आत्मज्ञान होने के बाद ही व्यक्ति का वास्तविक जीवन आरम्भ होता है. 

Thursday, October 12, 2017

जब आवे संतोष धन

१२ अक्तूबर २०१७ 
साधक की नजर किस तरफ है सारा दारोमदार इसी पर है. क्या हम मात्र सुख के अभिलाषी हैं अथवा सुख के साथ-साथ संतुष्टि के भी. सुख क्षणिक है और उसकी कीमत चुकानी होगी. संतुष्टि समझ से आती है और दीर्घकालिक होती है. संतों और सदगुरुओं के वचनों से प्राप्त समझ जब जीवन में चरितार्थ होने लगती है तब जीवन नदी की शान्त धारा की तरह एक दिशा में प्रवाहित होने लगता है. जिसके तटों पर विश्राम भी किया जा सकता है और जिसके शीतल जल में सहजता से तैरा भी जा सकता है. जब सुख की तलाश में स्वयं को खपाकर और हाथ में दुःख के खोटे सिक्के पकड़ कर संसार सागर में लहरों के साथ ऊपर-नीचे डोलते रहने को ही जीवन समझ लिया जाता है, जीवन  संघर्ष बन जाता है. 

Tuesday, October 10, 2017

जग में रहे साक्षी बन जो

१० अक्तूबर २०१७ 
अपेक्षा में जीने वाला मन दुःख को निमन्त्रण देता ही रहता है. लाओत्से ने कहा है कि कोई मुझे हरा ही नहीं सका, कोई मेरा शत्रु भी न बना, कोई मुझे दुःख भी न दे सका क्योंकि मैंने न जीत की, न मित्रता की न सुख की अपेक्षा ही संसार से की. जो भी चाहा वह भीतर से ही और भीतर अनंत प्रेम छिपा है. परमात्मा ने किसी को इस जगत में खाली हाथ नहीं भेजा है. हम यदि उसके हैं और वह भरा हुआ है तो हमें किस बात की कमी हो सकती है. हम जिस शांति और ख़ुशी की तलाश बाहर कर रहे हैं, यदि उसी की तलाश भीतर करें तो वह मौजूद ही है. वास्तव में हमें वस्तुओं, व्यक्तियों और घटनाओं का साक्षी होना सीखना है, उनसे जुड़ना अथवा उनके द्वारा कुछ पाने की इच्छा करना ही दुःख को निमन्त्रण देना है.

Monday, October 9, 2017

अपने घर बैठा पर भूला

६ अक्तूबर २०१७  
कबीर कहते हैं, हरि का घर खाला का घर नहीं है, उनका अर्थ यह नहीं है कि उसके घर जाना कठिन है बल्कि यह कि वह तो अपना ही घर है, खाला के घर भी जाना हो तो कुछ देर लगेगी. पर यहाँ तो अपने ही घर में बैठे हैं, बस नेत्र बंद हैं. सपना देख रहे हैं कि संसार में हैं. जीवन एक संघर्ष है ऐसा मान लिया है तो संघर्ष की तैयारी में लगे हैं. संत कहते हैं सत्य के प्रति जागना ही उससे मिलन का एक मात्र उपाय है                                                                                                                                                                                                                              

Tuesday, October 3, 2017

बहता जाये मन नदिया सा

३ अक्तूबर २०१७  
जीवन प्रतिपल नया हो रहा है, जो नदी सागर से वाष्पीभूत होकर ऊपर उठती है वही पर्वत शिखर पर हिम के रूप में घनीभूत होकर नये कलेवर में प्रकटती है, वही फिर द्रवित होकर बहती है. जल के रूप में वह जगत का कितना कल्याण करती है. जीवात्मा अदृश्य है, वाष्प की भांति, वही देह धारण करती है और फिर फिर मन के रूप में जगत में प्रवाहित होती है. संवेदनशील मन के द्वारा ही जगत में कितने उपकार होते हैं, नये-नये आविष्कार, नित नये साहित्य का सृजन मन के द्वारा ही सम्भव है. ऐसा मन जो निरंतर प्रेम और विश्वास की सुगंध से भरा होता है आस-पास के वातावरण को भी सुवासित कर देता है.