Friday, June 29, 2012

अनंत की ओर


मई २००३ 
ज्ञान वही है जो वक्त पर काम आये, नहीं तो मस्तिष्क पर बोझ डालने जैसा ही है. जो वस्तु, व्यक्ति व परिस्थिति को को नहीं स्वीकारते, वही दुखी होते हैं, जो मुसीबत आने पर मुस्कान से किनारा कर लेते हैं, वे कहाँ तत्व को जान पाए. जब ज्ञान के अवसर का उपयोग आये तब हम अक्सर चूक जाते हैं. अध्यात्म की दुनिया अनंत है, उसमें कोई सीमा हो ही नहीं सकती. वह मुक्त करती है. आत्मा की शक्ति का परिचय हमें इसी दुनिया में मिलता है. वह दुनिया इसी दुनिया में है, बल्कि यह दुनिया, यह छोटा सा जगत उस अनंत दुनिया में समाया है. हमें तो बंधन पसंद है सो उस अनंत दुनिया से हम वास्ता नहीं रखते. पर जब बंधन बोझ लगने लगे, कोई पूर्व पुण्य उदय हो जाये, कृपा हो जाये तो उस अनंत दुनिया के द्वार हमारे लिये खुलने लगते हैं.

Wednesday, June 27, 2012

महाजीवन की ओर


अप्रैल २००३ 
सदगुरु कहते हैं कि युग परिवर्तन चाहते हो तो स्वयं को बदलो, हिंसा का युग है, सही है, भ्रष्टाचार बढ़ रहा है. पर न हम हिंसा को रोकने में समर्थ हैं न भ्रष्टाचार को, सामर्थ्य है तो इतनी ही कि हमारे मन में हिंसा न हो, मनसा, वाचा, कर्मणा ऐसा कुछ भी न हो जो किसी को दुःख दे, न तो हम खुद भ्रष्टाचार को प्रश्रय दें न अपने आचरण में कोई ढील दें. एक-एक व्यक्ति स्वयं को दीप बनाता चले तो उजाला होने में देर नहीं हो सकती. हमें खुद को बदलना है, यह जगत ऐसा क्यों है इसकी परवाह किये बिना. कृष्ण को अपना आदर्श बनाना है जो सारे संकटों के मध्य भी विचलित नहीं होते. वह हमें आवाहन देते हैं कि स्वयं को जानकर सन्तोष, पूर्णता, रस, आनंद व प्रेम का अनुभव करें. इंसान की सारी दौड़ इसीलिये तो है कि इतना कुछ पा ले कि भीतर शांति महसूस करे, उसे सुख मिले. तो इस दौड़ का अंत तभी हो जाता है जब हमें खुद में विश्रांति पाने की कला आ जाती है. हम अपने घर लौटना सीख जाते हैं.  जीने की इच्छा के कारण हमें तन मिला, फिर कर्मों के बंधन के कारण विभिन्न जन्म मिले. स्वयं में स्थित होने पर पुराने कर्मों के बीज नष्ट हो जाते हैं, और तब महाजीवन का आरम्भ होता है.

Thursday, June 21, 2012

अज्ञान ही एकमात्र बंधन है


वे संस्कार जो हमें साधना के प्रति सजग करते हैं, हमारे भीतर हैं, ज्ञान के प्रति यदि प्यास गहरी हो तो वे संस्कार जगने लगते हैं. जीवन मूल्य यदि श्रेष्ठ हों, श्रद्धा और निष्ठा में कमी न हो तो कृपा अपने आप बरसती है. वाणी पर संयम न हो, अज्ञान को स्वीकार करने की क्षमता न हो तो सत् हमारे जीवन से चला जाता है. हमें स्वयं को खुद की कसौटी पर कसना होगा, एक छोटा सा प्रमाद हमें अपने पथ से मीलों दूर कर देता है. मानव स्वतंत्र है ऐसा मानकर दुःख के काँटों में स्वयं को उलझा लेता है. अपनी स्वतंत्रता का गर्व ही बंधन बन जाता है तो मुक्ति कहाँ ? कर्मों के फल की कामना, इच्छा, और अन्यों से सुख की अपेक्षा, ये सब अपने परिणाम साथ लेकर ही चलते हैं. यदि सजगता नहीं रही तो प्रफ्फुलता खो जाती है.

जीवन सरस बनाये योग


अप्रैल २००३ 
जब हम विवेक का आश्रय लेते हैं तो योग अपने आप सधने लगता है. पहले जीवन में कर्मयोग आता है, क्योंकि हमारे कर्म तब स्वार्थ वश नहीं होते, सहज प्राप्त कर्म ही करते हैं. और सिर्फ कर्म करने के लिये कर्म न कि फल की इच्छा के लिये. निष्काम भाव से किया गया कर्म बांधता नहीं है. तब भक्ति का उदय होता है, क्योंकि हृदय यदि शुद्ध हो तभी ईश्वर की कृपा का अनुभव होता है. भक्ति से हृदय में सहज ज्ञान होने लगता है, कृष्ण ने कहा है कि वह अपने भक्त का बुद्धियोग करा देते हैं. ज्ञान हमें निर्देशित करे तो मन नियंत्रण में रहेगा. हंस की नीर-क्षीर विवेकी दृष्टि हमें तीनों तापों से बचा लेती है. तब असार को तज हम सार को ग्रहण करते हैं, व्यर्थ के चिंतन से, व्यर्थ की चर्चा से, व्यर्थ के आहार से भी सहज ही बुद्धि बचा लेती है. तब जीवन सरस व सरल होगा, कमियों को दूर करते हुए धैर्यवान और क्षमाशील बनने की ओर सहज ही प्रवृत्ति होगी.

Wednesday, June 20, 2012

हर पल हमें सिखाता है


अप्रैल २००३ 
हर पल जीवन में बहुत कुछ घटता रहता है बाहर भी और भीतर भी. बाहर की प्रतिध्वनि भीतर तक सुनाई देती है और जब भीतर की प्रतिध्वनि बाहर तक भी सुनाई देने लगे तो समझना चाहिए कि अब वस्तुएँ अपना स्पष्ट आकार ले रही हैं. जो देह बुद्धि से मुक्त होना चाहता है वह ऐसी बातों का प्रभाव मन पर क्यों लेगा जो उसकी गलतियों की ओर इशारा करती हैं. अहं ही इसका मुख्य कारण है, हमारे अहं को चोट पहुंचती है जब कोई आलोचना करता है और प्रतिक्रिया हुई तो वह देहात्म बुद्धि के स्तर पर ही होगी क्योंकि आत्मा के स्तर पर कोई प्रतिक्रिया नहीं होती. अच्छा हो कि हम उस आलोचना को इसलिए स्वीकार करें कि वह सही है और हम उस त्रुटि से मुक्त होना चाहते हैं. सबसे महत्वपूर्ण बात है कि साधना में कभी कोई व्यवधान न आये चाहे कितनी बाधा आये या मन कितनी प्रतिक्रिया करे. क्योंकि ईश्वर हमें बेहतर बनाना चाहता है, साधक को उसके सामने जाने लायक बनना है, हम उसके बिना अधूरे हैं जब तक यह भाव दृढ़ नहीं हो पाता हम उसकी कृपा का अनुभव भी नहीं कर पाते न ही कृतज्ञता का भाव प्रकट करते हैं कि वह हमें जगा रहा है.

Tuesday, June 19, 2012

सिमटे बिखरा बिखरा सा मन


अप्रैल २००३ 
संतजन कहते हैं कि स्वयं को बिखेरो मत, स्वयं को गंवाओ मत, अपना अपमान करते हो जब स्वयं को मात्र शरीर मानते हो. मृत्यु के बाद भी सूक्ष्म शरीर जस का तस रहता है. ईश्वर ने यह खेल रचा है, और हम इस खेल में ही खो जाते हैं, खेल रचने वाले को भूल ही जाते हैं. हमारी आत्मा मन की कल्पनाओं के ढेर के नीचे सुप्त हैं, पर है वही जिसकी हमें तलाश है. मन जब संसार में बिखरता है तो उसकी ऊर्जा व्यर्थ ही नष्ट होती है, और भीतर जाने का सामर्थ्य घटता है. तैलवत् धार की तरह जब मन एक बिंदु पर केंद्रित रहता है तभी उसमें आत्मा की शक्ति परिलक्षित होती है. आत्मशक्ति का विकास व व्यवहार की शुद्दता हमें ईश्वर की ओर ले जाते हैं. सदगुरु कितने प्यार से हमें समझाते हैं कि नश्वर वस्तुओं के पीछे जा जाकर हम अपने जीवन में दुःख ही तो लाते हैं, हमारी सूझ-बूझ व्यर्थ हो जाती है. अन्तःकरण की पवित्रता और सौम्यता को तो प्रतिपल बहना है, तभी वह भीतर से आप्लावित रहता है.

Sunday, June 17, 2012

मन गोपी सा हो पावन


अप्रैल २००३ 
गो का अर्थ है इन्द्रियाँ तो गोपी वही है जिसका अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण है, मन भी तो छठी इंद्री है, तभी हम परमात्मा के साथ आनंद नृत्य में शामिल होने के योग्य होते हैं. यदि कोई व्याधि सताए तो समझना चाहिए कि यम, नियम का पालन नहीं हुआ, कहीं न कहीं मनमुखता हुई है. सत्संग हमें मन को स्थिर रखने के कितने उपाय बताता है, संशयों और भ्रांतियों को दूर करता है. सत्य से जुडना सिखाता है. सत्य से ही हमारी शोभा है, वही प्रेम है और प्रेम हमें मुक्त करता है. अंतर में रूहानी संगीत व नृत्य का अनुभव कराता है. प्रातः काल जैसे हम स्नान करते हैं, वैसे ही सत्संग का जल हमारे मन के स्नान के लिये है. संतों की वाणी वह उबटन है जो हमारे मन का मैल रगड़–रगड़ कर स्वच्छ करता है. और वह फूल जैसा महकने लगता है. और तब वह उस ईश्वर को अर्पित होने के काबिल बन ही जाता है. मनरूपी पुष्प जब उनके पास पहुंचता है तो प्रभु उसे स्वीकार कर लेते हैं.

Friday, June 15, 2012

ध्यान जागरण है


ध्यान में साधक को जो भी अनुभव होता है उसे शब्दों में व्यक्त करना संभव नहीं है, यदि कर भी दें तो बात पूरी तरह स्पष्ट नहीं होगी. ऐसे मन के भाव व्यक्त हों भी कैसे, जो मन छोटा न रहकर बड़ा हो गया हो, सारा ब्रह्मांड उसी की सत्ता प्रतीत होता हो और इस नाते संसार के सारे प्राणियों के प्रति प्रेम छलकता हो, जहाँ जड़ में भी उसी के दर्शन होते हों. जो आँख बंद करने पर भी और आँख खोलने पर भी एक सा प्रकट होता हो. जो बिना कानों के सुन सकता हो, ऐसे मन की बात को शब्द कहाँ तक पकड़ पाएंगे. वह तो सिर्फ भीतर महसूस किया जा सकता है. ऐसा क्षण जब कुछ भी पाना नहीं होता कुछ छोड़ना भी नहीं, जो सहज रूप में प्राप्त है उसे पूरे होश से स्वीकारना. यहाँ जो कुछ भी है सब उसी का है, जो वह है, वही तुम हो, दोनों एक हैं, पूर्ण मुक्ति का अहसास तभी होता है. जब मन निर्वासनिक हो जाता है. और कोई चाहे भी क्या? कौन किसे चाहे?, क्या चाहे?, जब सब कुछ एक ही है. संत ठीक कहते हैं ज्ञानी हजार शरीरों से भोगता है.वह हरेक के भीतर एकमात्र उसी चैतन्य को देखता है, वह जहाँ भी जाता है, पूरा जाता है जो भी करता है पूरा करता है. उसके अंतर की ऊर्जा एक बिंदु पर केंद्रित होती है, वह मन को आत्मा में विलीन कर देता है.


जब वह अपना सा लगता है


अप्रैल २००३ 
यह सारा अस्तित्त्व हमारा अपना है और जहाँ अपनत्व होता है वहीं प्रेम होता है. सुख-सुविधा और सम्पत्ति के लिये तो जन्मों-जन्मों प्रयत्न किये पर कहीं नहीं पहुँचे, अध्यात्म की दिशा में किया छोटा सा प्रयत्न हमें ऊँचाई पर ले जाता है. जहाँ श्रद्धा होती है, मन व बुद्धि उसी ओर जाते हैं. एक बार यदि मन पर चढ़ जाये तो भक्ति का रंग इतना पक्का होता है कि शेष सारे रंग उड़ जाते हैं और तब शाश्वत ज्ञान, शाश्वत आनंद व शाश्वत शांति हमारे मन में उदित होते हैं. विवेक जागृत होता है, कर्मयोग सधने लगता है. साधना के पथ पर मंत्र, गुरु व ईष्ट तीन दिखते हैं, पर वास्तव में वे एक ही हैं. उनमें से किसी एक से भी यदि प्रेम हो जाये तो साधना फूल सी हल्की व सरल हो जाती है. जब अज्ञान का आवरण हट जाता है तो उन बातों पर हँसी आती है जिनके लिये पहले बेचैन रहते थे, भ्रमित थे, मुक्ति की पहली श्वास हम तभी लेते हैं जब वस्तुएँ अपने वास्तविक रूप में प्रकट होने लगती हैं, हृदय निर्मल हो जाता है, वहाँ सिवाय शुद्ध प्रेम के कुछ भी नहीं रहता. अमनी भाव सधने लगता है.

Tuesday, June 12, 2012

सहज स्वभाव सहज ही मिलता


अप्रैल २००३ 

सहज स्वभाव हमारे जीवन की मांग है, धर्म इस मांग की पूर्ति करता है. सहज स्वभाव हमारे तीनों तापों को हर लेता है मन के संकल्पों-विकल्पों को हर लेता है, इच्छाओं को शुद्ध करता है, विचारों को ऊपर के केन्द्रों में स्थित करता है. भीतर सौम्य मन का जन्म होता है और ऐसे मन से जो वचन निकलता है उसमें पूरा बल होता है. स्वस्थ, सुखी व सम्मानित जीवन जीने का बल सहज स्वभाव ही देता है. हमें अपने नित्य स्वरूप से परिचित कराता है. यदि हम चेतन हैं तो जड़ के गुलाम क्यों हों, अनित्य की प्रवाह क्यों करें, नश्वर को क्यों चाहें, उस एक को पाकर हम अमूल्य बन जाते हैं, उसमें जो स्वतंत्रता है वही पाने योग्य है. जड़ वस्तुओं के गुलाम बन कर हम अपना मूल्य घटाते हैं. सारी प्रतिकूलताएं तभी तक हैं जब तक हम उससे दूर हैं. एक बार उसका पता मिलने पर हम आनंद के उस सागर में डूबते उतराते हैं, जहाँ प्रेम-भक्ति के सुख-सामर्थ्य के मोती-माणिक पड़े हैं, जो सहज ही हमारे हो जाते हैं. ईश्वर भी हमसे मिलने को उतना ही आतुर है जितना हम उससे मिलने को, हमारे एक कदम के जवाब में वह हजार कदम बढ़ाकर हमें थाम लेता है और एक बार थाम लिया तो फिर छोड़ता नहीं, सहज स्वभाव बन जाता है.

Monday, June 11, 2012

एक वही तो डोल रहा है


अप्रैल २००३ 
जहाँ-जहाँ मन जाये उसकी गहराई में उसी एक की सत्ता को देखने का अभ्यास करें, संत ऐसा कहते हैं. हृदय में द्वेष बुद्धि न रहे तो सारी समस्याओं का समाधान अपने–आप मिलता है, हम जो भी कर्म करते हैं उस का बीज हमारे मन में रह जाता है और समय आने पर कर्म के अनुसार फल हमें भोगना पड़ता है. यदि सभी के साथ हमारी भावना में समता होगी, उनके हित की कामना होगी, तो हमारा व्यवहार शुद्द होगा, और अंतर एक शुभ्र, निर्मल आकाश की तरह उस ज्योति स्वरूप आत्मा के प्रकाश की झलक दिखायेगा. यह सम्पूर्ण जगत उसी की लीला है, खेल है, जिसके हम पात्र हैं, हम खेल में इतना उलझ जाते हैं कि घर जाने की सुध ही नहीं रहती, ध्यान वह विश्रांति है जिसे पाने के लिये हम घर जाते हैं, जहाँ प्रेम का पाथेय लिये प्रभु हमारी प्रतीक्षा रत हैं, जैसे माँ बच्चे को स्वच्छ करती है वैसी ही वह मन, बुद्धि पर छाई धूल को साफ करते हैं, अब खेलते समय भी उसकी याद बनी रहती है, जब एक बार पूर्ण मिल जाये तो अपूर्ण कोई क्यों चाहेगा, गंगा सामने हो तो पोखर को क्यों ताकेगा, फिर खेल भी उसकी पूजा बन जाता है और उसका सान्निध्य हमें हर पल प्राप्त होने लगता है. 

Thursday, June 7, 2012

आग्रह भी बांधता है


अप्रैल २००३ 
कोई भी आग्रह, चाहे वह भक्ति साधना के लिये ही हो, हमें बांधता है, इच्छा मुक्त होने के साथ-साथ हमें आग्रह मुक्त भी होना है. सुबह समय पर उठने का क्रम कभी टूटना नहीं चाहिए लेकिन कभी ऐसा हो भी गया तो अपने सहज रूप को छोड़ना नहीं है क्योंकि ‘स्वयं’ तो इन सबसे परे है, वह सदा जागृत है, मुक्त है. छोटी से छोटी बात भी साधक को अटका न सके और बड़ी से बड़ी बात भी उसे बांध न सके. मन पानी की तरह बहता रहे, तभी निर्मल बना रहेगा नहीं तो काई जमते देर नहीं लगती. साधक को तो इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि उसके किसी कार्य से किसी को दुःख न हो, उसके हृदय की शीतलता ही दूसरों को मिले. उसे जगत में कुछ पाना शेष नहीं है. वह ईश्वर प्रेम के रूप में सर्वोपरि पहले ही पा चुका है तब साधना की इच्छा भी क्यों अटकाए.


Wednesday, June 6, 2012

लगन लगायी जिसने उससे


अप्रैल २००३ 
हमारे जीवन में प्रेम नित नवीन होता रहे, निरंतर उसमें वृद्धि हो, उसकी बन्दगी भी हम बढाते रहें, समर्पण को द्विगुणित करते चलें तो जीवन में अन्य कोई रह ही नहीं सकता सिवाय उस एक राम के जो रोम-रोम में बसता है. उस कृष्ण के जो हर क्षण हमें अपनी ओर आकर्षित करता है, उस जगन्माता के जो हमारा पोषण करती है, उस शिव के जो सदा हमारा कल्याण करता है, उस गणपति के जो हमारे जीवन से विघ्न-बाधाओं को हटाता है, और जब हमारा हृदय उस परमब्रह्म का घर हो जाता है तो हृदय से सारे चोर निकलते लगते हैं, मुक्ति का आनंद ही हमें भक्ति करने को प्रेरित करता  है. हम कृतज्ञता प्रकट करते हैं और अपनी आत्मा की झलक पाकर विस्मित भी हो जाते हैं, परम की सुंदरता अपरिमेय है, हमारा अंतर्मन भगवद्शक्ति का आश्रय लेकर सहज प्राप्त कर्त्तव्य निभाता है, कर्मों के बंधन नहीं बाँधते, पुराने संस्कार नष्ट हुए लगते है. शांति का एक आवरण हमारे चारों ओर छाने लगता है, जिसको भेद कर संसार का कोई दुःख हमें छू नहीं सकता उस परम प्रिय का प्रेम एक कवच बन कर हमारे साथ रहता है.  


Tuesday, June 5, 2012

मानव ही मिल सकता उससे


अप्रैल २००३ 
हमारा जीवन उसकी कृपा से ही हमारी मुक्ति का साधन बनता है. पहला कदम तो हमने यही उठा लिया जब मानव जन्म मिला, दूसरा उसकी कृपा को अनुभव करना है. कृपा मिली तो तीसरा कदम है उसको जाने की इच्छा का होना, उस एक इच्छा ने अन्य सभी छोटी कामनाओं को अपने में समेट लिया क्यों कि उस एक को पाने से सब कुछ अपने आप मिल जाता है. उस एक को पाने के लिये जब हम एक कदम बढाते हैं तो वह हजार कदमों से हमारी ओर बढ़ता है. वह कैसे हरेक के हृदय में रहकर उसे निर्देशित करता है यह तो वही जाने पर वह करता जरूर है, उसे पुकारो तो वह तत्क्षण हाजिर होता है और अपने को जनाता भी है. उससे आध्यात्मिक सम्बन्ध बनाना है, देह बुद्धि से स्वयं को मुक्त करके आत्म बुद्धि की ओर ले जाना है.


Monday, June 4, 2012

सत्य महाप्रकाश है


अप्रैल २००३ 
सत्य हमारे जीवन में प्रकाश बनकर आता है और हम जो अंधकार में भटकते-भटकते अपने कारण लहुलुहान हो रहे थे, वस्तुओं को स्पष्ट देखने लगते हैं. वर्षों-वर्षों से जो जंगल हमने अपने मन में उगा रखा था, मन जो खंडहर सा बन गया था जहाँ सूर्य की रौशनी भी नहीं पहुँच पाती थी एकाएक चमकने लगता है और हमें उस जंगल को साफ कर उपवन उगाने का बल मिलता है. जहाँ सूनापन  था वहाँ उस परम को आसीन करने का सम्बल मिलता है जीवन तब मधुर संगीत बन जाता है. तब शास्त्रों के रहस्य ऐसे खुलने लगते हैं जैसे हथेली पर रखा हुआ फल हो. ऐसा सत्य का प्रकाश सदगुरु के पदार्पण से शीघ्र मिलता है, वरना जन्मों तक हम उसकी तलाश में भटकते रहते हैं.

Friday, June 1, 2012

परम लक्ष्य को पाना है


अप्रैल २००३ 
समय मन के सापेक्ष है, जब हम स्वयं को छोटे मन के साथ एक मानते हैं तब समय काटे नहीं कटता और जब विशाल मन अर्थात आत्मा में स्थित हों तो समय उड़ने लगता है तब हमें भूत, भविष्य और वर्तमान का ज्ञान ही नहीं रहता. हमारे जीवन में युक्ति, भक्ति, शक्ति और मुक्ति क्रमशः आती है. पहले युक्ति से जीवन को उन्नत बनाना, फिर भक्ति का उदय, भक्ति से ही शक्ति मिलती है, जिससे मन धीरे-धीरे संसार का अवलम्बन छोड़ता जाता है, मुक्ति तो परम लक्ष्य है वही विशाल मन है. जीवन में ध्यान, समाधि, मौन हो तो मनः प्रसाद मिलता है, सौम्यता जीवन में झलकती है. आत्मविद्या जब तक नहीं मिली तब तक हम विद्यार्थी हैं.