Thursday, May 31, 2012

अद्भुत खेल रचाया किसने


अप्रैल २००३  

विस्मय अथवा कृतज्ञता ही हमें ध्यान में ले जाते हैं. हमारी मुस्कान को स्थिर रखते हैं. तब ही एक मुक्ति का आभास हमें होता है जब भीतर एक स्थिरता छा जाती है. इस मुक्ति से ही भीतर प्रेम का भी जागरण होता है. प्रेम से मन शक्तिशाली अनुभव करता है, शक्ति से ही समाधान मिलता है यानि द्वंद्व से पार हुआ जा सकता है. तो प्रथम हुई कृतज्ञता की भावना और उस सृष्टि कर्ता की लीला को देखकर विस्मित होना. द्वंद्व से पार हुआ मन ही स्वयं के पार जाकर उसकी गहराई में जाना चाहता है, जहाँ उसे आनंद का अनुभव होता है. एक ऐसा भाव हमारे भीतर उतरता है कि देह का कण-कण एक धागे में पिरोया हुआ है, वह धागा प्राण ऊर्जा ही है. ध्यान का ही परिणाम है कि हम अपने भीतर स्थित देव तत्व से जुड़ जाते हैं. जीवन में जो पात्र निभाना है वह आनंद पूर्वक निभाते हैं फिर लौट आते हैं अपने आप में, वैसे के वैसे, कबीर ने ऐसे ही भाव में आकर लिखा होगा “ज्यों की त्यों रख दीनी चदरिया” !

Tuesday, May 29, 2012

अमन हुआ जब प्रेम जगा


अप्रैल २००३ 
कृष्ण ने गीता में जो वचन दिए हैं वह उन्हें पूरी तरह निभाते हैं. वह हरेक के हृदय में प्रकट होते है, उसे अपनी उपस्थिति का अहसास बहुत तरह से कराते हैं. उन्हें जो प्रेम करता है उसे वह हर एक के भीतर दिखने लगते हैं और सारी सृष्टि उन्हीं के भीतर भासती है. वह इतने प्रिय हैं इतने आनन्ददायक हैं और उन्होंने हमें भी अपने सा बनाया है, हम ईश्वर का अंश हैं पर अज्ञान के कारण कृपण का सा जीवन जीते हैं. जब सदगुरु जीवन में आते हैं तब हमें अपनी वास्तविक स्थिति का कुछ-कुछ भास होता है. उर में प्रेम का उदय होता है, प्रेम के लिये प्रेम, फिर भक्ति का उदय होता है इस सुंदर सृष्टि को बनाने वाला कितना सुंदर होगा, उसके प्रति कृतज्ञता उमडती है, उससे मिलने की इच्छा बलवती होती जाती है तो वह स्वयं को प्रकट करता है. एक झलक पाकर प्यास और बढ़ जाती है, हास्य व अश्रु का खेल भीतर ही भीतर शुरू हो जाता है तब संसार के खेल तुच्छ प्रतीत होते हैं. मन आत्मा में ही रमण करने लगता है. आत्मा स्नेहिल है, वह शांति देती है, मन तब धीरे-धीरे अपनी सत्ता खोने लगता है वह भी प्रेममय होकर आत्मा में ही विलीन हो जाता है. हम मुक्ति का अहसास करते हैं. संसार हमें दे ही क्या सकता है, तब हम दूसरी दृष्टि से देखते हैं कि हम उसे क्या दे सकते हैं. तब अंतर में सेवा का भाव जगता है. बिना किसी प्रयोजन के हम तब कार्य करते हैं, निष्काम जीवन तब शुरू होता है.

Sunday, May 27, 2012

साधना क्यों करें


हमारी संस्कृति में धर्म मात्र पढ़ने-पढ़ाने के लिये या विचारों तक ही सीमित रखने के लिए नहीं है. उसे जीवन में उतारने के हजारों ढंग हैं. धार्मिक होना एक संकीर्ण अर्थ में लोग जब लेते हैं तभी विवाद होता है. धार्मिकता का अर्थ तो है उदारता, सहिष्णुता, प्रेम, करुणा और उस परम आत्मा का साक्षात्कार इसी जीवन में, अपने इन्हीं नेत्रों से...उसको जानना और उस से बल पाकर सबको अपनाने का भाव जगाना. साधक के जीवन का यही लक्ष्य है.


Saturday, May 26, 2012

बीज रूप है प्रेम अभी


अप्रैल २००३ 
स्वयं में जो प्रेम छिपा है उसे जागृत करने का नाम ही भक्ति है. उसके ऊपर एक आवरण छा गया है, एक दीवार खड़ी हो गयी है उसके और हमारे बीच, उसे गिराना है, छोटी-छोटी बातों से जो खिन्न न हो, भावनाओं के आवेग व आवेश जिस पर हावी न हों, सुख में जो अभिमान न करे, दुःख में जो विचलित न हो ऐसा मन उस प्रेम को शीघ्र जगा सकता है. वह प्रेम रसमय है, आनंद मय है, हमारी देह, मन बुद्धि, चित्त व अहंकार हैं तो सब उसी के आश्रय से लेकिन उससे बेखबर हैं, जैसे किसी की आँख पर चश्मा चढ़ा हो और वह उसे ही ढूंढ रहा हो.

Friday, May 25, 2012

छिपा है सागर इक कतरे में


मार्च २००३ 
कभी कतरे को दरिया समझ कर डूब जाते थे
मगर अब निर्मल दरिया को भी कतरा समझते हैं....
सत्य हमें प्रेम और बल से भर देता है. उसका खजाना तो सदा है पर चाबी हमारे हाथ नहीं आती, उस चाबी का पता हमें साधना के रूप में मिलता है. इस खजाने की हिफाजत भी आवश्यक है, कहीं इसे पाकर सूक्ष्म अहंकार पुनः न दबोच ले. स्वयं को निरंतर कसौटी पर कसना है, स्वयं को बख्शना नहीं है और अन्यों की गलतियों पर ध्यान भी नहीं देना है. जो कर्म में सजग है वही ध्यान में भी सजग रहेगा.

Thursday, May 24, 2012

भीतर सूरज चमक रहा है


मार्च २००३ 
आत्मनिर्माण करना है तो मन पर चौकीदार रखना होगा और उसके नाम से अच्छी चौकीदारी कौन कर सकता है. परमात्मा का नाम अंतर को शुद्ध करता है और कितनी ही विघ्न-बाधाओं को पलक झपकते हटा देता है. आत्मनिर्माण का अर्थ है आत्मा में रस का अनुभव करना, आत्म साक्षात्कार इस पथ की मंजिल है. ज्ञान, ध्यान और अभ्यास के द्वारा धीरे-धीरे इसको अनावृत करते जाना है और एक दिन वह सूर्य की तरह अपनी पूरी दिव्यता के साथ चमकती है. उसके प्रकाश की झलक तो यात्रा के आरम्भ से ही मिलने लगती है. जीवन में उजाला छा जाता है कार्य में रूचि बढ़ जाती है, परहित का ख्याल आने लगता है, परिवार में सुख-शांति छाने लगती है और सब काम अपने आप सही समय पर होने लगते हैं. उसके इतने सारे उपकार हैं हम पर, अंधकार में रास्ता खोजते व्यक्ति का हाथ पकड़ कर जैसे कोई प्रकाश में ले आये, ज्ञान जीवन में हो वही जीवन जीवन है. हमें मुक्त करता है ज्ञान, फूल सा हल्का बना देता है, सारी जंजीरें काट कर उसके समक्ष पहुँचा देता है.

Wednesday, May 23, 2012

धर्म और विज्ञान


धर्म व्यक्ति का परिमार्जन करता है और विज्ञान वस्तु का परिमार्जन करता है. धर्म अंतर में ले जाता है, विज्ञान बाहर की ओर ले जाता है. अंतःकरण का परिमार्जन करने के बाद उसका उपयोग विज्ञान के लिये भी किया जा सकता है परहित के लिये. ऐसा विज्ञान दोषों के प्रति सजग होगा. और जो भी कार्य उसके द्वारा होगा, उसका कर्ताधर्ता एक ‘वही’ होगा, करने वाला निमित्त मात्र होगा. करने वाले का एक मात्र लक्ष्य तो अंतःकरण का परिमार्जन है सो वह निंदा का पात्र होने पर भी कभी अपमानित नहीं होगा, सुख-दुःख आदि में सम भाव में रहकर वह अपने अंतर आकाश को प्राप्त कर लेता है, जिस पर संसार रूपी बादल आते-जाते रहते हैं. पर वह सदा एक सा ही है.

Tuesday, May 22, 2012

तत्व ज्ञान की ओर


मार्च २००३  
तत्व में टिके बिना स्वस्थ नहीं रहा जा सकता. मन यदि वर्तमान में नहीं रहता और बुद्धि उसके पीछे जाती है, ‘स्व’ बुद्धि के पीछे जाता है तो स्व स्थ नहीं रहा अर्थात स्वस्थ नहीं रहा. जो स्वतः सिद्ध है उसमें टिके रहना ज्ञान से ही संभव है. अपनी कमियों की ओर नहीं बल्कि हमारे भीतर जो सहज प्राप्त परम तत्व है उसकी ओर अपनी दृष्टि रखें तो उसे ही प्राप्त होंगें. जीवन अनंत है, वर्तमान अटल है. जब तक यह तन है तब तक इसका सदुपयोग करके वर्तमान में ही टिके रहना है अर्थात स्व में स्थित रहना है. ताकि बारम्बार मरना न पड़े.

Monday, May 21, 2012

ज्ञान की हद प्रेम है


मार्च २००३ 
पढ़ने की हद समझ है, समझ की हद ज्ञान
ज्ञान की हद प्रेम है, प्रेम की उसका नाम
जो हमें सहज प्राप्त है, स्वतः प्राप्त है. आनंद, प्रेम और शांति बन कर जो भीतर स्वतः झरता रहता है, जिनके लिये एक अनंत स्रोत भीतर स्वतः उसने दिया है, जिसे किसी क्रिया से उपजा नहीं सकते, हाँ उसके प्रति अनभिज्ञ अवश्य हो सकते हैं. वह जो हमारा अभिन्न है, उसे एक क्षण के लिये भी कैसे भुला सकते हैं, वह ही तो श्वास के रूप में पल-पल जीवन देता है, वही तो प्रकाश बनकर हमारे नेत्रों में चमकता है. वही तो प्रेम का उजाला बनकर हमारे मन को रोशनी से भर देता है. उसे हमें कहीं खोजना भी नहीं है, कोई परिश्रम भी नहीं करना उसे पाने को, बस एक बार उसी को चाहना है, उसका हाथ थामना है. उसके बाद वह हमारी खोज खबर स्वयं ही लेता है.वह सच्चा मित्र है, उसे हमसे कुछ भी नहीं चाहिए, हमारा शुभ ही उसका एकमात्र अभीष्ट है. प्रकृति प्रतिपल बदल रही है, हमारा तन, मन, बुद्धि सभी प्रकृति में ही आते हैं, पर हम आत्मरूप हैं जो कभी नहीं बदलता, उस एक का साथ कर लें तो वह सब स्वयं ही छूट जाता है जो मिथ्या है या माया है अर्थात जो है नहीं पर दिखता है. तभी आत्मा का सूर्य चमकता है, उसका प्रकाश सदगुरु की कृपा से प्रकटता है.

Friday, May 18, 2012

एक यात्रा पर जाना है


मार्च २००३ 
कोई भी घटना, व्यक्ति, वस्तु अथवा परिस्थिति हमें आत्मसुख से वंचित करे उसमें इतना बल नहीं है, सुखी अथवा दुखी होना हमारे ही हाथ में है. हम मौन में रहकर जिस आत्मशक्ति का संचय करते हैं, उसे मिथ्या अहंकार वश पल भर में गंवा देते हैं. सुबह साधना करते हैं, शाम को निंदा करते हैं, तो हिसाब-किताब बराबर, और हम वहीं के वहीं रह जाते हैं. कोई छोटी से छोटी बात हमें हिला जाती है. तूफ़ान में एक पत्ते की तरह हम कांपते हैं. अपने मन को आत्मनिष्ठ बनाना हमारे अपने हाथ में ही है. स्वयं को दुखी होने से बचाना हमारे खुद के हाथ में है. अस्वस्थ हुआ तो शरीर हुआ, कोई दुःख हुआ तो मन को हुआ पर हम न तो शरीर हैं न मन. स्वयं को इन दोनों से पृथक जानना ही होगा. ध्यान यही कला है. जीवन को एक योद्धा की तरह जीना है, सदा सन्नद्ध व सजग, ताकि कोई भीरुता न भीतर घर कर जाये, जीवन एक यात्रा ही तो है, जैसे एक यात्रा में कुछ सामान साथ लेकर  चलना पड़ता है, सजग रहना होता है और मंजिल की ओर ही ले जाये ऐसे कदम बढ़ाने होते हैं वैसे ही जीवन रूपी यात्रा में हमें साहस व श्रद्धा का सामान लेकर आनंद रूपी मंजिल तक जाना है. हम यदि सजग यात्री हैं तो मंजिल स्वयं आयेगी. हमारे संकल्प शुभ होते हैं तो प्रकृति भी हमारा सहयोग करती है. ईश्वर तो अकारण हमारा मित्र है, वह हमसे जितना प्रेम करता है हम शतांश भी नहीं कर सकते.


वर्तमान ही सत्य है


मार्च २००३ 
मानव होने के नाते हमारा ईश्वर से मन का सम्बन्ध है. मन, बुद्धि को उससे जोड़ कर रखने से मानव जिस ऊँचाई तक पहुँच सकता है, वह उसके बिना नहीं होता. ऐसा व्यक्ति सुख व मान बाँटता रहता है उसका हृदय इनसे छलकता रहता है, इनकी मांग करने वाले का हृदय सदा अभाव का अनुभव करता है. हमारा आध्यात्मिक स्वास्थ्य बना रहे इसके लिये हमें साधना करनी होगी. मन की बिखरी हुई ऊर्जा को एक जगह केंद्रित करना है. इस जगत में कांच के टुकड़ों के अलावा कुछ भी मिलने वाला नहीं है. हीरे के समान आत्मा जब स्वयं हमारे पास है. सागर यदि सम्मुख हो तो बाल्टी से स्नान कौन करेगा. आत्मरूप में स्वयं को जानने पर वह परमात्मा हमसे अलग हो भी नहीं सकता. मृत्यु के भय से हम मुक्त हो जाते हैं. काल हमारे लिये वर्तमान में बदल जाता है. वर्तमान ही सदा सत्य है और वर्तमान का यह पल अटल है.


Thursday, May 17, 2012

प्रेम दीवाने जो भये


मार्च २००३ 
प्रेम दीवाने जो भये, मन भयो चकनाचूर, छकत रहे घूमत फिरे, सहजो कहत हजूर ! हृदय में ईश्वर के लिये प्रेम होगा तो एक नादान बालक की रक्षा जैसे माँ करती है, वैसे ही वह अन्तर्यामी हमारे कुशल क्षेम का भार उठा लेगा. वह, जिसे हमारे पल-पल की खबर है, उसके लिये हृदय में चाह तीव्र से तीव्रतर होती जाये तो वह स्वयं को प्रकट करता है. जैसे भक्त भगवान की राह देखता है भगवान भी उसकी राह देखते हैं. अंतर्मन यदि पूरी तरह खाली हो जाये और संसार की कोई लालसा शेष न रहे तो वह उसमें आ विराजता है. उसके कदम पड़ते ही भीतर प्रकाश हो जाता है, इस अनंतता में हम हैं, अनंत हमारे साथ है, यही अहसास रह जाता है, अपने पास होने का अनुभव और सारी दुविधाओं का नाश एक साथ ही घटित होते हैं. तब कृतज्ञता वश नेत्रों में जल भर आता है या हृदय में ऐसी कचोट उठती है कि उसे शब्दों में कहना संभव नहीं. देहाध्यास को मिटाते जाना है उस परम को पाने के लिये.

Wednesday, May 16, 2012

सुख-दुःख के जो पार हुआ है


मार्च २००३ 
सुख से दुख दबता है, आनंद से दुःख मिटता है. आनंद के आगे सुख-दुःख नहीं टिकते. सुख की चाह में हम स्वयं को दुखी करते हैं, हर सुख अपने पीछे एक दुःख छिपाए है जो उस वक्त नहीं दिखता. आनंद ज्ञान से उत्पन्न होता है. जहाँ ज्ञान है वहीं उपरति है, हर काम में सहज प्रसन्नता है, कार्य मात्र कार्य के लिये है न कि फल के लिये. तब कार्य ऐसे ही होता है जैसे नदी बहती है, सूरज उगता है, फूल खिलता है. तब सुख मन में चंचलता को उत्पन्न नहीं करता न ही अभिमान को. दुःख मन को सिकोड़ता नहीं, अज्ञान ही हमें दबोचता है. ज्ञानी को सत-असत का विवेक होता है, वह परिवर्तनशील जगत को नाटक की भांति जानता और देखता है. वह उसके पीछे न बदलने वाले ब्रह्म को ही सत्य जानता है. जीवन में जो बीत गया वह स्वप्न हो गया. जो नजर आ रहा है वह भी स्व्प्न हो जायेगा तो व्यर्थ की आपाधापी क्यों? हर रात हम नींद में जाते हैं एक तरह से मृतवत् ही होते हैं, नयी सुबह हमारा नया जन्म होता है. तो क्यों न जीवन को ऐसे जियें जिसमें कोई पकड़ न हो. हर पल सब कुछ छोड़ कर जाने को तैयार. 

Tuesday, May 15, 2012

जिन खोजा तीन पाइयाँ


मन के इस नगर में कहीं तो वह छुपा हुआ है, उसे खोजना है. बार-बार हमें उस पथ पर जानेके लिये उठना है, हम एक बार गिरे तो कहीं गिरते ही न चले जाएँ, यात्रा आसान नहीं है, मन जब उज्ज्वल होता है तभी रंग चढ़ता है. जहाँ-जहाँ वह अटके उसे लौटा लाना है, वह कहीं दूर नहीं है बस पर्दा उठाने भर की देर है. तब बुद्धि स्वतः उस शुद्ध स्वभाव में ठहरने लगती है. एक विचार उठा दूसरा अभी आने को है बीच का संधि काल उसी परमात्मा का शुद्ध ज्ञान है, उसी में टिकना है. श्वास को आते-जाते देखते समय भी मन ठहर जाये तो हृदय में ऋत उत्पन्न होता है.

Monday, May 14, 2012

जिन्ह हरि कथा सुनी नहीं काना


जिन्ह हरि कथा सुनी नहीं काना, श्रवण रन्ध्र अहि भवन समाना” हरि कथा हृदय को शीतलता प्रदान करती है, तीनों तापों से मुक्त करती है. अंतर्मन को शुद्ध और पावन करती है. उच्च विचारों का प्रवाह हमारे भीतर होने लगता है. अपने से मिलाती है, एक बार बोध होने पर उसमें कैसे टिके रहें वह उपाय बताती है. शाश्वत और नश्वर का भेद पता चलता है. समय का सही उपयोग कैसे हो इसका ज्ञान होता है. हम संसार का ज्ञान प्राप्त करने की चेष्टा करते हैं, पर कितना भी जान लें वह अधूरा ही रहता है, संसार बनाने वाले का ज्ञान ही हमें पूर्ण कर सकता है. जिससे सब कुछ जाना जाता है, जिससे सब कुछ हुआ है, जो सत्य है, शिव है, सुंदर है, जो आनंद है. जिसका चिंतन हमें मुक्त करता है. मुक्ति ही आनंद है, बंधन ही दुःख है. विकारों की रस्सियों से बंधे मन को हमें स्वयं ही खोलना है, और मन ने स्वयं ही यह बंधन बांधा हुआ है, वही स्वयं को मुक्त कर सकता है, पर यह समझ सत्संग देता है, हरि कथा देती है. 

Thursday, May 10, 2012

वह मौन में मिलने आता है


मार्च २००३ 
जीवन में सतोगुण कैसे आये, इसका वर्णन करते हुए संत कहते हैं कि संयम और सेवा यह दो ही सूत्र हैं, अर्थात मन पर नियंत्रण और हाथ से कर्म, ऐसे कर्म जो हितकारी हों. ईश्वर का सुमिरन भी तभी होगा. अनियंत्रित भोग और स्वार्थ ही हमें उससे दूर ले जाता है. वह हमसे हमारी भलाई की अपेक्षा के अतिरिक्त कुछ भी अपेक्षा नहीं रखता. वह हमें कदम-कदम पर चेताता है कि अपनी ऊर्जा को व्यर्थ न गवाएं. मौन केवल वाणी का हो तो उससे लाभ नहीं है, भीतर का मौन होना चाहिए. इसी मौन में चिदाकाश का दर्शन होता है. शुभ्र, अनंत, स्वच्छ नीले आकाश की तरह. जिसमें कोई तरंग न उठ रही हो ऐसी झील कई तरह ! कोई द्वंद्व नहीं, कोई अंतर विरोध नहीं, कोई कामना भी नहीं, बस अपना होना ही जहाँ पर्याप्त होता है. ‘हम हैं’ यह अनुभूति, ‘हम परमात्मा के अंश हैं’ यह ज्ञान और इस ज्ञान से उत्पन्न सहज आनंद ! 

Wednesday, May 9, 2012

राह निहारे कोई कब से


मार्च २००३ 

‘भूल्या यदि आपनुं, तदी होया खराब’ जब हम अपने को ही भूल जाते हैं तभी अभाव हमें सताते हैं. भाव तो हम स्वयं हैं. सत्, सुख स्वरूप, चैतन्य, शाश्वत हम स्वयं हैं पर जड़, असत, दुःख स्वरूप नश्वर जगत में हम सुख ढूँढने जाते हैं, तनाव हमें घेर लेता है, ईश्वर की सत्ता हवा और धूप की तरह हमारे चारों ओर व्याप्त है. उसकी चेतना हमारे कण-कण में व्याप्त है. जीवन दुर्लभ है, सत्संग दुर्लभ है, पर हमें ये दोनों मिले हैं, ज्ञान की धारा बह रही है. जब उसने इतने सारे संयोग प्रदान कर दिए हैं तो कदम बढकर उस तक पहुंचने में बस हमारी ओर से ही देर है. वह हमारी राह तक रहा है, हम ही उससे आँखें चुराते हैं. सत् की अधीनता यदि मन स्वीकार कर ले तो असत् की अधीनता से मुक्त हो जाता है, और धीरे धीरे जब ज्ञान में स्थिरता आ जाती है, हम उसी एक भाव में टिकना सीख जाते हैं. इसके लिए बार-बार उसकी शरण लेनी होगी. अनवरत जब मन एक तरफ जायेगा तो एक धारा की तरह वह उधर ही मुड जायेगा.

Tuesday, May 8, 2012

पानी विच मीन प्यासी, मोहे सुन् सुन् आवे हांसी



ध्यान में हमें माधुर्य, स्नेह, प्रेम से उस चैतन्य को पुकारना है. धीरे-धीरे भीतर जाना है. परमात्म रस को जागरण से प्रकट करना है. हमारा अंतर्मन सजग होता जाये तभी ज्योति उसमें प्रकट होगी. प्रमाद यदि थोड़ा सा भी शेष रह गया तो प्रगति नहीं होती. हृदय उसके प्रति प्रेम से इतना परिपूर्ण हो कि किसी और भाव के लिये जगह ही न रहे. जैसे मीन जल के बिना नहीं रह सकती, जल से बाहर आते ही वह तड़पने लगती है. मन भी प्रेम, शांति और आनंद के बिना नहीं रह सकता, जल का स्रोत सागर है आनंद का स्रोत अस्तित्त्व है. मीन सागर में खुश है, मन को अस्तित्त्व में ही खुशी मिल सकती है. हमारे जीवन में जो दुःख के क्षण आते हैं वह अपने स्रोत से विलग हुए मन के कारण ही आते हैं. जैसे कोई पोखर किसी नदी से अलग हो जाये तो दूषित हो जाता है पर बहती हुई नदी का पानी स्वच्छ रहता है. 

Sunday, May 6, 2012

मन का कौन लगाये मोल


जगत से व्यवहार करना है, उसे हमारी सेवा चाहिए जो तन और धन से हम कर सकते हैं. परमात्मा को हमारा मन चाहिए. संसार को हमारे मन की परवाह नहीं होती. मन का मोल परमात्मा ही जानता है  मन का स्नेह, प्रीत, पूजा, श्रद्धा सब अस्तित्त्व के नाम हो तो हमें सौ गुणा प्रतिदान मिलता है, उसका प्रेम शत गुणा होकर हमारे भीतर प्रकट होता है. दिव्य सुख व दिव्य आनंद देने में वही सक्षम है. मन तो आत्मा रूपी समुन्दर में उठी लहर है और आत्मा उसी का अंश है सो मन भी उसी का हुआ पर हम इसे जगत को दे देते हैं. कोई कीमती सामान देने से पहले हम दस बार सोचते हैं पर अनमोल मन दुश्मन को भी रत्ती के भाव दे देने में हमें कोई फर्क नहीं पड़ता. जब हम किसी के प्रति दुर्भाव भी रखते हैं तो भी मन उसी का चिंतन करता है यह उसे देना ही हुआ. व्यवहार भर का सम्बन्ध तो हमें संसार से बनाये रखना है पर दृढ़ बंधन उसी के साथ बांधना है अथवा तो उसके नाते बांधना है, उसको सबमें देखकर बांधना है. वह अकारण दयालु है, हितैषी है, प्रेमिल है, निकटस्थ है. वह तभी आता है जब मन खाली हो जाता है. एक हल्की जलधारा की तरह... जो स्वच्छ है निर्मल है, शीतल है, सुखमय है, वर्षा की फुहार की तरह... आकाश की तरह.. जहाँ कुछ भी नहीं है. मन जब विस्तृत हो जाता है सारा ब्रह्मांड अपना लगता है सभी को घेरे हुए पर सबसे अलग.

Friday, May 4, 2012

आत्म मंथन


जब जीवन में समस्याएं आती हैं, विपरीत परिस्थितियों का मुकाबला करने का अवसर आता है तब वास्तव में ईश्वरीय कृपा ही होती है. जब सब ठीक होता है तब भी उसकी दया होती है. मन यदि दोनों ही स्थितियों में सम रहे तो पावन होने लगता है. मन को तोड़ना नहीं मोडना है, वह या तो किसी न किसी चाह का चिंतन करेगा या समता का अनुभव करेगा. मन रूपी वासुकी को रस्सी बना, उसे शांति का लोभ देकर, हृदय रूपी मन्दराचल का मंथन करना है. तभी वह अमृत मिलेगा. आत्म मंथन से कई प्रसाद मिलेंगे पर अंत में परम शांति का अनुभव होगा. उसकी चाह करेंगे तो वह मिलेगा जग की चाह करेंगे तो जग मिलने का भ्रम ही देगा क्योंकि उसके साथ जुड़े हैं निराशा, दुःख, मोह, पीड़ा. परम के साथ सुख, शांति, आनंद, ज्ञान और प्रेम. वह प्रेम स्वरूप है जहाँ भी हाथ लगाएं वही हाथ में आयेगा,जैसे चीनी के पहाड़ को कहीं से भी चखें मीठा ही लगता है.


Thursday, May 3, 2012

अपार है विस्तार....


जब छोटा मन पिघल जाता है, बह जाता है, न-मन हो जाता है, तब भीतर रस का स्रोत फूट पड़ता है, तब जो बचता है वही बड़ा मन है, गुरु तत्व है. वही हमारा वास्तविक घर है, जहाँ हम तुष्टि-पुष्टि पाते हैं. मन जब विचारों के प्रवाह से मुक्त होता है, भाव जगते हैं, कोमलता का अहसास होता है, संवेदनशीलता बढ़ती है, तब छोटा मन जो स्वयं को पृथक समझता है, खो जाता है. विशाल मन सारी समष्टि को अपना मानता है. इस तरह सभी एक ही धागे में पिरोये मोती की तरह प्रिय लगते हैं. तब हम हजार मुख वाले, हजार हाथों वाले, हजार पैरों वाले हो जाते हैं. हमारा अंतर्मन इतना खाली हो जाता है कि जगत के ताप उसको सताते नहीं. वह द्वंद्वात्मक नहीं रहता कर्तृत्व की कामना शांत हो जाती है, फल की तो कामना रहती नहीं. यह जगत एक क्रीड़ा स्थल प्रतीत होता है. इसका विस्तार विस्मय को जन्म देता है और श्रद्धा को भी.

Wednesday, May 2, 2012

जो तू है सो मैं हूँ


फरवरी २००३ 
सच्चिदानंद का अर्थ है जो सत् है, चित् है और आनंद स्वरूप है. सत् का अर्थ है- ‘जो है’ और चित् का अर्थ है- ‘जिसे इसका ज्ञान है’ तथा जो आनंद स्वरूप हैं. सो हम भी सच्चिदानंद हुए, जिसे सोहम् कहकर भी व्यक्त करते हैं. भक्ति में पहला कदम तो ‘तू ही है’ से शुरू होता है, यह जगत भी उसी का रूप है, और ‘मैं’ भी जगत का अंश है सो ‘मैं’ भी उसी का रूप हुआ. जब तक यह बात अनुभव से न जान ली जाये तब तक बुद्धि से तो स्वीकारी जा सकती है. मौन रहकर ही वह अनुभव हो सकता है, सत्य को बोलकर व्यक्त नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसी क्षण बोलने वाला पृथक हो जाता है. “प्रेम गली अति सांकरी जामे दो न समाहीं, जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि है मैं नाहीं”