मार्च २००३
‘भूल्या यदि आपनुं, तदी होया खराब’ जब हम अपने को ही भूल जाते हैं तभी अभाव हमें
सताते हैं. भाव तो हम स्वयं हैं. सत्, सुख स्वरूप, चैतन्य, शाश्वत हम स्वयं हैं पर
जड़, असत, दुःख स्वरूप नश्वर जगत में हम सुख ढूँढने जाते हैं, तनाव हमें घेर लेता
है, ईश्वर की सत्ता हवा और धूप की तरह हमारे चारों ओर व्याप्त है. उसकी चेतना
हमारे कण-कण में व्याप्त है. जीवन दुर्लभ है, सत्संग दुर्लभ है, पर हमें ये दोनों
मिले हैं, ज्ञान की धारा बह रही है. जब उसने इतने सारे संयोग प्रदान कर दिए हैं तो
कदम बढकर उस तक पहुंचने में बस हमारी ओर से ही देर है. वह हमारी राह तक रहा है, हम
ही उससे आँखें चुराते हैं. सत् की अधीनता यदि मन स्वीकार कर ले तो असत् की अधीनता
से मुक्त हो जाता है, और धीरे धीरे जब ज्ञान में स्थिरता आ जाती है, हम उसी एक भाव
में टिकना सीख जाते हैं. इसके लिए बार-बार उसकी शरण लेनी होगी. अनवरत जब मन एक तरफ
जायेगा तो एक धारा की तरह वह उधर ही मुड जायेगा.
ज्ञान इतना बढ़ रहा है पर तर्क आड़े आ रहा है। पूर्ण समर्पण से हम मुंह चुराते हैं। बात कैसे बनेगी?
ReplyDeleteबहुत सटीक बात है सहमत हूँ इससे की मन एक धारा में बहने लगता है ।
ReplyDeleteमनोज कुमार has left a new comment on your post "राह निहारे कोई कब से":
ReplyDeleteज्ञान इतना बढ़ रहा है पर तर्क आड़े आ रहा है। पूर्ण समर्पण से हम मुंह चुराते हैं। बात कैसे बनेगी?
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Posted by मनोज कुमार to डायरी के पन्नों से at May 9, 2012 1:46 AM
मनोज जी, तर्क की एक सीमा है, तर्क परिधि पर ही है भीतर गहराई में भाव का सागर है...अनुभव की एक किरण ज्ञान से कहीं आगे ले जा सकती है, अनुभव के लिये साधना आवश्यक है.
ReplyDeleteअनवरत जब मन एक तरफ जायेगा तो एक धारा की तरह वह उधर ही मुड जायेगा.
ReplyDeleteएक दम से सटीक अनुभव जन्य सच .
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