धर्म व्यक्ति का परिमार्जन करता
है और विज्ञान वस्तु का परिमार्जन करता है. धर्म अंतर में ले जाता है, विज्ञान बाहर
की ओर ले जाता है. अंतःकरण का परिमार्जन करने के बाद उसका उपयोग विज्ञान के लिये
भी किया जा सकता है परहित के लिये. ऐसा विज्ञान दोषों के प्रति सजग होगा. और जो भी
कार्य उसके द्वारा होगा, उसका कर्ताधर्ता एक ‘वही’ होगा, करने वाला निमित्त मात्र
होगा. करने वाले का एक मात्र लक्ष्य तो अंतःकरण का परिमार्जन है सो वह निंदा का
पात्र होने पर भी कभी अपमानित नहीं होगा, सुख-दुःख आदि में सम भाव में रहकर वह अपने
अंतर आकाश को प्राप्त कर लेता है, जिस पर संसार रूपी बादल आते-जाते रहते हैं. पर
वह सदा एक सा ही है.
लाजवाब व्याख्या है ... सार्थक चिंतन ..
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन रचना....
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग
विचार बोध पर आपका हार्दिक स्वागत है।
दिगम्बर जी,आभार व स्वागत !
ReplyDeleteसुन्दर और गहन.....शीर्षक से याद आया की 11 कक्षा में इस विषय पर निबंध लिखा था मैंने, जिसे सबसे अच्छे अंक मिले थे :-)
ReplyDeleteपर आपका लेख किसी और तरफ इशारा है जो सदा है......बहुत ही सुन्दर।