मार्च २००३
पढ़ने की हद समझ है, समझ की हद ज्ञान
ज्ञान की हद प्रेम है, प्रेम की उसका नाम
जो हमें सहज प्राप्त है, स्वतः प्राप्त है. आनंद, प्रेम और
शांति बन कर जो भीतर स्वतः झरता रहता है, जिनके लिये एक अनंत स्रोत भीतर स्वतः उसने
दिया है, जिसे किसी क्रिया से उपजा नहीं सकते, हाँ उसके प्रति अनभिज्ञ अवश्य हो
सकते हैं. वह जो हमारा अभिन्न है, उसे एक क्षण के लिये भी कैसे भुला सकते हैं, वह
ही तो श्वास के रूप में पल-पल जीवन देता है, वही तो प्रकाश बनकर हमारे नेत्रों में
चमकता है. वही तो प्रेम का उजाला बनकर हमारे मन को रोशनी से भर देता है. उसे हमें
कहीं खोजना भी नहीं है, कोई परिश्रम भी नहीं करना उसे पाने को, बस एक बार उसी को
चाहना है, उसका हाथ थामना है. उसके बाद वह हमारी खोज खबर स्वयं ही लेता है.वह
सच्चा मित्र है, उसे हमसे कुछ भी नहीं चाहिए, हमारा शुभ ही उसका एकमात्र अभीष्ट
है. प्रकृति प्रतिपल बदल रही है, हमारा तन, मन, बुद्धि सभी प्रकृति में ही आते
हैं, पर हम आत्मरूप हैं जो कभी नहीं बदलता, उस एक का साथ कर लें तो वह सब स्वयं ही
छूट जाता है जो मिथ्या है या माया है अर्थात जो है नहीं पर दिखता है. तभी आत्मा का
सूर्य चमकता है, उसका प्रकाश सदगुरु की कृपा से प्रकटता है.
sundar aur sarthak aalekh
ReplyDeleteसदगुरु का सानिध्य हो तो उस यात्रा के अंत तक पहुंच सकते हैं।
ReplyDeleteइमरान व मनोज जी, आपका स्वागत व आभार !
ReplyDeleteबेहतरीन भाव संयोजित किये हैं आपने ।
ReplyDeleteकल 23/05/2012 को आपकी इस पोस्ट को नयी पुरानी हलचल पर लिंक किया जा रहा हैं.
आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!
... तू हो गई है कितनी पराई ...
sarthak alekh......
ReplyDeleteबेहतरीन और सार्थक लेख....
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति ....
ReplyDelete