Tuesday, June 30, 2020

मन के हारे हार है मन के जीते जीत

संत कहते हैं, जब तक हम मन के द्वारा चलाये जाते हैं हम साधक नहीं हैं, जब हम मन को चलाते हैं तब साधक की श्रेणी में आते हैं. मन को चलाने का अर्थ है मन पर कार्य करना. जब हम देह द्वारा कार्य करते हैं, हमारा कार्य व्यायाम नहीं कहा जा सकता, जब देह पर कार्य करते हैं अर्थात भार उठाना, दौड़ना, आसन आदि, उसे ही व्यायाम कहते हैं. देह की शक्ति उसे हिलाने-डुलाने से बढ़ती है पर मन की शक्ति उसे स्थिर और एकाग्र रखने से बढ़ती है. धारणा, ध्यान, चिंतन, मनन, समाधि यह सब मन पर कार्य करने की विधियां हैं. प्रकृति के साथ कुछ समय बिताने से भी मन सहज ही शांति का अनुभव करता है. मंत्र जाप अथवा ध्यान की कुछ मुद्राओं में बैठने मात्र से भी मन एकाग्र होता है. कोई नदी जब शांत हो तो उसकी तलहटी भी दिखाई देती है और जब पानी का बहाव तेज हो तो पानी के अतिरिक्त कुछ भी स्पष्ट नहीं होता. मन भी एक धारा की तरह है, यदि उसका बहाव धीमा होगा तो आत्मा का प्रतिबिम्ब उसमें झलकेगा, जब हम विचारों से घिर जाते हैं तब स्वयं से दूर चले जाते हैं, यही तनाव का कारण बनता है. 

Monday, June 29, 2020

जाग गया है जो भी जग में


बुद्ध को जब ज्ञान हुआ तो उन्हें प्रफ्फुलित और आभावान देखकर एक व्यक्ति ने पूछा, क्या आप कोई देवता हैं ? क्या आप गन्धर्व हैं ? क्या आप मानव हैं ? हर बार उन्होंने इंकार किया, आखिर उसने पूछा, आप कौन हैं ? बुद्ध ने कहा मैं जागा हुआ हूँ, मैं जागृत हूँ ! उस व्यक्ति ने कहा होगा, मैं भी इस समय जगा हूँ, सो तो नहीं रहा, आप यह किस जागरण की बात कर रहे हैं? युग-युग से सभी सन्त व शास्त्र इसी जागरण की बात कहते आ रहे हैं, जिसमें व्यक्ति सौ प्रतिशत वर्तमान में ही रहता है. मनसा, वाचा, कर्मणा वह प्रतिपल सचेत रहता है. वह सत्य के प्रति भी सदा जागृत है अर्थात निरन्तर परिवर्तनशील इस जगत को नाशवान मानता है. वह जानता है कि इस जगत में सभी कुछ एकदूसरे पर आश्रित है. देह व मन की गहराई में स्थित शून्य अवस्था का भी उसे ज्ञान है. उसकी प्रज्ञा जग गयी है, वह घटनाओं के पीछे छिपे कारण को भी देख लेता है, इसलिए उनसे प्रभावित नहीं होता. व्यक्तियों के व्यवहार के पीछे कारण को भी समझने वाला वह किसी भी व्यक्ति के व्यवहार से सुखी-दुखी होना छोड़ देता है. वस्तुओं के संग्रह की उसे आवश्यकता नहीं, जितना और जब आवश्यक हो उतना ही ग्रहण करने की आशा वाला वह लोभ को त्याग देता है. देह को साध्य नहीं साधन मानकर वह ध्यान के लिए उसे स्वस्थ रखता है.  

Friday, June 26, 2020

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे

सन्त कहते हैं यह जीवन ही धर्मक्षेत्र है. धर्म का अर्थ है जो धारण करता है, क्षेत्र का अर्थ है खेत. जीवन इसी में स्थित है. यह देह ही कुरुक्षेत्र है, जहाँ हमें कर्मों के बीज बोने हैं. हमें अपने मन की गहराई में स्थित उस परम जीवन, उस चैतन्य आत्मा रूपी जीवन में ही कर्म रूपी यज्ञ करना है. वही बीज बाहर हमारे जीवन में सुख-दुःख रूपी फलों को प्रदान करते हैं. साधना के द्वारा जब हम स्वयं को परम से एक कर लेते हैं तब हमारे बीज उस परम अग्नि में  जलकर भस्म हो जाते हैं और कोई फल नहीं देते. तभी हम मुक्ति का अनुभव करते हैं. 

Thursday, June 25, 2020

सद्विचार जब सोचेगा मन

विचारों से कर्म, कर्म से आदत, आदत से चरित्र और चरित्र से भाग्य का निर्माण होता है. इसका अर्थ हुआ हमारे भाग्य के निर्माता हमारे विचार हैं. जैसा विचार मन में होगा वैसा ही भाग्य निर्मित होगा. अब देखने वाली बात यह है कि कोई सकारात्मक विचारों को प्रमुखता देता है और कोई नकारात्मक बातों को, ऐसा क्यों होता है. यह भी तो विचार का ही फल है, जो अच्छी पुस्तके पढ़ेगा, शास्त्रों का अध्ययन करेगा, सन्तों, महापुरुषों की वाणी पढ़े, सुनेगा उसके भीतर वैसे ही विचार आएंगे. जो केवल अपने ही मन की सुनेगा वह नकारात्मकता का शिकार हो सकता है, क्योंकि मन का यह स्वभाव है वह नकार को जल्दी पकड़ लेता है, मन पानी की तरह है नीचे बहना  उसके लिए सरल है, यदि उसे ऊपर ले जाना है तो भाप बनाना पड़ेगा, जो तप से ही होगा. इसीलिए शास्त्रों में तप की महत्ता गायी गयी है. जीवन में अनुशासन हो तो वही तप है. वाणी पर संयम हो तो वह वाणी का तप है. तप से ही मन स्वभाव को बदल कर ऊँचा उठने लगता है, उसे अग्नि का साथ मिल जाता है, अग्नि सदा ऊपर ही उठती है. 

Wednesday, June 24, 2020

मन ही देवता मन ही ईश्वर

श्री अवधेशानंद जी मन का वर्णन करते हुए कहते हैं, मन सौंदर्य चाहता है, मन में स्त्रैण और पुरुषत्व दोनों के अंश हैं. मन कभी समर्पण करता है कभी अधिकार जताता है. जहाँ एक मन हो वहाँ आत्मा है. मन की गहराई में एकत्व है जिसकी सबको तलाश है. मन को रूप, रंग, स्पर्श, गन्ध तथा स्वाद का आकर्षण है, वह सदा किसी न किसी इन्द्रिय के साथ संयुक्त रहता है. नींद में भी स्वप्न का सृजन कर लेता है. स्मृति के द्वारा भी उन वस्तुओं का भोग करता है  जो वर्षों पहले मिली थीं. वह अतीत के स्मरण के बिना स्वयं को अधूरा समझता है, भविष्य की कल्पना द्वारा स्वयं को तृप्त करना चाहता है. वर्तमान के क्षण में उसका अस्तित्त्व नहीं रहता, वह अपने स्रोत में मिल जाता है. यदि उन क्षणों को ध्यान के द्वारा बढ़ा दिया जाये तो आत्मा मन का उपयोग करने लगती है. जब जहाँ जरूरत हो वह चिंतन करती है. मन चिंता करता है. जब जरूरत न हो वह स्वयं में विश्राम करती है तथा सहज ही आनंद का अनुभव करती है. 

Tuesday, June 23, 2020

बहे ऊर्जा पल-पल उसकी

जीवन अपार संभावनाएं लिए हमारे सम्मुख खड़ा है. हम ही उससे आँखें चुराए अपने आपको एक बंधे-बंधाये क्रम में ढाल कर अपनी ऊर्जा को व्यक्त होने से रोकते हैं. परमात्मा की ऊर्जा भिन्न-भिन्न आकारों से पल-पल व्यक्त हो रही है. कोई कलाकार एक अनगढ़ पत्थर को सुंदर शिल्प में बदल देता है, कोई सात सुरों से ऐसी मोहक धुन निकालता है कि जड़-चेतन सभी उसे सुनकर ठिठक जाते हैं. कहीं वह परमात्मा वीरों के रूप में प्रकट हो रहा है तो कहीं संतों के रूप में. अनेकानेक फूलों, पंछियों और तितलियों के रूप में भी तो वही ऊर्जा व्यक्त हो रही है. इस ऊर्जा का स्वभाव है प्रेम और आनंद ! ध्यान की गहराई में इसका अनुभव होता है और सेवा के रूप में जगत में यह प्रकट होती है. उन कर्मों से यह प्रकट होती है जो जगत के प्रति प्रेम से प्रकटे हों या आनंद के अतिरेक में सहज ही होते हों. मन जब इतर कामनाओं से खाली हो, तब इस ऊर्जा का अनुभव कण-कण में उसे होता है. शास्त्र इसे ही भक्ति कहते हैं. भक्त का अंतर जब इस भक्ति का स्वाद ले लेता है तो जगत के अन्य स्वाद उसे नहीं भाते. जीवन में उसे कुछ पाने का नहीं सहज होकर जीने का मार्ग भाता है. भविष्य की कल्पनाएं और अतीत की उपाधियों से परे वह केवल वर्तमान में ही रहने लगता है. 

Monday, June 22, 2020

त्वमेव माता च पिता त्वमेव

भक्ति के ग्यारह विभिन्न भाव एक दूसरे के साथ जुड़े हैं. हरेक व्यक्ति में इनका कुछ न कुछ अंश होता ही है. कोई एक प्रकार का भाव अलग-अलग व्यक्तित्व में प्रमुखता से दिख सकता है. सदगुरू कहते हैं भक्त लोकलाज की परवाह नहीं करते, जगत की निंदा-स्तुति की परवाह न करने वाले ही भक्त हो सकते हैं. प्रेम से ही ईश्वर तुष्ट होते हैं. हम संसार में अपना बल खोजते हैं, ईश्वर का बल मिल जाने पर किसी और बल की जरूरत ही नहीं है. जगत के साथ संबन्ध बन्धन लगता है ईश्वर के साथ जो बन्धन है वह बन्धन नहीं लगता, वह मुक्ति का द्बार खोल देता है. वह ध्यान के लिए अनुकूल है, भक्ति ध्यान के लिए और ध्यान भक्ति के लिए जरूरी है. किसी के भीतर भक्ति सहसा भी घट सकती है जैसे बिजली का चमकना और अभ्यास से भी जैसे सूर्य का उगना. योग करने, साधना करने से भीतर ध्यान की रूचि जगती है, पूजा में भी रूचि जगती है, और एक दिन भक्ति का उदय होता है. कोई इस पथ पर आरम्भ से ही चल पड़ता है. भक्त की दृष्टि से परमात्मा सारे जगत की सेवा कर रहा है. 

Sunday, June 21, 2020

भक्ति एक रूप अनेक


जैसे सूर्य की किरण श्वेत है पर उसमें सात रंग छिपे हैं, वैसे ही भक्ति का रूप प्रेम है पर उसमें ग्यारह प्रकार की सुगंध छिपी है. पहला प्रकार है प्रेमास्पद की गुण महिमा गाना, जिससे हम प्रेम करते हैं, उसके गुणों का बखान करना स्वाभाविक है. दूसरा प्रकार है उसके रूप के प्रति आसक्त होना. सौंदर्य के प्रति समर्पित व्यक्ति आक्रामक नहीं होता. जहाँ भी सुंदरता है भक्त को उसके पीछे वही दिखता है. अरूप के प्रति समर्पित होकर रूप का दर्शन करना है, रूप से फिर अरूप की और जाना है.  जैसे प्रकृति में विविधता है, वैसे ही मानव भी विभिन्न कलाओं के माध्यम से उस रूप को व्यक्त करता है. मूर्तिकला, चित्रकला, वास्तु हर सृजन के पीछे भक्ति है. पूजासक्ति भक्ति का तीसरा प्रकार है. भीतर पूर्णता का अनुभव करके जो भी कृत्य किया जाता है वह पूजा है. स्मरणासक्ति अर्थात स्मृति में बने रहना,  जिसे प्रेम करते हैं उसकी याद बने रहना भी भक्ति का एक रूप है. दास्यभाव भक्ति का अगला प्रकार है,भक्त ईश्वर के दास हैं,  इस भाव में एक निश्चिंतता है, स्वामी को सब समर्पण कर दिया है, अब उसके कुशल-क्षेम की रक्षा वही करेंगे. सख्यासक्ति में भक्त भगवान को अपना सखा मानता है. सखा भाव में हर भेद मिट जाता है, वे हर वस्तु बांटते हैं. वात्सल्यासक्ति में भगवान को अपना शिशु मानकर प्रेम जताना भी भक्ति है. कांतासक्ति में ईश्वर में प्रियतम भाव को आरोपित किया जाता है. ईश्वर को अपना प्रियतम मैंने से उससे कुछ भी छिपाया नहीं जा सकता. तन, मन, धन सब कुछ उसे समर्पित कर देना ही कांतासक्ति है. इसके बाद आती है आत्मनिवेदनासक्ति जिसमें सभी भावों को उन्हें समर्पित कर देता है. तन्मयासक्ति में भक्त भगवान के स्मरण, उसके रस में, उनकी स्मृति में पूरी तरह से डूब जाता है. परमविरहासक्ति में प्रियतम के अभाव से ही भक्ति का अनुभव होता है. विरह की पीड़ा ही भक्त के हृदय में दर्द भरा आनंद भर देती है.  

Friday, June 19, 2020

भक्ति जब कर्मों में झलके


आगे नारद जी कहते हैं, कर्म और ज्ञान से भक्ति श्रेष्ठ है क्योंकि वह दोनों में ओतप्रोत है. भक्ति कर्म का भी आधार है. कर्मयोगी अति संवेदनशील होता है.. कर्म के आरंभ  में निष्ठा के रूप में भक्ति है, कर्म करते समय आनंद के रूप में भक्ति है और कर्म का लक्ष्य यदि शांति है तो उस रूप में भी भक्ति का अनुभव ही कर्मयोगी करता है. इसी तरह जिस विषय के प्रति लगाव नहीं है उसका ज्ञान भी कैसे प्राप्त करेंगे. ज्ञान में रूचि के रूप में भक्ति है. जिस ज्ञान से हम विस्मित नहीं होते, वह ज्ञान भी ज्ञान नहीं है, विस्मय आनंद देता है, इसलिए ज्ञान के लक्ष्य पर भी भक्ति है. भक्ति के बिना ज्ञान अंधा हो जाता है, कर्म लँगड़ा हो जाता है. 

Wednesday, June 17, 2020

भक्ति का जो मर्म जान ले

भक्ति शास्त्र को सुनना ही नहीं है, उस पर मनन भी करना है. सारा संसार ही भक्ति शास्त्र है. भक्त को हर जगह परमात्मा के दर्शन होते हैं. सुख-दुःख, इच्छा, हानि-लाभ से परे जाकर ही भक्ति की साधना हो सकती है. लाभ और लोभ जुड़वां हैं, इन्हें मन में घर नहीं बनाने देना है. इसी तरह मान की भी चिंता छोड़ देनी होगी. संसार में आलोचना से घबराने वाले लोग रोग से घबराने वालों से भी ज्यादा हैं. जब समर्पण भाव जगता है तब जीवन का दरिया बहने लगता है, नहीं तो जीवन एक पानी का रुक हुआ डबरा बन जाता है, जिसमें काई जमने लगती है. ज्ञानी का लक्ष्य भी अटल भक्ति है. यह सब करने के बाद काल की प्रतीक्षा करनी है. प्रतीक्षा में एक शक्ति है जो सारे विकारों को दूर कर देती है. ऐसी प्रतीक्षा ध्यान में बदल जाती है.  प्रतीक्षा की क्षमता नहीं है तो काल बेचैन कर देता है, उदास बना देता है. काल की प्रतीक्षा करते हुए भी एक क्षण भी व्यर्थ नहीं बिताना है. अहिंसा, शौच, सत्य, आस्तिकता आदि सदाचारों का पालन करना है. योगी संसार के त्याग की बात करता है अपर भक्त हर भाव में उन्हीं को देखता है. प्रकृति में ईश्वर को देखना भक्ति है. 

जाना है उस पार जिसे


भक्ति की व्याख्या कहते हुए आगे गुरूजी कहते हैं, हनुमानजी भक्तों में शिरोमणि हैं. हनुमान के भीतर रोम-रोम में राम ही बसे हैं. किसी -किसी क्षण में भक्त भगवान से भी बड़ा हो जाता है. राम से ज्यादा शक्ति हनुमान में है. भगवान भक्त को उससे ज्यादा समझते हैं, वह उसकी दुर्बलता और ताकत दोनों को जानते हैं. हनुमान जब स्वयं की शक्ति को भूल गए थे तब जाम्बवान के द्वारा ईश्वर ने ही सम्भवतः उन्हें उसकी याद दिलाई. भक्त कभी अकेलापन महसूस नहीं करता. उसके आराध्य की एक नजर से उसके कर्म नष्ट होने लगते हैं. गुरु के सम्मुख भी यही होता है. उनकी शाब्दिक शक्ति से अधिक होती है उनकी उपस्थिति. जिसके भीतर ज्ञान और भक्ति का संगम हुआ है, वहीं अमृत प्रकटता है. गुरु के प्रति श्रद्धा हो तो उनकी बात पर भरोसा करना आसान है. अल्प बुद्धि में फंसा व्यक्ति शीघ्र भरोसा नहीं कर पाता। जो बुद्धत्व को प्राप्त करता है उसकी बुद्धि प्रकांड होती है, किन्तु वह बुद्धि के पार चले जाते हैं. जिस नाव में बैठकर नदी पार की, उसे तट पर जाकर तो छोड़ना पड़ेगा. भक्ति के क्षेत्र में तर्क का कोई स्थान नहीं है. तर्क कब कुतर्क बन जाता है पता ही नहीं चलता. वितर्क से आत्मज्ञान होता है .हर अनुभूति तर्क से परे है. मन्त्र शक्ति भी अतार्किक है, कृपा भी अतार्किक है.

Tuesday, June 16, 2020

नित उसका जो भजन करें हम


नारद भक्ति सूत्र की व्याख्या करते हुए गुरु जी आगे कहते हैं, तीन गुणों से यह जगत बना है. प्रेम की अभिव्यक्ति भी इन्हीं गुणों से होती है. तमोगुणी प्रेम में पीड़ा देते हैं और पीड़ा लेते हैं. रजोगुणी प्रेम किसी न किसी कारण से होता है, गुणों के आधार पर या किसी योग्यता के आधार पर होता है, यह प्रेम स्वार्थी होता है. भगवान के मंदिर में लोग किसी न किसी कामना से जाते हैं. सतोगुणी प्रेम बिना किसी कारण के होता है. भजन का अर्थ होता है भागीदारी, ईश्वर के गुणों को ग्रहण करना तथा अपने सुख-दुःख को भगवान के साथ बाँट लेना. परमात्मा और समष्टि के प्रति जब किसी का प्रेम भाव अकारण बहने लगता है तो वही प्रेम भक्ति बन जाता है. इसकी तुलना केवल माँ के प्रेम से की जा सकती है, माँ का प्रेम सन्तान के प्रति बहता रहता है, बना रहता है, कभी मिटता नहीं है. सारे जगत के प्रति जब ऐसी दृष्टि जगती है, वही भक्ति है. नारद मुनि कहते हैं, भावनात्मक या गुणात्मक प्रेम के परे जाकर स्वामी-सेवक भाव से या प्रेयसी-प्रियतम भाव से प्रेम जगे, यही भक्त का प्रयास रहे. ऐसा प्रेम हरेक के भीतर है बस छिप गया है. अपने सम्पूर्ण अस्तित्त्व से इस प्रेम को अभिव्यक्त करना है. 

Tuesday, June 9, 2020

सबसे ऊँची प्रेम सगाई

भक्ति सूत्रों पर व्याख्या करते हुए सद्गुरु आगे कहते हैं - जगत को देखने का नजरिया सबका अलग-अलग है. एक वैज्ञानिक जगत को देखकर विश्लेषण करता है, वह चाँद को देखता है तो उसके बारे में जानने का प्रयत्न करता है. भक्त, कवि या कलाकार चाँद को देखकर किसी अनोखी भावदशा का अनुभव कर सकता है, वह जगत को संयुक्त देखता है, उससे संबंध  बना लेता है. कुछ लोग मूर्ति पूजा को नहीं मानते, वे कहते हैं स्तुति, प्रार्थना, अर्चना उसकी करो जो हर जगह है, पर कुछ के लिए मूर्ति झुकने के लिए एक आधार बनती है. भक्ति, योग व ज्ञान दोनों के लिए आवश्यक है. नारद पहले ही कह चुके हैं भक्ति प्रेमस्वरूपा है, प्रेम मात्र भावना नहीं है यह मानव का अस्तित्त्व है, प्रेम से ही वह बना है. योग से भावना में स्थिरता आती है, ज्ञान से अंतर निर्मल होता है. योगियों का लक्ष्य समाधि है, पर भक्त के लिए समाधि का अनुभव कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है. भीतर जब चेतना खिल जाती है तो भाव समाधि का सहज ही अनुभव होता है. भक्ति में श्रेष्ठ के वरण की कामना है. इसलिए साधक को कुसंग त्यागना है. अहंकार को मिटाना है. ‘मैं’ और ‘मेरा’ के पत्थर पैरों में बाँध कर पर्वतों की चढ़ाई नहीं की जा सकती. उसे तीनों गुणों के पार जाना है. भगवान को जो कुछ भी कोई प्रेम से देता है वह उसे स्वीकारते हैं. वह जानते हैं कि कोई किसी के काम आ जाए तो उसका आत्मसम्मान बढ़ता है. सृष्टि का यह आयोजन तो अनंत काल से चल रहा है, उसमें हमारा छोटा सा यह जीवन क्या अर्थ रखता है. पर यही प्रेम का भेद है ! प्रेम का आदान-प्रदान ही इसे सार्थक बनाता है. 

Monday, June 8, 2020

भक्ति करे कोई सूरमा

नारद भक्ति सूत्रों के अनुसार पराशर मुनि कहते हैं, पूजा में अनुराग होना ही भक्ति है. शांडिल्य के अनुसार किसी भी प्रकार के  विरोध के बिना अपने भीतर स्थित हो जाना ही भक्ति है. भीतर द्वंद्व हो तो भक्ति संभव नहीं है. एक अन्य आचार्य के अनुसार आत्मा में जब रति होती है तो भीतर जो मस्ती होती है वह भक्ति है. नारद के अनुसार सभी आचरणों को उसे समर्पित कर देना ही भक्ति है. दूसरे के व्यवहार को लेकर उन्हें समझाना भी हो तो भीतर क्रोध या ग्लानि नहीं होनी चाहिए. स्वयं के दोष देखकर भी आत्मग्लानि न हो तभी भक्ति टिक सकती है. कर्म करने से पहले विश्राम तथा कार्य करने के बाद समर्पण कर देना चाहिए. अच्छा करने का अभिमान  होता है, इसलिए सभी कुछ समर्पण कर देना चाहिए. हम जब भी व्याकुल होते हैं तो जान लेना चाहिए कि हम उसे भूल गए. प्रेम और आदर जहाँ  दोनों हों वहीं भक्ति पनपती है. स्वयं के प्रति या अन्य के प्रति आदर न हो तो प्रेम धीरे-धीरे सूख जाता है, व्यक्ति के भीतर आत्मग्लानि का जन्म होता है. प्रेम एक ऊर्जा है, आत्मसम्मान से भरा व्यक्ति ही सम्मान करना जानता है. सम्मान पाने की लालसा जब तक भीतर है प्रेम का प्रस्फुरण नहीं होता. जहाँ दिखावा है वहाँ निकटता द्वेष को जन्म देती है. प्रेम देने की कला है, पूर्णरूप से निछावर होना भक्ति का लक्षण है. 

Friday, June 5, 2020

श्रद्धा जिसकी सदा अटल है

आज गुरूजी ने बताया भक्ति मन में जगे इसके लिए शरणागति एक साधन है. यदि कोई भूल हमसे होती है और उसे हम स्वीकार लेते हैं, तो उससे बाहर आ जाते हैं. जो झुकना नहीं जानता वह आनंद के सागर में डुबकी नहीं लगा सकता. असहाय के लिए ही भगवान सहायक बन कर   आते हैं, दीन के लिए ही दीनानाथ है, जो स्वयं को सदा सही मानता है, अपनी भूल स्वीकार करने में जिसका अहंकार आड़े आता है, वह अपने भीतर विश्राम नहीं कर सकता. गुरु के बिना यह ज्ञान नहीं मिलता और ईश्वर की कृपा के बिना गुरु का सान्निध्य नहीं मिलता. गुरु के सान्निध्य का अर्थ है उनके ज्ञान को स्वीकारना, अपनी बुद्धि को किनारे रखकर श्रद्धा भाव से स्वयं के जीवन में परिवर्तन के लिए सदा तैयार रहना. मन को मारकर बैठना ही गुरु की संगति में बैठना है. जो भी हम अपने प्रयत्न से प्राप्त करते हैं वह हमसे छोटा ही होता है, पर जो गुरु अथवा ईश्वर की कृपा से मिलता है वह असीम है. उस असीम को भीतर समाने के लिए हमारा छोटा सा मन पर्याप्त नहीं है. एक लोटे में भला सागर समा सकता है क्या ?  साधक को गुरु के रक्षा कवच में रहना है. अपने हर आग्रह को छोड़ना है. जीवन में कितने ही कठोर अनुभव करवा के परमात्मा हमारी श्रद्धा को हिलाते हैं, पर जो हर संशय को पार करके भी अटल रहती है ऐसी दृढ श्रद्धा ही वास्तविक है. ऐसी श्रद्धा जगते ही हृदय द्रवीभूत हो जाता है, अहंकार पिघल जाता है और हमारे व्यक्त्तिव में एक लोचपन आता है जो किसी भी परिस्थिति में हमें स्थिर बनाये रखता है.  

Thursday, June 4, 2020

रसो वै स:

जीवन वही सार्थक है जिसमें रस है. शास्त्र कहते हैं परमात्मा रसपूर्ण है, इस रस की जिसे एक झलक भी मिल जाती है उसके भीतर इसे पाने की लालसा जग जाती है. परमात्मा के प्रति यह लगन ही जीवन में रस उत्पन्न करती है. नारद मुनि कहते हैं, योग, कर्म, ज्ञान, भक्ति आदि में भक्ति मुख्य है, क्योंकि शेष सबका लक्ष्य भी भक्ति ही तो है. भक्ति जीवन में पूर्णता का अनुभव कराती है. समपर्ण की घड़ी जब जीवन में आती है तो जीवन रसपूर्ण प्रतीत होता है. ज्ञान का उद्देश्य है भक्ति और कर्म की सफलता है भक्ति. योग की पराकाष्ठा है भक्ति. भक्ति में प्रेम और विरह दोनों का अनुभव जरूरी है. प्रेम ही जीवन का आधार है, लक्ष्य भी और गति भी, विरह जगे तो अभिमान टिक नहीं सकता. भगवान को अभिमानी जरा भी नहीं भाते. जो भक्ति में झुकता है उसे कभी लज्जित होकर झुकना नहीं पड़ता. 

Tuesday, June 2, 2020

चेतन अंश जीव अविनाशी

नारद भक्ति सूत्र प्रवचन श्रृंखला का आज दूसरा दिन है. नारद मुनि कहते हैं हृदय में कामना रखकर सामाजिक और धार्मिक कार्यों में लगा हुआ व्यक्ति भक्ति का अधिकारी नहीं है. व्यक्ति को  परमात्मा से अपने सहज संबंध को स्मरण मात्र करना है, केवल उसके प्रति सजग होना है. यदि हमारे धार्मिक कृत्य कुछ न कुछ पाने की आशा से किये जाते हैं तो हम उस परम् रस के अधिकारी कैसे हो सकते हैं. यह सही है कि हमें कुछ न कुछ कर्म करना ही है, कर्म यदि इस भाव से किये जाते हैं कि उनसे हमारा मन शुद्ध होगा और किसी का कल्याण होगा तब एक दिन हम भक्ति के अधिकारी बन सकते हैं. साथ ही यह भी सत्य है कि यह सिद्धि समय सापेक्ष नहीं है, यदि इसी क्षण हम अपनी कामनाओं को छोड़ सकें तो इसी समय परम् रस का अनुभव कर सकते हैं. भक्ति का एक और लक्षण है अनन्यभाव, जब हम परमात्मा से प्रेम करते हैं और उसे स्वयं से भिन्न नहीं मानते तो अनन्य भाव का अनुभव होता है. 

Monday, June 1, 2020

भक्ति की जब जगे जिज्ञासा

आज से गुरूजी ने 'नारद भक्ति सूत्र' पर बोलना आरंभ किया है. उन्होंने कहा, जब जीवन में उत्कृष्टता की चाह जगती है, तब भक्ति के प्रति जिज्ञासा मन में जगती है. जिनके जीवन में भक्ति रस प्रकट हुआ है वही भक्ति के बारे में बता सकता है. नारद कहते हैं, भक्ति प्रेम स्वरूपा है, प्रेम के बिना इस जगत में कोई रह नहीं सकता. प्रेम से ही सब कुछ प्रकट होता है पर  प्रेम विकारों के बिना नहीं मिलता. भक्ति वह प्रेम है जो अविकारी है, वह अमृतस्वरूप है. प्रेम का लक्षण है शाश्वतता का अनुभव होना. ईश्वर को प्रेम करना भक्ति का प्रथम लक्षण है, जो दिखता नहीं उस अदृश्य से प्रेम करने पर तृप्ति का अनुभव होता है. समय की अनुभूति जब होती है तब हम अमरता का अनुभव नहीं करते. ईश्वर के प्रति प्रेम जगते ही भीतर एक शांत, प्रसन्न चेतना जगती है. भक्त के जीवन में द्वेष नहीं रहता, शोक नहीं रहता. ज्ञान मन के विकारों को दूर करता है पर ज्ञान के ऊपर है भक्ति. ज्ञान हमें पूर्णता का अनुभव नहीं कराता. भक्त अपने भीतर एक मस्ती का अनुभव करता है, स्तब्धता का अनुभव करता है. ज्ञान का उदय होता है और क्षय होता है पर भक्ति कभी कम नहीं होती जो नित वृद्धि को प्राप्त होती है. भक्त के हृदय में कोई कामना नहीं रहती, जिसकी सब कामनाएं नष्ट हो गयी हैं वही भक्ति को अनुभव कर सकता है.