Friday, December 14, 2018

दृष्टिकोण बदल जाये जब


१५ दिसम्बर २०१८ 
उपनिषदों में कहा  गया है, जिसे जानकर मनुष्य कृत-कृत्य हो जाता है, प्राप्त–प्राप्तव्य हो जाता है, ज्ञात-ज्ञातव्य हो जाता है, वह आत्मा का ज्ञान है. शास्त्र हमें नवीन जीवन दृष्टि देते हैं. स्वयं का, जगत का प्रकृति का और परमात्मा का ज्ञान कराते हैं. हमारे कर्म उन धारणाओं पर आधारित होते हैं जो हमने स्वयं, जगत व परमात्मा के बारे में अपने भीतर बनाई होती हैं. यदि हम स्वयं को सीमित देह मानते हैं तो भय तथा असुरक्षा से घिरे ही रहेंगे. जगत के साथ हमारा संबंध भी प्रतिद्वन्दता का होगा. परमात्मा हमें दूर प्रतीत होगा. यदि असीम आत्मा मानेंगे, तो उसमें सब कुछ समाहित हो जायेगा, जगत अपना आप ही प्रतीत होगा, भय का कोई कारण ही नहीं रहेगा. इसी प्रकार यदि हम स्वयं को मन, बुद्धि मानते हैं तो सुख-दुःख के झूले में झूलते ही रहेंगे, क्योंकि मन सदा एक सा नहीं रहता, छोटा सा आघात भी उसे हिला देता है और ज्यादा सुख को भी वह सह नहीं पाता. बुद्धिगत ज्ञान हमें सांसारिक सुविधाएँ तो दिला सकता है पर आन्तरिक संतुष्टि से हम दूर ही बने रहते हैं. स्वयं का असली परिचय ही हमें सदा समता में रख सकता है, जिससे एक न खत्म होने वाली अटूट शांति और सहजता हमारे जीवन का अंग बन जाती है.

Sunday, December 9, 2018

स्वयं में ही विश्रांति मिले जब


१० दिसम्बर २०१८ 
मन में कामना उठती है किसी न किसी अभाव का अनुभव करने के कारण. उस अभाव की पूर्ति के लिए हम कर्म में तत्पर होते हैं. कर्म का एक संस्कार भीतर पड़ता है और भविष्य में उसका निर्धारित फल भी मिलने ही वाला है. उदाहरण के लिए यदि हमारे भीतर कहीं जाने की कामना उत्पन्न हुई, इसका अर्थ है हम जहाँ हैं वहाँ कोई अभाव है, गन्तव्य पर जाकर हम पूर्णता का अनुभव करेंगे. यात्रा के दौरान कितने ही संस्कार मन पर पड़े और लक्ष्य पर पहुँच कर जिस प्रसन्नता का हमने अनुभव किया, उसे पुनः-पुनः अनुभव करने की नई कामना ने भीतर जन्म लिया. अब उस स्थान पर भी भीतर अभाव का अनुभव होगा, यही बंधन है. जीवन इसी चक्र का दूसरा नाम है, हम जिस कामना की पूर्ति के लिए इतना श्रम करते हैं, वह हमें पुनः वहीँ पहुँचा देती है, जहाँ से हम चले थे. क्या कोई ऐसा क्षण हो सकता है, जब भीतर कोई अभाव न हो, पूर्ण तृप्ति का अनुभव हो और हम पूर्ण स्वाधीनता का अनुभव करें. मन की धारा यदि बाहर से लौट आए और भीतर की तरफ यात्रा करे एक बिंदु पर आकर वह स्वयं में खो जाती है और जो शेष रहता है वही सहज विश्राम है, जिसमें कोई अभाव नहीं रहता.

Thursday, December 6, 2018

मन की नदी मिले सागर से


७ दिसम्बर २०१८ 
नदी पर्वत से निकलती है तो पतली धार की तरह होती है, मार्ग में अन्य जल धाराएँ उसमें मिलती जाती हैं और धीरे-धीरे वह वृहद रूप धर लेती है. अनेकों बाधाओं को पार करके सागर से जब उसका मिलन होता है, वह अपना नाम और रूप दोनों खोकर सागर ही हो जाती है. जहाँ से वह पुनः वाष्पित होगी और पर्वत पर हिम बनकर प्रवाहित होगी. जीवन भी ऐसा ही है, शिशु का मन जन्म के समय कोरी स्लेट की तरह होता है, माता-पिता, शिक्षक, समाज, राज्य, राष्ट्र और विश्व उसके मन को गढ़ने में अपना योगदान देते हैं. अनेक विचारों, मान्यताओं व धारणाओं को समेटे होता है उसके मन का जल. यदि उचित समय पर मार्गदर्शन मिले और मृत्यु से पूर्व वह पुनः मन को खाली कर पाए, नाम-रूप का त्याग कर समष्टि मन से एक हो जाये तो वह भी सागर बन सकता है. ऐसा तभी सम्भव है जब मन भी नदी की भांति निरंतर बहता रहे, किसी पोखरी की भांति उसका जल स्थिर न हो जाये.  

Monday, November 26, 2018

छिपा सांत में है अनंत भी


२६ नवम्बर २०१८ 
अध्यात्म हमें देहाध्यास से छुड़ाकर आत्मा में स्थित होने की कला सिखाता है. जन्म के साथ ही सबसे पूर्व हमारा परिचय अपनी देह के साथ होता है. एक प्रकार से देह को ही हम अपना स्वरूप समझने लगते हैं. जैसे जैसे शिशु बड़ा होता है, उसका परिचय अपने आस-पास के वातावरण व संबंधियों से होता है. उसका नाम उसे सिखाया जाता है, धर्म, राष्ट्रीयता और लिंग के आधार पर उसे उसकी पहचान बताई जाती है. जीवन भर यदि कोई व्यक्ति इसी पहचान को अपना स्वरूप समझता रहे तो वह जीवन के एक विराट सत्य से वंचित रह जाता है. गुरू के द्वारा जब यह पहचान दी जताई है, तब उसका दूसरा जन्म होता है, इसीलिये ब्राह्मण को द्विज कहा जाता है. यह पहचान उसके वास्तविक स्वरूप की है, जो एक अविनाशी तत्व है. स्वयं के भीतर इसका अनुभव करने के लिए ही गुरू के द्वारा साधना की एक विधि दी जाती है. सभी साधनाओं का एकमात्र लक्ष्य होता है साधक को देहाध्यास से मुक्त कराकर अपने असीमित स्वरूप का भान कराना. यही अध्यात्म विद्या है और यही भारत की जगत को सबसे बड़ी देन है.

Friday, November 23, 2018

भीतर ही वह सागर मिलता


२४ नवम्बर २०१८ 
जो ‘है’ वह शब्दों में नहीं कहा जा सकता, जो ‘नहीं’ है उसके कहने का कोई अर्थ नहीं. किन्तु इतना कहना भी कुछ कहने में ही आता है. संत कहते हैं, परमात्मा को जाना नहीं जा सकता, उसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता हाँ, उसके साथ एक हुआ जा सकता है, उसके होने को अनुभव किया जा सकता है. उसकी उपस्थिति को उसी तरह दूसरे को नहीं दिखाया जा सकता जैसे कोई दूर बैठे मित्र को अपने मुल्क की हवा का स्पर्श नहीं करा सकता, सूरज की किरणों की नरमाई-गरमाई को नहीं भेज सकता, उसके लिए तो उसे स्वयं ही आना पड़ेगा. इसी तरह हरेक को अपने भीतर स्वयं ही जाना पड़ेगा, जो भीतर जायेगा वही वापस नहीं आएगा, क्यों कि जो आयेगा वह भी कुछ कह नहीं पायेगा. अध्यात्म का पथ कितना रहस्यमय है इसलिए ही इसका आकर्षण भी इतना अधिक है. यहाँ जो गया वह जगत में रहकर भी निज स्वभाव में ही बना रह सकता है.

Monday, November 19, 2018

अलख, निरंजन, भव भय भंजन


२० नवम्बर २०१८ 
संत कहते हैं परमात्मा ही जगत के रूप में दिखाई देता है, और वह उससे परे भी है. इसी प्रकार हम देह, मन, बुद्धि आदि के माध्यम से व्यक्त होते हैं पर उससे परे भी हैं, अपने उस सहज आनंद स्वरूप को जानना ही साधना का लक्ष्य है. स्वयं के असंग, निरंजन, निर्विकार स्वरूप को जानकर ही संत जगत में रहते हुए भी अलिप्त दिखाई देते हैं. वह प्रकृति के गुणों से प्रभावित नहीं होते बल्कि प्रकृति के नियंता बन जाते हैं. साधक का जब अपने मन, बुद्धि अदि पर नियन्त्रण होता है वह जगत के सुख-दुःख आदि से प्रभावित नहीं होता. जीवन जिस क्षण जैसा उसके सम्मुख आता है, उसे सहज स्वीकार करके वह इस जगत से वैसे ही निकल जाता है जैसे मक्खन से बाल. कमल के पत्तों पर पड़ी पानी की बूंद जैसे उसे भिगो नहीं सकती, साधक को स्वयं के उसी स्वरूप में स्थित होना है.

Thursday, November 15, 2018

एकै साधै सब सधे


१६ नवम्बर २०१८ 
एक ही चेतना से यह सारा संसार बना है, यह बात हमने सुनी है, पढ़ी है पर जब तक स्वयं इसका अनुभव न कर लें तब तक हमारे जीवन पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता. संत कहते हैं, यदि कोई आस्तिक है तो उसे चेतना के अस्तित्त्व के बारे में विश्वास होता है, यह पहला कदम है. जब साधना के द्वारा वह अपने भीतर इस सत्य का अनुभव करता है, सारे जगत के प्रति एकत्व का भाव उसके भीतर जगता है. जीवन में एक परिवर्तन सहज ही घटने लगता है. मन की चाल ही बदल जाती है, जो पहले सदा अपने हित की बात सोचता था अब अन्यों की सुख-सुविधा का ध्यान उसे पहले आता है. जगत प्रतिद्वन्द्वी न रहकर मित्र बन जाता है. धरती, आकाश, सूर्य, चन्द्र, वनस्पति जगत, जीव-जन्तु सभी का आधार एक ही है, यह जानकर मन फूल के जैसे हल्का हो जाता है. बुद्धि अब लाभ-हानि की भाषा में नहीं सोचती, वह स्वयं को चेतन का अंश मानकर पावनी होने का प्रयास करती है. लघु अहंकार विगलित हो जाता है और शुद्ध अहं स्वयं का अनुभव करता है.

Wednesday, November 14, 2018

मुक्तिबोध बने साधन सुख का


१५ नवम्बर २०१८ 
चेतना यदि मुक्त है तो ही स्वयं का अनुभव कर पाती है. मन की गहराई में छिपे प्रकाश की झलक उसे मिलती है. अंतर सुख की धार में भीग कर अखंड शांति का अनुभव उसे मिलता है. मुक्ति का स्वाद जिसने एक बार भी चख लिया है वह जगत में रहकर भी बंधा हुआ नहीं है. हम भौतिक सुखों की प्राप्ति के लिए जितना समय व ऊर्जा व्यय करते हैं, उससे आधा भी स्वयं को जानने में नहीं लगाते. हमारे शास्त्रों का मूल मन्त्र है, “असतो मा सद गमय”. हमें उस सत्य तक पहुंचना है जो सदा एक रस है. जगत में रहते हुए सभी कुछ करते हुए भी उस सत्य का अनुभव किया जा सकता है, आवश्यकता है उसके प्रति श्रद्धा भाव जगाने की. शास्त्रों के अध्ययन व संतों के सत्संग से ही भीतर इस परम श्रद्धा का उदय व्यक्ति के भीतर होता है.  

समाधान दिलाये योग


१४ नवम्बर 2018
भगवद् गीता में कृष्ण कहते हैं, जो न किसी से उद्ग्विन होता है न किसी को उद्ग्विन करता है, वह मुझे प्रिय है. इसका अर्थ हुआ हम जगत में इस तरह रहना सीख लें कि किसी को हमसे कोई परेशानी न हो, और न जगत ही हमारे लिए कोई समस्या बने. प्रगाढ़ नींद में ऐसा ही होता है, जगत होते हुए भी नहीं रहता और हम जगत के लिए अदृश्य हो जाते हैं. समाधि में भी ऐसा होता है, जगत का भान नहीं रहता और देह भान भी नहीं रहता, देह से ही जगत आरम्भ होता है. इसका अर्थ हुआ कि जगते हुए भी समाधि में बने रहने की कला आ जाये तभी यह सम्भव है. समाधि के लिए योग साधना में बताये यम, नियम का पालन पहला कदम है, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार दूसरा तथा धारणा व ध्यान के तीसरे कदम के बाद समाधि तक पहुंचा जा सकता है. इसीलिए कृष्ण बार-बार अर्जुन को योगी बनने के लिए कहते हैं.

Tuesday, November 13, 2018

नमन करें हम सूर्यदेव को


१३ नवम्बर २०१८ 
भारत अति प्राचीन देश है, शास्त्रों के अनुसार जितनी पुरानी यह सृष्टि है उतनी ही प्राचीन हमारी संस्कृति है. वेदों, उपनिषदों, पुराणों और स्मृतियों के रूप में हमें असीमित ज्ञान संपदा मिली है. भारतीय मनीषियों ने जीवन को एक लीला के रूप में देखा है, इसी कारण उत्सवों के क्षेत्र में भारत सर्वाधिक समृद्ध है. आज छठ का एक अनोखा पर्व सोल्लास मनाया जा रहा है, सर्वप्रथम जिसका जिक्र महाभारत व पुराणों में मिलता है. प्रकृति के साथ जोड़ने वाला यह उत्सव समाज को अनेक सुंदर संदेश देता है, नदियों को स्वच्छ रखने का संदेश और परिवार में सौहार्द और प्रेम को बढ़ावा देने का संदेश भी. इस पर्व में हमें भारत की लोक संस्कृति की अद्भुत झलक मिलती है. समाज के सभी वर्ग मिलजुल कर एक साथ उगते व अस्त होते हुए सूर्य को जब अर्घ्य देते हैं, वह दृश्य दर्शनीय होता है.

Monday, November 12, 2018

मन मौसम को पढ़ना होगा


१२ नवम्बर २०१८ 
दीपावली का उत्सव मधुर स्मृतियों से उर आंगन को सजा कर विदा हो गया. दीपकों की झालरें अब नजर नहीं आतीं, पटाखों का शोर भी कम हो गया है. जीवन उसी पुराने क्रम में लौट आया है. मौसम में बदलाव स्पष्ट नजर आने लगा है. सर्दियों के वस्त्रों को धूप दिखाई जा रही है, और सूती वस्त्रों को आलमारी में सहेज कर रखने के दिन आ गये हैं. बाहर के मौसम की तरह मन का मौसम भी बदलता रहता है. कभी सतोगुणी मन परमात्मा के प्रति समर्पण भाव से भर जाता है तो कभी रजोगुण कर्म में रचाबसा देता है. तमोगुण को बढ़ने का अवसर मिल जाये तो अच्छे-भले दिन में अलस भर जाता है, फिर कहीं चैन नहीं मिलता. साधक का लक्ष्य नियमित साधना के द्वारा तीनों गुणों के पार निकल जाना है, फिर तीनों का मालिक बनकर या तीनों का साक्षी बनकर वह सदा मुक्त ही बना रह सकता है.  

Thursday, November 1, 2018

भीतर का जब दीप जले


१ अक्तूबर २०१८ 
जो है वह कहने में नहीं आता जो नहीं है उसके लिए हजार कहा जाये, पानी पर लकीर खींचने जैसा ही है. आत्मा है, आकाशवत् है, शून्यवत है, उसके बारे में क्या कहा जाये, मन नहीं है, पर मन के पास हजार अफसाने हैं, अतीत की स्मृतियाँ और भविष्य की कल्पनाएँ..जो अभी हैं अभी ओस की बूंद जैसे उड़ गयीं. मन एक जगह टिकता ही नहीं. बुद्धि इन दोनों के मध्य व्यर्थ ही चकराया करती है. कभी आत्मा के दर्पण में स्वयं को देखकर मुग्ध होती है कभी मन के माया जाल में फंसकर व्यर्थ ही आकुल-व्याकुल हो जाती है. जिसने इस खेल को देख लिया वह यदि चाहे तो मुक्त हो सकता है, पर जन्मों की आदत है बंधन की, जो मुक्त होने नहीं देती. जिसने इस खेल को देखा ही नहीं वह तो सुख-दुःख के झूले में डोलता ही रहेगा. उत्सव जगाने का प्रयत्न करते हैं, व्यर्थ का कचरा घर से बाहर करने का तात्पर्य है, मन को भी विचारों से खाली करना है, मोह-माया के जाले झाड़ने हैं, आत्मदीप जलाना है और मिश्री सी मधुर चिति शक्ति को भीतर जगाना है.  

Monday, October 29, 2018

जगमग दीप जले घर-बाहर


३० अक्तूबर २०१८ 
दीपावली का उत्सव दस्तक दे रहा है. राम के अयोध्या लौटने की ख़ुशी में लाखों वर्ष पूर्व जो दीपक जलाये गये थे, मानो आज भी वे अपने प्रकाश को बाँट रहे हैं. प्रकाश ज्ञान का प्रतीक है, ख़ुशी और जागरण का भी. राम का अर्थ है रोम-रोम में रमन करने वाला चैतन्य, जब उसका आगमन भीतर होता है, ज्ञान का प्रकाश छा ही जाता है. अयोध्या का अर्थ है जहाँ कोई युद्ध न लड़ा जाता हो. जिस मन में कोई द्वंद्व न बचा हो, जो मन समाहित हो गया हो, जहाँ अपना ही विरोधी स्वर न गूँजता हो, ऐसा मन ही अयोध्या है, जहाँ राम का आगमन होता है. दशरथ का अर्थ है दस इन्द्रियों वाला अर्थात देह, जब देहाध्यास छूट गया हो, तभी चैतन्य का अनुभव होता है. दीपावली का उत्सव यानि मिष्ठानों और पटाखों का उत्सव. चेतना जब शुद्ध होती है तब उससे मधुरता का सृजन होता है, आनंद का विस्फोट होता है, वही जो बाहर अनार व फुलझड़ी जलाने पर होता है. भारतीय संस्कृति में हर उत्सव के पीछे एक संदेश छुपा है. हमारे शास्त्रों का मुख्य स्वर है आत्मअनुभव, इसीलिए हर उत्सव अपने भीतर जाने की प्रेरणा देता प्रतीत होता है.


प्रकृति का सम्मान करे जो


२९ अक्तूबर २०१८ 
जीवन नित नये रूपों में ढल रहा है. हर साँझ एक नये अंदाज में संवरती है और हर रात्रि एक नयापन लेकर विश्राम के लिए निमन्त्रण देती है. किसी भी क्षण यदि कोई रुककर प्रकृति के इस विशाल आयोजन को देखे तो उसका मन विस्मय से भर जाता है. विशालकाय पर्वत, गरजते हुए जलप्रपात और हरी-भरी घाटियाँ जाने किस आगन्तुक की प्रतीक्षा में युगों से स्थित हैं. सम्भवतः जीवन की जिस ऊर्जा से वे स्पन्दित हैं, वही भीतर-भीतर उसका रसास्वादन कर रही है. एक नन्हे से जीव में जो ऊर्जा गति देती है, वही उसे जीवन के प्रति गहन प्रेम से भी भर देती है, उसे भी अपना जीवन प्रिय है. हमारे भीतर जो भी शुभ है, वह उसी प्रकृति से आया है, अशुभ विकृति है. प्रकृति के साथ सामंजस्यपूर्ण जीवन ही मानवीय मूल्यों पर आधारित जीवन हो सकता है. मानव जल, हवा व धरती को यदि शुद्ध नहीं रख पाया है तो इसका अर्थ है उसने अपने मूल्यों के विपरीत जीवनशैली को अपना लिया है.

Friday, October 26, 2018

सब कुछ भीतर बाहर नाहीं


 २६ अक्तूबर २०१८ 
हमें जो भी चाहिए पहले से ही मिला हुआ है, इसीलिए हमारी नजर उस तरफ नहीं जाती. जो प्रचुरता में उपलब्ध हो उसकी कीमत घट जाती है, जो दुर्लभ हो वह बेशकीमती बन जाता है. शिशु को जन्म के साथ सहज ही आनंदित रहने की सौगात मिलती है, किन्तु माँ-पिता जब उसे खिलौना लाकर देते हैं, उसे खुश होने का अभिनय करना सिखाते हैं. कुछ बड़ा होने पर छोटे से कृत्य पर ही उसे पुरस्कार देते हैं, लोभी बनाते हैं. व्यर्थ के गीतों पर उसे नृत्य करना सिखाते हैं, उसका सहज नृत्य खो जाता है. प्रतिस्पर्धा की दौड़ में उसे भागना सिखाते हैं. जीवन को बनावटी बनाने के सारे उपाय किये जाते हैं. किशोर होते-होते बालक की सारी स्वाभाविकता खो जाती है. कठिनाई यह है कि उनके माता-पिता ने भी कुछ ऐसा ही उनके साथ किया था. शास्त्र व गुरू हमें स्वभाव की ओर वापस ले जाते हैं. सहजता व सजगता से जीना सिखाते हैं. जीवन की परिपूर्णता का अनुभव करवाते हैं. जिस प्रेम की खोज में लोग जीवन भर भटकते हैं और निराशा ही हाथ लगती है, वे उस प्रेम को हमारे ही अंतर्मन की गहराई से पुष्प की सुगंध की तरह जग में बिखराने की कला सिखाते हैं.


Thursday, October 25, 2018

जीवन जब उत्सव बन जाए


२५ अक्तूबर २०१८ 
जीवन हर पल हमें बुलाता है, यहाँ अवसरों की कमी नहीं है. छोटे से छोटे सा पल भी अपने भीतर एक अनंत को धारण किये है, जैसे छोटा सा परमाणु असीम ऊर्जा को अपने भीतर छिपाए है. संत कहते हैं, वास्तव में जीवन एक दर्पण है जिसमें हम वही देख लेते हैं जो देखना चाहते हैं. हमारा अंतर्मन ही हमारे व्यवहार में झलकता है और हमारी प्रतिक्रियाओं में भी, यदि भीतर भय है तो अँधेरे में हर वस्तु हमें भयभीत करने वाली नजर आयेगी. यदि भीतर क्रोध है तो छोटी-छोटी बातों पर झुंझलाहट के रूप में वह व्यक्त होगा. यदि भीतर अहंकार है तो हर कोई अपना प्रतिद्वन्दी दिखाई देगा. जीवन का हर अनुभव हमें स्वयं को परखने का जानने का एक अवसर देने के लिए है. जिस दिन भीतर कुछ नहीं रहेगा, जगत जैसा है वैसा अपने शुद्ध रूप में पहली बार दिखाई देगा. क्या सारे उत्सव इसी अंतर परिवर्तन की ओर इशारा करते प्रतीत नहीं होते हैं ? हर उत्सव में पूजा को जोड़ दिया गया है, इसका अर्थ है कि परमात्मा की आराधना करके भीतर की शक्ति को जगाना है ताकि प्रमाद, क्रोध, अहंकार अदि दानवों का नाश हो और हम अपने शुद्ध स्वरूप का अनुभव कर सकें.


Tuesday, October 16, 2018

जाके हृदय सांच है


१६ अक्तूबर २०१८ 
पंचभूतों से यह सारी सृष्टि बनी है और हमारा शरीर भी इन्हीं से बना है. पृथ्वी तत्व ठोस है, जल द्रवीय, वायु गैसीय और अग्नि इनमें से कोई भी नहीं, आकाश इन सबसे परे है जो सदा शुद्ध है.  अग्नि तत्व भी कभी अशुद्ध नहीं होता, इसकी मंदता या अधिकता हो सकती है. देह में सत्तर प्रतिशत से अधिक है जल तत्व, यदि यह अशुद्ध हो जाये तो शरीर स्वस्थ कैसे रह सकता है. आज वायु भी प्रदूषित हो चुकी है, पृथ्वी में अति रासायनिक तत्व मिला दिए गये हैं. शास्त्र कहते हैं, यदि चेतना शुद्ध हो तो उसका प्रभाव इन भौतिक तत्वों को परिवर्तित कर सकता है. चेतना को शुद्ध करना योग साधना द्वारा ही सम्भव है. पांच यमों - सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और अस्तेय तथा पांच नियमों - शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान में से किसी एक के भी पालन से मन स्वस्थ रहता है तथा आसन, प्राणायाम व प्रत्याहार से देह को स्वस्थ रखा जा सकता है. तत्पश्चात धारणा, ध्यान व समाधि के द्वारा जीवन की पूर्णता को अनुभव किया जा सकता है.

Monday, October 15, 2018

भाव जगे जब निज स्वरूप का


१५ अक्तूबर २०१८ 
संत कहते हैं, “न अभाव में रहो, न प्रभाव में रहो, मात्र निज स्वभाव में रहो” यह छोटा सा सूत्र जीवन में परिवर्तन लाने के लिए अति सहायक सिद्ध हो सकता है. शांति, प्रेम, आनंद, पवित्रता, उत्साह, उदारता, सृजनात्मकता, कृतज्ञता, सजगता आदि हमारे सहज स्वाभाविक गुण हैं, जब हम इनमें या इनमें से किसी के भी साथ होते हैं, हमें न कोई अभाव प्रतीत होता है, न ही किसी वस्तु, व्यक्ति अथवा परिस्थिति का प्रभाव हम पर पड़ता है. अभाव का अनुभव करते ही हम तत्क्षण स्वभाव से दूर चले जाते हैं. इसी प्रकार किसी के गुणों, वैभव आदि से प्रभावित होते ही भीतर हलचल होने लगती है, शांति खो जाती है. शास्त्र हमें समझाते हैं, हमारा निज स्वभाव अनंत शांति से भरा है, वह परमात्मा से अभिन्न है. हर जीव उसी परमशक्ति का अंश है, उसे भला किस वस्तु का अभाव हो सकता है. देह एक साधन है, जिसे बनाये रखने के लिए पर्याप्त संपदा हमें प्राप्त है. जिन्हें भोजन, वस्त्र और निवास प्राप्त हैं, उन्हें यदि कोई अभाव सताता है तो यह अज्ञान से ही उत्पन्न हुआ है.


Saturday, October 13, 2018

जागो जागो माँ


१३ अक्तूबर २०१८ 
जैसे अग्नि में दाहिका शक्ति अभिन्न रूप से स्थित है, वैसे ही परमात्मा और उसकी प्रकृति रूपा शक्ति भी अभिन्न है. नवरात्रि में हम शक्ति की आराधना करते हैं, जो चैतन्य स्वरूप परमात्मा की चिति शक्ति ही है. इसलिए योगीजन परमात्मा और प्रकृति में भेद नहीं करते बल्कि सब ब्रह्म है ऐसा ही देखते हैं. धी, श्री, कांति, क्षमा, शांति, श्रद्धा, मेधा धृति और स्मृति ये सभी शक्ति के ही नाम हैं. सत्व स्वरूप महालक्ष्मी धन-धान्य की अधिष्ठात्री हैं. भगवती सरस्वती वाणी, बुद्धि, ज्ञान एवं विद्या की प्रदाता हैं. वे मानवों को कवित्व शक्ति, मेधा, प्रतिभा और स्मृति प्रदान करती हैं. देवी दुर्गा शिवप्रिया हैं जो बल व शक्ति प्रदान करती हैं. वे महामाया हैं, जगत की सृष्टि करना उनका स्वभाव है. नवरात्रि का पावन पर्व इन शक्तियों के जागरण से परमात्मा की अनुभूति कराने वाला है.

Thursday, October 11, 2018

शक्ति जगाएं तन-मन में हम


११ अक्तूबर २०१८ 
शारदीय नवरात्रि का उत्सव अपने आप में एक अनोखा संदेश लिए हर वर्ष हमें जगाने आता है. दिन की गहमागहमी में जो मन थक जाता है, वह रात्रि की गोद में विश्राम पाता है. इस प्रकार हर रात्रि हमें पुनर्शक्ति से भर देती है. इन नौ रात्रियों में ब्रह्मांड की ऊर्जा अधिक सक्रिय होती है, इसीलिए साधना के लिए इन्हें उत्तम माना गया है. शिव की शक्ति अनंत है, उसमें से जिसकी जितनी सामर्थ्य हो वह उतनी पा सकता है. इस शक्ति का उपयोग अपने ज्ञान के अनुसार शुभ अथवा अशुभ कर्मों में कर सकता है. हमारे भीतर क्रिया, ज्ञान और इच्छा शक्ति विधान के द्वारा प्रदान की गयी है, जो लक्ष्मी, सरस्वती व दुर्गा के प्रतीक द्वारा पूजी जाती है. शक्ति को जगाने का अर्थ है, इसका समुचित उपयोग करना. देवी के विभिन्न रूपों की आराधना करके हम विवेक से उत्पन्न शुभ कामनाओं के द्वारा अपने कर्मों को शुद्ध कर सकते हैं, जिनसे वे बंधनकारी नहीं होंगे और अंततः हम पूर्ण स्वाधीनता का अनुभव कर सकेंगे.    

Sunday, October 7, 2018

छाया से जो डरे नहीं


८ अक्तूबर २०१८ 
जो अहंकार मानव के दुःख का कारण है, आपसी द्वेष को जन्म देता है, एक छाया मात्र ही है. वास्तव में हम प्रकाश स्वरूप दिव्य आत्मा हैं. यह प्रकाश जब प्रकृति रूपी मन, बुद्धि आदि पर पड़ता है, तो अवरोध के कारण जो छाया बनती है, वही अहंकार है. जब मन  खाली होता है, जल की तरह बहता रहता है, मान्यताओं और पूर्वाग्रहों से युक्त होकर कठोर नहीं होता, तब गहरी छाया भी नहीं बनती. इसीलिए बुद्धि को निर्मल बनाने पर संत और शास्त्र इतना जोर देते रहे हैं. अहंकार का भोजन दुःख है, वह राग-द्वेष से पोषित होता है, आत्मा आनंद से बनी है, वह आनन्द ही चाहती है, लेकिन अहंकार इसमें बाधक बनता है, यही द्वंद्व मानव को सुखी होने से रोकता है. यह सुनकर साधक अहंकार को मिटाने का प्रयत्न करने लगते हैं, किन्तु छाया से भयभीत होना ही सबसे बड़ा अज्ञान है, क्योंकि छाया का अपना कोई अस्तित्त्व नहीं है. छाया को मिटाया भी नहीं जा सकता, हाँ, प्रकाश के बिलकुल नीचे खड़े होकर छाया को बनने से रोका जा सकता है.

Friday, October 5, 2018

अनुपम है यह जीवन का क्रम


६ अक्तूबर २०१८ 
मौसम में बदलाव के लक्षण स्पष्ट नजर आ रहे हैं. धूप अब उतनी नहीं चुभती, शामें शीतल हो गयी हैं और सुबह हल्का सा कोहरा लिए आती है. प्रकृति अपनी चाल से चलती रहती है, वर्ष दर वर्ष..और जीवन भी बहता रहता है. मन रूपी चन्द्रमा भी तन रूपी धरती के चक्कर लगाता रहता है, आत्मा रूपी सूर्य से प्रकाशित मन रूपी चन्द्रमा यदि इस बात को याद रखे कि उसका ज्ञान उपहार का है, सूर्य से मिला है, उसका अपना नहीं है, तो वह कृतघ्न नहीं होगा. तब पूर्णिमा के दिन जब पूर्ण चन्द्रमा प्रकाशित होता है, और अमावस्या के दिन जब वह अप्रकाशित रह जाता है, दोनों ही स्थितियों में वह विचलित नहीं होगा. जब तन और आत्मा के बिलकुल मध्य में मन आ जाता है, सूर्य ग्रहण भी तभी लगता है, अर्थात जब हम मन में ही जीने लगते हैं, आत्मा का विकास रुक जाता है. इसी प्रकार जब मन और आत्मा के मध्य तन आ जाता है, तब चन्द्र ग्रहण लगता है, अर्थात जब हम देह में जीते हैं, तब मन विकसित नहीं हो पाता. कितने सुंदर हैं ये प्रतीक और कितना गहन अर्थ इनमें छुपा है.

Wednesday, October 3, 2018

माता भूमि: पुत्रोहं पृथिव्या:


४ अक्तूबर २०१८ 

भारत के प्रधानमन्त्री माननीय मोदी जी को चैम्पियन ऑफ़ द अर्थ पुरस्कार मिला है, हर भारतीय का मस्तक गर्व से ऊंचा हुआ है. ‘यथा राजा तथा प्रजा’ के सूत्र के अनुसार हम सभी इस धरती का रक्षक बनने की क्षमता रखते हैं. हम यदि अपने समय और ऊर्जा का अल्प भाग भी अपने वातावरण के प्रति सजग होकर लगायें तो देखते ही देखते भारत भी विकसित देशों की तरह अपनी स्वच्छता पर गर्व कर सकता है. अवश्य ही बाधाएँ आएँगी किन्तु उन्हें दूर करने की हिम्मत भी साथ ही आएगी. समस्या-समाधान भी रात-दिन की तरह जोड़े में ही रहते हैं. इससे आने वाली पीढ़ी भी बचपन से ही इस भाव से संस्कारित होगी. यदि हम छोटा सा ही सही एक बगीचा लगायें, या गमलों में ही कुछ पौधे उगायें. हफ्ते में एक बार अपनी गली और मोहल्ले की सफाई में भाग लें. आस-पड़ोस के बच्चों को इकठ्ठा करके उन्हें स्वच्छ रहने के लाभ बताएं और इस विषय पर चित्र आदि बनवाएं, कितने ही उपाय हैं जिनके द्वारा हम लघु अंश में ही सही धरती माँ का ऋण उतार सकते हैं.  

सत्यं शिवं सुन्दरम्


३ अक्तूबर २०१८ 
ईश्वर सत्य है, शिव है और सुंदर है, हम सबने यह सुना है. सत्य का जो अर्थ शास्त्र बताते हैं, वह है - जो सदा है और एक सा है, वही सत्य है. जो पुष्प आज सुंदर है, कल मुरझा जायेगा, उसका सौन्दर्य क्षणिक है, अतः वह सत्य नहीं है. जो अस्तित्त्व उसे सत्ता दे रहा है, उसमें सौन्दर्य भर रहा है, वह कल भी रहेगा, किसी और फूल को खिलायेगा, वही सत्य है. शिव का अर्थ है, निराकार कल्याणमयी सत्ता. जो होकर भी नहीं जैसा है, उसकी सुन्दरता कभी घट नहीं सकती. उसकी सुन्दरता को महसूस करना हो तो ध्यान में उतरना पड़ेगा. बुद्ध या महावीर के चेहरे पर जो शांत सौन्दर्य दिखाई पड़ता है, वह उसी एकरस निराकार सत्ता का है. योग का अंतिम लक्ष्य उसी शांति को स्वयं के भीतर अनुभव करना है.    

Monday, October 1, 2018

बापू का पैगाम सुनें

१ अक्तूबर २०१८  
कल दो अक्तूबर है, महात्मा गाँधी की एक सौ उनचासवीं जयंती ! आज समय-समय पर पढ़े उनके संदेश याद आ रहे हैं. उनकी बातें एक सूत्र के रूप में कितना गहरा अर्थ छुपाये होती थीं. उनके चेहरे पर पोपले मुख की मुस्कान इसकी साक्षी है जब वह कहते थे, हंसी मन की गांठे बड़ी आसानी से खोल देती है  जहाँ प्रेम है वहाँ जीवन है । उनका जीवन सत्य पर किया गया एक प्रयोग है, जिससे उन्होंने जाना कि क्रोध एक प्रकार का क्षणिक पागलपन है । उन्हें किताबों से बहुत प्रेम था. उनके अनुसार, पुस्तकें मन के लिए साबुन का काम करती है, क्योंकि वे मानते थे कि ज्ञान का अंतिम लक्ष्य चरित्र निर्माण है । देह से दुबले पतले होते हुए भी बापू भीतर से निडर थे, उन्हें ब्रिटिश सरकार की हुकूमत झुका नहीं पायी, वह कहते थे, डर शरीर का रोग नहीं है यह आत्मा को मारता है । कुछ लोग कहते हैं, बापू को सौन्दर्य बोध नहीं था, पर उनके अनुसार वास्तविक सौंदर्य हृदय की पवित्रता में है । वह पेशे से वकील होते हुए भी कहते हैं, दिमाग को हमेशा दिल की सुननी चाहिए ।

Friday, September 28, 2018

शक्ति ही शिव तक ले जाये


२९ सितम्बर २०१८ 
दिन उगता है और समाप्त हो जाता है, रात्रि के आँचल में प्रकृति शांत होकर सो जाती है. हम भी दिन भर के कार्यों के बाद देह और मस्तिष्क को विश्राम देने के लिए सो जाते हैं. नींद में हम कहाँ होते हैं, किसी को नहीं पता, गहरी निद्रा में न किसी को अपने होने का भान रहता है, न अपने ज्ञान और ऐश्वर्य का, उस समय राजा और रंक मानो एक हो जाते हैं. नींद में ही स्वप्न काल भी होता है, कभी अतीत के कभी भविष्य के और कभी अपने वर्तमान जीवन से जुड़े विचार स्वप्न बनकर हमें दिखाई पड़ते हैं. जागृत अवस्था में जो मन में संकल्प उठते हुए देखता है, स्वप्न अवस्था में जो दृश्य देखता है, निद्रा में जो सुख का अनुभव करता है, वह द्रष्टा स्वयं अनदेखा ही रह जाता है. संत कहते हैं, इतने बड़े मायाजाल का एक ही प्रयोजन है उस मायापति से नाता जोड़ लेना जो इस द्रष्टा को चेतना प्रदान करता है. नवरात्रि का उत्सव इसी संदेश को लेकर बार-बार आता है, शक्ति की उपासना करके हम शिव तक पहुँचें.

Wednesday, September 26, 2018

शुभ कर्मों से सजा हो जीवन


२७ सितम्बर २०१८ 
भगवद् गीता में कृष्ण कहते हैं, कर्म पर हमारा अधिकार है, फल पर नहीं. इसका एक अर्थ यह भी है कि हमें सदा कर्मशील रहना है. शास्त्रों में नियत कर्म, नियमित कर्म, निमित्त कर्म आदि की चर्चा की गयी है. नियत कर्म के अनुसार प्रत्येक मानव का पहला कर्त्तव्य है स्वयं के तन की समुचित देखभाल. उसकी शुद्धि, उचित आहार व व्यायाम के द्वारा उसे स्वस्थ रखना. दूसरा है आजीविका के लिए कर्म करना, जो बच्चे अथवा वृद्ध हैं और जो गृहणियाँ हैं, क्रमशः उनका कर्त्तव्य है शिक्षा प्राप्त करना, समाज को सही मार्गदर्शन देना और घर चलाना. नियमित कर्म के अनुसार सभी का कर्त्तव्य है परमेश्वर के प्रति धन्यवाद और कृतज्ञता का ज्ञापन करना. इसमें प्रार्थना, ध्यान, जप, योग, साधना व्रत, उपवास, उत्सव आदि सभी उपाय समयानुसार समाहित हो जाते हैं. इन्हें त्रिकाल संध्या के रूप में हमारे शास्त्रों में नियमित करने का विधान है. हम देह रूप से परमात्मा से पृथक हैं पर आत्मा रूप से उससे अभिन्न हैं, इस भाव का अनुभव किये बिना प्रार्थना पूर्ण नहीं होती. निमित्त कर्मों में जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त तक के संस्कार तथा श्राद्ध आदि आ जाते हैं. यदि हमारा जीवन इन शुभ कर्मों से भरा रहे तो व्यर्थ के कर्म अपना आप ही विदा ले लेंगे और दुखरूप फल से हम मुक्त हो जायेंगे. धर्म के द्वारा अर्थ और कामनाओं की सिद्धि में ही मोक्ष का अनुभव छिपा है.

Tuesday, September 25, 2018

जीवन जब उत्सव बन जाये


२५ सितम्बर २०१८ 
मानव मन में सदा ही आगे बढ़ने की प्रवृत्ति काम करती रहती है. हम कभी संतुष्ट होकर नहीं बैठ सकते, जिसके पास साईकिल है वह कार चाहता है और उसके लिए श्रम करता है, जिसके पास कार है वह हवाई जहाज में उड़ना चाहता है. जीवन की ऊर्जा हमें आगे ही आगे धकेलती हुई सी लगती है. कुछ न कुछ नया, मौलिक करने की धुन लोगों को हैरतंगेज कारनामे करने में भी लगा देती है. इसका अर्थ हुआ हम अपने जीवन में पहले समस्या का चुनाव करते हैं और फिर उसका हल ढूँढ़ते हैं. लगता है सारा जीवन एक समस्या से दूसरी समस्या तक जाने व उसको हल करने का ही नाम है. प्रकृति में इसका विपरीत होता है, वहाँ पहले हल दिया जाता है, फिर समस्या प्रकट होती है. हर प्रदेश में वातावरण के अनुकूल भोज्य पदार्थों का मिलना व जड़ी-बूटियों का पाया जाना इसका प्रमाण है. हर ऋतु के अनुसार फलों व सब्जियों का उगना और मौसम के अनुसार वातावरण में कीट-पतंगों का पैदा होना आदि. जीवन जीने का एक दूसरा ढंग भी हो सकता है, वह है समस्या को समस्या न मानकर एक खेल मानना, तब जीवन एक क्रीड़ा से दूसरी क्रीड़ा में जाने का नाम हो सकता है. सम्भवतः इसीलिए हमारे पूर्वजों ने इतने सारे उत्सवों को मनाने की प्रथा शुरू की थी. इसके लिए सबसे प्रथम आवश्यकता है आपसी कलहपूर्ण प्रतिस्पर्धा न रहे, अहंकार को पोषण देने वाली प्रतियोगिताओं के नाम पर आपसी द्वेष को बढ़ावा न मिले. हरेक को अपनी सहज प्रतिभा को दिखाने का अवसर मिले, किसी के भी साथ किसी भी तरह का भेदभावपूर्ण व्यवहार न किया जाये. इसी सह- अस्तित्त्व को शास्त्रों में यज्ञ के प्रतीक से बताया गया है.

Monday, September 24, 2018

श्रद्धा से जो श्राद्ध करे


२४ सितम्बर २०१८ 
जीवन रहस्यपूर्ण है, हम कितना भी जान लें, अनंत जाने बिना ही रह जाता है. ऐसा मान लेने में ही शांति का अनुभव होता है कि हम कुछ भी नहीं जानते. अभी पितृ पक्ष आने वाला है. हमारे पूर्वज जो अब देह में नहीं हैं, उन की याद में हम श्राद्ध करते हैं. अन्नमय कोष तो मृत्यु के क्षण में ही नष्ट होने लगता है, उसे जला दिया जाता है. सूक्ष्म शरीर जो प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय कोष हैं, वे नष्ट नहीं होते. प्राणमय शरीर ऊर्जा से बना है. मनोमय विचारों से बना है. विज्ञानमय कोष ज्यादा सूक्ष्म है, वह हमें परमात्मा से जोड़ता है. वह मृत्यु के बाद भी बना रहता है और परलोक या पितृ लोक में गमन कर जाता है. ऐसी मान्यता है कि पितृ पक्ष में हमारे पूर्वज इस भूलोक पर आते हैं और यदि हम उनकी स्मृति में दान, श्राद्ध व तर्पण करते हैं तो हमें उनका आशीर्वाद प्राप्त होता है. विचारपूर्ण दृष्टि से देखें तो यह एक सुंदर प्रथा है, पर पंडितों और पुरोहितों ने इसे लोभ के कारण ऐसा बना दिया है कि आज की पीढ़ी इससे दूर होती जा रही है. हमारे पूर्वजों को वर्तमान पीढ़ी से जोड़े रखने के लिए, अपनी परंपराओं को जीवित रखने के लिए, पशु-पक्षियों और समाज के दीन-हीन जनों को दान के रूप में कुछ सहायता देने के लिए यह प्रथा हमारे लिए अत्यंत लाभदायक है. जिनके कारण हम इस समय हैं अपने उन तीन पीढ़ी तक के पूर्वजों को प्रेम से स्मरण करते हुए उनके लिए कुछ करने की भावना के साथ जब हम श्राद्ध करते हैं तो उनका ही नहीं देवताओं का आशीर्वाद भी हमें सहज ही प्राप्त होता है, इसमें कोई संदेह नहीं है.

Friday, September 21, 2018

तू प्यार का सागर है


२२ सितम्बर २०१८ 
कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, तुम मेरे प्रिय हो, तुम निष्पाप हो, इसलिए मैं तुमसे यह ज्ञान कहूँगा. हर साधक अर्जुन है और परमात्मा की नजरों में प्रिय भी. कैसी अद्भुत है उसकी शक्ति, वह एक होकर हजारों आत्माओं को अपना निस्वार्थ प्रेम दे सकता है. हम अपने निकटस्थ दो-चार को भी सहज प्रेम देने में कृपणता का अनुभव करते हैं. परमात्मा की दृष्टि में हम सभी आत्माएं हैं, जिन्हें वह अपने समान ही देखना चाहता है, शुद्ध और मुक्त...वह उन सभी को जो उससे प्रेम करते हैं और मार्गदर्शन चाहते हैं, सदा सन्मार्ग दिखाता है. अंतर्प्रेरणा के रूप में वह साधक को सचेत करता है. प्रेम करना उसका स्वभाव है, बल्कि वह प्रेम स्वरूप ही है, उसकी ओर एक कदम रखते ही शांति की लहरों का मधुर कलकल सुनाई देने लगता है. इस जगत में कुछ भी स्थिर नहीं है, और उसकी सत्ता में कुछ भी अस्थिर नहीं है, वह अचल, अडोल और अच्युत है. उसे हम आज पुकारें, कल पुकारें, एक वर्ष बाद पुकारें या एक युग बाद, वह सदा उसी तरह स्वागत करता हुआ मिलेगा. इसीलिए वह मीरा का भी उतना है जितना राधा का.

Thursday, September 20, 2018

भक्ति करे कोई सूरमा


 २२ सितम्बर २०१८ 
भारत का सर्वपूज्य ग्रन्थ भगवद् गीता कृष्ण और अर्जुन के संवाद पर आधारित है, जो युदद्ध क्षेत्र में घटा था. इसके पीछे एक रहस्य है. वास्तव में एक साधक का जीवन योद्धा की भांति होता है. एक योद्धा अनुशासित, वीर, निर्भय और स्वालम्बी होता है, युद्ध करते समय उसे तत्काल निर्णय लेने होते हैं. उसे प्रतिपल सजग रहना होता है, वह अपने शत्रुओं को पहचानता है और उसे अपनी क्षमता का भी भान होता है. युद्ध क्षेत्र में उसकी छोटी सी असावधानी भारी पड़ सकती है. एक साधक को भी जीवन के कर्मक्षेत्र में सजग रहकर आलस्य, प्रमाद, पंच विकार अदि शत्रुओं से युद्ध लड़ना होता है. जो वस्तुएं उसके मार्ग में बाधक हैं, उनका प्रबल विरोध करके ही वह अपनी मंजिल तक पहुंच सकता है. हम सभी किसी न किसी रूप में ईश्वर की भक्ति, आराधना, योग, ध्यान आदि करते हैं, किन्तु अंतिम लक्ष्य हमसे दूर ही बना रहता है. इसका सबसे बड़ा कारण है हम अपने शत्रुओं को अपना निजी संबंधी मानकर उन्हें नष्ट करने से मना कर देते हैं. जैसे अर्जुन अपने गुरुजनों, पितामह आदि को मारना नहीं चाहता था, जबकि वह भली-भांति जानता था कि वे उसके शत्रुओं से मिले हुए हैं. जब तक हम शुभ को पूर्ण स्वीकार कर अशुभ को अपने जीवन से पूर्ण तिलांजलि नहीं दे देते, हमारा जीवन पूर्ववत् ही बना रहता है, चाहे हम कितने ही जप-तप कर लें.

चक्रव्यूह से निकल सके जो


२० सितम्बर २०१८ 
महाभारत के युद्ध में हम सभी ने अभिमन्यु की कथा पढ़ी या सुनी है. अभिमन्यु चक्रव्यूह के छह द्वारों को भेद कर उसमें प्रवेश करना तो जानता था किन्तु सातवें को भेदकर उसमें से वापस निकल पाना उसे नहीं आता था, इसी कारण कौरवों के हाथों उसे मृत्यु प्राप्त हुई. हर मानव की कथा भी लगभग ऐसी ही है. शिशु जब जन्म लेता है, वह मानो जीवन के चक्रव्यूह में प्रवेश कर रहा है. जन्मते ही पहला चक्र जो उसे भेदना है वह है प्राण, अब तक वह स्वयं श्वास नहीं लेता था, पर अब उसके फेफड़े श्वास के लिए आतुर हैं. बच्चे का प्रथम रुदन इस चक्र के भेदन का प्रतीक है. दूसरा चक्र है देह, पहले उसे भूख के लिए कुछ करना नहीं था, अब देह में भोजन के लिए पुकार उठती है. तीसरा चक्र है मन, बाल्यावस्था में ही उसकी पसंद-नापसंद एक ढांचे में ढलने लगती है. चौथा चक्र है बुद्धि, स्कूल, कालेज में विद्याध्ययन करके उसके इस चक्र का भेदन होता है. पांचवा चक्र है स्मृति, पूर्वजन्मों की अथवा जन्म से लेकर हर घटना उसके चित्त पर अपनी छाप छोड़ देती है, जिसे उसे धारण करना है. छठा चक्र है, अहंकार, उसे लगता है वह इस जगत में विशिष्ट है, उसे अपनी पहचान बनानी है. यहाँ तक हर मानव पहुंच जाता है, और इसके बाद कौरवों रूपी मृत्यु के पाश उसे घेर लेते हैं. सातवाँ और अंतिम चक्र है आत्मा, जिसे कोई-कोई ही भेद पाता है. इसे भेद कर ही जीवन के इस चक्रव्यूह से बाहर निकला जा सकता है.     

Tuesday, September 18, 2018

महापुरुष श्रीयुत शंकरदेव


१९ सितम्बर २०१८ 
भक्तिकाल के महान संत कवि श्री शंकरदेव जी की जयंती आज पूरे असम प्रदेश में श्रद्धा के साथ मनाई जा रही है. सूर, तुलसी, कबीर जिस तरह उत्तर भारत में आस्था और सम्मान के साथ स्मरण किये जाते हैं वैसे ही शंकर देव असम में पूजनीय हैं. इनके लिखे बोर गीत नामघर में, जो यहाँ के मन्दिर हैं, जन-जन के अधरों पर नित्य ही सुशोभित होते हैं. यहाँ मूर्तिपूजा नहीं होती, परमात्मा के नाम का ही गान किया जाता है. शंकरदेव कवि, नाटककार, संगीतकार और संस्कृत के महान विद्वान् थे. इन्होने भागवद् पुराण का असमिया भाषा में अनुवाद किया, इसी ग्रन्थ को नामघर में वेदी पर रखा जाता है. वैष्णव संप्रदाय को मानने वाले शंकर देव ने ‘एक शरण’ नामसे एक नये पन्थ की स्थापना की. उस समय असम में तरह-तरह के अन्धविश्वास फैले थे और बलिप्रथा का बहुत प्रचार था. समाज को एक नये अहिंसावादी धर्म का मार्ग दिखाकर उन्होंने एक क्रांतिकारी कदम उठाया, उस समय उन्हें काफी प्रतिरोध भी झेलना पड़ा, किंतु वे हर परीक्षा में उत्तीर्ण हुए. उस समय से आजतक  असम के साहित्य, नाट्यकला, गीत-संगीत पर शंकरदेव का गहरा प्रभाव दृष्टिगोचर होता है.

Sunday, September 16, 2018

स्वयं से मिलना होगा जब

१६ सितम्बर 2018
अध्यात्म के मार्ग पर चलने के लिए जो सबसे पहली पात्रता है, वह है स्वयं का ज्ञान. अध्यात्म शब्द का अर्थ है-आत्म संबंधी. स्वयं को जानने के लिए पहले हमें अपने सम्पूर्ण अस्तित्त्व - शरीर, प्राण, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार व आत्मा, हरेक का ज्ञान करना होगा. इसमें प्रथम यानि देह स्थूल है और शेष सभी सूक्ष्म. आत्मा इन सबको प्रकाशित करता है, अर्थात जिसके होने से ही देह आदि का अस्तित्त्व है. हमारा जीवन यदि देह तक ही सीमित है, अर्थात देह को स्वस्थ रखना, उसे आराम देना, सजाना-संवारना ही यदि हमारे लिए प्रमुख है तो हम अध्यात्म से बहुत दूर हैं. यदि हम मानसिक चिन्तन मनन अधिक करते हैं, साहित्य, कला आदि में हमारी रूचि है, या हम मनोरंजन के लिए लालायित रहते हैं तो भी हम अभी अध्यात्म से दूर हैं. बौद्धिक चिंतन भी हमें आत्मज्ञानी नहीं बनाता. इसके लिए तो इन छह स्तरों को पार करके स्वयं के होने का अनुभव करना होगा. स्वयं की सत्ता को जिसने जान लिया उसने अध्यात्म के पथ पर कदम रख दिया. अब धीरे-धीरे मन के संस्कारों का दर्शन आरम्भ होगा, तत्पश्चात उसका शुद्धिकरण आरंभ होगा.

Saturday, September 15, 2018

ढाई आखर प्रेम का


१५ सितम्बर २०१८ 
जगत का आधार है प्रेम, अपने शुद्ध रूप में प्रेम ही परमात्मा है. जीव जगत में प्रेम के कितने ही अनुपम रूप देखने को मिलते हैं. चकोर का चाँद के प्रति प्रेम, चातक का स्वाति नक्षत्र में गिरने वाली वर्षा की बूंद के प्रति प्रेम, पतंगे का दीपक के प्रति प्रेम और सूर्यमुखी का सूर्य के प्रति प्रेम का बखान करते हुए गीत कवियों ने गाये हैं. जैसे परमात्मा अनंत है वैसे ही प्रेम की गहराई को कोई माप नहीं सकता. हर आत्मा में वह प्रेम छुपा है जो वह कितना ही लुटाये समाप्त नहीं होने वाला, फिर भी हम अपने आसपास हिंसा और शोषण होते हुए देखते हैं. अपने भीतर के हीरे को जिसने तराशा नहीं वह उसे कोयला समझ कर व्यर्थ ही जलता और जलाता है. प्रेम की यह अनमोल संपदा जिसके पास है वह अकिंचन होते हुए भी तृप्त रहता है.

Friday, September 14, 2018

हिंदी दिवस पर शुभकामनायें


 १४ सितम्बर २०१८ 
आज हिंदी दिवस है. हिंदी एक सरल, सहज और मधुर भाषा है. यह आसानी से समझी और बोली जाती है. बोलचाल की हिंदी सीखने में अहिन्दी भाषियों को ज्यादा समय नहीं लगता. यहाँ असम में जहाँ हम रहते हैं, लगभग हर प्रान्त के लोग रहते हैं. पंजाबी, तमिल, तेलुगु, मराठी, बंगाली, मलयालम और असमिया भाषा-भाषी लोग हिंदी को ही सम्पर्क भाषा के रूप में प्रयोग में लाते हैं. हर तबके के लोग हिंदी समझ लेते हैं और बोलने का प्रयास करते हैं. यह सही है कि राजकाज की भाषा के रूप में हिंदी का समुचित विकास नहीं हो रहा है और न ही निकट भविष्य में ऐसा होने की आशा है. हिंदी को अपने बलबूते पर ही आगे बढ़ना होगा. जन-जन में लोकप्रिय होने होने के कारण हिंदी का भविष्य उज्ज्वल है.

Tuesday, September 11, 2018

विश्वाधारा विनायका


१२ सितम्बर २०१८ 
जो भी अभाव प्रतीत होता है, वह प्रकृति में है, चैतन्य पूर्ण है, लेकिन वहाँ सदा नहीं रहा जा सकता. उस पूर्णता को हृदय में भरकर रहना तो इसी प्रकृति में है. गणेश पूजा का उत्सव इसी बात का स्मरण कराता है. देवता को पूजा के स्थान पर बैठाकर उसकी आराधना करनी है फिर उससे वरदान पाकर जीवन को भर लेना है और अंत में देवमूर्ति को भी विसर्जित कर देना है. गणेश शुभता के प्रतीक हैं, ज्ञान और विवेक के भी. वे विघ्न हर्ता हैं और मंगलकारक भी. हमें अपने जीवन में उनकी उपस्थिति हर पल चाहिए. शुभ की कामना करते हुए यदि हम ज्ञान धारण करें, वही मंगलकारी हो सकता है. वास्तविक ज्ञान हमें विनम्र बनाता है. गणपति के हाथ में मोदक है अर्थात आह्लाद और उल्लास सदा उनके अपने हाथ में है, उसके लिए कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है. जिस दिन हमारा सुख भी सदा अपने पास ही नजर आने लगेगा, उसी दिन हमें गणपति की पूजा का फल मिला है, ऐसा मानना होगा. गणेश के रूप की हर बात कुछ न कुछ संदेश अपने पीछे छिपाए है. हमें उन संदेशों को गुनना है और स्वयं तथा जगत के लिए मंगल कामना करनी है.

Monday, September 10, 2018

कबीर मन निर्मल भया


११ सितम्बर २०१८ 
जीवन में प्रतिपल प्रसाद बंट रहा है, प्रसाद का एक अर्थ है प्रसन्नता. निर्मलता और कृपा भी इस उल्लास में शामिल हैं, यह प्रसाद बिना किसी पात्रता के बंटता है, सब पर समान रूप से, बशर्ते कोई इसके लिए उत्सुक हो. जब जीवन में सत्य को जानने की प्यास जगे, किसी जागे हुए संत के प्रति श्रद्धा का भाव जगे और स्वयं को सदा सर्वदा आनंदित देखने की चाह जगे तो समझना चाहिए कि इसी प्रसाद की तलाश है. सुबह से शाम तक हम कितने ही कार्य देह के लिए करते हैं, मन के रंजन के लिए भी हर कोई कुछ न कुछ समय निकाल ही लेता है, पर उसके लिए जो इस देह और मन को चलाता है, जिसके कारण ये दोनों हैं, जो देह के द्वारा जगत में कार्य करता है और मन के द्वारा चिंतन-मनन करता है, उसकी तरफ ध्यान ही नहीं जाता. उसी को इस प्रसाद की आवश्यकता है. नियमित योग साधना और ध्यान से हम उससे परिचित होने लगते हैं और एक दिन उस कृपा को अनुभव भी करते हैं जो प्रतिपल बरस रही है.   

Sunday, September 9, 2018

मन खाली देख चला आता वह


१० सितम्बर २०१८ 
लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जो हमें करना है उसे कर लें और जो नहीं करना है उसे त्याग दें, जो जीवन के लिए उपादेय है उसे साध लें और जो हेय है, उसे त्याग दें. इतनी सी ही साधना है और इतना सा ही जीवन है. हर पल हम कुछ ग्रहण करते हैं और कुछ छोड़ते हैं. सर्वप्रथम तो श्वास को ही लें, भीतर आती हुई श्वास से ऊर्जा ग्रहण करते ही बाहर जाती हुई श्वास के साथ दूषित वायु का त्याग होता है. प्रातःकल उठकर शौच आदि के त्याग बाद ही कुछ ग्रहण किया जाता है. मैले वस्त्रों का त्याग किया और स्वच्छ वस्त्र धारण किये. बाहर के जगत में हर घड़ी यह क्रिया चल रही है, किन्तु भीतर के जगत में कितना कुछ एकत्र हो गया है. बचपन में की गयी शैतानियाँ भी याद हैं और उनके कारण पड़ी डांट भी, युवावस्था में की गयी नादानियाँ भी याद हैं और उनके कारण हुई झेंप भी, कल किसी से वाद-विवाद हुआ था उसकी धूल अभी झाड़ी ही नहीं कि आज सुबह फिर किसी को फटकार लगायी. छोटी-छोटी बातों पर जब कभी मन आहत हुआ होगा वह सब भी सम्भाल कर रखा है. त्यागने की कला सीखी ही नहीं, इसे ही जैन शास्त्रों में निर्जरा कहते हैं, बीता हुआ सब कुछ जो भी असार है, जो किसी काम का ही नहीं, जो छिलका ही छिलका है, उसे क्यों सहेज कर रखना भला. ध्यान में ऐसा ही करना है, जो भी भीतर आये उसे नदी की धारा की तरह बहते चले जाने देना है, बिना कोई टिप्पणी किये, और एक दिन मन खाली हो जाता है. वहाँ सुंदर बगीचा बन जाता है, जहाँ किसी भी वक्त जाओ सुवास ही सुवास मिलती है, तल्खियों का कोई धुआं नहीं होता.  

Thursday, September 6, 2018

टिका रहे उत्साही मन जब


७ सितम्बर २०१८ 
जगत परिवर्तनशील है, मन भी परिवर्तनशील है. सदा सत, रज और तम में डोलता रहता है. प्रारब्ध के अनुसार कभी भीतर सत प्रबल रहता है कभी रज या तम. पुरुषार्थ करके इसे सदा सत में स्थित रखना है, और फिर इसके भी पार निकल जाना है. पुरुषार्थ प्रतिदिन करना होगा, जैसे घर में रोज ही सफाई होती है, तन का नित्य ही स्नान होता है, ऐसे ही मन को सत में टिकने का प्रयास भी सतत करना होता है. मन किस अवस्था में है इसका भान साधक को तत्क्षण हो जाता है, जब भी भीतर असहजता का भान हो, स्वर में हल्की सी भी तल्खी आ जाये, तो समझ में आता है तमस या रजस बढ़ा हुआ है. किसी दिन सुबह नींद से जगने के बाद भी भीतर स्फूर्ति का अनुभव न हो तो भी जानना चाहिए कि तमस की अधिकता है, और अधिक सावधान रहने की आवश्यकता है, वरना कर्मों और संबंधों पर भी इसका प्रभाव पड़ेगा. संबंध दर्पण की तरह हमारे मन का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करते हैं. जिस दिन ऐसा लगे कि मधुरता खो रही है, सजग होकर सत्व में टिकने का प्रयास करना चाहिए. जीवन का सौन्दर्य एक क्षण के लिए भी मिटता नहीं है, बस उसे निहारने वाली चेतना चंचलता या जड़ता से धूमिल हो जाती है.  

Wednesday, September 5, 2018

चलें योग के पथ पर सब मिल

 ६ सितम्बर २०१८ 
यम और नियम योग का आधार हैं. योग का अर्थ है जुड़ना, जुड़ने के लिए दो की आवश्यकता है, जुड़ने के बाद भले ही वे दो न रहकर एक हो जाएँ. जैसे दूध और पानी का योग होने के बाद उन्हें अलग-अलग देखना सम्भव नहीं, हाँ किसी उपाय के द्वारा उन्हें अलग अवश्य किया जा सकता है. मन का योग होने का अर्थ है उसके सभी विचार जुड़ जाएँ, अनेक की जगह एक ही विचार शेष रहे, तो मन योगयुक्त हुआ मान सकते हैं. बुद्धि योग का अर्थ हुआ जब बुद्धि एक ही निर्णय दे, संकल्प के विपरीत कोई विकल्प न उठाये. अत्मयोग का अर्थ हुआ जब ‘स्वयं’ मात्र शेष रहे, केवल एक उपस्थिति मात्र, एक शांतिपूर्ण अवस्था, जिसमें कोई संकल्प भी न उठे. परमात्मा योग का अर्थ हुआ जब स्वयं का भी भान न रहे, उस अवस्था को संतों ने अवर्णनीय कहा है, क्योंकि उसमें न कोई देखने वाला है न अनुभव करने वाला. आमतौर पर योग का अर्थ हम आसन और प्राणायाम से ही लगाते हैं, ये दोनों योग के पथ पर चलने के साधन हैं.

Monday, September 3, 2018

एक हुआ जो सारे जग से


४ सितम्बर २०१८ 
हम आज जो भी हैं, इसका चुनाव हमने ही किया है. हम कल क्या हों, इसका चुनाव अब हमें करना है. पूर्वाग्रहों, मान्यताओं और आदतों के अनुसार ही जीवन चलता रहा तो भविष्य का अनुमान लगाना जरा भी कठिन नहीं, हम वही होंगे जो आज हैं. जीवन की चुनौतियों को स्वीकार करने का यदि मन बना लिया और स्वयं को उसमें बाधा न बनने दिया तो भविष्य बिलकुल नया होगा. जीवन बढ़ने और चलने का नाम है, यह वाक्य सुनने में कितना भला लगता है, कदम-कदम आगे बढ़ते जाने से एक दिन हम स्वयं को बिलकुल बदला हुआ पायेंगे. योग साधना का यही लक्ष्य है, सर्व दुखों से मुक्ति का नाम ही योग है. अस्तित्त्व के साथ एक्य ही योग है. योग के आठ अंगों में से एक को जो साध लेता है, वह मंजिल की ओर चल पड़ता है. पांच यमों और पांच नियमों में से एक-एक की भी साधना यदि कोई करता है तो अन्य भी सधने लगते हैं.

Sunday, September 2, 2018

कान्हा की हर बात निराली


३ सितम्बर २०१८ 
कृष्ण को चाहने वाले इस जगत में हजारों नहीं लाखों हैं, या करोड़ों भी हो सकते हैं, किंतु कृष्ण की बात को समझने वाले और उसका स्वयं के भीतर अनुभव करने वाले संत ही होते हैं. उनके जीवन के हर पहलू से हमें कुछ न कुछ सीखने को मिलता है. कारागार में जन्म लेना क्या यह नहीं सिखाता कि आत्मा का जन्म देह की कैद में ही सम्भव है. मानव जन्म लिए बिना कोई आत्मा का अनुभव कर ही नहीं सकता. जन्म के बाद वह गोकुल चले जाते हैं, नन्द और यशोदा के यहाँ, अर्थात आत्मअनुभव के बाद नन्द रूपी आनंद की छत्र छाया में ही रहना है और यशोदा की तरह अन्यों को यश बांटते रहना है. बांटने की कला कोई कृष्ण से सीखे, वह मक्खन चुराते हैं ग्वाल-बालों और बंदरों में बांटने के लिए. बांसुरी बजाते हैं यह जताने के लिए कि सृष्टि संगीत मयी है, जीवन में यदि गीत और संगीत न हो तो कैसा जीवन. आज के युग में जीवन को संघर्ष का नाम दिया जाता है, जबकि कृष्ण की परिभाषा है जीवन एक उत्सव है. जन्माष्टमी पर हम कृष्ण के बालरूप को सजाते हैं, संत भी बालवत हो जाते हैं, इसका अर्थ हुआ यदि हमारे भीतर बचपन अभी जीवित है तो हम भी आत्मा के निकट हैं.  

Saturday, September 1, 2018

अच्युतम, केशवम, कृष्ण दामोदरम


१ सितम्बर २०१८ 
कृष्ण का अर्थ है जो आकर्षित करता है, कृष्ण छोटे-बड़े, नर-नारी, पशु-पंछी सभी के मन को मोहता है. कृष्ण शुद्ध निर्विकार प्रेममयी आत्मा का प्रतीक है. उपनिषद में ऋषि कहते हैं, पुत्र पुत्र के लिए प्रिय नहीं होता आत्मा के लिए प्रिय होता है. इसी लिए कृष्ण हर किसी का प्रिय है. उसे किसी भी संबंध में बांधें वह बंधने के लिए तैयार है, वह पुत्र है, भाई है, मित्र है, सखा है, प्रेमी है, शिक्षक है, गुरू है, सेवक है, स्वामी है, राजा है, सारथि है. वह ज्ञानी है, योगी है, अपने भक्तों का भक्त भी है. उसे गौएँ चाहती हैं, मोर उसके इशारों पर नाचते हैं, हिरण उसकी वंशी की धुन सुनकर ठहर जाते हैं, यमुना का नीर बहना भूल जाता है, गोवर्धन थिर नहीं रह पाता, कुंजगलियाँ भीं उसकी राह तकती हैं, वृक्ष जिनके तने की टेक लगाकर वह खड़ा होता है, या बैठता है, उसके लिए सदा छाया करने को तत्पर रहते हैं, उनमें हर ऋतु में पुष्प खिलने को आतुर रहते हैं. युगों-युगों में ऐसा सुहृद धरा पर आता है, जिसके जाने के हजारों वर्ष बाद भी वह जन-जन के मन-प्राण को मुग्ध करने की क्षमता रखता है. ऐसे कृष्ण का जन्मदिवस आने वाला है. हर्ष और उल्लास के साथ हम उसे याद करें और भगवद् गीता में दिए उसके उपदेशों को जीवन में धारण करें.  

Thursday, August 30, 2018

एक ऊर्जा बहती भीतर


३१ अगस्त २०१८ 
संत कहते हैं, ब्रह्म सत्यं, जगत मिथ्या...सत्य इतना सरल है कि उस पर दृष्टि ही नहीं जाती, इसलिए ब्रह्म से हम अनजाने ही बने रहते हैं. जगत इतना विषम है कि उलझा लेता है, जो उलझा हुआ है वह भला क्या समझेगा, इसलिए जगत की असलियत से भी हम अनजान ही बने रहते हैं. जगत मिथ्या है, इसका भान ही नहीं कर पाते. जीवन जो एक अवसर के रूप में हमें मिला था, एक दिन चुक जाता है और हम इस जगत से खाली हाथ ही प्रयाण कर जाते हैं, दुबारा उसी जाल में उलझने के लिए. जीवन एक ऊर्जा है, जो पेड़-पौधों, जीव-जन्तुओं और मनुष्यों के द्वारा प्रवाहित हो रही है. वनस्पति जगत हो या जीव जगत उन्हें इसका कोई अहंकार नहीं है, पर मनुष्य को लगता है, वह इस ऊर्जा का निर्माता है. वह अपनी इच्छा से जो भी चाहे प्राप्त कर सकता है, प्रकृति का दोहन करके अपने लिए सुख-सुविधाओं के अम्बार लगा सकता है. मनुष्य यदि यह समझ ले कि वह भी इस विशाल आयोजन का एक पुर्जा ही है, ऊर्जा उसके माध्यम से व्यक्त भर हो रही है, वह उसका निर्माता नहीं है. ऐसा करते ही भीतर एक परिवर्तन आता है, कुछ बनने की, कुछ प्राप्त करने की लालसा एक सहज कर्म प्रवाह में बदल जाती है. जीवन की जिस क्षण जो मांग है उतना भर होता है और शेष समय अंतर एक सहज स्थिति का अनुभव करता है.  

Wednesday, August 29, 2018

अभय हुआ जो वही मुक्त है


२९ अगस्त २०१८ 
परमात्मा हमें हर कदम पर आगे बढ़ने के लिए कितने ही अवसर देता है. हम कभी जड़ता और कभी भय के कारण उनका लाभ नहीं ले पाते. यह जीवन सीखने के लिए मिला है और उस सीखे हुए को जगत के साथ व्यवहार में अपनाने के लिए भी. आत्मा का विकास हो तभी वह प्रफ्फुलित रह सकती है. जैसे कोई बच्चा यदि बिना पढ़ाये ही छोड़ दिया जाये तो वह अपना सामान्य जीवन भी ठीक से नहीं चला पाता, वैसे ही आत्मिक विकास के बिना हम भावनात्मक रूप से पिछड़े हुए ही रह जाते हैं. जीवन एक लम्बी यात्रा है, जिसमें अनेक जन्म लेते हुए हम यहाँ तक आ पहुँचे हैं. यह जन्म मंजिल नहीं है, न ही मृत्यु इसका अंतिम पड़ाव है, अभी आगे जाना है. स्वयं को जानकर यानि आत्मस्थित होकर ही हम इस यात्रा को सजगता पूर्वक कर सकते हैं. इसके लिए हर तरह के प्रमाद और भय से मन को मुक्त करना होगा, जीवन जिस रूप में भी सम्मुख आता है, उसे स्वीकार करना होगा और परमात्मा को सदा अपने निकट ही जानकर उसके प्रति श्रद्धा को जगाये रखना होगा.