Sunday, March 31, 2013

जगता है जब भीतर प्रेम


जून २००४ 
प्रेम से परिवर्तन सम्भव है, प्रेम हमारे भीतर एक क्रांति का उदय करता है, हम भीतर पिघल जाते हैं. गुरु के चरणों में जब हमारा सिर झुकता है तो भीतर एक घटना घटती है, अपने सुख-दुःख, पाप-पुन्य, गुण-अवगुण सभी को गुरु अथवा ईश चरणों में समर्पित करके जब हम मुक्त हो जाते हैं तो कृपा का बादल मन के आंगन में बरसता है, अंतर भीग जाता है और प्रेम की उर्जा भीतर उदय होती है. हम अपने स्वभाव को पा जाते हैं, प्रेम हमें हमारे स्वभाव से मिलाता है, वास्तव में हम दूसरे को प्रेम कर नहीं होते अपनी आत्मा से ही कर रहे होते हैं, क्योंकि सीधे-सीधे उस तक हमारी पहुंच नहीं है, हमें दूसरे के वाया जाना पड़ता है, सभी के भीतर वही स्वभाव है, जो प्रेम का स्रोत है. सच्चा प्रेम वहीं से उपजता है और वहीं पहुंच जाता है.

Friday, March 29, 2013

बस निमित्त भर हो जाएँ..



जब तक हमारे जीवन में राग-द्वेष हैं, तब तक हमें कर्म करने ही पड़ेंगे, साधना करते-करते जब मन खाली हो जायेगा, तब अस्तित्त्व हमारे द्वारा काम कराएगा. जैसे मैले कपड़े को तब तक धोया जाता है जब तक उसमें मैल रहता है ताकि वह स्वच्छ होकर पुनः इस्तेमाल किया जा सके, वैसे ही मन जो विषादग्रस्त हो गया है, उसे जगत की परिस्थितियाँ पटक-पटक कर निर्मल करती हैं, सुख-दुःख दोनों इसलिए आते हैं कि हम उन्हें त्याग कर आगे निकल जाएँ, खाली मन में प्रेम का उदय होता है, जिससे वह आत्मकल्याण की बात सोचता है, भीतर की भलाई की बात सोचता है. ऐसा मन अन्यों के लिए उस औषधि की तरह हो जाता है जो ऊपर से तो कड़वी होती है पर उसका असर लाभप्रद होता है. वह बदले में किसी से कुछ नहीं चाहता, कोई अपेक्षा उसे जगत से नहीं रहती, लेकिन कोई भी वास्तविक अर्थों में निरपेक्ष होकर नहीं रह सकता, शरीर के निर्वाह के लिए तो उसे जगत का आश्रय लेना ही होगा, समाज का, शास्त्रों का गुरु का ऋणी भी होना पडेगा, समाज उसे सुरक्षा प्रदान करता है, परिवार उसे स्नेह देता है, गुरु उसे ज्ञान देते हैं, तब जाकर वह इस योग्य बनता है कि निर्भय होकर स्वयं को स्वालम्बी घोषित कर सके, और यदि उसे एक बार सार्मथ्य मिल जाता है, उसका आत्मबल बढ़ जाता है तो उसे अपनी सारी क्षमता का उपयोग क्या अब उनकी सेवा में नहीं लगाना चाहिए जिनके कारण वह यहाँ तक पहुंचा है, यहीं अस्तित्त्व उसे अपना उपकरण बना लेता है.

Thursday, March 28, 2013

तू प्यार का सागर है


जून २००४ 
संतजन कहते हैं, सुख को पकड़ना नहीं है, सुख तो स्वाभाविक है, उसे पकड़ने जायेंगे तो वह  दुःख में बदल जायेगा. दुःख को भी पकड़ना भी नहीं है, उसे पकड़ने से वह बढ़ जायेगा, उसे भी छोड़ना है, वह कम हो जायेगा. दुःख का जाना भी स्वाभाविक है और जो बचेगा वह सहज सुख ही होगा. इच्छा को पूरी करने का ज्वर जब चढ़ता है तो दुःख बढ़ता है, इच्छा को समर्पित कर देना है, यदि वह श्रेयस्कर होगी तो अपने आप पूरी हो जायेगी, इच्छा का त्याग करते ही सुख आता है. मन का सहज स्वभाव तो आनंद ही है, कोई भी विक्षेप होता है तो वह ढक जाता है, उसके दूर होते ही पुनः मन अपने सहज स्वरूप में आ जाता है. जो सहज है, वही सुखकर है, ईश्वर की उपस्थिति उसी आनंद में ही सम्भव है. वह हमें सहज प्राप्य है, वह सागर है, हम तरंगों, बुलबुलों, लहरों, बुदबुदों की तरह हैं, हम उसी से बने हैं और उसी में हैं. हमारी आस्था का केन्द्र वही है, वह यही चाहता है कि हम उसे अपने भीतर पहचानें.

Tuesday, March 26, 2013

मुक्त करे आनंद



अस्तित्त्व हमें बोलने, सुनने, देखने, सूँघने, व छूने की शक्ति प्रदान करता है ताकि हम उसके आनंद में भागीदार हो सकें. वह जब अपने आनंद को बांटना चाहता है तो इस सुंदर जगत का निर्माण करता है, अपने से ही वह इसे गढ़ता है, फिर जैसे माँ बच्चे को जन्म देती है, फिर उसे स्नेह देती है और स्नेह पाती है, वैसे ही वह भी आनंद का आदान-प्रदान करता है. मोह वश जैसे कभी सन्तान ही दुःख भी पाती व देती है, वैसे ही हम भी अपने कृत्यों के कारण दुःख पाते हैं, व उसे दुःख देते हैं, क्योंकि उसकी सबसे बड़ी पूजा प्रसन्न चित्त रहना है. चित्त जब निर्मल हो, प्रसन्न हो, समता में हो तब हम उसके निकट हैं और लेन-देन चल रहा है.

Friday, March 22, 2013

मुक्त करेगा प्रेम


जून २००४ 
संतजन कहते हैं, परमात्मा अन्तर्यामी है, वह सभी के हृदय का साक्षी है, वे आनन्दस्वरूप हैं, पर भक्तों के प्रेम में वे भी आनंद पाते हैं. जिस तरह भक्त भगवान को प्रेम करते हैं, वे भी करते हैं. प्रेम के इस आदान-प्रदान में भक्त और भगवान एक अनोखे आनंद का अनुभव करते हैं. हर वस्तु का स्वभाव ही उसका धर्म है, हमारा स्वभाव आनंद है उसमें बाधा आते ही हम विचलित हो जाते हैं, हमारा सहज स्वभाव ही प्रेम पाना व प्रेम देना है, पर यह प्रेम सहज और विशुद्ध होना चाहिए अग्नि की तरह, सूक्ष्म होना चाहिए आकाश की तरह, ईश्वर की तरफ प्रेम भरी नजर उठते ही सद्गुरु की कृपा होती है, वह हमें रसमय, मधुमय बनाते हैं.

Thursday, March 21, 2013

मुक्त करेगा ध्यान


जून २००४ 
मन हमें किस तरह अपने जाल में उलझा लेता है, हमें खबर तक नहीं होती. बहुत बड़ा शिकारी है यह मन, जन्मों-जन्मों से हम इसके शिकार होते आये हैं, तभी सद्गुरु कहते हैं, “मन के मते न चालिए” कैसे हमारा मन ही हमारा शत्रु बन जाता है, कैसा भयभीत करता है यह पागल मन. जिसे जानने का हम भ्रम पालते हैं. हम अपनी बेवकूफियों का शिकार बनते रहते हैं और अपने इर्द-गिर्द का वातावरण भी दूषित करते हैं. हम स्वयं को ही नहीं जान पाते और अन्यों को जानने का झूठा दम भरते हैं, किसी के बारे में कोई राय कायम करने से पूर्व, कोई बात कहने से पूर्व सौ बार सोचना चाहिए. सद्गुरु ठीक कहते हैं ऊपर-ऊपर से लगता है कि हम सुधार कर रहे हैं मन का, पर जो भीतर कर्म के बीज पड़े हैं, वे तो तभी जायेंगे जब हम ध्यान की गहराई में पहुंचेंगे. अभी बहुत सफर तय करना है, अभी तो शुरुआत है. जब पहली सीढ़ी पर कदम रखा है तो लक्ष्य भी एक न एक दिन मिलेगा ही. सद्गुरु का साथ हर क्षण हमारे साथ है, वह हर तरह से हमारी सहायता करते हैं. वह स्वयं पूर्णकाम हैं, धन्य हैं वे आत्माएं जो स्वयं पवित्र होकर दूसरों का मार्ग प्रशस्त करती हैं. किसी न किसी जन्म में, सम्भव है इसी जन्म में, हम भी किसी के काम आ सकें, पहले तो स्वयं का कल्याण करना है, मुक्त होना है. हर कीमत पर बन्धनों को तोड़ कर फेंकना है, अंतिम बार हो यह बंधन, आगे नहीं !

Wednesday, March 20, 2013

मुक्त हुए मिटती माया


जून २००४ 
मन की सौम्यता बनाये रखना ही अध्यात्म का लक्ष्य है, हमारा मन जब संसार की ओर उन्मुख होता है तो अपनी सौम्यता खो सकता है यदि सचेत न रहा, जब भीतर जाता है तो शांत अवस्था को प्राप्त होता है यदि सजग रहा, वहीं उसका वास्तविक घर है, जहाँ उसे पूर्ण विश्राम मिलता है. संतजन कहते हैं शरीर तो वह उपकरण है जो आत्मा को अपनी गरिमा प्रदान करने के लिए मिला है, मन भी वह उपकरण है जो उच्च चिंतन व मनन करने के लिए मिला है, व्यर्थ चिंतन करके सुखी-दुखी होने के लिए नहीं है. भीतर जाकर जो लौटा है उसके लिए संसार स्वप्न की भांति हो जाता है. वह  स्वाधीन हो जाता है, मुक्ति का सुख निराला है, जो शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता.  

Tuesday, March 19, 2013

साहेब मेरा एक है


जून २००४ 
परमात्मा ने मानव को तथा इस सृष्टि को अपने भीतर के आनंद को प्रकट करने के लिए सिरजा है, लेकिन हम अंधे मनुष्य की भांति स्वयं ही गड्ढे में गिरते हैं, काँटों से उलझते हैं और फिर कहते हैं दुनिया दुःख स्वरूप है. दुनिया दुःख रूप तभी तक है जब तक हम अज्ञान में हैं, जब तक हम स्वयं को अन्यों से पृथक समझते हैं, यही माया है. स्वयं को जाने बिना हम इससे मुक्त नहीं हो सकते. साधक जब मन को प्रेरणादायक विचारों से भर लेता है तो भीतर और माधुर्य उभरता है, जैसा बीज हम धरती में बोते हैं, वैसा ही फल हमें प्राप्त होता है. हमें अंतिम सत्य की तलाश है, ईश्वर का अनुभव हम करना चाहते हैं, समाधिस्थ होना चाहते हैं, अनवरत शांति के उस स्रोत से जुड़े रहना चाहते हैं, जो हमारे भीतर है, जो परमसत्य है तो मन को समाहित करना होगा, मन तभी समाहित होगा जब उसमें द्वैत न हो, जब सम्पूर्ण जगत से हमारा एक्य हो जाये, जब भीतर कोई विरोध न हो, उद्वेग न हो, जब जो जैसा हो, वैसा का वैसा ही स्वीकार करने का सामर्थ्य हो.

Monday, March 18, 2013

एक प्रार्थना ऐसी भी


जून २००४ 
यदि कोई बेचैन नहीं होता, हर परिस्थिति को समता से स्वीकार करता है, तभी समझना चाहिए कि वह प्रेम में है, प्रेम किया नहीं जाता यह एक अवस्था है, इसका प्रमाण है हमारे भीतर की अथाह शांति.. हम पहाड़ के नीचे की घास बन जाएँ, अर्थात निरभिमानी हो जाएँ, तो ही शांति का अनुभव कर सकते हैं. दुःख आने पर हम पत्थर बन जाएँ अर्थात दृढ रहें, एक आत्मीयता का भाव भीतर रहे. ज्ञान की अग्नि अशुभ संकल्पों को जला दे पर हृदय इतना तप्त न हो कि हम अकेले-अकेले ही अपने भीतर के सुख को पाना चाहें, हम अपने आंगन में चमेली का पौधा बन जाएँ जो भीतर रहने वालों और बाहर गुजरने वाले लोगों को सुगंध से भर देता है. जब किसी को प्रेम का प्रसाद मिल चुका हो तब उसके जीवन का और कोई उद्देश्य नहीं रह जाता सिवाय इसके कि वह अपनी ऊर्जा बाँटें, आनंद, शांति और प्रेम की ऊर्जा. 

Sunday, March 17, 2013

कबिरा गरब न कीजिये


मई २००४ 
यदि कोई समर्थ होकर भी अभिमानी नहीं है तो उसके जीवन में सद्गुरु है अथवा उसे ईश्वर की कृपा प्राप्त है. उसके आस-पास एक पवित्र वातावरण बन जाता है, उसके भीतर कोई आक्रामकता नहीं रहती, वह शांत, सौम्य और द्वेष रहित होता है. इस जगत में हर क्षण हजारों जीवन जन्मते और मरते हैं, बहुत कुछ बनता व बिगड़ता है, लेकिन ईश्वर उससे प्रभावित नहीं होता, प्रकृति से जो बना है वह नष्ट होने ही वाला है, यह प्रकृति का नियम है, पर पुरुष उससे अलग है, हमारा तन-मन प्रकृति से बना है पर हम परम से बने हैं, हमारे भीतर एक केन्द्र है जो इतने सारे तूफानों के बीच भी अडोल रहता है, जो देखने वाला है, उसके साथ पहचान करना ही सारी साधना का लक्ष्य है, उसके साथ पहचान होते ही अभिमान विदा हो जाता है. तब किसका अभिमान करें जो बदलना वाला है, स्थिर नहीं है उसका कैसे करें और जो सदा एक सा है वह तो स्वयं परमात्मा का अंश है, उसमें हमारा क्या ? सभी के भीतर एक ही चेतन शक्ति है, जो ज्ञानमयी, आनन्दमयी तथा शांतिमयी है.

Friday, March 15, 2013

कर्म ही आनंद है



हमारे सभी कर्म आनंद की अभिव्यक्ति हैं, कर्मों के द्वारा हम आनंद प्राप्त करने की चेष्टा करें तो वह  व्यर्थ होगी. हमारा हर कृत्य आनंद का कारण है, हम जब भीतर से तृप्त होते हैं तो जो भी होता है वह मुक्ति का कारण बनता है, वरना यदि हम दूसरों की खुशी के लिए अथवा किसी बड़े उद्देश्य के लिए कर्म करते हैं तो वे हमें अभिमान से भर देते हैं, और हम जो जंजीरों से छूटना चाहते हैं, स्वयं को एक और जंजीर से बाँध लेते हैं. जो भी करने की योग्यता हमें मिली है, उसके प्रति कृतज्ञता की भावना से भरने पर हम कायस्थ होते हैं और फिर ध्यानस्थ. एक शांति की शीतल फुहार जैसे भीतर कोई बरसा रहा हो, ऐसी अनुभूति होती है, जब कर्मों के द्वारा हम कुछ प्राप्त करना नहीं चाहते, वे सहज ही होते हैं जैसे हवा का बहना.

Thursday, March 14, 2013

बुद्धं शरणम गच्छामि


भगवान बुद्ध के चार आर्य सत्य हैं- “संसार में दुःख है, दुःख का कारण है, कारण का निवारण है, एक अवस्था ऐसी है जहाँ कोई दुःख नहीं है”. यदि कोई संवेदनशील है तो पहले सत्य का अनुभव कर  सकता है, दुःख का तो सबको पता है पर जिन बातों को हम सुख मानते हैं उनका अंत भी दुःख में होता है, यह वह स्पष्ट देख पाता है, क्योंकि संसार द्वन्द्व के नियम से ही चलता है. विपासना ध्यान में हम अपने भीतर उतरते हैं, शरीर को देखते हैं, श्वास-प्रश्वास को देखते हैं. देखते-देखते मन की सच्चाईयों को देखने लगते हैं. मन विकार जगाता है, फिर दुःख होता है, जब विकार को त्यागता है तब शांत हो जाता है. जहाँ से विकार जगते हैं यदि हम उस मूल तक पहुंच जाएँ, कौन है हमारे भीतर, जो विकार जगाता है, क्या वह सत्य है, क्योंकि आत्मा तो स्वयंपूर्ण है, उसे जगत से क्या चाहिए, सत्य वही है, तो जो असत है वही विकार जगाता है, भीतर जाकर पता चलता है, वास्तव में वह है ही नहीं, मात्र प्रतीत होता है. 

Wednesday, March 13, 2013

संध्याकाल में मिलता है वह


मई २००४ 
  सुबह जब नींद पूरी तरह खुली भी नहीं हो और न ही हम सोये हों, तो उसकी स्मृति लानी है, ऐसे वक्त में अपने मन को वहाँ ले जाना है जहाँ से सारे विचार उठते हैं. ईश्वर का नाम हर स्थिति में सुखदायी है पर संधिबेला में उसका प्रभाव अधिक होता है, वह दाहक भी है और पावक भी, वह अशुभ संसकारों को दग्ध करता है और मन को पावन करता है. ध्यान में सुख है पर हमारे व्यवहार की परीक्षा तो जगत में रहकर ही होती है. मन समता में टिका है या नहीं यह तभी पता चलता है. वर्षों साथ रहने पर भी लोग एक-दूसरे को कहाँ समझ पाते हैं. आत्मा के स्तर पर जाकर ही कोई दूसरे को समझ पाता है, जब ‘मैं कौन हूँ’ का जवाब मिल जाता है तो ‘तुम कौन हो’ का जवाब ढूँढना नहीं पड़ता. जो मैं हूँ वही तू है, फिर कोई भेद नहीं रह जाता, कोई तब दूसरा होता ही नहीं. यह जगत मिथ्या है, का अर्थ यही है कि भेद मिथ्या है, सभी के भीतर उसी चैतन्य का प्रकाश है, सभी एक ही  मंजिल की ओर बढ़ रहे हैं.

वर्तमान का नन्हा सा क्षण


मई २००४ 
जिस समय हम पूर्ण वर्तमान में पहुंच जाते हैं, अपने आप शांत हो जाते हैं. वर्तमान कभी पीड़ा नहीं देता, सदा भूत व भविष्य ही पीड़ा के कारण होते हैं. हमारे कार्य भी तभी बिगड़ते हैं जब हम वर्तमान से चूक जाते हैं. ध्यान में हमें वर्तमान की शक्ति अनुभूत होती है. साधक को अभी बहुत दूर जाना है पर सद्गुरु अथवा इष्ट का साथ मिलने से अध्यात्मिक यात्रा सरल हो जाती है. मन में कोई प्रश्न उठे तो भीतर से उसका उत्तर आता है. भीतर जो भी शुभ विचार अथवा आनंद उभरता है वह उन्हीं का प्रसाद  है. उस गुरुतत्व का अनुभव वर्तमान का शुद्धतम क्षण ही दिलाता है. कृष्ण जो जगद्गुरु हैं, हमारी आत्मा की आत्मा हैं, हमारी आत्मा कृष्ण का कलेवर है, तभी सदा शुभ का परामर्श देती है. जैसे लोहा चुम्बक के पास एक बार पहुंच जाता है तो शेष कार्य चुम्बक ही करता है, वैसे ही यदि एक बार हम कृष्ण को अपना सखा बना लें तो वह हमें छोड़ता नहीं. यह जगत जो स्थायी होने का भ्रम देता है, पल-पल बदल रहा है, यह मन यदि आत्मा का स्थायित्व नहीं पाता, अस्थिर ही रहेगा.



Monday, March 11, 2013

रस का कोई स्रोत बह रहा


मई २००४ 
मन जितना-जितना समता में स्थिर होता जाता है, अस्तित्त्व के हम उतने ही निकट जाते हैं. जीवन में सन्यास घटित होता है, सत्य का संकल्प ही सन्यास है. यह एक छलांग है, जिसे लगाने पर भीतर एक मोद का अहसास होता है, ईश्वर को निकट पा जाने की कला आ जाती है, वह रसमय है, माधुर्यपूर्ण है, जिसे शब्दों में कहना आसान नहीं है, उसमें स्वयं को मिटाने की कला ही सन्यास है. हम कुछ भी नहीं हैं, यह भाव सिद्ध हो, अहं को नष्ट करना आ जाये तो हम उसके रस को पीने की कला सीख जाते हैं, वह रस हमारे भीतर से ही प्रकट होने लगता है, हम हैं क्या ? वही तो है, एक वही तो अनेक रूपों में दिखाई दे रहा है. वही स्वयं ही हमारे भीतर प्रकट होता है, और स्वयं ही अपने आनंद को पाता है. ‘स्व’ में स्थित होकर ‘स्वकीय’ में विश्रांति पानी है, ‘स्व’ ‘स्वकीय’ का अंश है, प्रकृति से जुड़कर ‘स्व’ अहम बन जाता है. मन, ‘स्व’ के सागर पर उठने वाली लहरें हैं, जब मन शांत हो जाता है तब ‘स्व’ में समाहित हो जाता है, मन का होना अहम् के कारण है. समता की साधना करने पर साधक को अपने भीतर बहुत कुछ घटता हुआ दीखता है, कुछ मधुर जिसे नाम नहीं दे सकते, जो अनिर्वचनीय है.

Sunday, March 10, 2013

चेतन अमल सहज सुख राशि


मई २००४ 
नन्हा बच्चा अपने भीतर की मस्ती से आनन्दित है, वह किसी भौतिक कारण के कारण सुखी नहीं है, पर दुखी वह किसी कारण से ही होता है.  मानव जब बड़ा होता है तो किसी कारण से ही सुखी होता है और दुखी बिना किसी कारण के ही होता है. कल्पनाओं के महल बनाकर वह स्वयं ही उन्हें गिराता है फिर आकुल होता है. प्रतिस्पर्धा की अग्नि में स्वयं को झुलसाता है, दिखावे की पीड़ा से गुजरता है. हम अकारण ही भयभीत होते हैं. और अपने भीतर के आनंद को ढक देते हैं. सहज उल्लास जो छह महीने के बच्चे में प्रकट होता है भीतर से, वही उस इंसान में भी प्रकट हो सकता है जिसने सारी तृष्णाओं का त्याग कर दिया है, जो पूर्णकाम है, उसके जीवन की बागडोर अब अस्तित्त्व के हाथों में है. वह सहज रूप से जीता है, तभी उस अकारण करुणानिधि उस परमात्मा की अहैतुकी कृपा का अनुभव उसे होता है. 

Wednesday, March 6, 2013

जो तुझ भावे सो भली


मई २००४ 
विद्या माया से अविद्या माया तो नष्ट हो जाती है, पर सत्वगुण विद्या माया में ही छिपा है, उसे नष्ट करने के लिए ज्ञान पर्याप्त नहीं है, वह केवल ईश्वर की शरण में जाकर ही नष्ट हो सकती है, उसकी कृपा हम पर हर क्षण बरस रही है. हमारे मन में न जाने कितने-कितने संस्कार दबे हैं, जो वक्त आने पर प्रकट होते हैं यदि हम शरणागत हैं तो प्रारब्ध को हँसते-हँसते स्वीकार करते हैं. स्वीकार करते ही उसका अहैतुक, निस्वार्थ प्रेम हमें छू जाता है. धर्म के अनुभव का एक ही अर्थ है कि परमात्मा है और हमसे बहुत प्रेम करता है, यह अस्तित्त्व हमारा अपना है, सदा हमें प्रसन्न देखना चाहता है. प्रतिपल जीवन उत्सव तभी बन सकता है, जब यह सारा जगत अपना लगता है. 

Tuesday, March 5, 2013

कुछ न करे जब पल भर को मन


मई २००४ 
ध्यान में हमें कुछ न करने का सुझाव दिया जाता है, जन्म से लेकर मृत्युपर्यंत मानव सदा कुछ न कुछ करता ही रहता है. सदा बाहर की ओर ही उसकी इन्द्रियाँ दौड़ती हैं, सदा कुछ न कुछ पाने की चाह, कोई न कोई इच्छा उसे निरंतर दौड़ते रहने पर मजबूर करती है, पर जब यह मन समझ जाता है कि उसकी यह दौड़ कोल्हू के बैल की तरह है जो उसे कहीं नहीं पहुंचाती, तो वह ध्यान में उत्सुक होता है. अभ्यास से मन टिकने लगता है, भूत की चिंता व भविष्य की आशंका से मुक्त हो वर्तमान के उस छोटे से द्वार में प्रवेश करना सीख लेता है जो अनंत में खुलता है.

Monday, March 4, 2013

जरा सामने तो आओ...


मई २००४ 
यह जो एक नामालूम सी कसक भीतर छायी है, यह जो अनजानी सी पीड़ा ने मन को व्यथित किया है, यह विरह की पीड़ा है. चैन नहीं लेने देती यह, मन को पल-पल जलाती है, तड़पाती है, इसे नाम नहीं दिया जा सकता पर यह है वही, वह नहीं मिलता जब, तभी यह अभाव मन को खटकता है, पर वह तो नित हमारे साथ है, फिर यह दर्द क्यों , वह है पर मन पर पर्दा पड़ा है, वह छिप गया है. वह  मिला तो गर्व हो गया अब उस गर्व को मिटाने के लिए यह पीड़ा रूपी औषधि लेनी है. जो भी हो रहा है, उसे साक्षी भाव से देखना है, भोक्ता नहीं बनना है, यह सोचते ही मन हल्का होने लगता है. जो कुछ भी हो रहा है वह मन के बाहर की बात है, जैसे सड़क के किनारे खड़े होके देखें तो अनगिनत लोग गुजर जाते हैं, हम अलिप्त रहते हैं, वैसे ही मन को देखते जाना है, मन में तरंगे उठती हैं, गिरती हैं, हम उसके द्रष्टा हैं, द्रष्टा भाव दिया है उसी परमात्मा की शक्ति ने, इसके पार वही तो है. 

Friday, March 1, 2013

मन अनंत अनंत ही चाहे


मई २००४ 
हम यदि विकारों से पूरी तरह मुक्त नहीं हो सकते तो कहीं न कहीं सीमाकरण तो करना ही होगा, धीरे-धीरे इस सीमा को बढ़ाते जाना है. हम सुख-दुःख से परे उस परम आनंद को यदि अपना आश्रय स्थल बनाना चाहते हैं तो संयम और अनुशासन पहला कदम है. उन्मुक्त जीवन में मन भी उडा-उड़ा सा ही रहेगा. ऐसे मन में बुद्धि स्थिर नहीं रहेगी, स्थिर बुद्धि में ही आत्मा प्रतिबिंबित होती है. ईश्वर स्वयं हमें अपना आनंद प्रदान करना चाहते हैं, उसकी शक्ति ही हमें जीवित रखे हुए है, पर इस बात को हम नहीं मानते, उसके प्रति कृतज्ञता के भाव हमारे भीतर नहीं उमड़ते. इतने पर भी वह हमें प्रेम करता है, हमारी सोयी हुई शक्तियों को जगाना चाहता है, हमारे माध्यम से प्रकट होना चाहता है, हमारे धैर्य समाप्त होने की अनंत काल से प्रतीक्षा कर रहा है, कि कितने वर्षों तक हम उससे दूर रह सकते हैं, हम कितने निस्वार्थी हैं कि ईश्वर का सान्निध्य भी नहीं चाहते, लेकिन जगत जो सीमित है वह असीम मन को आनन्दित कैसे कर सकता है.

एक उसी की खोज सभी को


अप्रैल २००४ 
अस्तित्त्व आनंद स्वरूप है, वह प्रेम तथा ज्ञान स्वरूप है, वह आनन्दित होकर प्रतिक्षण अपना प्रसाद बांट रहा है. पर मानव के पास समय नहीं है कि उस आनंद को पाने के लिए जरा सा प्रयत्न भी करे. जब हम पर विपत्ति के बादल मंडराते हैं तो हम ईश्वर के निकट जाते हैं, हमारा लक्ष्य तब विपत्ति से छुटकारा मात्र होता है न कि उसके आनंद को पाना. वह अकारण दयालु है, वह हमारे जीवन में ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करता है कि हम उसके निकट आयें. यदि इतने पर भी हम नहीं समझते तो मृत्यु का झटका लगता है, पुनः जन्म होता है और पुनः मरण...अंततः हम स्वयं ही कह उठते हैं, कभी इसका अंत भी होगा...क्यों हम व्यर्थ ही दुःख उठा रहे हैं, अरे, इस जीवन का कोई प्रयोजन भी है या फिर यूँही यह आना-जाना लगा हुआ है. तब अस्तित्त्व जान लेता है कि यह वक्त उचित है कि इसे अपना आनंद प्रदान किया जाये. वह भीतर से सद्प्रेरणायें भेजने लगता है, जीवन के रहस्यों पर से पर्दा उठने लगता है. तब भीतर प्रेम जगता है, आनंद मिलता है. सद्गुरु का इसमें बड़ा हाथ है उनके प्रेम का आश्रय लेकर साधक ईश्वर की ओर चल पड़ता है.