मई २००४
यदि कोई समर्थ होकर भी
अभिमानी नहीं है तो उसके जीवन में सद्गुरु है अथवा उसे ईश्वर की कृपा प्राप्त है.
उसके आस-पास एक पवित्र वातावरण बन जाता है, उसके भीतर कोई आक्रामकता नहीं रहती, वह
शांत, सौम्य और द्वेष रहित होता है. इस जगत में हर क्षण हजारों जीवन जन्मते और
मरते हैं, बहुत कुछ बनता व बिगड़ता है, लेकिन ईश्वर उससे प्रभावित नहीं होता,
प्रकृति से जो बना है वह नष्ट होने ही वाला है, यह प्रकृति का नियम है, पर पुरुष
उससे अलग है, हमारा तन-मन प्रकृति से बना है पर हम परम से बने हैं, हमारे भीतर एक
केन्द्र है जो इतने सारे तूफानों के बीच भी अडोल रहता है, जो देखने वाला है, उसके
साथ पहचान करना ही सारी साधना का लक्ष्य है, उसके साथ पहचान होते ही अभिमान विदा
हो जाता है. तब किसका अभिमान करें जो बदलना वाला है, स्थिर नहीं है उसका कैसे करें
और जो सदा एक सा है वह तो स्वयं परमात्मा का अंश है, उसमें हमारा क्या ? सभी के
भीतर एक ही चेतन शक्ति है, जो ज्ञानमयी, आनन्दमयी तथा शांतिमयी है.
सुन्दर दार्शनिक विचार !!
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा सुंदर विचार ,,,
ReplyDeleteRecent Post: सर्वोत्तम कृषक पुरस्कार,
अनमोल मोती .
ReplyDeleteपूरण जी, धीरेन्द्र जी व वीरू भाई, स्वागत व आभार!
ReplyDelete