जून २००४
संतजन कहते हैं, परमात्मा
अन्तर्यामी है, वह सभी के हृदय का साक्षी है, वे आनन्दस्वरूप हैं, पर भक्तों के
प्रेम में वे भी आनंद पाते हैं. जिस तरह भक्त भगवान को प्रेम करते हैं, वे भी करते
हैं. प्रेम के इस आदान-प्रदान में भक्त और भगवान एक अनोखे आनंद का अनुभव करते हैं.
हर वस्तु का स्वभाव ही उसका धर्म है, हमारा स्वभाव आनंद है उसमें बाधा आते ही हम
विचलित हो जाते हैं, हमारा सहज स्वभाव ही प्रेम पाना व प्रेम देना है, पर यह प्रेम
सहज और विशुद्ध होना चाहिए अग्नि की तरह, सूक्ष्म होना चाहिए आकाश की तरह, ईश्वर
की तरफ प्रेम भरी नजर उठते ही सद्गुरु की कृपा होती है, वह हमें रसमय, मधुमय बनाते
हैं.
प्रेरक बात
ReplyDeleteआपकी रचनाओं को पढ़कर एक अजीब सा सुक़ून मिलता है... अनिता जी!
ReplyDeleteनाम सच में सार्थक है....'मन पाये विश्राम जहाँ' [हालाँकि 'ये डायरी के पन्नों से है' ..फिर भी..!] :-)
~सादर!!!
अनिता जी, परमात्मा का प्रेम जिसे छू जाता है उसे ही विश्राम का अनुभव होता है..स्वागत व आभार !
Deleteसच कहा है ...
ReplyDeleteबिलकुल सही परिभाषा दी आपने प्रेम की ..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ...
पधारें " चाँद से करती हूँ बातें "
अरुण जी, स्वागत व आभार!
ReplyDeleteसंगीता जी, दिगम्बर जी, प्रतिभा जी आप सभी का स्वागत व आभार !
ReplyDeleteप्यार का मतलब ही है देना
ReplyDeleteसोचना भी नहीं कुछ है लेना !!
बेहद सुंदर भाव !
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मैं जोगन तेरी होली !!