जब तक हमारे जीवन में
राग-द्वेष हैं, तब तक हमें कर्म करने ही पड़ेंगे, साधना करते-करते जब मन खाली हो
जायेगा, तब अस्तित्त्व हमारे द्वारा काम कराएगा. जैसे मैले कपड़े को तब तक धोया
जाता है जब तक उसमें मैल रहता है ताकि वह स्वच्छ होकर पुनः इस्तेमाल किया जा सके,
वैसे ही मन जो विषादग्रस्त हो गया है, उसे जगत की परिस्थितियाँ पटक-पटक कर निर्मल
करती हैं, सुख-दुःख दोनों इसलिए आते हैं कि हम उन्हें त्याग कर आगे निकल जाएँ,
खाली मन में प्रेम का उदय होता है, जिससे वह आत्मकल्याण की बात सोचता है, भीतर की
भलाई की बात सोचता है. ऐसा मन अन्यों के लिए उस औषधि की तरह हो जाता है जो ऊपर से
तो कड़वी होती है पर उसका असर लाभप्रद होता है. वह बदले में किसी से कुछ नहीं
चाहता, कोई अपेक्षा उसे जगत से नहीं रहती, लेकिन कोई भी वास्तविक अर्थों में
निरपेक्ष होकर नहीं रह सकता, शरीर के निर्वाह के लिए तो उसे जगत का आश्रय लेना ही
होगा, समाज का, शास्त्रों का गुरु का ऋणी भी होना पडेगा, समाज उसे सुरक्षा प्रदान
करता है, परिवार उसे स्नेह देता है, गुरु उसे ज्ञान देते हैं, तब जाकर वह इस योग्य
बनता है कि निर्भय होकर स्वयं को स्वालम्बी घोषित कर सके, और यदि उसे एक बार
सार्मथ्य मिल जाता है, उसका आत्मबल बढ़ जाता है तो उसे अपनी सारी क्षमता का उपयोग
क्या अब उनकी सेवा में नहीं लगाना चाहिए जिनके कारण वह यहाँ तक पहुंचा है, यहीं
अस्तित्त्व उसे अपना उपकरण बना लेता है.
बहुत सही कहा आपने ...
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति
बहुत सार्थक चिंतन..आभार
ReplyDeleteसार्थक प्रस्तुति!!
ReplyDeleteपधारें कैसे खेलूं तुम बिन होली पिया...
सदा जी, अरुण जी, कैलाश जी, प्रतिभा जी, सुस्वागत व आभार!
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