मई २००४
सुबह जब नींद पूरी तरह खुली भी नहीं हो और न ही हम सोये
हों, तो उसकी स्मृति लानी है, ऐसे वक्त में अपने मन को वहाँ ले जाना है जहाँ से
सारे विचार उठते हैं. ईश्वर का नाम हर स्थिति में सुखदायी है पर संधिबेला में उसका
प्रभाव अधिक होता है, वह दाहक भी है और पावक भी, वह अशुभ संसकारों को दग्ध करता है
और मन को पावन करता है. ध्यान में सुख है पर हमारे व्यवहार की परीक्षा तो जगत में
रहकर ही होती है. मन समता में टिका है या नहीं यह तभी पता चलता है. वर्षों साथ
रहने पर भी लोग एक-दूसरे को कहाँ समझ पाते हैं. आत्मा के स्तर पर जाकर ही कोई
दूसरे को समझ पाता है, जब ‘मैं कौन हूँ’ का जवाब मिल जाता है तो ‘तुम कौन हो’ का
जवाब ढूँढना नहीं पड़ता. जो मैं हूँ वही तू है, फिर कोई भेद नहीं रह जाता, कोई तब
दूसरा होता ही नहीं. यह जगत मिथ्या है, का अर्थ यही है कि भेद मिथ्या है, सभी के
भीतर उसी चैतन्य का प्रकाश है, सभी एक ही मंजिल की ओर बढ़ रहे हैं.
ज्ञान का प्रकाश देती प्रस्तुति,,,,,
ReplyDeleteसंदेशात्मक प्रस्तुतिl
ReplyDeleteधीरेन्द्र जी, व हिमांशु जी, स्वागत व आभार!
ReplyDeleteबेहद सार्थक विचार ...
ReplyDeleteआभार इस प्रस्तुति के लिये