मई २००४
विद्या माया से अविद्या माया तो नष्ट
हो जाती है, पर सत्वगुण विद्या माया में ही छिपा है, उसे नष्ट करने के लिए ज्ञान
पर्याप्त नहीं है, वह केवल ईश्वर की शरण में जाकर ही नष्ट हो सकती है, उसकी कृपा
हम पर हर क्षण बरस रही है. हमारे मन में न जाने कितने-कितने संस्कार दबे हैं, जो
वक्त आने पर प्रकट होते हैं यदि हम शरणागत हैं तो प्रारब्ध को हँसते-हँसते स्वीकार
करते हैं. स्वीकार करते ही उसका अहैतुक, निस्वार्थ प्रेम हमें छू जाता है. धर्म के
अनुभव का एक ही अर्थ है कि परमात्मा है और हमसे बहुत प्रेम करता है, यह अस्तित्त्व
हमारा अपना है, सदा हमें प्रसन्न देखना चाहता है. प्रतिपल जीवन उत्सव तभी बन सकता
है, जब यह सारा जगत अपना लगता है.
अहोभाव !
ReplyDeletebadhiyaa vichaar manthan बढ़िया विचार मृत .
ReplyDeletebadhiyaa vichaar manthan बढ़िया विचार मृत .
ReplyDeleteविद्या माया से अविद्या माया तो नष्ट हो जाती है, पर सत्वगुण विद्या माया में ही छिपा है, उसे नष्ट करने के लिए ज्ञान पर्याप्त नहीं है, वह केवल ईश्वर की शरण में जाकर ही नष्ट हो सकती है,
ReplyDeleteलाजवाब गजब की बात कही सत्य कथन
सुंदर मनोहर अनुकरणीय .
ReplyDeleteअमृता जी, सदा जी, वीरू भाई, रमाकांत जी अप सभी का स्वागत व आभार !
ReplyDelete