जून २००४
परमात्मा ने मानव को तथा इस सृष्टि
को अपने भीतर के आनंद को प्रकट करने के लिए सिरजा है, लेकिन हम अंधे मनुष्य की
भांति स्वयं ही गड्ढे में गिरते हैं, काँटों से उलझते हैं और फिर कहते हैं दुनिया
दुःख स्वरूप है. दुनिया दुःख रूप तभी तक है जब तक हम अज्ञान में हैं, जब तक हम स्वयं
को अन्यों से पृथक समझते हैं, यही माया है. स्वयं को जाने बिना हम इससे मुक्त नहीं
हो सकते. साधक जब मन को प्रेरणादायक विचारों से भर लेता है तो भीतर और माधुर्य
उभरता है, जैसा बीज हम धरती में बोते हैं, वैसा ही फल हमें प्राप्त होता है. हमें
अंतिम सत्य की तलाश है, ईश्वर का अनुभव हम करना चाहते हैं, समाधिस्थ होना चाहते
हैं, अनवरत शांति के उस स्रोत से जुड़े रहना चाहते हैं, जो हमारे भीतर है, जो
परमसत्य है तो मन को समाहित करना होगा, मन तभी समाहित होगा जब उसमें द्वैत न हो,
जब सम्पूर्ण जगत से हमारा एक्य हो जाये, जब भीतर कोई विरोध न हो, उद्वेग न हो, जब
जो जैसा हो, वैसा का वैसा ही स्वीकार करने का सामर्थ्य हो.
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