मई २००४
मन जितना-जितना समता में
स्थिर होता जाता है, अस्तित्त्व के हम उतने ही निकट जाते हैं. जीवन में सन्यास
घटित होता है, सत्य का संकल्प ही सन्यास है. यह एक छलांग है, जिसे लगाने पर भीतर
एक मोद का अहसास होता है, ईश्वर को निकट पा जाने की कला आ जाती है, वह रसमय है,
माधुर्यपूर्ण है, जिसे शब्दों में कहना आसान नहीं है, उसमें स्वयं को मिटाने की
कला ही सन्यास है. हम कुछ भी नहीं हैं, यह भाव सिद्ध हो, अहं को नष्ट करना आ जाये
तो हम उसके रस को पीने की कला सीख जाते हैं, वह रस हमारे भीतर से ही प्रकट होने
लगता है, हम हैं क्या ? वही तो है, एक वही तो अनेक रूपों में दिखाई दे रहा है. वही
स्वयं ही हमारे भीतर प्रकट होता है, और स्वयं ही अपने आनंद को पाता है. ‘स्व’ में
स्थित होकर ‘स्वकीय’ में विश्रांति पानी है, ‘स्व’ ‘स्वकीय’ का अंश है, प्रकृति से
जुड़कर ‘स्व’ अहम बन जाता है. मन, ‘स्व’ के सागर पर उठने वाली लहरें हैं, जब मन
शांत हो जाता है तब ‘स्व’ में समाहित हो जाता है, मन का होना अहम् के कारण है. समता
की साधना करने पर साधक को अपने भीतर बहुत कुछ घटता हुआ दीखता है, कुछ मधुर जिसे
नाम नहीं दे सकते, जो अनिर्वचनीय है.
अनिर्वचनीय..
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ...
ReplyDelete‘स्व’ में स्थित होकर ‘स्वकीय’ में विश्रांति पानी है, ‘स्व’ ‘स्वकीय’ का अंश है, प्रकृति से जुड़कर ‘स्व’ अहम बन जाता है. मन, ‘स्व’ के सागर पर उठने वाली लहरें हैं, जब मन शांत हो जाता है तब ‘स्व’ में समाहित हो जाता है, मन का होना अहम् के कारण है. समता की साधना करने पर साधक को अपने भीतर बहुत कुछ घटता हुआ दीखता है, कुछ मधुर जिसे नाम नहीं दे सकते, जो अनिर्वचनीय है.
ReplyDeleteसच्चे मोती हैं ये विचार .
अमृता जी, सदा जी, दिगम्बर जी तथा वीरू भाई, आप सभी का स्वागत व आभार !
ReplyDelete