मई २००४
हम यदि विकारों से पूरी तरह
मुक्त नहीं हो सकते तो कहीं न कहीं सीमाकरण तो करना ही होगा, धीरे-धीरे इस सीमा को
बढ़ाते जाना है. हम सुख-दुःख से परे उस परम आनंद को यदि अपना आश्रय स्थल बनाना
चाहते हैं तो संयम और अनुशासन पहला कदम है. उन्मुक्त जीवन में मन भी उडा-उड़ा सा ही
रहेगा. ऐसे मन में बुद्धि स्थिर नहीं रहेगी, स्थिर बुद्धि में ही आत्मा
प्रतिबिंबित होती है. ईश्वर स्वयं हमें अपना आनंद प्रदान करना चाहते हैं, उसकी
शक्ति ही हमें जीवित रखे हुए है, पर इस बात को हम नहीं मानते, उसके प्रति कृतज्ञता
के भाव हमारे भीतर नहीं उमड़ते. इतने पर भी वह हमें प्रेम करता है, हमारी सोयी हुई
शक्तियों को जगाना चाहता है, हमारे माध्यम से प्रकट होना चाहता है, हमारे धैर्य समाप्त
होने की अनंत काल से प्रतीक्षा कर रहा है, कि कितने वर्षों तक हम उससे दूर रह सकते
हैं, हम कितने निस्वार्थी हैं कि ईश्वर का सान्निध्य भी नहीं चाहते, लेकिन जगत जो
सीमित है वह असीम मन को आनन्दित कैसे कर सकता है.
बहुत ही सुन्दर और शिक्षाप्रद.
ReplyDeleteसही कहा सीढ़ी दर सीढ़ी ही बढ़ा जा सकता है ।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (02-03-2013) के चर्चा मंच 1172 पर भी होगी. सूचनार्थ
ReplyDeleteस्थिर बुद्धि में ही आत्मा प्रतिबिंबित होती है.
ReplyDeleteसत्या कथन ...
शुभकामनायें ।
सार्थक अनुकरणीय विचार .हदबंदी तो ज़रूरी है हदों के पार नेता जीते हैं भारत के प्रजा को तो संयम चाहिए .
ReplyDeleteपरम आनंद को यदि अपना आश्रय स्थल बनाना चाहते हैं तो संयम और अनुशासन पहला कदम है.
ReplyDeleteRECENT POST: पिता.
मन की इच्छाओं का कोई अंत नहीं ...
ReplyDeleteबधाई स्वीकारे मेम....
ReplyDeleteपरमानन्द, आनंद प्राप्ति की पराकाष्ठा ,यही शायद ईश्वरीय स्थिति -ईश्वर!
latest post होली
ईश्वर का सान्निध्य भी नहीं चाहते, लेकिन जगत जो सीमित है वह असीम मन को आनन्दित कैसे कर सकता है.
ReplyDeleteलेकिन इससे हम मुक्त भी कहाँ हो पाते हैं।
एक बार यह सत्य मन समझ गया कि उसको संसार से तृप्ति नहीं मिल सकती भीतर परिवर्तन होने लगता है.
Deleteराजेन्द्र जी, इमरान, कालीपद जी, रमाकांत जी, धीरेन्द्र जी, अनुपमा जी आप सभी का स्वागत व आभार !
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