Friday, December 14, 2018

दृष्टिकोण बदल जाये जब


१५ दिसम्बर २०१८ 
उपनिषदों में कहा  गया है, जिसे जानकर मनुष्य कृत-कृत्य हो जाता है, प्राप्त–प्राप्तव्य हो जाता है, ज्ञात-ज्ञातव्य हो जाता है, वह आत्मा का ज्ञान है. शास्त्र हमें नवीन जीवन दृष्टि देते हैं. स्वयं का, जगत का प्रकृति का और परमात्मा का ज्ञान कराते हैं. हमारे कर्म उन धारणाओं पर आधारित होते हैं जो हमने स्वयं, जगत व परमात्मा के बारे में अपने भीतर बनाई होती हैं. यदि हम स्वयं को सीमित देह मानते हैं तो भय तथा असुरक्षा से घिरे ही रहेंगे. जगत के साथ हमारा संबंध भी प्रतिद्वन्दता का होगा. परमात्मा हमें दूर प्रतीत होगा. यदि असीम आत्मा मानेंगे, तो उसमें सब कुछ समाहित हो जायेगा, जगत अपना आप ही प्रतीत होगा, भय का कोई कारण ही नहीं रहेगा. इसी प्रकार यदि हम स्वयं को मन, बुद्धि मानते हैं तो सुख-दुःख के झूले में झूलते ही रहेंगे, क्योंकि मन सदा एक सा नहीं रहता, छोटा सा आघात भी उसे हिला देता है और ज्यादा सुख को भी वह सह नहीं पाता. बुद्धिगत ज्ञान हमें सांसारिक सुविधाएँ तो दिला सकता है पर आन्तरिक संतुष्टि से हम दूर ही बने रहते हैं. स्वयं का असली परिचय ही हमें सदा समता में रख सकता है, जिससे एक न खत्म होने वाली अटूट शांति और सहजता हमारे जीवन का अंग बन जाती है.

Sunday, December 9, 2018

स्वयं में ही विश्रांति मिले जब


१० दिसम्बर २०१८ 
मन में कामना उठती है किसी न किसी अभाव का अनुभव करने के कारण. उस अभाव की पूर्ति के लिए हम कर्म में तत्पर होते हैं. कर्म का एक संस्कार भीतर पड़ता है और भविष्य में उसका निर्धारित फल भी मिलने ही वाला है. उदाहरण के लिए यदि हमारे भीतर कहीं जाने की कामना उत्पन्न हुई, इसका अर्थ है हम जहाँ हैं वहाँ कोई अभाव है, गन्तव्य पर जाकर हम पूर्णता का अनुभव करेंगे. यात्रा के दौरान कितने ही संस्कार मन पर पड़े और लक्ष्य पर पहुँच कर जिस प्रसन्नता का हमने अनुभव किया, उसे पुनः-पुनः अनुभव करने की नई कामना ने भीतर जन्म लिया. अब उस स्थान पर भी भीतर अभाव का अनुभव होगा, यही बंधन है. जीवन इसी चक्र का दूसरा नाम है, हम जिस कामना की पूर्ति के लिए इतना श्रम करते हैं, वह हमें पुनः वहीँ पहुँचा देती है, जहाँ से हम चले थे. क्या कोई ऐसा क्षण हो सकता है, जब भीतर कोई अभाव न हो, पूर्ण तृप्ति का अनुभव हो और हम पूर्ण स्वाधीनता का अनुभव करें. मन की धारा यदि बाहर से लौट आए और भीतर की तरफ यात्रा करे एक बिंदु पर आकर वह स्वयं में खो जाती है और जो शेष रहता है वही सहज विश्राम है, जिसमें कोई अभाव नहीं रहता.

Thursday, December 6, 2018

मन की नदी मिले सागर से


७ दिसम्बर २०१८ 
नदी पर्वत से निकलती है तो पतली धार की तरह होती है, मार्ग में अन्य जल धाराएँ उसमें मिलती जाती हैं और धीरे-धीरे वह वृहद रूप धर लेती है. अनेकों बाधाओं को पार करके सागर से जब उसका मिलन होता है, वह अपना नाम और रूप दोनों खोकर सागर ही हो जाती है. जहाँ से वह पुनः वाष्पित होगी और पर्वत पर हिम बनकर प्रवाहित होगी. जीवन भी ऐसा ही है, शिशु का मन जन्म के समय कोरी स्लेट की तरह होता है, माता-पिता, शिक्षक, समाज, राज्य, राष्ट्र और विश्व उसके मन को गढ़ने में अपना योगदान देते हैं. अनेक विचारों, मान्यताओं व धारणाओं को समेटे होता है उसके मन का जल. यदि उचित समय पर मार्गदर्शन मिले और मृत्यु से पूर्व वह पुनः मन को खाली कर पाए, नाम-रूप का त्याग कर समष्टि मन से एक हो जाये तो वह भी सागर बन सकता है. ऐसा तभी सम्भव है जब मन भी नदी की भांति निरंतर बहता रहे, किसी पोखरी की भांति उसका जल स्थिर न हो जाये.