Wednesday, November 30, 2011

अहंकार

जुलाई २००२ 

यह जो भीतर हल्की सी चुभन कभी-कभी रह-रह कर प्रतीत होती है, वह हमारा अहंकार ही तो है. और हद यह कि यह मिथ्या अहंकार है. जब सारा जगत स्वप्नवत् है तो स्वप्न में किया गया कार्य  हमें इतना प्रभावित क्यों करे. यदि हम प्रतिक्रिया वश स्वयं को अपने उच्च पद से नीचे गिराते हैं तो इसमें कोई वीरता तो नहीं. चट्टान से दृढ़ बनने का संकल्प लिया हो या पानी कि धार सा निर्मल व गतिमान, दोनों ही परिस्थितियों में बाहरी आघात हमें चोट नहीं पहुँचा सकते. पानी पर लकीर डालो तो वह मिट जाती है, चट्टान को कुछ कहो तो वह प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करती. हमें कैसी भी परिस्थिति का सामना करना पड़े, कोई बात नहीं. जब हम अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित हैं तो अन्य कोई उपादान हमारे सुख-दुःख का कारण क्यों बने. जो मुक्त करे वही ज्ञान है. हृदय में कोई गांठ न रहे. एक-एक कर सारी गांठों को खोलते जाना है. पहले बाहर की ममता फिर देह, मन व बुद्धि के प्रति आसक्ति का त्याग. जो अहं को त्याग सके वही सच्चा साधक है

Tuesday, November 29, 2011

सत्संग की महिमा


"अन्यों का हित चिंतन करें तो हमारा सामर्थ्य अपने आप बढ़ता है, जितना-जितना हम अन्यों की प्रशंसा करते हैं उतना उतना मन शांत होता है. मान भोगने की वस्तु नहीं है, देने की वस्तु है." सत्संग में कितने व्यवहारिक उपाय मिलते हैं. इसके बिना जीवन बिना पतवार की नाव के समान है. सत्संग हमें सामान्य मानव से ऊपर उठाकर सत्य के सम्मुख लाकर खड़ा कर देता है. परनिंदा व मीनमेख निकलने के लिये मन सदा तत्पर रहता है, इस आदत से मुक्त होना स्वयं के लिये ही अच्छा है. जब भी ऐसा होने लगे तो तारीफ ही करनी चाहिए. आखिर सभी में तो वह परमात्मा है जिसकी खोज में हम लगे हैं. सभी के भीतर तो उसी परम शुद्ध, निर्मल, अविकारी चैतन्य का वास है. ऊपर तो आवरण मात्र है और सभी को एक न एक दिन मुक्त होना है. सभी उस पथ के राही हैं.


ईश्वर और जीव


जुलाई २००२ 

यह सम्पूर्ण जगत ईश्वर में स्थित है. यह सृष्टि ईश्वर, जीव, प्रकृति, कर्म और काल से मिलकर बनी है. प्रकृति अपने गुणों के अनुसार कार्य करती है. कर्म के अनुसार हमें इस जगत में भेजा जाता है. काल सबका साक्षी है. ईश्वर को त्याग कर जीव जीने की इच्छा से आता है. उसी परमब्रह्म के अंश होने के कारण हम जीव उससे अभिन्न हैं. देहाध्यास ही हमें उससे पृथक करता है. कण-कण में वह व्याप्त है, वह अनंत है, मुक्त है, दिव्य है, चेतन है, आनंद स्वरूप है. उसे जानना ही हमारा अंतिम लक्ष्य है. उसके प्रति अगाध श्रद्धा व भक्ति ही हमें इस असार जगत में स्थिर रखती है. वह आदिदेव है, अजन्मा है, विभु है, सब कुछ उसी से हुआ है, और उसी में समा जाने वाला है. हमारा कर्तव्य यही है कि हम उसके जगत की सेवा करें, उसके लिये जियें उसे स्मरण करते हुए जियें, यही हमारा सहज स्वभाव है, उसके अंश होने के कारण उसकी ओर खिंचना एक सहज स्वाभाविक क्रिया है. हम उसे चाहते हैं. उसी की आकांक्षा करते हैं, उसके दर्शन का अनुभव करना चाहते हैं. और यहीं से भक्ति का आरम्भ होता है. भक्ति का उदय होने पर संसार धीरे-धीरे छूटने लगता है. कामनाएं निरर्थक जान पड़ती हैं. ईश्वरीय सुख अनुपम है, उसे जानने के बाद जगत के सुख अर्थहीन प्रतीत होते हैं. तब हृदय में सेवा का सामर्थ्य उत्पन्न होता है. स्व का विस्तार होता है. समभाव की उत्पत्ति होती है. यही मुक्ति है जिसे एक न एक दिन सभी को पाना है.  


Monday, November 28, 2011

कृष्णं वन्दे


कृष्ण परमगुरु हैं, जो हमारे अंतर में विद्यमान हैं. हमें हर क्षण अपनी ओर खींचने का प्रयास करते हैं. उनकी मुस्कान अनोखी है, उनकी वाणी अद्भुत है जिससे वह युद्ध भूमि में मोहित हुए अर्जुन को ज्ञान प्रदान करते हैं. संसार रूपी युद्ध में हमारी बुद्धि भी मोह में पड़ी हुई है, कृष्ण हमें इससे पार ले जाने का उपाय बताते हैं. सुख-दुःख में सम रहकर, अभ्यास तथा वैराग्य के द्वारा मन को वश में रखकर हम स्थितप्रज्ञ बन सकते हैं. और जब मन शांत होगा तो शांत झील में चन्द्रमा की भांति आत्मा का प्रकाश मन में प्रतिबिम्बित होगा. आत्मा का अनुभव परमात्मा के निकट ले जायेगा, तो कृष्ण हमें अपने निकट बुलाते हैं और सभी को उसकी प्रकृति के अनुसार विभिन्न मार्गों में से कोई मार्ग चुनने की स्वतंत्रता भी देते हैं, भक्ति योग, ज्ञान योग, कर्म योग, राज योग, ध्यान योग आदि में किसी के भी द्वारा हम लक्ष्य की ओर कदम बढा सकते हैं. मार्ग तो हमें स्वयं ही चुनना है पर एक बार जब हम कदम बढा देते हैं तो वह हमारा हाथ थाम लेते हैं और तब तक नहीं छोड़ते जब तक हम उसे अपने मन पर अधिकार जमा लेने नहीं देते.  


Friday, November 25, 2011

साधना ऐसी हो


जुलाई २००२ 

साधना एक अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है. निरंतर अभ्यास से ही हम उस लक्ष्य तक पहुँच सकते हैं. मानव जन्म पाकर दुखी रहना कितनी लज्जा की बात है. जब ईश्वर हर क्षण हमारे साथ है, वह जो आनन्दमय है, रसमय है, ज्ञानमय है जिससे जुड़े रहकर हम भी निरंतर रस में डूब सकते हैं. इसके लिये हमें मन का ध्यान एक बालक की तरह करना होगा. इसे कभी रूठने नहीं देना है, क्योंकि बिना सुख के सामर्थ्य भी नहीं टिकता. धीरे-धीरे हमारा सुख बाहरी परिस्थितियों पर नहीं बल्कि हमारे सच्चे स्वरूप पर निर्भर करेगा जो सदा एक सा है, आकाश के समान मुक्त, विक्षेप रहित.

Thursday, November 24, 2011

प्रेम और सद्भावना


जुलाई २००२ 

उठा बगूला प्रेम का तिनका लिया उडाय
तिनका तिनके से मिला तिनका तिनके जाय
प्रेम में हम इतने हल्के हो जाते हैं कि नभ तक पहुँच जाते हैं. कृतज्ञता के भाव प्रकट होते हैं और प्रकट होता है एक ऐसा आनंद जिसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता. ईश्वर से हर पल एक डोर बंधी हुई महसूस होती है. इसके प्रमाण भी मिलने लगते हैं. वह अस्तित्त्व भी स्वयं को प्रकट करना चाहता है. दर्द में भी मुस्काने की कला मिल जाती है. क्रोध आने से पूर्व ही शांत होने लग जाता है. जाने कौन आकर समझा जाता है कि जो कहना चाहते हैं वह न कहकर कुछ ऐसा कहते हैं जो प्रेम को दर्शाता है. अर्थात प्रेम की पकड़ क्रोध से ज्यादा हो जाती है. सभी के प्रति मन सद्भावना से भर जाता है. कभी-कभी अश्रु भी बहते हैं पर इनमें भी कैसी प्रसन्नता है. ईश्वर भी हमारा साथ पसंद करता हुआ लगता है. हमारा साधारण मन उसके दिव्य मन के साथ एक हो जाता है. 

Tuesday, November 22, 2011

प्रेम ही मुक्ति है


जुलाई २००२ 
इस पृथ्वी नामक ग्रह के सभी प्राणी आपस में प्रेम के सूक्ष्म तंतुओं से ही तो जुड़े हैं. यह सूक्ष्म भावना बहुत प्रबल है. यही प्रेम हमें बार-बार इस जगत में खींच लाता है. लेकिन जब इस प्रेम की धारा ईश्वर की ओर मुड़ जाती है तो मुक्त कर देती है. क्योंकि उसके सान्निध्य में रहने के लिये हमें इस तन के माध्यम की आवश्कता नहीं है. हम जहाँ कहीं भी हो उसे चाह सकते हैं, चाहें तो देह धर कर भी. लेकिन उस अवस्था में प्रेम बांधता नहीं है. स्वयं का ज्ञान ही हमारे भीतर इस प्रेम को जगाता है और  ऐसा प्रेम ही भक्ति है. ऐसा प्रेम यदि अंतर में जग जाये तो जीवन उत्सव बन जाता है.

तप और समर्पण


जुलाई २००२ 

जीवन में यदि कोई दुःख हो तो समता भाव बनाये रखकर सहने से उसे तप बनाया जा सकता है. ऐसा तप हमारे पिछले कर्मों को काटता है. मन में निखार लाता है, कमजोरियां निकलती हैं. सेवा के द्वारा भी दुःख को काटा जा सकता है तथा सत्संग के द्वारा भी. किन्तु भविष्य में दुःख न आये इसका ध्यान भी सदा रखना है. वह पूर्ण समर्पण से ही संभव है. ज्ञान रूपी साबुन से अपने मन का वस्त्र धोना है पर इसके पूर्व ईश्वर के प्रेम रूपी जल में उसे भिगोना भी तो पड़ेगा. प्रेम व ज्ञान दोनों का सामंजस्य होगा तो हृदय में शांति की तरंग उठेगी और मस्तिष्क ज्ञान में स्थिर रहेगा.  

Sunday, November 20, 2011

मन व संसार


जुलाई २००२ 

जिस संसार के बारे में हम सुनते हैं कि यह असार है, अस्थिर है, पल पल बदलता है, वह कहीं बाहर नहीं हमारा अपना मन ही है. क्योंकि इस बाहरी जगत को हम अपने मन के माध्यम से ही जानते हैं जिसका जैसा स्वभाव है गुण हैं प्रकृति है संसार उसे वैसा ही नजर आता है. मन जिसे अपना मानता है उसे सुखी देखना चाहता है ताकि मन को खुशी मिले. मन जो करता है अपनी तुष्टि के लिये करता है. इसी मन को यदि अपने भीतर विवेक द्वारा नित्य-अनित्य का ज्ञान होता है तब यही मन भीतर जाने लगता है यानि संसार से परे सन्यास की यात्रा आरम्भ होती है. बाहर सब कुछ वैसा ही रहता है पर भीतर एक नया द्वार खुल जाता है. तब स्वयं की तुष्टि के लिये नहीं प्रेम के लिए प्रेम होने लगता है. क्योंकि इस तथ्य का ज्ञान होता है कि जो सदा आनंद में है वही आत्मा वह स्वयं है. 

Friday, November 18, 2011

प्रेम ही पूजा है


july 2002 
हृदय में श्रद्धा और विश्वास की पूंजी हो तो जीवन का पथ सरल हो जाता है, मात्र सरल ही नहीं  सरस भी हो जाता है. सामर्थ्य बढ़ जाता है, समर्थ वही है जो किसी भी देश, काल में अपनी आत्मा पर ही निर्भर रहे, अहंता व ममता छोड़कर श्रेय के पथ पर चले. एक बार ईश्वरीय प्रेम का अनुभव हो जाने के बाद वह कभी हमारा हाथ नहीं छोड़ता. बल्कि पग-पग पर ध्यान रखता है, इतने स्नेह से वह हमारी खोजखबर लेता है जैसे पुराना परिचित हो. इस जग में जितना प्रेम हमें मिलता है या हमारे हृदयों में अन्यों के लिये रहता है वह उसी के प्रेम का का प्रतिबिम्ब है. मनसा, वाचा, कर्मणा वह हमारे सभी कर्मों का साक्षी है. उसे अर्पित करने के लिये इस जग के सभी पदार्थ तुच्छ हैं, एक मात्र प्रेमपूर्ण हृदय ही उसे समर्पित करने योग्य है, उसकी बनायी इस सृष्टि में हर कहीं उसे ही देखने की कला ही पूजा है.

स्वाधीनता


जुलाई २००२ 
ध्यान का मूलमंत्र है स्वाधीनता, साधक को धीरे धीरे किसी व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति पर निर्भर होना छोड़ते जाना होगा. पराधीनता हम स्वयं ही चुनते हैं, बंधन का दुःख भी सहते हैं. जितने जितने उदार हम होते जायेंगे, संग्रह की प्रवृत्ति घटती जायेगी, जीतेजी मुक्ति का अनुभव बढ़ता जायेगा. ध्यान का अर्थ है स्वयं पर लौट आना. जहाँ एकमात्र ईश्वर ही हमारी आशाओं का केन्द्र है. जो अखंड शाश्वत प्रेम का सागर है. जो मृत्यु के क्षण में भी हमारे साथ है और मृत्यु के बाद भी. उसकी आधीनता ही वास्तविक स्वाधीनता है.

Wednesday, November 16, 2011

आसक्ति


जुलाई २००२ 

हमारे दुखों का कारण है गहन आसक्ति, अन्यथा हम शाश्वत सुख के अधिकारी हैं. ईश्वर के सिवा इस जगत में कुछ भी शाश्वत नहीं है. आसक्ति मिटते ही मन विश्रांति का अनुभव करता है. जिससे सामर्थ्य की उत्पत्ति होती है, और सहज ही हम अपने कर्तव्यों के प्रति सजग हो जाते हैं व उन्हें करने में सक्षम भी होते हैं. दूसरों की पीड़ा में भागी भी हो पाते हैं. अंतर में प्रेम हो तभी यह संभव हैं, अन्यथा तो दूसरों की पीड़ा हमें ऊपर से छू कर निकल जाती है. स्वयं को यदि ज्ञान में स्थिर रखना है तो उसका लक्ष्य सबके प्रति प्रेम रखना होगा, अन्यथा यहाँ भी स्वार्थ ही है. अपनी आत्मा का विकास मात्र स्वयं के लिये, अपने सुख के लिये, नहीं, अपने ‘स्व’ का विस्तार करते जाना है, सबको अपना सा देखना है, तभी मुक्ति संभव है.

Tuesday, November 15, 2011

भक्तिभाव


जुलाई २००२ 

ज्ञान का अंत भक्ति है. भक्ति हमें आभामय, रसमय तथा मकरंद मय बनाती है. ईश्वर से लगी लगन  तारने वाली बन जाती है. देर सबेर सत्य का साक्षात्कार हो जाता है, मोहनिद्रा से सदा के लिये जागृति हो जाती है. भक्ति वर्तमान में ले जाती है. तमस व रजस से छुडाकर सत् में टिका देती है. लेकिन सात्विक सुख से भी बंधना नहीं है. भक्त अथवा साधक के सम्मुख एक मार्ग स्पष्ट होता है बस चलने भर की देर है. प्रेम का पाथेय लिये वह उस मार्ग पर निश्चिन्त होकर चल पड़ता है.

Monday, November 14, 2011

उदारता


july 2002 

जीते जी अगर परमात्म सुख का अनुभव करना हो तो पहले औदार्य सुख का अनुभव करना चाहिए. जो उदार होता है वह प्रेमी भी होता है. वह सामर्थ्य भी रखता है, सहज और सौम्य भी होता है. ईश्वर के निकट जाना है तो हम माँगने वाले नहीं देने वाले बनें. स्वार्थ ही हमें अपने सहज स्वभाव से दूर करता है. सहजता में भक्ति को प्रकट होते देर नहीं लगती. जटिल तो हमारा मन बनाता है स्वभाव को, व्यर्थ की कल्पनाओं, विचारों, भावनाओं में डूबकर. मन को यह तो पता नहीं कि कब क्या सोचना है और अगला विचार कहाँ से आने वाला है वह अपने को ही  नहीं जान पाता तो संसार की समस्याओं का निदान कैसे खोज सकता है. उसके लिये तो अपने शुद्ध स्वभाव में ही लौटना होगा. 

सत्यं, शिवं,सुन्दरं



जो अपने लिये सत्यं, शिवं और सुन्दरं के अलावा कुछ नहीं चाहता, प्रकृति भी उसके लिये अपने नियम बदलने को तैयार हो जाती है. जो अपने स्व का विस्तार करता जाता है, जैसे-जैसे अपने निहित स्वार्थ को त्यागता जाता है, वैसे-वैसे उसका सामर्थ्य बढ़ता जाता है. अस्तित्त्व पर निर्भर रहें तो कोई फ़िक्र वैसे भी नहीं रह जाती क्योंकि वह हर क्षण हमारे कुशल-क्षेम का भार वहन करता है. जैसे एक नन्हा बालक अपनी सुरक्षा के लिये माँ पर निर्भर करता है, हमारे सभी कार्य यदि हम उस पर निर्भर रहते हुए करेंगे तो उनके परिणाम से बंधेंगे नहीं. हम जो भी करें उसका हेतु सत्य प्राप्ति हो तो सामान्य कार्य भी भक्ति ही बन जाते हैं. 

Friday, November 11, 2011

शाश्वतता


पांच शरीर हैं हमारे, पांचों के पार वह चिदाकाश है जहाँ हमें पहुंचना है. सत्य को चाहने पर ही सत्य की यात्रा होगी. परमात्मा न जाने किस-किस उपाय से हमें उसी ओर ठेल रहा है, वह हमें सुख-दुःख के द्वंद्वों से अतीत देखना चाहता है. हमारे अहं को क्षत-विक्षत करता है. हम उसे तभी जान सकते हैं जब भीतर अहं न हो. शाश्वत को जानने और मानने की मति भी वही देता है. नश्वरता को अपनाएंगे तो वही मिलेगी, और मन पुराने संस्कार जगाता ही रहेगा. जब हम उसकी निकटता में रहते हैं, उसके सामीप्य का अनुभव करते हैं, तभी आकाश की भांति पूर्ण मुक्त, स्वच्छ और अलिप्त रहेंगे.

Wednesday, November 9, 2011

समर्पण


जून २००२ 

आज पूर्णिमा है. हमारे हृदय गगन में भी परमात्मा रूपी चन्द्रमा का आगमन हो ऐसी कामना करनी चाहिए. मन शांत हो, ध्यानस्थ हो, परमात्मा की छवि हटे नहीं. सुमिरन अपने आप चलता रहे. सत्य को छोडकर कोई विचार मन में न टिके. एक उसी की याद हर वक्त बनी रहे और तब एक ऐसी गहराई का अनुभव होता है जैसे सब कुछ ठहर गया हो. सारा जगत स्थिर हो मन की तरह, कहीं कोई उहापोह नहीं विक्षेप नहीं. अद्भुत है वर्तमान का यह क्षण. हमारे और उसके बीच अभिमान का झीना सा पर्दा ही तो है, इसे हटा दें तो ही पूर्ण समर्पण संभव है. 

Monday, November 7, 2011

परमात्मा प्रेम है


जून २००२ 
हर हृदय में परमात्मा का वास है. होश में रहें तो दुःख पास नहीं फटकता और यदि कोई भाव ऐसा उठा भी तो होश में उसे देखा जा सकता है साक्षी बन कर, उसी क्षण वह अपनी ऊर्जा खोने लगता है. जैसे हमें यदि अनुभव हो कि कोई देख रहा है तो हमारा व्यवहार बदल जाता है वैसे ही भीतर के भाव देखने मात्र से बदलने लगते हैं. हमारे स्वप्न भी सचेत करते हैं कि परमात्मा से जो आनंद हमें मिला है उसे छोटे-छोटे सुखों के पीछे गंवा न दें. यदि हमारी निष्ठा सच्ची हो तो परमात्मा की ओर से देरी नहीं है. वह प्रेम का इतना अधिक प्रतिदान देते हैं कि मन छलक-छलक जाता है. यह सारा विश्व उसी एक का विस्तार है. उस एक की शक्ति हर ओर बिखरी है. जिसके मूल में प्रेम है, निष्काम प्रेम. यह संसार प्रेम से ही बना है प्रेम से ही टिका है और उसी में स्थित है. 

Saturday, November 5, 2011

भीतर का मौसम


जून २००२ 

बाहर के मौसम के मिजाज तो बदलते रहते हैं, हमें अपने अंदर वह धुरी खोज निकालनी है जो अचल है, अडिग है जिसका आश्रय लेकर हम दुनिया में किसी भी ऊंचाई तक पहुँच सकते हैं. जो मुक्त है, शुद्ध प्रेम स्वरूप है, उसी को पाने के लिये भीतर की यात्रा योगी करते हैं. स्थिर मन ही हमें उस स्थिति तक ले जा सकता है और मन की स्थिरता ध्यान से आती है. वहाँ एक बार जाकर लौटना नहीं होता, हम जीतेजी पूर्णता का अनुभव करते हैं. प्रकृति के सान्निध्य में अथवा पूजा के क्षणों में अभी भी हम कभी-कभी ईश्वर की झलक पाते हैं पर यह अस्थायी होती है, संसार पुनः हमें अपनी ओर खींच लेता है. 

Friday, November 4, 2011

अनन्तता


जून २००२ 

ईश्वर हर क्षण हमारे साथ है. वह कितने विभिन्न उपायों से अपनी उपस्थिति जता रहा है. प्रेरणादायक वचन सुनने को मिलते हैं, सारी बातें जैसे किसी पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार हमारे जीवन में सही समय पर आने लगती हैं. वस्तुएं अपने वास्तविक रूप में प्रकट होना चाहती हैं. आवरण हटता जा रहा है. हमें पूर्ण सहयोग देना है. शुभ संकल्प करके मन को स्थिर रखना है. सत्य को धारण करने के लिये मन को खाली रखना है. कामनाएं कम हों और धीरे-धीरे समाप्त होती चली जाएँ, क्योंकि इनमें सार नहीं है. जो सुख इनसे हमें मिलता है वह क्षणिक होता है. किन्तु आध्यात्मिक सुख अनंत है. वह हमारे निकट से भी निकटतर है, केवल मिथ्या अहंकार का आवरण हमारे और उसके बीच है. हमने अपनी जो छवि अपनी दृष्टि में बना ली है वह असत् है. देह, मन, बुद्धि व अहंकार से परे हम शुद्ध, बुद्ध, मुक्त आत्मा हैं जिसमें हमें स्थित होना है. 

Thursday, November 3, 2011

उसका पथ


जून २००२ 
आध्यात्मिक मार्ग पर चलना ही हमारी नियति है. हम सभी किसी न किसी रूप में इसी मार्ग के राही हैं. कोई अन्जाना है और कोई सचेत होकर चल रहा है. नित नए अनुभव होते हैं इस मार्ग पर, जैसे पहले से ही तय हों. कभी कभी ऐसा लगता है कि कोई आश्वासन दे रहा है कि सब कुछ सही समय पर होगा, ठीक होगा. किसी इच्छा का पूरा होना या न होना दोनों में कोई फर्क नहीं रह जाता. संसार का कोई भी सुख उतना आकर्षित नहीं करता जितना कि ईश्वर का विचार और उससे मिलने की ललक.  वही जैसे हमारा मार्ग निर्देशित कर रहे होते हैं, तभी तो समय भी है, शास्त्र भी हैं, सदगुरु भी हैं सभी कुछ हमारे अनुकूल कर दिया है. जिसकी स्मृति ही मन को इतनी सौम्यता से भर देती है उसका साक्षात्कार कितना अभूतपूर्व होगा, यह बात ही पथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है.

Tuesday, November 1, 2011

कर्म बंधन


जून २००२ 
ध्यान तभी टिकता है जब मन अन्तर मुख होता है. देह के ममत्व से ऊपर उठता है. विचार शून्यता की स्थिति तभी आती है. ध्यान बोध को जगाने के लिये है. सचेत मन को हटाने के लिये है. ध्यान से बुद्धि प्रज्ञा में बदल जाती है इसी प्रज्ञा के दर्पण में आत्मा का दर्शन होता है. ध्यान हमें मन में उठने वाले विचारों के प्रति सजग करता है. प्रत्येक कर्म पहले विचार के रूप में जन्म लेता है उसी रूप में यदि उसे शुद्ध कर लिया जाये तो कर्म भी शुद्ध होंगे और हम कर्म बंधन में नहीं पडेंगे.