जुलाई २००२
हमारे दुखों का कारण है गहन आसक्ति, अन्यथा हम शाश्वत सुख के अधिकारी हैं. ईश्वर के सिवा इस जगत में कुछ भी शाश्वत नहीं है. आसक्ति मिटते ही मन विश्रांति का अनुभव करता है. जिससे सामर्थ्य की उत्पत्ति होती है, और सहज ही हम अपने कर्तव्यों के प्रति सजग हो जाते हैं व उन्हें करने में सक्षम भी होते हैं. दूसरों की पीड़ा में भागी भी हो पाते हैं. अंतर में प्रेम हो तभी यह संभव हैं, अन्यथा तो दूसरों की पीड़ा हमें ऊपर से छू कर निकल जाती है. स्वयं को यदि ज्ञान में स्थिर रखना है तो उसका लक्ष्य सबके प्रति प्रेम रखना होगा, अन्यथा यहाँ भी स्वार्थ ही है. अपनी आत्मा का विकास मात्र स्वयं के लिये, अपने सुख के लिये, नहीं, अपने ‘स्व’ का विस्तार करते जाना है, सबको अपना सा देखना है, तभी मुक्ति संभव है.
अपनी आत्मा का विकास मात्र स्वयं के लिये, अपने सुख के लिये, नहीं, अपने ‘स्व’ का विस्तार करते जाना है, सबको अपना सा देखना है, तभी मुक्ति संभव है.
ReplyDeleteWah! Kya baat kahee aapne!
क्षमा जी,आपका स्वागत है...
ReplyDeleteसत्य कहा है ... आसक्ति दुखों का कारण है ...
ReplyDeleteप्रेम के मामले में तो और भी बड़ी मुश्किल हो जाती है ...बहुधा हम आसक्ति को ही प्रेम समझ लेते हैं .... जब की प्रेम हमेशा हर रूप में सुखदायी है ...और आसक्ति हर रूप में दुखदायी !
ReplyDeleteप्रणाम !!
सही कहा आपने, प्रेम कभी दुःख नहीं देता हम जिस प्रेम को प्रेम मानते हैं वह आसक्ति है.
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