Friday, November 18, 2011

प्रेम ही पूजा है


july 2002 
हृदय में श्रद्धा और विश्वास की पूंजी हो तो जीवन का पथ सरल हो जाता है, मात्र सरल ही नहीं  सरस भी हो जाता है. सामर्थ्य बढ़ जाता है, समर्थ वही है जो किसी भी देश, काल में अपनी आत्मा पर ही निर्भर रहे, अहंता व ममता छोड़कर श्रेय के पथ पर चले. एक बार ईश्वरीय प्रेम का अनुभव हो जाने के बाद वह कभी हमारा हाथ नहीं छोड़ता. बल्कि पग-पग पर ध्यान रखता है, इतने स्नेह से वह हमारी खोजखबर लेता है जैसे पुराना परिचित हो. इस जग में जितना प्रेम हमें मिलता है या हमारे हृदयों में अन्यों के लिये रहता है वह उसी के प्रेम का का प्रतिबिम्ब है. मनसा, वाचा, कर्मणा वह हमारे सभी कर्मों का साक्षी है. उसे अर्पित करने के लिये इस जग के सभी पदार्थ तुच्छ हैं, एक मात्र प्रेमपूर्ण हृदय ही उसे समर्पित करने योग्य है, उसकी बनायी इस सृष्टि में हर कहीं उसे ही देखने की कला ही पूजा है.

5 comments:

  1. बेहतरीन प्रस्तुति।

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  2. अनुरागजी, मनोजजी अनुपमा जी व संदीप जी आप सभी का आभार!

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