Tuesday, November 29, 2011

ईश्वर और जीव


जुलाई २००२ 

यह सम्पूर्ण जगत ईश्वर में स्थित है. यह सृष्टि ईश्वर, जीव, प्रकृति, कर्म और काल से मिलकर बनी है. प्रकृति अपने गुणों के अनुसार कार्य करती है. कर्म के अनुसार हमें इस जगत में भेजा जाता है. काल सबका साक्षी है. ईश्वर को त्याग कर जीव जीने की इच्छा से आता है. उसी परमब्रह्म के अंश होने के कारण हम जीव उससे अभिन्न हैं. देहाध्यास ही हमें उससे पृथक करता है. कण-कण में वह व्याप्त है, वह अनंत है, मुक्त है, दिव्य है, चेतन है, आनंद स्वरूप है. उसे जानना ही हमारा अंतिम लक्ष्य है. उसके प्रति अगाध श्रद्धा व भक्ति ही हमें इस असार जगत में स्थिर रखती है. वह आदिदेव है, अजन्मा है, विभु है, सब कुछ उसी से हुआ है, और उसी में समा जाने वाला है. हमारा कर्तव्य यही है कि हम उसके जगत की सेवा करें, उसके लिये जियें उसे स्मरण करते हुए जियें, यही हमारा सहज स्वभाव है, उसके अंश होने के कारण उसकी ओर खिंचना एक सहज स्वाभाविक क्रिया है. हम उसे चाहते हैं. उसी की आकांक्षा करते हैं, उसके दर्शन का अनुभव करना चाहते हैं. और यहीं से भक्ति का आरम्भ होता है. भक्ति का उदय होने पर संसार धीरे-धीरे छूटने लगता है. कामनाएं निरर्थक जान पड़ती हैं. ईश्वरीय सुख अनुपम है, उसे जानने के बाद जगत के सुख अर्थहीन प्रतीत होते हैं. तब हृदय में सेवा का सामर्थ्य उत्पन्न होता है. स्व का विस्तार होता है. समभाव की उत्पत्ति होती है. यही मुक्ति है जिसे एक न एक दिन सभी को पाना है.  


3 comments:

  1. तब हृदय में सेवा का सामर्थ्य उत्पन्न होता है. स्व का विस्तार होता है. समभाव की उत्पत्ति होती है. यही मुक्ति है जिसे एक न एक दिन सभी को पाना है.
    ......
    दीदी आपकी वाणी मेरे अंदर आत्मबल बढाती है ...पर हूँ अभी मैं बालक ही हाँ अगर सबको एक न एक दिन पाना है तो ..फिर मैं भी उसी तरफ कदम बढाता हूँ ...जिसे पाना है उसकी ही तरफ.!

    ReplyDelete
  2. आनंद जी व अनुपमा जी, आभार! सचमुच जब अंत में उसी ओर जाना ही है तो क्यों न अभी से यात्रा आरम्भ कर दी जाये...

    ReplyDelete