जुलाई २००२
इस पृथ्वी नामक ग्रह के सभी प्राणी आपस में प्रेम के सूक्ष्म तंतुओं से ही तो जुड़े हैं. यह सूक्ष्म भावना बहुत प्रबल है. यही प्रेम हमें बार-बार इस जगत में खींच लाता है. लेकिन जब इस प्रेम की धारा ईश्वर की ओर मुड़ जाती है तो मुक्त कर देती है. क्योंकि उसके सान्निध्य में रहने के लिये हमें इस तन के माध्यम की आवश्कता नहीं है. हम जहाँ कहीं भी हो उसे चाह सकते हैं, चाहें तो देह धर कर भी. लेकिन उस अवस्था में प्रेम बांधता नहीं है. स्वयं का ज्ञान ही हमारे भीतर इस प्रेम को जगाता है और ऐसा प्रेम ही भक्ति है. ऐसा प्रेम यदि अंतर में जग जाये तो जीवन उत्सव बन जाता है.
सार्थक प्रस्तुति...
ReplyDeleteआप यूँ ही पथ प्रदर्शन करते रहें ...बहुत सहायक हैं आप इस यात्रा में !
ReplyDeleteप्रणाम !!
is jeevan kaa aadhar hi prem hai...
ReplyDeleteअनुपमा जी, आनंद जी व अनु जी, आप सभी का बहुत बहुत स्वागत व आभार!
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