Tuesday, November 22, 2011

प्रेम ही मुक्ति है


जुलाई २००२ 
इस पृथ्वी नामक ग्रह के सभी प्राणी आपस में प्रेम के सूक्ष्म तंतुओं से ही तो जुड़े हैं. यह सूक्ष्म भावना बहुत प्रबल है. यही प्रेम हमें बार-बार इस जगत में खींच लाता है. लेकिन जब इस प्रेम की धारा ईश्वर की ओर मुड़ जाती है तो मुक्त कर देती है. क्योंकि उसके सान्निध्य में रहने के लिये हमें इस तन के माध्यम की आवश्कता नहीं है. हम जहाँ कहीं भी हो उसे चाह सकते हैं, चाहें तो देह धर कर भी. लेकिन उस अवस्था में प्रेम बांधता नहीं है. स्वयं का ज्ञान ही हमारे भीतर इस प्रेम को जगाता है और  ऐसा प्रेम ही भक्ति है. ऐसा प्रेम यदि अंतर में जग जाये तो जीवन उत्सव बन जाता है.

4 comments:

  1. सार्थक प्रस्तुति...

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  2. आप यूँ ही पथ प्रदर्शन करते रहें ...बहुत सहायक हैं आप इस यात्रा में !
    प्रणाम !!

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  3. अनुपमा जी, आनंद जी व अनु जी, आप सभी का बहुत बहुत स्वागत व आभार!

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