जुलाई २००२
ध्यान का मूलमंत्र है स्वाधीनता, साधक को धीरे धीरे किसी व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति पर निर्भर होना छोड़ते जाना होगा. पराधीनता हम स्वयं ही चुनते हैं, बंधन का दुःख भी सहते हैं. जितने जितने उदार हम होते जायेंगे, संग्रह की प्रवृत्ति घटती जायेगी, जीतेजी मुक्ति का अनुभव बढ़ता जायेगा. ध्यान का अर्थ है स्वयं पर लौट आना. जहाँ एकमात्र ईश्वर ही हमारी आशाओं का केन्द्र है. जो अखंड शाश्वत प्रेम का सागर है. जो मृत्यु के क्षण में भी हमारे साथ है और मृत्यु के बाद भी. उसकी आधीनता ही वास्तविक स्वाधीनता है.
सर्व धर्मान परित्यज्य मामेकं शरणम् व्रज ! अहम् तवा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिस्यामी मा शुचा: !!
ReplyDeleteइससे ज्यादा और क्या आश्वस्त करें प्रभु भी...
काश हम समझ पाएं और उस अनंत शक्ति के प्रति समर्पित हो जाएँ!
सुंदर दर्शन।
ReplyDeleteअनुपमा जी, अपने सही कहा है वह तो हमारे लिये बैठा ही है देर हमारी ओर से ही है...देवेन्द्र जी आभार!
ReplyDeleteवाह! क्या बात कही है!!
ReplyDeleteजितने जितने उदार हम होते जायेंगे, संग्रह की प्रवृत्ति घटती जायेगी, जीतेजी मुक्ति का अनुभव बढ़ता जायेगा.
ReplyDeleteवाह दी जीवन में ही मुक्ति कि रह बता दी आपने !
बहुत सुंदर दर्शन.....
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