Thursday, December 28, 2017

हीरा जनम अमोल है

२९ दिसम्बर २०१७ 
जीवन का हर पल अनंत सम्भावनाएं छिपाए है. अगले पल क्या घटने वाला है, कोई नहीं जानता. हर घड़ी एक नया अवसर लेकर हमारे सम्मुख आती है. हम क्या चुनते हैं, यह हम पर निर्भर है. समय की धारा तो बही जा रही है. उसमें कुछ सूखे हुए पुष्प हैं तो कुछ नव कुसुमित कमल भी, कुछ बासी मालाएं हैं तो कुछ सूर्य की नव रश्मियाँ भी, हमारी दृष्टि किस पर है, सब कुछ इस पर निर्भर करता है. कोई यूँही सोये-सोये भोर गंवा देता है तो कोई निकल पड़ता है, सुबह की लालिमा और हवा की स्नेह भरी छुअन को समेटने, परमात्मा को धन्यवाद देने अथवा तो ध्यान, सुमिरन में डूबने, जिससे ऊर्जा के उस महत स्रोत से वह जुड़ जाये और अपने भीतर ही तृप्ति का महासागर उसे मिल जाये. जीवन अनमोल है इसका मर्म जाने बिना इसका कीमत का अंदाजा नहीं होता. आने वाले वर्ष में अन्य लक्ष्यों के साथ इस एक खोज को भी जोड़ लें तो नया वर्ष कभी बीतेगा ही नहीं.

Wednesday, December 27, 2017

अदृश्य पर दृष्टि जिसकी

२७ दिसम्बर २०१७ 
शंकर कहते हैं, ‘ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या’. जैसे कोई कहे वस्त्र सत्य है उस पर पड़ी सिलवटें मिथ्या हैं, धागा सत्य है उस पर पड़ी गाँठ मिथ्या है अथवा तो सागर सत्य है, उसमें उठने वाली लहरें, झाग व बूंदें मिथ्या. सिलवटें, गाठें, लहरें और बूंदें पहले नहीं थीं, बाद में भी नहीं रहेंगी, वस्त्र, धागा और सागर पहले भी थे और बाद में भी हैं. इसी तरह हमकह सकते हैं, मन सत्य है उसमें उठने वाले विचार, कल्पनाएँ, स्मृतियाँ मिथ्या हैं, जो पल भर पहले नहीं थीं और पल भर में ही खो जाने वाली हैं. विचार की उम्र कितनी अल्प होती है यह कोई कवि ही जानता है, एक क्षण पहले जो मन में जीवंत था, न लिखो तो ओस की बूंद की तरह ही खो जाता है. आनंदपूर्ण जीवन के लिए हमें सत्य को देखना है, इस बदलते रहने वाले संसार के पीछे छिपे सत्य परमात्मा को अपना अराध्य बनाना है. 

Monday, December 25, 2017

मन के हारे हार है मन के जीते जीत

२६ दिसम्बर २०१७ 
एक तरफ पदार्थ है और दूसरी तरफ चेतना दोनों को जोड़ता है मन. मन कभी पदार्थ की तरह जड़ बन जाता है तो कभी चेतना से एक होकर चेतन. मन को यह सुविधा है कि इससे नाता जोड़े या उससे. जड़ होने में श्रम नहीं लगता पर उसका खामियाजा मन को ही भुगतना पड़ता है, वह सीमाओं में कैद हो जाता है. जड़ का ही आकार ग्रहण कर लेता है. चेतना का कोई रूप नहीं, वह एक शक्ति है, सो चेतना के साथ जुड़ने पर मन भी अनंत हो जाता है. सुख-दुःख के पार, तीनों गुणों के पार हुआ मन सहज ही आनंद का अनुभव करता है. चेतना का सहज स्वभाव है शांति, प्रेम और विश्वास, ऐसे में मन भी स्वयं को निर्मल और सरल अनुभव करता है.

Thursday, December 21, 2017

जीना यहाँ मरना यहाँ

२२ दिसम्बर २०१७ 
जीवन और मृत्यु देखने में विपरीत लगते हैं पर वास्तव में एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. जीवन आरम्भ हुआ उससे पूर्व आत्मा एक देह त्याग कर आई थी. शिशु बड़ा हुआ, किशोर और युवा होने तक देह विकसित होती रही, फिर प्रौढ़ावस्था और बुढ़ापा आने पर देह सिकुड़ने लगी और एक दिन आत्मा ने पुनः शरीर को त्याग दिया. जीवन के साथ-साथ ही मृत्यु की धारा भी निरंतर बहती रहती है. हमें एक देह में रहते-रहते उसी तरह उससे लगाव हो जाता है जैसे किसी को अपने ईंट-पत्थरों के घर से हो जाता है, घर बदलते समय भीतर कैसी हूक उठती है, उसी तरह आत्मा को नई देह मिलेगी पर इस जर्जर देह को त्यागने में उसे अत्यंत कष्ट होता है. धरती का आकर्षण उसे अपनी ओर खींचता है और अनजान का भय भी सताता है.

Wednesday, December 20, 2017

पल में सारा राज छिपा है

२१ दिसम्बर २०१७ 
जीवन और काल, ये दोनों शब्द पर्यायवाची होने चाहिए. जीवन की धारा प्रतिपल बह रही है और काल का अश्व भी निरंतर गतिमान है. दोनों अपने स्थिर होने का भ्रम देते हैं, अन्यथा क्यों कोई पत्थरों पर लाखों व्यय करता है और फूलों की तरफ आंख उठाकर भी नहीं देखता. जीवन की भव्यता को समझे बिना ही हम समय बिताये जाते हैं. यहाँ हर क्षण में अनंत छिपा है, संत कहते हैं जो मिला ही हुआ है उस पर तो हम पर्दे डाले जाते हैं और जो मिल ही नहीं सकता उस सुख के लोभ में दिन का चैन और रातों की नींद गंवाते हैं. योग ही वह सूत्र है जो जीवन और काल को एक कर देता है.  

Tuesday, December 19, 2017

माया के जब पार हो सकें

२० दिसम्बर २०१७ 
मन ही माया है. सृष्टि जैसी है वैसी ही यह देखने नहीं देता. जैसे सावन के अंधे को हर जगह हरा ही हरा दिखाई पड़ता है वैसे मन के द्वारा छली गयी आत्मा को जगत में दोष ही दोष दिखाई पड़ते हैं. मन अपनी मान्यताओं और कल्पनाओं के जाल में उलझ कर जगत को वैसा ही दिखाता है जैसा वह देखना चाहता है. ध्यान है मन के पार जाने की कला, स्वयं को अपने मूल रूप में जानने और कुछ पलों के लिए उसमें स्थित होकर शक्ति पाने की कला. भगवद् गीता में कृष्ण कहते हैं, मेरी माया के पार जाना हो तो मेरी शरण में आना होगा. कृष्ण की शरण में ध्यान में ही जाया जा सकता है. स्तुति, जप अथवा श्वासों पर मन को टिकाना, किसी भी विधि का उपयोग करके मन को स्थिर किया जा सकता है और शांत और एकाग्र हुआ मन ही स्वयं में विश्राम कर पाता है. विश्राम के क्षणों में प्राप्त हुई शांति उसे सुकृत्य के लिए प्रेरित करती है. 

Monday, December 18, 2017

जो घर भूला आपना

१९ दिसम्बर २०१७ 
संतजन कहते हैं, मानव खुद को भूल गया है. जैसे कोई बच्चा मेले में खो जाये और उसे न अपने घर का पता-ठिकाना ज्ञात हो न पिता का नाम तो उसकी जो अवस्था होती है वैसी ही अवस्था हमारी इस जगत रूपी मेले में आकर हो गयी है. ऐसे में कोई पहचान का व्यक्ति आ जाये और बच्चे को उसके घर पहुंचा दे तो वह कितना प्रसन्न न हो जायेगा. संत हमें वास्तविक रूप से पहचानते हैं, उनके संग होकर ही हम अपने घर पहुंच सकते हैं. बच्चा सहज विश्वासी है, पर हमारी बुद्धि संशय करती है, और हम घर जाने का मार्ग जानकर भी कुछ और समय संसार में ही भटकते रहना चाहते हैं. यह संसार कहीं बाहर नहीं है और न ही यह घर कहीं बाहर है, मन ही संसार है और आत्मा ही घर है. दूरी न स्थान की है न समय की, पर कैसा आश्चर्य कि युगों से हम घर से बाहर ही भटक रहे हैं. 

मुक्त हुआ मन जब आशा से

१८ दिसम्बर २०१७ 
व्यक्ति, वस्तु अथवा परिस्थिति से किसी न किसी प्रकार की अपेक्षा रखना ही व्यक्ति के दुःख का कारण है, यह बात न जाने कितनी बार हमने सुनी है. मन यदि असंतुष्ट है तो इसका एकमात्र कारण है अपेक्षाओं का पूरा न होना. एक प्रकार से मन अपेक्षाओं का ही दूसरा नाम है. जब तक यह बात अनुभव से स्वयं को सही न जान पड़े तब तक अपेक्षा से मुक्त होना सम्भव नहीं है. इसीलिए जिस क्षण प्रमाद और अनावश्यक क्रिया से मुक्त होकर साधक निज स्वभाव में लौटना चाहता है कोई न कोई स्मृति संस्कार रूप में आकर उसे विचलित कर देती है. अशांति का हल्का सा धुआं भी मन को ध्यानस्थ नहीं होने देता. सजग होकर यदि उस संस्कार के पीछे के कारण को जानने का प्रयास करें तो कोई न कोई अपेक्षा ही उसके मूल में दिखाई देती है. 

Friday, December 15, 2017

मुक्त रहे मन भूत-भावी से

१६ दिसम्बर २०१७ 
असजग व्यक्ति ही स्वयं के लिए और अंततः समष्टि के लिए दुःख का कारण बनता है. सृष्टि का हर कण स्वयं में आनंदित है. दुःख की अपने आप में कोई सत्ता नहीं है, यह सुख पर पड़ा आवरण मात्र है. कल्पना और स्मृति ही इसके दो आश्रय हैं. मानव मन के द्वारा दुःख का सृजन होता है. जीवन अपने आप में इतना अनमोल है पर जैसे नेत्र में पड़ा धूल का नन्हा सा कण दृष्टि को बाधित कर देता है और विशाल गगन भी दिखाई नहीं देता, वैसे ही मन में उठा कोई संस्कार जीवन की दिव्यता और भव्यता को भुला देता है. जैसे एक बीज अनंत बीजों का कारण है उसी प्रकार एक संस्कार अपने जैसे अनेक संस्कारों को जन्म देता है. जीवन तब एक पहेली बन जाता है.  

वर्तमान तय करता भावी

१५ दिसम्बर २०१७ 
हमारे द्वारा किया गया हर कृत्य चाहे वह भावना के स्तर पर हो, विचार के स्तर पर हो या क्रिया के स्तर पर हो अपना फल दिए बिना नहीं रहता. शास्त्रों में इसीलिए भावशुद्धि पर बहुत जोर दिया गया है, अशुद्ध भाव का फल भविष्य में दुःख के रूप में  मिलने ही वाला है यदि कोई इस बात को याद रखे तो तो किसी के प्रति अपने भाव को नहीं बिगाड़ेगा. व्यक्ति, परिवार, समाज अथवा किसी राष्ट्र के प्रति हो रहे अन्याय व भेदभाव को देखकर हम कितना नकारात्मक सोचने लगते हैं, हर घटना के प्रति प्रतिक्रिया देते हैं पर यह भूल जाते हैं कि हर विचार प्रतिफल के रूप में भविष्य में और नकारात्मकता लाने का सामर्थ्य रखता है. साधक को सजग रहना है और व्यर्थ के चिंतन से बचना है. प्रारब्धवश जो भी सुख-दुःख उसे मिलने वाला है उसके लिए किसी को दोषी नहीं जानना है. यदि वह स्वयं को कर्ता न मानकर मात्र साक्षी जानता है, तब किसी भी कर्म का फल उसे छू ही नहीं सकता.