Saturday, May 31, 2014

चिरकाल से नाता जिससे

अप्रैल २००६ 
परमात्मा सर्व समर्थ है फिर भी जब हम उसे प्रेम करते हैं वह हमारा सखा बनता है. हमें करना ही क्या है ? मात्र उससे प्रेम ही तो ! और निर्भार हो जाना है, हमारे उर में जो शांति बन छा जाता है, प्रेम का दरिया बनकर बहने लगता है ! हमारे भीतर का अंधकार दूर कर देता है. मन में सूक्ष्म वासनाएं छिपी हुई हैं, हम जब उसके सम्मुख होते हैं तो कुछ देर के लिए लगता है जैसे अंतःकरण पूर्ण निर्मल हो गया है पर पुनः पुनः संसार का आकर्षण हमें अपनी ओर खींच लेता है, तभी तो बार-बार प्रार्थना की आवश्यकता है, बार-बार शुभ संकल्पों की जरूरत है. बार-बार सन्त दर्शन की आवश्यकता है. जीवन में तभी प्रेम का उदय होगा. जैसे एक-एक बूंद को सहेजकर तालाब बनता है वैसे ही एक–एक क्षण हमें उसकी स्मृति भीतर भरनी है, ताकि वह सदा हमारे द्वारा पूजित होता रहे, सदा हमारी आराधना का केंद्र रहे. उसका नाम हमारे रोम-रोम में समाँ जाये. उसका प्रेम हमारे माध्यम से प्रकट होने लगे. 

पार जाना है भव सागर के

अप्रैल २००६ 
गुण, प्रकृति, काल, कर्म, जगत से परे हमें अपने जीवन को पवित्र बनाना है. भोर में उठकर पहला विचार मांगलिक हो, रात्रि में सोने से पूर्व स्थित हो सहज हो सोएँ. इस जगत में जहाँ हर क्षण सब कुछ बदल रहा है, जहाँ हमें कितने प्रभावों का सामना करना पड़ता है. कभी-कभी शोक के क्षण जो बना माँगे ही हमें मिलते रहते हैं क्या वे पूर्व कृत्यों का फल नहीं हैं ? हमारी प्रकृति कैसी है, सात्विक, राजसिक अथवा तामसिक, इस पर भी कर्म निर्भर करते हैं, जिस गुण की प्रधानता हो वैसा ही स्वभाव हम धर लेते हैं, जिस वातावरण में हम रहते हैं पूर्व संस्कारों के अनुसार वही भाव दशा हमारे मन की हो जाती है. लेकिन हमें इन सारे प्रभावों से पार जाना है, अपने स्वभाव में लौटना है. प्रेम करना हमारा स्वभाव है, आनन्द हमारा स्वभाव है ! जब हमें किसी वस्तु का अभाव खटके तो भी हम स्वभाव से हट गये हैं. स्वभाव में तो पूर्णता है, वहाँ कोई कमी है ही नहीं. तो हमें प्रतिपल इस बात का ध्यान रखना होगा, कि अंतःकरण कैसा है, हम स्वभाव में हैं या नहीं, सुख तब कहीं खोजना नहीं पड़ेगा, परमात्मा स्वयं उसे लेकर आएगा.

Friday, May 30, 2014

शुभता का ही वरण करे जो

मार्च २००६ 
शुभ कर्म को आरम्भ करना ही सबसे कठिन है, एक बार जब साधक शुभ पथ पर चलना आरम्भ कर देता है तब सारी सृष्टि उसकी सहायक हो जाती है. किन्तु हम आरम्भ को ही टालते रहते हैं. सत्संग सुनते समय कितने ही शुभ विचार भीतर उपजते हैं पर वे कार्यान्वित नहीं हो पाते, प्रभु मन को जानते हैं और समय आने पर अनुकूल परिस्थिति भी ला देते हैं यदि हम उसे अनदेखा न कर दें. यूँ भी साधक के पास परमात्मा से चाहने के लिए एक ही वस्तु है, उसे प्रेम करना तथा उसका प्रेम पाना. जब तक कोई उस पावन प्रेम से वंचित है तभी तक जगत की दौड़ है, वह प्रेम भीतर उपजा तो सारे में छा जाता है, फिर जीवन में सहज ही शुभ घटता है. सही रूप से सेवा का भाव जगता है. मन सारे अभावों से मुक्त हो जाता है और सारे प्रभावों से भी..अपने स्वभाव में टिक जाता है.


Thursday, May 29, 2014

जो टिका ज्ञान में वही चलेगा

मार्च २००६ 
जब हम बाहर काम करने के लिए निकलते हैं तो इस बात का अनुभव होता है कि किसी भी संस्था में सभी व्यक्ति काम के लिए नहीं होते, कुछ तो केवल शोभा के लिए होते हैं, काम करने वाले तो कम ही होते हैं, लेकिन वे दो-चार लोग ही पर्याप्त होते हैं. एक भी यदि चलना शुरू कर दे बिना इस बात की चिंता किये की कोई पीछे आ रहा है या नहीं, तो उतना ही पर्याप्त होगा. लक्ष्य यदि उच्च हो तो साधनों की कमी नहीं रहती प्रकृति भी सहायक हो जाती है. हम कई बार लोकमत के डर से आगे नहीं बढ़ते, कई अच्छे विचार मन में ही रह जाते हैं, शंकाग्रस्त हो जाते हैं. हम अपने भीतर का प्रेम व्यक्त नहीं करते इस डर से कि कहीं गलत न समझ लिए जाएँ. यह सब तभी तक होता है जब तक हमें अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं हुआ. ज्ञानी को कोई डर नहीं होता, उसकी निडरता में चेतनता है, वह सभी का सम्मान करते हुए अपना कार्य करता जाता है. वह सहज होकर भीतर-बाहर एक सा व्यवहार करता है. ज्ञानी को कहीं जाना नहीं है, उसे कुछ करना नहीं है, कुछ पाना नहीं, वह कृत-कृत्य हो चुका है. ऐसा व्यक्ति ही सही मायनों में लोकसंग्रह कर सकता है. क्यों कि उसे न मान की इच्छा है न अपमान का भय है. ऐसे ही ज्ञान में सन्त हमें ले जाना चाहते हैं, सत्संग, साधना और सेवा की त्रिपुटी के माध्यम से.


Wednesday, May 28, 2014

तेरे हाथों सौंप दिया सब

मार्च २००६ 
जितना-जितना हम उस परम सत्ता के करीब होते जाते हैं, उससे घनिष्ठ नाता जोड़ते जाते हैं, जो सत्ता कण-कण में व्याप्त है. हम देह की सीमाओं से पार होते जाते हैं. कृत्य का अभिमान नहीं रहता. ज्यादा करने की चाह भी समाप्त हो जाती है. हमारे कर्म तब अपने आप होते प्रतीत होते हैं, वह परमात्मा जैसे हमें अपने हाथों में नचा रहा हो. हम निर्भार होकर जीने लगते हैं. पदार्थों के प्रति भाव भी बदल जाता है, पदार्थ हमारे उपयोग में आयें बस वहीं तक उनका महत्व है, वे हमारे अहंकार को बढ़ाएं तो उनका त्यागना ही उचित है. भीतर एक सहजता का जन्म होता है. यह कितना अद्भुत अनुभव है. एक अनोखी शांति और स्थिरता भीतर बनी रहती है. हम उस स्रोत से जुड़ जाते हैं जहाँ से आए हैं.

Monday, May 26, 2014

तेरी शरण में आये हैं हम

मार्च 2006
प्रार्थना में बहुत शक्ति है, पग-पग पर प्रार्थना हमें सहारा देती है. उसका स्मरण भीतर चलता रहे तो यह अपने आप में ध्यान का ही एक रूप है. हम उसे ही अपने अंतर की कथा-व्यथा सुना सकते हैं, वह दीखता नहीं पर उसकी हजार आँखें हैं, जैसे दरवाजे पर चिक लगी हो तो बाहर के लोग भीतर नहीं देख सकते पर भीतर से बाहर देखा जा सकता है, वैसे ही वह हमारे भीतर से सब कुछ देख रहा है पर हम ही उसे नहीं देख पाते. प्रार्थना में हमारा अहं गल जाता है. शरण में आने का सुख सारे सुखों से बड़ा है, उसमें कोई मिलावट नहीं, कोई दुःख भी नहीं. शुद्ध ज्ञान में स्थित होकर ही हम शरण में आते है, शरण का अर्थ है सत्य के प्रति समर्पित होना, जो सही है उसे ही चाहना, जो कल्याणकारी है उसकी ही कामना करना. तब कोई बोझ नहीं रहता, कोई डर भी नहीं सताता, भक्त को पूर्ण विश्वास होता है जिसकी शरण में वह आया है, वह सर्व-समर्थ है, उसे तब अपने सुख-दुःख की परवाह नहीं रह जाती, वह तो उसकी रजा में ही अपनी रजा मानता है.

Sunday, May 25, 2014

एकै साधे सब सधे

मार्च २००६ 
लक्ष्य निर्धारित हो तो कोई भी कार्य असम्भव नहीं है. उस की प्राप्ति में जो कुछ भी हमें करना पड़े, जो भी सहना पड़े वह सदा कल्याणकारी ही होगा, किन्तु लक्ष्य ऐसा हो जो हमें आगे बढ़ाए, उन्नति के पथ पर, विकास के पथ पर, जो सभी के लिए हितकर हो. प्रभु प्राप्ति का लक्ष्य तो सर्वोपरि है, शेष सारे छोटे-मोटे लक्ष्य इसी में समा जाते हैं. ‘स्वयं’ को जानने का लक्ष्य भी इसी दिशा में ले जाता है. आनंद की खोज भी इसी दिशा में उठाया कदम है. सेवा, साधना, सत्संग व स्वाध्याय इस यात्रा में गति भरते हैं. 

Wednesday, May 21, 2014

सत्य ही मंजिल वही हो मार्ग


संशय रूपी पक्षी के दो पंख होते हैं, पहला दुष्ट तर्क दूसरा क्लिष्ट तर्क. पहले तर्क से दूसरों को कष्ट होता है, तो दूसरे प्रकार के तर्क से हम स्वयं ही फंस जाते हैं. निर्दोष चित्त का प्रसाद है अतर्क, भक्ति पूर्ण हो तो तर्क के लिए कोई जगह ही नहीं. भक्ति का अर्थ है सत्य के प्रति समर्पित होना, जो सही है उसको ही चाहना, तब जीवन में आगे बढ़ने के मार्ग अपने आप खुलते जाते हैं. किसी फल की आकांक्षा के बिना कृतज्ञता स्वरूप तब जीवन यात्रा की जाती है तो बिना किसी बाधा के वह फलीभूत होती है. 

Tuesday, May 20, 2014

गोपी मनहर सुंदर हरिओम


कृष्ण रसावतार है, उसका स्मरण होते ही गोपियों का हृदय द्रवित होकर बहने लगता है. उसे वे प्रेम क्या करें उनका नाम लेते ही भीतर सब कुछ बदलने लगता है. उसका साथ तृप्ति से भर देता है. भीतर जो पुलक बन कर अंग-प्रत्यंग में स्पन्दित हो रहा है वह अनंत ही उनकी आराधना का अधिकारी है. वह स्वयं पूर्ण है, पर एकाकी नहीं रहता तभी तो एक से अनेक हो जाता है, प्रेम का आदान-प्रदान करता है और उनके साथ खेलता है. वह सच्चा साहिब उन्हें बहुत प्रिय है, गोपियाँ भी क्या किसी से कम हैं, उसका ही एक रूप वे भी तो हैं.


बनें साक्षी निज मन के ही

मार्च २००६ 
मन का यह विचित्र स्वभाव है कि जिस कांटे से बिंधता है बार-बार उसी के पास जाना चाहता है, जैसे किसी के दांत में दर्द हो तो जिह्वा बार-बार उसी जगह जाती है, पर मन को यह बात जितनी जल्दी समझ में आ जाये उतना ही अच्छा है कि वह अपनी प्रकृति का शिकार स्वयं ही होता है, संस्कार गहरे करता जाता है और जाल में फंसता जाता है. हम जितना-जितना प्रतिक्रिया करेंगे, गुण-दोष की परवाह करेंगे, निर्णायक बनेंगे, उतना-उतना ही हमारे कर्म संस्कार गहरे होते जायेंगे, जितना-जितना साक्षी भाव में रहेंगे, उतना ही मुक्तता का अनुभव करेंगे. जो अपने स्वभाव में स्थित ‘होना’ सीख जाता है, जगत उसे प्रभावित नहीं कर पाता. उसे कुछ करके या पाके स्वयं को सिद्ध नहीं करना वह सहज ही संतुष्ट है और निर्लिप्त होकर जगत के खेल देखता है.  


Monday, May 19, 2014

एक लक्ष्य को सदा समर्पित

मार्च २००६ 
अपने मन के अनुकूल कुछ घटे तो मानना चाहिए हरिकृपा हो रही है और यदि प्रतिकूल हो तो विशेष कृपा मानकर सहर्ष ही उसे स्वीकार लेना चाहिए ! अनूकूलता हमें सुला सकती है, प्रतिकूलता में हम सजग होते हैं. संतजन तभी तो कहते हैं यह संसार दुखों का घर है, ताकि हम सुखों में खो न जाएँ. हो सकता है यह संसार कभी किसी के लिए सुखों का अम्बार लगा दे पर तब भी यदि वह सजग नहीं रहे तो छोटी सी भूल भी उसमें से दुःख पैदा कर सकती है. दैविक, भौतिक और आध्यात्मिक तीनों प्रकार की व्याधियों में से कोई न कोई मानव के साथ लगी ही रहती है, सजग होकर जब हम इनका सामना करते हैं तो ये हमें भीतर जाने का ज्ञान देती हैं . सत्य को जानने की उत्कंठा, सब दुखों से मुक्त होने की इच्छा भीतर जगती है. जब कोई लक्ष्य हमारे सम्मुख रहता है तो संसार की छोटी-छोटी बातें हमारा ध्यान नहीं खींच पातीं, हम उनसे ऊपर उठ जाते हैं. तब अनुकूलता-प्रतिकूलता में कोई भेद ही नहीं रहता.

Saturday, May 17, 2014

एक भरोसा राम का

मार्च २००६ 
साधक को संदेह से अवश्य बचना चाहिए, हर कीमत पर बचना चाहिए, हम संदेह तो जल्दी कर लेते हैं पर भरोसा करने में बहुत देर लगा देते हैं, जिनको हम प्रेम करते हैं उन्हीं पर जब हम संदेह करते हैं तो हम स्वयं पर ही अविश्वास कर रहे होते हैं. एक बार जिसे अपने हृदय का स्वामी बना लिया, तब उस पर संदेह करना अपने हृदय पर संदेह करना ही हुआ. सत्य को कभी सिद्ध करना ही नहीं होता, जिसे परीक्षा से गुजरना पड़े वह सत्य नहीं है. सत्य तो स्वयं सिद्ध है और जब यह भीतर प्रकटता है तो सारे भ्रम मिट जाते हैं, एक सजगता भीतर रहती है जो किसी विवाद को प्रश्रय नहीं देती, तब सहज ही समाधान होने लगता है. साधक की दृष्टि चेतन पर होती है, तब स्वयं पर भरोसा होने लगता है, सभी के भीतर उसी सत्य को देख पाने की दृष्टि भी जगती है. जगत पर तब प्रेम ही उमड़ता है, दोष नहीं दीखता, तब जगत लीला के रूप में खुलता जाता है.

Thursday, May 15, 2014

काँधे पर जो गठरी भारी

मार्च २००६ 
अज्ञान दशा में किये गये सारे कर्म बंधनकारी हैं. हमारे कर्मों की गठरी जितनी छोटी होगी मुक्ति उतनी ही जल्दी मिलेगी, ज्ञान मिलने के बाद यह तो तय है कि हमारी गठरी बढ़ती नहीं है, घटती जाती है, तब हमारा अहंकार जो पहले सजीव था, निर्जीव हो जाता है, हम संसार में सभी कुछ करते हैं पर कर्ता भाव नहीं रहता. उसी दशा में सच्चा पुरुषार्थ होता है. मुक्ति के बिना भक्ति भी सम्भव नहीं. हम जानते हैं, मृत्यु निश्चित है, और यह भी कि ऊपर-ऊपर से भेद भले ही हो मूलतः हम एक हैं, सभी के भीतर एक ही चेतन सत्ता व्याप्त है, हम इसी प्रकृति के अंश हैं, जो अपना तादात्मय  प्रकृति के साथ करता है उसे दोषों का भागी होना ही पड़ेगा किन्तु जो स्वयं को चेतना जानता है वह मुक्त है, आकाश की तरह, हवा की तरह, उसमें कोई भी अभाव नहीं रहता, वह नित्य है, सदा है, आनन्द रूप है. 

Wednesday, May 14, 2014

मित्र वही जो बने सहायक

मार्च २००६ 
जीवन में कोई एक मंत्र हो, एक मित्र हो और एक सूत्र हो जो हमारी रक्षा करे. मंत्र, मित्र तथा सूत्र तीनों एक भी हो सकते हैं, एक ही सद्गुरु में समा सकते हैं जो हमारी रक्षा करता है. आत्मा भी एक मंत्र है, मित्र भी वह है, और सूत्र तो वह है ही. जो आत्मा में वास करता है सदा उसकी रक्षा होती है. ईश्वर भी हमारा मित्र है, उसका नाम मंत्र है, उसका ‘ध्यान’ ही सूत्र है. हमारा नेत्र भी मंत्र, मित्र तथा सूत्र हो सकता है. हमारी दृष्टि जितनी पवित्र होगी उतनी ही हमारी रक्षा होती रहेगी. दृष्टिकोण सकारात्मक हो, भाव उच्च हों तो हमारा अनिष्ट कैसे हो सकता है. हमारी दृष्टि जब धूमिल हो जाती है, चीजों को हम उनके सही रूप में नहीं देखते तभी हमारा अंतःकरण मलिन होता है. मूल रूप में सब पवित्र है. हमारा जीवन आनंद के लिए है, प्रभु को प्रेम करते करते त्याग करते हुए ग्रहण करने के लिए है न कि संसार के पीछे भागकर दुखी होके जीने के लिए. 

Monday, May 12, 2014

सहज हुए सब कर्म करें

फरवरी २००६ 
मिथ्या पुरुषार्थ कर्मों को बाँधने वाला है, वास्तविक पुरुषार्थ कर्मों से हमें छुड़ाता है. आनन्द का प्रदाता है, और यह तब होता है जब हम स्वयं को जान लेते हैं. तब बाहर से सारे कार्य करते हुए भी हम भीतर से विरक्त ही रहते हैं. कर्तृत्व व भोक्तृत्व तब शेष नहीं रहता. बाहर हम जो भी कर्म करते हैं वे तो फल हैं, भीतर जो भाव बनते हैं, वे ही बाँधते हैं. हमारे भीतर के भाव ही भावी को जन्म देते हैं. आत्मा में जो स्थित रहता है, उसके जीवन में जो भी घटता है वह सहज ही स्वीकार्य हो जाता है. उसके भीतर कर्मों की होली जलती है और बाहर प्रेम का रंग चढ़ता है. 

मिल कर भी जो कभी न मिलता


संतजन कहते हैं, शिव तत्व सृष्टि के कण-कण में है, वह हमारे भीतर भी है, उसे जगाना ही वास्तविक पूजा है. जब मन में कामनाओं, वासनाओं तथा महत्वाकांक्षाओं का जाल न फैला हो, मन खाली हो तब वह शिव तत्व जो पहले से ही वहाँ है, प्रकट हो जाता है. हमारी शुद्ध चेतना उसी से बनी है. वह प्रेम है, सौन्दर्य है, कल्याणकारी है, अखंड है, निर्दोष है, शाश्वत है, निर्द्वन्द्व है, ज्ञान स्वरूप है. उस शिव तत्व को एक बार जान लेने के बाद उसका विस्मरण नहीं होता, उसके रहस्य धीरे-धीरे करके खुलते हैं लेकिन कभी पूरे नहीं होते. वह जान कर भी जाना नहीं जाता, वह अनुभव की वस्तु नहीं, शब्दों में नहीं आता, पर एक बार जिसे उसकी झलक भी मिल गयी वह स्वयं को तृप्त अनुभव करता है. पर यह तृप्ति उसकी प्यास को बढ़ाती है, जगत की प्यास को मिटा देती है. 

Friday, May 9, 2014

आ लौट के आजा मेरे मन

फरवरी २००६ 
आत्मा की सुगंध में जीना मानो प्रभु के आगे पुष्प भेंट करना है, अपनी आत्मा में रहकर व्यवहार करना ही उसकी सच्ची आराधना है. हमारा मन ‘सैलानी’ मन तो नहीं है, इसका ध्यान रखना होगा. अपने से अभिन्न परमात्मा जो अभी दूर लगता है, दूर है नहीं. हमारे भीतर वही बन्धु रूप में सदा चिदाकाश स्वरूप ही रहता है. कर्मों के बंधन से हमें मुक्त होना है. उसकी उपस्थिति का अनुभव होते ही संचित कर्म नहीं रहते, नये हम बांधते नहीं. भक्ति हमें मुक्ति प्रदान करती है और अहंकार से मुक्ति, भक्ति में लगाती है. 

Thursday, May 8, 2014

एक उसी के नाते सब है

फरवरी २००६ 
जो देहातीत है, शब्दातीत है, गुणातीत है, वह परमात्मा हमारे अनुराग का पात्र हो. यह सभी का अनुभव है कि संसार के प्रति राग दुःख का जनक है था दुःख से मुक्ति की आकांक्षा परमात्मा की ओर जाने की सीढ़ी है. परमात्मा की ओर की जाने वाले यात्रा जीवन को एक उत्सव में बदल देती है और तब संसार भी अपना बन जाता है. 

Wednesday, May 7, 2014

प्रज्ञा का जब दीप चलेगा

फरवरी २००६ 
अज्ञान दशा में आत्मा तथा शरीर आपस में एकमेक होकर रहते हैं, जिससे तीसरा पदार्थ अहंकार उत्पन्न होता है, राग-द्वेष व मोह इसी अहंकार की सन्ताने हैं. ज्ञान दशा में दोनों पृथक रहते हैं, अलग-अलग प्रतीत होते हैं तब अहंकार का स्थान प्रज्ञा ले लेती है. प्रेम, शांति, आनन्द का अनुभव होता है जो प्रज्ञा का परिणाम हैं. तब हमारी दृष्टि में कोई छोटा-बड़ा नहीं होता, प्रेम में सब समान होते हैं, प्रेम तभी टिकता है जब हम स्वयं को विशेष नहीं मानते, अहंकार ही भेद बुद्धि उत्पन्न करता है, तब जगत से हमारा सम्बन्ध नाराजगी का ही रहता है, हम दोष दृष्टि से मुक्त हो ही नहीं पाते. भले ही कोई कितने शास्त्र पढ़ ले जब तक भीतर आत्मा व देह अलग नहीं प्रतीत होते तब तक ईश्वर भी हमारी सहायता नहीं कर सकते. सूर्य तो चमक रहा है पर कोई अपनी खिड़की ही बंद रखे तो प्रकाश कहाँ से मिलेगा.  

Tuesday, May 6, 2014

सुंदर पथ है ज्ञान का

फरवरी २००६ 
ज्ञान में स्थित रहकर जीना ही वास्तविक जीवन है. ज्ञान का अर्थ है राग-द्वेष से मुक्त होकर जीना, जहां राग होगा वहाँ द्वेष भी होगा ही, जहाँ मान मीठा लगेगा अपमान कड़वा लगेगा ही. राग से छुटकारा पाने का उपाय यही है कि हम किसी की गलती कभी न देखें, जब तक हमें दोष दिखाई देते हैं तब तक प्रेम नहीं पनपा है ऐसा ही मानना चाहिए. ज्ञान में जीने का अर्थ यह भी है कि स्वयं को शुद्धात्मा देखें, व अन्यों को भी वैसा ही देखें. देह, मन आदि जड़ हैं, इन्हीं को नाम मिला है, जो हमारा नाम है वह वास्तव में इन्हीं का है, तो जो भी अनुभव होता है वह उसी को होता है, स्वयं उससे पृथक है, यह भाव दृढ़तर करते जाना है. तब कर्मों का बंधन नहीं होगा. कितना अद्भुत है यह ज्ञान जो सारे दुखों से मुक्त करता है, हमारे भीतर उस आनन्दमय राज्य का सृजन करता है, जिसकी कामना अनंत काल से मानव करता आया है. 

ज्योति प्रीत की जलती भीतर

जनवरी २००६ 
मन की धारा यदि भीतर की ओर मुड़ जाये तो राधा बन जाती है इसी तरह मन की हजारों वृत्तियाँ गोपियाँ क्यों नहीं बन सकतीं, हमारी ‘आत्मा’ ही वह कृष्ण है जिन्हें रिझाना है. जीवन का कोई भरोसा नहीं है, श्वास रहते-रहते उस तक जाना है, जाना है, कहना भी ठीक नहीं, वह तो सहज प्राप्य है. मध्य में जो आवरण है उसे हटाना है. संसार से सुख पाने की वासना का त्याग करना है, तभी सहज प्राप्त सुख दीखने लगेगा. एक ही निश्चय रहे तो सारी ऊर्जा उस एक की तरफ बहेगी. एक ही व्रत हो और एक ही लक्ष्य, भीतर के प्रकाश को बाहर फैलाना. जिसके आने पर जीवन में बसंत छा जाता है. सद्विचारों के पुष्प खिल जाते हैं और प्रीत की मंद बयार बहने लगती है. जैसे वसंत में दिन-रात समान हो जाते हैं, वैसे ही भीतर हानि-लाभ समान ही हो जाते हैं. 

Monday, May 5, 2014

धीरे धीरे हे मना

जनवरी २००६ 
अहंकार न रहे तो मौन स्वाभाविक ही उपजता है, बाहर का मौन ही फिर मन को भी मौन कर देता है. तब ‘स्वयं’ का अनुभव होता है, जिस क्षण भी यह अनुभव हुआ वह क्षण अपने आप में पूर्ण होता है, ऐसे क्षणों की श्रृंखला बन जाये तो ध्यान घटता है. ध्यान में हम स्वयं को देखते हैं, वहाँ द्रष्टा को दृश्य बना देते हैं, दूसरे दृश्यों का लोप हो जाता है. उस समय मन पूरा विश्राम पा रहा होता है. उसका शुद्धिकरण भी तभी होता है. पुराने संस्कार मिटते हैं था शुभ संस्कार दृढ़ होते हैं. जितना समय हम ध्यान में होते हैं परमात्मा के निकट होते हैं, तभी उसके प्रेम व शांति का अनुभव होता है. एक दिन ऐसा आता है जब पूर्ण आत्मा उघड़ जाती है, साधक को असीम धैर्य के साथ साधना करनी है और उस घड़ी का इंतजार करना है.

Saturday, May 3, 2014

नजर सदा हो अपनी ओर

जनवरी २००६ 
कभी–कभी ऐसा होता है कि उत्साह और प्रेम से भरे हम किसी से मिलने जाते हैं और जब लौटते हैं तो लगता है कहीं कुछ खो गया है, जैसे ऊर्जा निचोड़ ली गयी है. इसके कारण में पड़ने से तो अच्छा है अपने मन को देखें, कहीं वह अहंकार का शिकार तो नहीं हो गया था, कहीं भेद भरा वर्तन तो नहीं किया, कहीं लोभ तो नहीं जगा जिसकी पूर्ति में बाधा आई हो और मन बुझ गया हो. कहीं वाणी का दोष तो नहीं हुआ, मौन से बढकर सम्प्रेष्ण का कोई साधन नहीं है पर मौन को त्याग हम वाणी का आश्रय लेते हैं, न कहने योग्य भी कह जाते हैं. अपनी ऊर्जा स्वयं ही गंवाते हैं, जो चुकता है वह अहंकार ही है, जिसे पीड़ा होती है वह भी अहंकार था, ‘स्वयं’ तो ऊर्जा का अनंत भंडार है, ‘स्वयं’ तो प्रेम ही देना जानता है, ‘स्वयं’ तो सदा एक सा है, सदा एक सा था, एक सा रहेगा...मौन की तरह... 

Friday, May 2, 2014

ऊधो मन नाहीं दस बीस

जनवरी २००६ 
मन यदि एक बार ईश्वर को अर्पित कर दिया तो फिर लाख कोशिश करने पर भी वापस नहीं मिलता, बार-बार उसी की ओर लौटना चाहता है. मन आखिर क्या है क्या ? मन एक रास्ता है संसार से ईश्वर की ओर जाने का रास्ता ! यह एक पुल है बाहर से भीतर जाने का अथवा भीतर से बाहर आने का. मन सत्पथ है, प्रेम पथ है जो प्रभु के पास हमें ले जाता है ! मन यदि आत्मा से जुड़ा रहेगा तभी स्वस्थ रहेगा. मन जब आत्मा में विश्राम पाकर लौटता है तो सबल हो जाता है. आत्मा उसका घर है और संसार उसका कर्मक्षेत्र है. बुद्धि भी तभी प्रज्ञावान होती है, जब आत्मा से पोषित होती है. 

Thursday, May 1, 2014

जहाँ अभाव नहीं है कोई

जनवरी २००६ 
कभी-कभी साधक को लगता है कि मन स्थिर नहीं है, ऊपर-ऊपर से देखें तो लगता है कोई विशेष कारण नहीं है पर गहराई में जाकर देखें तो पता चलता है मन किसी अभाव का अनुभव कर रहा है, उसे क्या चाहिए यह भी उसे पता नहीं है, पर अभाव उसी को होता है जिसकी कोई कामना शेष रह गयी है. मानव की सबसे बड़ी कामना होती है खुद को जानने की, आनंद को पाने की, पर मन यह नहीं जानता कि स्वयं को मन के पार जाकर ही पाया जा सकता है. मन को मिटना होगा उस आनन्द को पाने के लिए और मन वास्तव में है भी मरणशील क्योंकि जड़ प्रकृति का अंश है. स्वयं को जानने का अर्थ यही है कि द्रष्टा भाव में रहकर मन में उठने वाली वृत्तियों को देखना, देखने मात्र से वह शांत हो जाता है और स्वयं ही चुप होकर बैठ जाता है.