Thursday, November 28, 2013

मन ही रचता सुख-दुःख सारे

अप्रैल २००५ 
सन्त कहते हैं, भीतर कितनी शांति है, कितना प्रेम और कितना आनन्द.. भीतर आत्मा है, ईश्वर है और बाहर भी उन्हीं का प्रसार चहूँ ओर हो रहा है. प्रकृति के सुंदर रूप, झीलें, हिमाच्छादित पर्वत, वनस्पतियाँ, फूल, झरने, शीतल हवाएं, वर्षा, विविध सुगंधें, और न जाने कितने-कितने अनुपम पदार्थ, मानव, पशु-पक्षी, चाँद, तारे, ग्रह-नक्षत्र सभी कुछ कितना अद्भुत है. इन सबको रचने वाला स्वयं कितना अद्भुत होगा. सन्त कहते हैं वह हमारे भीतर है, वह जो मिलकर भी नहीं मिलता, जो बिछड़कर भी नहीं बिछड़ता, जो दूर भी है और पास भी, जो दीखता भी है और नहीं भी दीखता, जो सदा एक सा है, नित्य है, शुद्ध है, पूर्ण है, बुद्ध है, जो प्रेम है, रस है, आनन्द है, शांति है, सुख है पर जिसके जगत में दुःख भी है और पीड़ा भी, असत्य भी, घृणा भी. सभी कुछ उसी से उपजा है, उसी की लीला है, राम है तो रावण भी है, कृष्ण है तो कंस भी है. इस जगत में सारे विरोधी भाव हैं, रंग हैं, वरना किसी की महत्ता का भान कैसे होता. मरीज न हो तो वैद्य का क्या काम, माया न हो तो माया पति का क्या कार्य, पर सन्त कहते हैं जगत के इन द्वन्द्वों के मध्य रहते–रहते हमें बहुत समय हो गया, सुख-दुःख के चक्र में फंसकर हम अनेकों बार वही वही कर्म ही करते आए हैं, हमें इनसे ऊपर उठना है, द्वन्द्वातीत होना है हमें, पर हमारा मन इनसे ऊपर उठना चाहता ही नहीं वह किन्हीं विश्वासों, पूर्वाग्रहों, मान्यताओं में बंधा स्वयं तो अशांत होता ही है और हम जो उसके इशारों पर चलते हैं व्यर्थ ही फंस जाते हैं.

Wednesday, November 27, 2013

स्वयं को ही उपहार बना लें

अप्रैल २००५ 
सत्संग से जीवनमुक्ति मिलती है. सहजता आती है. निर्मोहता, निसंगता तथा स्थिरमन की निश्चलता आती है. जीवनमुक्ति का अर्थ है अपने आस-पास कोई दुःख का बीज न रह जाये. दिव्य स्पंदनों का आभा मंडल इतना शांत होता है कि भीतर के विकारों से हमें मुक्ति मिल जाती है. सारी कड़वाहट खो जाती है, मन खिल उठता है. हम पुनः नये हो जाते हैं. वर्तमान यदि साधना मय है तो भावी सुंदर होगा ही. इस मन को शुभता से भर कर हमें जगत के लिए उपहार स्वरूप बनना है न की भार स्वरूप. वह अकारण हितैषी परमात्मा अनंत काल से हमें प्रेम करता आया है. हम उसे समझ न पायें पर उसके प्रेम को तो अनुभव कर ही सकते हैं . 

Tuesday, November 26, 2013

बनी रहे वह स्मृति पल पल

अप्रैल २००५ 
हम सोचते हैं कि मन सध गया, पर यह सूक्ष्मरूप से अहंकार को सम्भाले रहता है. देहात्म बुद्धि में रहने पर मन हावी हो जाता है. आत्मा में जो स्थित हो गया उसे कोई बात विचलित नहीं कर सकती. जगत में रहकर अपने कर्त्तव्यों का पालन करते हुए वह अलिप्त रह सकता है. वह अपनी मस्ती में रहता है, परम की स्मृति उसे प्रफ्फुलित किये रहती है. आनन्द का एक स्रोत उसके भीतर निरंतर बहता रहता है, एक पल के लिए भी यदि उसमें अवरोध हो तो उसे स्वीकार नहीं होता. एक क्षण के लिए भी मन में छाया विकार उसे व्यथित कर देता है. जगत उसके लिए परमात्मा को पाने का साधन मात्र बन जाता है. वह खुद को जगत के लिए उपयोगी बनाने का प्रयत्न करता है. वह प्रेम ही हो जाता है.

Monday, November 25, 2013

कुछ मोती अनमोल

अप्रैल २००५ 
दीवानगीये इश्क के बाद आखिर आ ही गया होश
और होश भी ऐसा होश कि दीवाना बना दे ! 

दीवाने से कभी मत पूछो कि क्या लोगे
अगर बोल बैठा तो क्या दोगे ?

मांगो.. मांगो.. मांगो तो सही मांगो
और सही का मतलब वही मांगो
कभी कुछ, कभी कुछ  
इससे तो बेहतर है नहीं मांगो !


देना न भूलो, देकर भूलो !

Friday, November 22, 2013

श्रद्धावान लभते ज्ञानम्

अप्रैल २००५ 
आनन्द की राशि, परमात्मा हमारे भीतर है तो हमें उदास होने की क्या जरूरत है, यह तो ऐसा ही हुआ कि फूलों के ढेर हमारी गोद में हैं और खुशबू हमसे दूर रहे. भीतर जब जिज्ञासा और श्रद्धा का जन्म होता है तो पहले प्रेम फिर ज्ञान का उदय होता है और आनन्द का स्रोत भीतर फूट पड़ता है. भय का नाश हो जाता है, मन झुक जाता है, भीतर खाली हो जाता है, जैसे जन्मों का बोझ उतर गया हो. भक्त को पंख मिल जाते हैं, वह कौतुक से भर जाता है, सरल, सहज हो जाता है. उसके भीतर का आनन्द बाहर भी प्रवाहित होने लगता है. वह अन्यों के मन के भाव पढ़ने लगता है. जगत के साथ उसके सम्बन्ध पारदर्शी हो जाते हैं.  

Wednesday, November 20, 2013

कितना सुंदर पथ है उसका

अप्रैल २००५ 
भक्त वही है जिसका मन ईश्वरीय भावों से लबालब भरा हुआ है, भीतर एक प्रकाश फैला है जो उसके अस्तित्त्व के कण-कण को भिगो रहा है. शास्त्रों में लिखी बातें उसके लिए सत्य सिद्द हो गयी हैं. आकाश व्यापक है पर आकाश भी भगवान में है, अगर कुछ पल भी उस भगवद् तत्व में कोई टिक जाये तो कभी विषाद नहीं होता. सन्त कहते हैं, स्वस्थ देह, पावन भाव और शुद्ध बुद्धि यह तीन तो साधना के अंग हैं और चौथी अवस्था 'साध्य' है. उसका अनुभव होने पर सुख-दुःख का असर नहीं होता, मन निर्लिप्त हो जाता है, हर परिस्थिति में समता बनाये रखना सम्भव हो जाता है. अपनी स्मृति को बनाये रख सकते हैं. इस पथ पर दूर से ही साध्य की सुगंध मिलने लगती है. उस स्थिति की कल्पना ही कितनी सुखद है, जब हमें  भी वह अनुभव होगा, जो नानक का अनुभव है मीरा का अनुभव है. कई बार हमें भी उसकी झलक मिली है पर अभी बहुत दूर जाना है. मन के दर्पण को मांजना है, पात्रता हासिल करनी है.

Tuesday, November 19, 2013

भाव शुद्धि सत्व शुद्धि....

अप्रैल २००५ 
संचित कर्म, प्रारब्ध कर्म तथा क्रियमाण कर्म, ये तीन प्रकार के कर्म हैं जो जीव के साथ सदा रहते हैं जब तक उसे भगवद् प्राप्ति न हो जाये. संचित कर्म वे हैं जो हमने जन्मों-जन्मों में एकत्र किये हैं, उन्हीं में से कुछ कर्मों को प्रारब्ध बनाकर हम इस दुनिया में भेजे जाते हैं, क्रियमाण वे कर्म हैं जो जन्म से मृत्यु तक हम अपनी इच्छा से करते हैं. इन कर्मों को करते हुए हम पुनः संचित कर्म एकत्र करते जाते हैं. किसी कार्य को करते समय हमारी भावना जैसी होगि वही उसका वास्तविक रूप होगा, बाहरी रूप से चाहे हम कितना भी अच्छा व्यवहार दिखाएँ पर यदि भावना बिगड़ी हुई है तो हमारा कर्म अशुद्ध ही माना जायेगा. भीतर का भाव बिगड़ते ही हम स्वयं को कर्म बंधन में बांध लेते हैं. बाहर तो परिणाम नजर आता है कारण भीतर होता है. परिणाम तो नष्ट हो जाता है पर कारण बीजरूप में बना रहता है, फिर वह प्रारब्ध कर्म बन कर कभी भी आ सकता है. हम क्रियमाण कर्मों को करने में स्वतंत्र हैं, अपने मन, बुद्धि, विचारों, भावनाओं तथा वाणी को पवित्र रखने में स्वतंत्र हैं, हम अपने भाग्य के निर्माता स्वयं हैं.  सजग व्यक्ति कभी भी खुद को कर्म बंधन में नहीं बांधते. जब हमारा लक्ष्य मुक्ति है तो अपने ही हाथों स्वयं को क्यों बाँधें.  

Sunday, November 17, 2013

नहीं अकेला कोई जग में


यह सत्य है कि हम इस जगत में अकेले ही आते हैं और अकेले ही हमें जाना है. आत्मा स्वयं को जानने के लिए ही मानव शरीर धारण करता है, पर इसे भुलाकर अपने जैसे अन्यों को जीते देखकर सोचता है शायद यही जीवन है. जीवन का अनुभव और सत्संग उसे बताता है कि असलियत क्या है, जहाँ बाहर उसे हर कदम पर द्वन्द्वों का शिकार होना पड़ता है, भीतर जाकर ही उसे पता चलता है कि वह तो निरंतर परमात्मा के साथ जुड़ा है, सभी के भीतर उसी की झलक मिलने लगती है. सभी वास्तव में एक ही शक्ति को भिन्न भिन्न प्रकार से व्यक्त कर रहे हैं. वह सभी के साथ आत्मीयता का अनुभव करता है. प्रेम का जो प्रकाश उसके भीतर फैला था बाहर भी फैलने लगता है. तब उसे संसार से कुछ भी लेने का भाव नहीं रहता वह सहज हो जाता है. प्रेम, विश्वास तथा शांति का स्रोत जो उसे मिल जाता है.

Monday, November 11, 2013

मुक्त हुआ मन भजे परम को

अप्रैल २००५ 
प्रभु प्रेम का महासागर है और मन उस प्रेम की एक लहर है, एक बूंद है, यह मन परमात्मा से मिलकर ही संतुष्टि का अनुभव करता है. जब तक वह उससे दूर है, तो भीतर एक कचोट है उठती है, वह विरह की पीड़ा है, जब वह विरह बढ़ने लगता है, प्रभु को पाने की चाह हमारे भीतर बढ़ने लगती है. जब यह चाह पराकाष्ठा पर पहुंच जाती है तो परम अपने को प्रकट कर  देता है. तब हमें अपनी आत्मा का परिचय होता है, स्वयं से मिलने के बाद साधक के जीवन में केवल एक ही कार्य शेष रह जाता है, वह है प्रेम, उसके लिए जगत में एक ही वस्तु रह जाती है वह है परमात्मा, ईश्वर और प्रेम दो नहीं हैं, एक के ही दो नाम हैं ठीक उसी तरह जैसे भाग्य और पुरुषार्थ दो नहीं हैं एक हैं, हमारे पूर्व में किया गया कार्य यानि पुरुषार्थ ही वर्तमान में भाग्य बनकर सामने आ जाता है. वैसे ही जीवन में ईश्वर हो तो प्रेम स्वतः ही पनपता है और प्रेम प्रकट हो जाये तो ईश्वर स्वयं ही खींचे चले जाते हैं. मन मयूर तब नृत्य कर उठता है, भीतर कोई रस फूट पड़ता है, मस्ती की लहर हिलोरे लेती है. रोम-रोम में उस राम का नाम प्रतीत होता है. जीवन का शुभारम्भ वास्तव में तभी से होता है, उसके पूर्व तो मन, इन्द्रियों का गुलाम था, सदा अधीन रहता था, पराधीन को सुख कहाँ, जोमुक्त है वही सुखी है, मुक्ति ही भक्ति है.


Sunday, November 10, 2013

अप्प दीपो भव

अप्रैल २००५ 
परमात्मा की कृपा भरा हाथ सदा हमारे सिर पर है, वह जीवन के हर मोड़ पर हमें मार्ग दिखाने के लिए हमारे साथ हैं. सत्संग से हमें इसका ज्ञान होने लगता है. सत्य का आश्रय मिल जाये तो जीवन का पथ कितना सहज तथा सुरक्षित हो जाता है. हम अपने दीप स्वयं बन जाते हैं. हमारे लिए इस जगत का महत्व तभी तक रहता है जब तक हमारी पहचान इस देह के माध्यम से बनी है, स्थूल देह के साथ हमारा सम्बन्ध टूटते ही जगत का इस अर्थ में लोप हो जाता है कि वह हमें प्रभावित नहीं करता. यह देह हमसे अलग है, हम इसे जानने वाले हैं, जहाँ जानना तथा होना दो हों वहाँ द्वैत है, जब जानना तथा होना एक हो जाता है, वहाँ दो नहीं होते एक ही सत्ता होती है, वही वास्तव में हम हैं. शरीर, मन, बुद्धि सब अपने-अपने धर्म के अनुसार कर्म करते हैं, पर आत्मा जिसकी सत्ता से ये सभी हैं. अपनी गरिमा में रहता है. वह है, वह जानता है कि वह है, वह जानता है, वह आनन्द पूर्ण है. यह जानना ही वास्तव में जानना है. 

Wednesday, November 6, 2013

भीतर जगती प्रेम समाधि

अप्रैल २००५ 
‘समाधि सुखः लोकानन्दः’ समाधि से प्राप्त सुख लोक के सुख का कारण भी बनता है, तथा लोक में हमें जो भी आनन्द मिलता है वह समाधि से ही प्राप्त है. उगते हुए सूर्य को देखकर जो हम चकित से रह जाते हैं, अनजाने में समाधि ही लग जाती है, मन लुप्त हो जाता है, हम उस चेतना से जुड़ जाते हैं. जब हम ध्यान में बैठते हैं तो शांति की किरणें फूल की सुगंध की तरह हमारे चारों ओर फूटती रहती हैं. दुनिया के सारे सुख इस ध्यान सुख में समाये हैं, जैसे हाथी के पैर में सारे पैर समा जाते हैं. जिसे एक बार इस समाधि का अनुभव होता है, वह  द्वन्द्वों से मुक्त हो जाता है. प्रेम, आनन्द, शांति उसके नित्य सहचर बन जाते हैं. गांठे खुलने लगती है और बीजरूप में पड़ा भक्ति का वृक्ष खिल उठता है, यह एक चमत्कार ही होता है, इससे बढ़कर कोई चमत्कार नहीं ! 



Tuesday, November 5, 2013

मन को बस मन ही जाने

मार्च २००५ 
मन कितने-कितने विचारों में खो जाता है, काम करते हुए अथवा ध्यान करते हुए भी हमारा मन पुनः पुनः चहुँ ओर विचरने लगता है. कभी वर्तमान में रहना ही नहीं चाहता, वर्तमान में ही हमारे सारे प्रश्नों का हल है, सारी तलाश वर्तमान में ही समाप्त होने वाली है, हम जिसे चाहते हैं वह भी वर्तमान में मिले तभी तुष्टि होगी, भूत तो सताते हैं और भविष्य भरमाता है. वर्तमान ही सत्य है, हमें यह बात जितनी जल्दी समझ आ जाये उतना ही अच्छा है. मन जानता है कि वर्तमान में वह रहता ही नहीं, उसका कोई महत्व नहीं रह जाता, अपने अहंकार को बढ़ाने के लिए कोई कथा-कहानी जो नहीं रह जाती उसके पास. मन ही वह पर्दा है जो हमारे और परमात्मा के बीच में है, इसके गिरते ही सत्य स्वयं स्पष्ट हो जाता है. मन पुष्ट होता है इन्द्रियों के कारण, यदि इन्द्रियां सत्कार्यों में लगी रहें तो मन भी सद्विचारों से युक्त होगा, सात्विक मन ध्यान में बाधा नहीं डालेगा, पर भीतर गहरे जाने पर उन्हें भी विदा होना होगा. सद्गुरु की कृपा से यह सम्भव है.

Sunday, November 3, 2013

कौन सदा है संग सभी के

मार्च २००५ 
श्रीमद्भागवत में कृष्ण कहते हैं, ‘जब भक्त मेरा भजन करते-करते थक जाता है, तब मैं उसका भजन करने लगता हूँ’. कृष्ण कितने अनोखे हैं, वे परम अराध्य हैं, समस्त कारणों के कारण हैं, परमब्रह्म परमेश्वर हैं. हमारा श्रद्धाभाव जितना दृढ होगा उतना ही हम प्रभु को करीब से जानने लगते हैं. उसकी कृपा से ही संशय दूर होते हैं, इच्छाएं उठने से पूर्व ही पूर्ण होने लगती हैं. राधा उनकी आह्लादिनी शक्ति है, वही कृष्ण की बंसी की मधुरता है, वही उनके भीतर का शुद्ध हास्य है, वही उनका प्रेम है. वह सदा ही हमारे मन के मन्दिर में विराजते थे पर हमें ही इसका पता नहीं चलता था, हमारे भीतर ईश्वर के प्रति सहज स्वाभाविक प्रेम सुप्तावस्था में रहता है, सद्गुरु की कृपा से वह प्रकट हो जाता है, उसका प्राकट्य एक अद्भुत घटना है जो अंधकार न जाने कब से भीतर बना होता है, वह पल में समाप्त हो जाता है. भीतर ज्योति भर जाती है, जैसे रोम-रोम दिव्यता से भर गया हो. परमात्मा सदा हमारे साथ है.