Tuesday, August 30, 2011

अध्यात्म मार्ग


नवम्बर २००१ 
अध्यात्म के मार्ग पर न जाने कितने मोड़ आते हैं, जिनसे एक साधक को गुजरना होता है. एक तरफ तो यह तलवार की धार पर चलने जैसा है, दूसरी तरफ विस्मित कर देने वाला भी है. हर क्षण भंगुर सुख की कीमत इस जगत में चुकानी पडती है, लेकिन आत्मसुख का अंत नहीं है, उसे सीमा में नहीं बांधा जा सकता. एक क्षण ऐसा भी आता है जब ध्यान न करते हुए भी जब ध्यान जैसी स्थिति बनी रहे, मधुर भाव यूँ ही बना रहे. सारा जगत एक स्वप्न की भांति जान पड़े. सब कुछ जैसे थम गया हो, शून्य ही शून्य हो, आत्म बोध के अतिरिक्त कोई बोध न जान पड़े. ऐसे और इससे भी तीव्रतर अनुभवों के लिए साधक को तैयार रहना होता है. प्रकृति उसे कई रूपों में अनंत के दर्शन कराती है. 

Monday, August 29, 2011

आत्मा और मन


नवम्बर २००१ 
एक बार एक निर्धन व्यक्ति उसी पथ से लौट रहा था जहां से राजा भी गुजर रहा था. लोग उसे झुक- झुक कर सलाम करते तो इसे भ्रम होता कि मुझे ही तो नहीं कर रहे हैं. वैसे ही हमारा मन है, थोड़ी सी प्रशंसा होती है तो उसे लगता है उसने बड़ा तीर मार लिया, कोई प्रेम देता है तो वह स्वयं को बहुत योग्य समझ कर फूल जाता है... जानता नहीं वह तो आत्मा का उपकरण मात्र है जैसे कोई किसी बड़े आदमी का सेक्रेट्री हो तो वह भी खुद को महत्वपूर्ण मानने लगता है. आत्मा क्योंकि अपने आप में पूर्ण है उसे न प्रशंसा की भूख है न प्रेम की, वह ध्यान भी नहीं देता इन बातों पर. जैसे कोई राजा छोटी-छोटी बातों पर ध्यान नहीं देता. बेचारा मन ख्वाहम्खाह मारा जाता है. अब हम पर निर्भर है कि हम दोनों में खुद को क्या मानते हैं.

Friday, August 26, 2011

अज्ञान


नवम्बर २००१ 
है कुछ भी नहीं पर अनादिकाल से हम बार-बार बंधे जा रहे हैं. अज्ञान का आधार तो हमारा मन ही है, मन की दीवारें गिर जाएँ तो यह अज्ञान उसी तरह लुप्त हो जायेगा जैसे अँधेरे कमरे की दीवारें गिर जाएँ तो वहाँ अँधेरा नहीं टिकता. जैसे बादल की सत्ता सूर्य से है पर वही उसको ढक लेते हैं, वैसे ही आत्मा की सत्ता से ही अज्ञान है. ज्ञान ही हमें इससे मुक्त करता है. यह मुक्ति पल भर को भी मिले तो अमूल्य है.  

Thursday, August 25, 2011

निराग्रही मन


नवम्बर २००१ 

सुख-दुःख मन की मान्यता और कल्पना के आधार पर होता है, मन एक वृत्ति है सागर की तरंग की तरह, जो अभी है, अभी नहीं. मन एक चलते फिरते रास्ते की तरह भी है जिस पर तरह-तरह के लोग हर समय चलते रहते हैं. हमें जैसे कोई आग्रह नहीं होता कि सड़क पर इसे ही चलना होगा वैसे ही मन भी अनाग्रही रहे. मन यदि अपने मूल को पकड़े रहे तब उसे कोई सुख-दुःख स्पर्श नहीं कर सकता जैसे सूर्य की किरणें सभी को छूती हैं पर स्वयं अछूती रह जाती हैं. विशेष परिस्थिति का आग्रह ही हमें बांधता है.  

Wednesday, August 24, 2011

साधना का द्वितीय सोपान


अक्तूबर २००१ 

एक मात्र ईश्वर ही हमारे प्रेम का केन्द्र हो, जो कहना है उसे ही कहें. अन्यों से प्रेम हो भी तो उसी के प्रति प्रेम का प्रतिबिम्ब हो. परमात्मा की कृपा जब हम पर बरसती है तो अपने ही अंतर से बयार बहती है. तब अंतर में तितलियाँ उड़ान भरती हैं. अंतर की खुशी बेसाख्ता बाहर छलकती है. ऐसा प्रेम अपनी सुगन्धि अपने आप बिखेरता है. दुनिया का सौंदर्य जब उसके सौंदर्य के आगे फीका पड़ने लगे, उस “सत्यं शिवं सुन्दरं” की आकांक्षा इतनी बलवती हो जाये, उसके स्वागत के लिए तैयारी अच्छी हो तो उसे आना ही पडेगा. अंतर की भूमि इतनी पावन हो कि वह उस पर अपने कदम रखे बिना रह ही न पाए. यह साधना का दूसरा सोपान है.   

Tuesday, August 23, 2011

साधना का प्रथम सोपान


अक्तूबर २००१ 

जहां श्रद्धा होती है, वहीं बुद्धि लगती है अर्थात बुद्धि स्थिर होती है. फिर संशय का वहाँ कोई स्थान ही नहीं रहता. जहां प्रेम होता है वहाँ उसके  सान्निध्य की चाह होती है. ईश्वर के प्रति यानि शुभ के प्रति, आनंद व शांति के प्रति श्रद्धा व प्रेम होगा तो बुद्धि अपने आप उससे संयुक्त होगी. साधक के मन में तब उसे पाने की चाह दृढ होगी. साधना के प्रथम चरण में ही ईश्वर की झलक अपने अंतः करण में मिलने लगती है. साधक का शांत पर खिला हुआ मुखड़ा ही इस बात की खबर देता है कि कोई है, जिसकी हमें तलाश है तथा कोई है जो हमें भी खोज रहा है. साधक के भीतर एक ललक भी रहती है जो उसे निरंतर पथ पर टिकाये रहती है. वर्तमान में रहकर अपनी ऊर्जा को बचाए रखने की सहज विधि उसे सद्गुरु देता है. जीवनी शक्ति यदि कम हो तो मन अस्थिर हो जाता है. शरीर व मन से ऊपर उठ कर उसे आत्मा के अनंत मार्ग पर चलना है इसकी याद वह कभी बुद्धि से विलग नहीं होने देता.  

Sunday, August 21, 2011

जय श्री कृष्ण


कृष्णंवन्देजगद्गुरुं... कृष्ण सारे जगत के गुरु हैं. जहां कृष्ण हैं वहाँ श्री है. वे सहज हैं भीतर और बाहर एक से, युद्ध के मैदान में भी और सखाओं के साथ खेल में भी. भीतर की शुद्धता ही उन्हें सहज बनाती है. कृष्ण के प्रति श्रद्धा का भाव रखकर हम उस ज्ञान के अधिकारी बन सकते हैं, जो हमें दृढ निश्चयी बनाता है, समता सिखाता है. स्वयं को भुलाकर, अहम् त्याग कर जब हम कृष्ण के सम्मुख जाते हैं तो उनकी कृपा, जो सदा बरस ही रही है हमें भी मिलने लगती है, उनके सामने हमारी उपलब्धियों की कोई कीमत नहीं. यदि हमें मान चाहिए तो प्रभु के सम्मुख नहीं आना चाहिए. अहंकार को पोषणा नहीं है उसे तोडना है तभी हम कृष्ण के निकट आ सकते हैं.   

Saturday, August 20, 2011

उपवास


अक्तूबर २००१ 

उपवास के दिन जीवनी शक्ति सुव्यवस्थित होती है, उपवास का अर्थ है आत्मा के निकट रहना. शरीर व मन को इससे लाभ होता है, यदि यह लाभ भी ईश्वर अर्पण कर दें तो विशेष लाभ होता है. क्योंकि जीवात्मा परमात्मा का सनातन अंश है, जो कण-कण में व्याप्त है जो घट-घट में बोल रहा है जो स्वयं चेतन है पर जडरूप में प्रकट हुआ है, उसी की एक मात्र सत्ता है वही हमारा अपना आप है जिसे ढूँढने हमें कहीं जाना नहीं है बस मन को उसके साथ संयुक्त रखना है, मन का मूल वही है सो उपवास के दिन मन को अपने आप में टिकाये रखने का अभ्यास करना है. उपवास का अर्थ यही है.

Friday, August 19, 2011

ईश्वरीय प्रेम


अक्तूबर २००१  

निशब्द परमात्मा तक पहुंचने के लिए शब्दों की एक नाव बनानी पडती है, पर अंततः शब्द भी छूट जाते हैं क्योंकि वह शब्दातीत है. हमारे मन में असीम सामर्थ्य है जो हम चाहें उसे वह अनुभूत करा सकता है, मन की वृत्ति में यदि ईश्वरीय प्रेम हो तो वही प्रगट होगा, यह भाव सतत बना रहे तो ईश्वर हमारे मन का स्वामी बन जाता है, उसी का अधिकार हृदय पर हो जाता है और इसके बाद समता स्वयं ही प्राप्त हो जाती है. ईश्वर की समीपता का अनुभव करते हुए मन में जो नकारात्मक विचार आयें उन्हें ठहरने न देना और जो सकारात्मक विचार आयें उन पर ही ध्यान केंद्रित करने से समरसता बनी ही रहती है. 

Thursday, August 18, 2011

अनुशासन


अक्तूबर २००१ 

जीवन में कुछ नियमों के पालन से मार्ग प्रशस्त हो जाता है और हम मुक्ति की ओर स्वतः ही चल पड़ते हैं. अनुशासन और नियंत्रण हमारे जीवन को बंधन मुक्त ही करते हैं बंधन में डालते नहीं हैं. परमात्मा का लक्ष्य रहने से वही हमारी जिम्मेदारी ले लेते हैं, जीवन तब जिस किसी रूप में हमारे सम्मुख आता है मुक्त हृदय से उसका स्वागत करना हम सीखते हैं. 

Wednesday, August 17, 2011

साधना और श्रद्धा


सितम्बर २००१ 

साधक जब अभ्यास में गहरे उतरता है, उसे कई अनुभव होने लगते हैं, और सारा विषाद न जाने कहाँ चला जाता है. अनंत सुख हमारे भीतर है कबीर ने कहा है “ मोहे सुन सुन आवे हांसी, पानी विच मीन पियासी” मनुष्य के पास श्रद्धा, ज्ञान और उस परम से जुड़ने की कला है. अव्यक्त को व्यक्त करने की सामर्थ्य मानव में ही है. श्रद्धा के बिना वह यंत्र के समान हो जाता है, श्रद्धा के साथ साथ उत्साही व संयमी होने से ज्ञान का अधिकारी शीघ्र ही हुआ जा सकता है. धर्म का तत्व तर्क-वितर्क करके नहीं दिया जा सकता, वह तो हृदय से ही अनुभव किया जा सकता है.

Tuesday, August 16, 2011

साधना


सितम्बर २००१ 

साधक का एकमात्र लक्ष्य उस परम ब्रह्म को प्रसन्न करना है. आसक्ति व विरक्ति दोनों से विमुक्त वह जीवन को सहज रूप में जीता है. वह यह जानता है कि परमपिता हर क्षण उसके साथ है, उसका अभिन्न अंग है, अतः पग-पग पर वह सचेत रहता है ताकि उसके मधुर प्रेम को प्राप्त करता रहे. संसार हमें लोभी, कपटी व अहंकारी बनाता है और ईश्वर हमें उदार बनाता है ! शास्त्रों के अर्थ वही खोलता है, हमारी कुशल-क्षेम का भार अपने पर लेकर वह हमें मुक्त कर देता है.

Thursday, August 11, 2011

परम और लघु चेतना


ध्यान में ईश्वर की परम चेतना के समान जब हमारी लघु चेतना हो जाती है तो हमारा मन स्थिर हो जाता है. भौतिक वस्तुओं में जब तक मन लगता है अस्थिर रहता है क्यों कि दोनों ही बदलने वाले हैं, स्थिर तो केवल एक मात्र परम चेतना ही है, उसे खोजने कहीं दूर नहीं जाना है वह हमारे भीतर ही है. प्रेम ही उस तक पहुंचने का मार्ग है उसे भी हमारा उतना ही ख्याल है जितना हमें उसका. वह हमारा कुशल-क्षेम रखने को तैयार है सिर्फ हमें ही पूर्ण समर्पित होना है. 

Tuesday, August 9, 2011

सहज ध्यान

अगस्त २००१ 

यह जीवन जो हमें ईश्वर से उपहार स्वरूप मिला है, उसी का दिया है, वही इसे चलाता, पोषता और सम्भालता है. फिर भी हम कहते हैं उसके लिए हमारे पास समय नहीं है. सारा समय तो उसी का है. उसको पाना कितना सरल है., कितना सहज जैसे श्वास लेना लेकिन हम ढंग से श्वास भी तो लेना नहीं जानते. उथली श्वास लेते हैं जो उथले विचारों को दर्शाती है. श्वास के प्रति जागरूक रहकर हम वर्तमान में रह सकते हैं अन्यथा भूत या भविष्य की कल्पनाएँ हमारा पीछा नहीं छोडती. यह सहज ध्यान है.

Monday, August 8, 2011

ईश्वरीय योग


अगस्त २००१ 
भगवद्गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं कि योग को प्राप्त हुआ व्यक्ति सुख-दुःख, हानि-लाभ, मान-अपमान अदि द्वंद्वों में सम रहता है. हम अपने जीवन को देखें तो जब भी हम सांसारिक विषयों के बारे में बात करते हैं तो हानि-लाभ की तराजू में टोल कर करते हैं, अपने विषय में बात करते हैं तो विषाद या आत्मप्रशंसा के अतिरिक्त कोई तीसरा भावआता ही नहीं. दूसरों के बारे में बात करते हैं तो भी हम तटस्थ नहीं रह पते, निंदा या स्तुति के भाव से घिरे रहते हैं, और असत्यभाषी भी हो जाते हैं. सर्वोत्तम यही है कि हम ऐसे विषयों का चिंतन करें जो भगवद्भाव से जुड़े हों. जिसमें समता बनी ही रहेगी, जैसे परहित, परोपकार, स्नेह और पवित्रता से जुड़े भाव. अपने विचारों, कर्मों, व वाणी के प्रति प्रतिपल सजग रह कर ही कोई योग को प्राप्त हो सकता है. 

Thursday, August 4, 2011

ईश्वर की खोज


 अगस्त २००१ 
जब हम उसे ढूँढते हैं तो वह हमें नहीं मिलता. पर जब हम ढूँढते-ढूँढते खो जाते हैं तो वह हमें ढूँढता है. ईश्वर के मार्ग की रीत बिल्कुल उलटी है यहाँ मिलता उसी को है जो छोड़ने को तैयार हो. हमें तो बस उसे याद करते जाना है, हमारी हर श्वास पर उसका अधिकार है, हमारे पास अभिमान करने जैसा कुछ है तो यही कि हमने मानव जन्म पाया है और सत्संग के द्वारा सत्य के प्रति आस्था मन में जगी है, अब इसको सार्थक करना या इसे व्यर्थ बिता देना हमारे अपने हाथ में है.

Wednesday, August 3, 2011

स्वर्ग-नर्क


जुलाई २००१ 
जब हमारे दिल मिले हों, स्वर्ग निकट है. मन जब झील के शांत पानी की तरह स्वच्छ और स्थिर होगा तो आत्मा की झलक हम देख पाएंगे. जब भौतिक वस्तुओं का उतना ही आदर होगा जिसके वे योग्य हैं तो हम स्वर्ग के निकट हैं. जब अपने को श्रेष्ठ दिखाने के लिये हम दूसरे को तुच्छ मानते हैं तो नर्क में ही होते हैं. हमारे मन में कामना यदि संसार की होगी तो पूरी होने पर अहंकार को तथा पूरी न होने पर विषाद को जन्म देगी. कामना परम की होगी तो शांति का अनुभव पहले ही होने लगता है... पूरी होने के बाद की शांति की तो हम कल्पना ही कर सकते हैं...अर्थात अपना स्वर्ग व नर्क हम स्वयं ही गढ़ते हैं.